Tuesday, 23 December 2025

क्यों नहीं सुनाई देती बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यक की पुकार?

क्यों नहीं सुनाई देती बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यक की पुकार

बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार अब किसी एक घटना या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहे, बल्कि यह एक लगातार गहराता मानवीय संकट बन चुका है। मंदिरों पर हमले, झूठे ईशनिंदा आरोपों के नाम पर हत्याएं, घर-जमीन पर कब्ज़ा, सामाजिक बहिष्कार और भय के वातावरण में जीने को मजबूर हिंदू समुदाय, यह तस्वीर किसी एक दशक की नहीं, बल्कि बांग्लादेश के गठन के बाद से चली रही एक त्रासदी की निरंतरता है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इस पीड़ा पर वैश्विक, राष्ट्रीय और सामाजिक स्तर पर लगभग मौन पसरा हुआ है। भारत सरकार की प्रतिक्रिया सीमित है, विपक्षी दलों की आवाज़ नदारद है, मुख्यधारा मीडिया इसे हाशिये की खबर बनाकर छोड़ देता है और संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच भी गंभीर हस्तक्षेप से बचते नज़र आते हैं। धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाएं, जो मानवता और नैतिकता की बात करती हैं, वे भी असहज चुप्पी साधे हुए हैं। इस चुप्पी के बीच बांग्लादेश से हिंदुओं का तेज़ी से हो रहा पलायन इस बात का प्रमाण है कि हालात कितने असहनीय हो चुके हैं। हालिया दिनों में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बयान इस मुद्दे को फिर केंद्र में लाता है और एक बड़ा सवाल खड़ा करता है, क्या भारत सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही, या फिर यह राजनीतिक-कूटनीतिक विवशता है? यही सवाल इस पूरे विमर्श की धुरी है, 1971 में जब बांग्लादेश ने जन्म लिया, तब वह केवल एक नया राष्ट्र नहीं था, बल्कि एक विचार था - भाषा, संस्कृति और पहचान की लड़ाई का विचार। यह संघर्ष धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि बंगाली बनाम पाकिस्तानी वर्चस्व के खिलाफ था। उसी संघर्ष से निकला बांग्लादेश अपने संविधान में सेक्यूलर मूल्यों को लेकर आगे बढ़ा। लेकिन पांच दशक बाद आज वही देश धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक अस्थिरता और अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती हिंसा की आग में झुलस रहा है। सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता बांग्लादेशी हिन्दूस ने केवल एक हैशटैग नहीं, बल्कि उस पीड़ा की गूंज है, जिसे दुनिया सुन तो रही है, लेकिन देख कर भी अनदेखा कर रही है 

सुरेश गांधी

बांग्लादेश का आज का अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय अपनी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पीढ़ियों से वहां बसे हिंदुओं को कथित धार्मिक आरोप, भीड़ हिंसा, स्थानीय विवाद, ईशनिंदा के झूठे आरोप और समुदाय-आधारित हमलों का सामना करना पड़ रहा है। इन घटनाओं के चलते कई परिवारों को घर छोड़ कर भागना पड़ा, उनकी आजीविका नष्ट हुई, मंदिरों पर हमले और धार्मिक स्थलों का अपमान हुआ, और सामाजिक सुरक्षा गंभीर रूप से कमज़ोर पड़ी है। इस संकट के बावजूद, भारत सरकार, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इतनी मुखर प्रतिक्रिया क्यों नहीं दिख रही, यह आज एक बड़ा चर्चा-विषय है। खास यह है कि बांग्लादेश में हिन्दू युवक दीपू दास की मॉब लिंचिंग के बाद तनाव बढ़ गया है. 18 दिसंबर को उसे झूठे आरोप में भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था. दीपू दास कपड़ा फैक्ट्री में काम करता था और उस पर ईश निंदा का गलत आरोप लगाया गया था. इस घटना के विरोध में भारत और बांग्लादेश दोनों देशों में हिन्दू समुदाय सड़कों पर आकर इंसाफ की मांग कर रहा है. बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं, जिस कारण स्थानीय लोगों में रोष फैल रहा है.

1947 के विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में हिंदुओं की आबादी लगभग 30 प्रतिशत थी। 1971 में आज़ादी के वक्त भी उनकी संख्या उल्लेखनीय थी। लेकिन 80 के दशक में हालात बदले। जनरल जिया उर रहमान और बाद में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के शासनकाल में बांग्लादेश के संविधान से सेक्यूलर भावना को कमजोर किया गया। इस्लाम को राज्य धर्म घोषित किया गया और संविधान मेंबिस्मिल्लाह-इर-रहमान-इर-रहीमजोड़ा गया। यहीं से धार्मिक पहचान को राजनीति का औजार बनाने की प्रक्रिया तेज हुई। आज बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे हमलों की सबसे बड़ी वजह इस्लामिक कट्टरपंथ और राजनीतिक अस्थिरता है। अंतरिम सरकार कमजोर है, प्रशासनिक पकड़ ढीली है। कट्टरपंथी समूहों को खुली छूट मिल रही है। हिंदुओं कोभारत समर्थकऔरबाहरीबताकर निशाना बनाया जा रहा है। जमात--इस्लामी जैसी पार्टियां बांग्लादेश को एक शुद्ध इस्लामिक राष्ट्र के रूप में देखती हैं। उनकी सोच में हिंदुओं के लिए नागरिकता की जगह है, सुरक्षा की गारंटी।

बांग्लादेशी समाज आज साफ तौर पर दो हिस्सों में बंटा दिखता है, संवैधानिक सोच वाला वर्ग, जो मानता है कि हिंदू भी इसी देश के नागरिक हैं और उन्हें समान अधिकार मिलने चाहिए। कट्टरपंथी सोच, जो हिंदुओं को देश से बाहर करना चाहता है और हिंसा को जायज मानता है। दुर्भाग्य यह है कि दूसरी सोच ज्यादा मुखर और हिंसक होती जा रही है। हालिया घटनाओं में दीपू चंद्र दास की मॉब लिंचिंग ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया। ईशनिंदा के झूठे आरोप में एक युवा हिंदू को पीट-पीटकर मार दिया गया, पेड़ से लटकाया गया और फिर शव जला दिया गया। बांग्लादेश की प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने इसे खुला जिहादी अपराध बताया। उनका सवाल सीधा है, “अब दीपू के परिवार का क्या होगा? क्या सरकार उस परिवार के लिए कुछ करेगी?” तस्लीमा नसरीन पहले ही चेतावनी दे चुकी हैं कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले कोई नई बात नहीं हैं। उनकी किताबलज्जाबाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए हिंदू-विरोधी दंगों की सजीव गवाही है।

बता दें, 2025 में बांग्लादेश के विभिन्न स्थानों पर हिंदू समुदाय पर लक्षित हमलों की नई श्रृंखलाएँ देखी गईं : डिपु चन्द्र दास की हत्या (18 दिसंबर 2025) : एक हिंदू युवक को ईशनिंदा के आरोप में भीड़ ने बेरहमी से मार डाला और शव को आग के हवाले कर दिया गया। इस घटना के बाद स्थानीय प्रशासन ने दस लोगों को गिरफ्तार किया है। गंगाचारा हमला (26 - 27 जुलाई 2025) : रांगपुर जिले के इस उप-क्षेत्र में हिंदू परिवारों के घरों को तोड़ा, लूटा और कई लोग भय के कारण पलायन करने को मजबूर हुए। झूठे ईशनिंदा आरोप : जून 2025 में लालमनिरहाट जिले में एक 69 वर्षीय हिंदू बुजुर्ग नाई को झूठे ईशनिंदा आरोप में भीड़ ने पीटा, जिससे स्पष्ट होता है कि ऐसे आरोप अल्पसंख्यक समुदायों पर उत्पीड़न का नया हथियार बन रहे हैं। कई जगह मंदिरों और धार्मिक संस्थाओं पर निशाना बनाया गया, वहां आग लगाई गयी और धार्मिक प्रतीकों को अपमानित किया गया। आज बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी घटकर 7 से 8 प्रतिशत रह गई है। यह गिरावट केवल जनसंख्या का आंकड़ा नहीं, बल्कि डर, पलायन, हिंसा और राज्य की उदासीनता का परिणाम है। हिंदू आज अपने ही देश में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

हिंसा के पीछे अंतरराष्ट्रीय साजिश के संकेत भी सामने रहे हैं। बांग्लादेशी पत्रकारों के अनुसार पाकिस्तान की आईएसआई ने ढाका में एक सीक्रेट सेल सक्रिय किया है, जो जमात--इस्लामी को सत्ता में लाने के लिए माहौल बना रहा है। ड्रग्स तस्करी, नकली नोट और अराजकता के जरिए देश को अस्थिर किया जा रहा है। छात्र नेता शरीफ उस्मान हादी की हत्या के बाद भड़की हिंसा उसी साजिश की कड़ी मानी जा रही है। इन हमलों के खिलाफ स्थानीय समुदायों और कुछ संगठनों ने विरोध प्रदर्शन भी किये हैं। कुछ धार्मिक संस्थानों ने इस मुद्दे को उठाया है। इस्कॉन कोलकाता ने हिंदुओं के खिलाफ नियमित हत्या और जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाया है तथा अंतरराष्ट्रीय चुप्पी पर सवाल उठाया है। लालमनिरहाट तथा कुछ जिलों में हिन्दू समुदायों ने जमीन खोने और अपनी आजीविका नष्ट होने का अनुभव किया। 2022 की जनगणना के अनुसार, बांग्लादेश में लगभग 13.1 मिलियन हिंदू रहते थे, जो कुल आबादी का लगभग 7.95 फीसदी है। अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले सहित हिंसा के कई मामलों की पुष्टि सरकारी और सोशल मीडिया रिपोर्टों में की गई है।

उच्चस्तरीय हिंसा और सामाजिक असुरक्षा के कारण 2020 के दशक में बने संकट के बीच कई हिंदू परिवारों को पलायन की राह पकड़नी पड़ी। ये लोग सिर्फ अपनी संपत्ति और जमीन खो बैठे, बल्कि कई बार अपनी पहचान और सुरक्षा भी खो बैठे। हालांकि हाल ही में भारत सरकार ने बांग्लादेश में हिंदू युवक की हत्या पर अपनी चुप्पी थोड़ी तोड़ी और बांग्लादेश सरकार से दोषियों के खिलाफ कार्रवाई और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग की है। कुछ राजनीतिक और सामाजिक नेताओं ने भी केंद्र सरकार से सख्त कदम उठाने की मांग की है, लेकिन यह प्रतिक्रिया व्यापक राष्ट्रीय विमर्श का रूप नहीं ले पाई है। व्यापक राजनीतिक दलों की चुप्पी को लेकर आलोचना जोरों पर है कि केवल कुछ नेताओं या संगठनों के बयान ही केंद्रित हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर नीति-निर्माता पर्याप्त संकल्प नहीं दिखा रहे हैं। भारत के मुख्यधारा मीडिया में फिलिस्तीन, इस्राएल-फिलिस्तीन संघर्ष पर विशेष कवरेज देखा जाता है। लेकिन बांग्लादेश में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों की नियमित, गंभीर और निरंतर रिपोर्टिंग अक्सर सीमित या साइडलाइन में रहती है। इस अंतर को लेकर आलोचना सामने आई है कि मीडिया चयनात्मक संवेदना का परिचय दे रहा है।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मंचों पर बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के मुद्दे को लेकर विशिष्ट या लगातार कार्रवाई की कोई प्रमुख पहल सामने नहीं आई है। यह एक बड़ा सवाल बनता है, क्या अल्पसंख्यक समुदाय के उत्पीड़न को वैश्विक स्तर पर पर्याप्त ध्यान और गंभीरता से नहीं लिया जा रहा? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने कोलकाता में स्पष्ट किया है कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार की समस्या बहुत गंभीर है और भारतीय समाज तथा वैश्विक हिंदुओं को इसमें मदद करनी चाहिए। उन्होंने चेताया कि हिंदू समाज को एकजुट होना चाहिए, और यह कि भारत सरकार को इस मुद्दे को गंभीरता से लेना चाहिए। भागवत ने यह भी कहा कि हर बार प्रतिक्रियाओं में कुछ तो खुलासा और कुछ छिपा रहता है, लेकिनकुछ कुछ करना होगा”, इस संकेत के साथ उन्होंने केंद्र सरकार पर सक्रिय भूमिका की अपेक्षा जताई है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, क्या भारत सरकार कुछ कर सकती है? आगे क्या संभावनाएँ हैं? यहाँ कुछ स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं जो भारत सरकार के विकल्प हो सकते हैं :

1. कूटनीतिक दबाव और वाता :- भारत निदेशक-स्तर की सैन्य, कूटनीतिक तथा व्यापारिक दबाव का उपयोग कर सकता है ताकि बांग्लादेश सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। यह उच्चस्तरीय राजनयिक संवाद और संयुक्त बयानबाजी के जरिए भी किया जा सकता है।

2. संयुक्त राष्ट्र में सक्रिय पहल : भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और मानवाधिकार परिषद में उपस्थिति के माध्यम से परिस्थितियों को उद्घाटित, धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ प्रस्ताव पेश और मानवाधिकार निगरानी का आह्वान कर सकता है।

3. मानवतावादी सहायता और शरण नीति : भारत प्रभावित हिंदू परिवारों को मानवतावादी सहायता, शरण तथा पुनर्वास संबंधी नीतियां प्रदान कर सकता है, ताकि अल्पसंख्यकों को सुरक्षित आसरा मिल सके।

4. मीडिया और जन-जागरूकता अभियान : सरकार और समाज को मिलकर जन-जागरूकता अभियान, रिपोर्टिंग और संलग्नता बढ़ानी चाहिए, ताकि सार्वजनिक विमर्श में यह मुद्दा लगातार बना रहे।

मतलब साफ है बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा और उत्पीड़न कई स्तरों पर चुनौतीपूर्ण और संवेदनशील है। स्थानीय तनाव, धार्मिक आरोप, राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक असुरक्षा ने इस समस्या को जटिल रूप दिया है। हालांकि भारत सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन व्यापक कूटनीतिक, वैश्विक मानवाधिकार मंचों पर और संयोजित राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। मोहन भागवत जैसे नेताओं के बयान इस दिशा में एक स्पष्ट संकेत हैं किकुछ कुछ किया जाना चाहिए”, परंतु नीति-निर्माताओं और समाज को मिलकर व्यापक, संगठित और निरंतर प्रयास की आवश्यकता है, ताकि पीड़ित अल्पसंख्यकों की दर्दनाक पुकार का समाधान हो सके। सबसे बड़ा सवाल यह है कि मानवाधिकार संगठनों की आवाज़ इतनी धीमी क्यों है? पश्चिमी देश, जो लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों की बात करते हैं, बांग्लादेश के हिंदुओं पर चुप क्यों हैं? जब कहीं और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होता है, तो अंतरराष्ट्रीय मंच सक्रिय हो जाते हैं। लेकिन बांग्लादेशी हिंदुओं के मामले में यह चुप्पी चिंता पैदा करती है। मतलब साफ है बांग्लादेश आज जिस मोड़ पर खड़ा है, वह केवल उसका आंतरिक संकट नहीं है। यह पूरे उपमहाद्वीप की स्थिरता से जुड़ा सवाल है। यदि कट्टरता, राजनीति और हिंसा का यह सिलसिला नहीं रुका, तो बांग्लादेश अपने 1971 के सेक्यूलर सपने से और दूर चला जाएगा। हिंदुओं की सुरक्षा केवल बांग्लादेश का आंतरिक मामला नहीं, बल्कि मानवता और लोकतंत्र की वैश्विक परीक्षा है। अब देखना यह है कि दुनिया केवल वीडियो देखेगी या सच में कुछ बोलेगी। 

क्यों नहीं सुनाई देती बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यक की पुकार?

क्यों नहीं सुनाई देती बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यक की पुकार ?  बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार अब ...