वोट चोरी का शोर, सबूत कहीं नहीं... विपक्ष की साख पर सवाल
भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि जनता का फैसला मानने की जगह विपक्ष अब हर बार चुनाव आयोग और भाजपा को कटघरे में खड़ा कर देता है। आरोप लगाया जाता है कि भाजपा लगातार तीन बार वोट चोरी करके सत्ता में आई। सवाल यह है कि अगर जनता का जनादेश ही मान्य नहीं, तो फिर लोकतंत्र का अस्तित्व किस लिए है? 2014 के पहले तक दशकों तक कांग्रेस और विपक्ष ही सत्ता में रहे। भाजपा को मुश्किल से कुछ वर्षों का ही कार्यकाल मिला। फिर अचानक मोदी लहर आई और भाजपा को लगातार बहुमत मिला। यह जीत महज़ “वोट चोरी” नहीं हो सकती। सर्वेक्षणों से लेकर बूथ स्तर तक भाजपा ने जिस तरह संगठन खड़ा किया और जनता का विश्वास जीता, वही उसकी जीत का कारण बना। दरअसल, विपक्ष अपनी नाकामी छिपाने के लिए अब संस्थाओं को कटघरे में खड़ा करने की रणनीति अपना रहा है। आजादी के बाद से लेकर 2014 तक जिन संस्थाओं को विपक्ष ने अपना हथियार बनाकर रखा, अब वही संस्थाएं चोर लग रही हैं? क्या चुनाव आयोग, ईवीएम, सुप्रीम कोर्ट और यहाँ तक कि मतदाता तक सब गलत हैं और केवल विपक्ष ही सही? सच्चाई यह है कि जनता विपक्ष की कथनी-करनी को देख चुकी है। लालू यादव चारा घोटाले में दोषी ठहराए जा चुके हैं। राहुल गांधी बेल पर हैं और उनकी पार्टी पर अरबों के घोटाले के गंभीर आरोप हैं। जो दल खुद भ्रष्टाचार की दलदल में फंसे हैं, वे दूसरों पर ईमानदारी का पाठ कैसे पढ़ा सकते हैं? असल सवाल यह है कि विपक्ष हर बार हार को “चोरी” क्यों बता देता है? क्या यह मतदाता की समझदारी पर सवाल नहीं है? भाजपा को जनता ने बार-बार चुना है क्योंकि उसने आशा दिखाई है। विपक्ष यदि सबूत नहीं दे सकता तो उसे आरोप लगाने का अधिकार भी नहीं है। लोकतंत्र को बचाना है तो विपक्ष को झूठे आरोपों की राजनीति छोड़कर जनता से जुड़ना होगा। वरना जनता यह भी समझती है कि जो हारते हैं, वही सबसे ज़्यादा शोर मचाते हैं
सुरेश गांधी
वोटर भारतीय लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ है। उसकी नीयत और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाना न केवल अन्याय है बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करने का प्रयास भी। विपक्ष को यह याद रखना चाहिए कि जनता सब समझती है और आखिरकार वही फैसला सुनाती है। विपक्ष को केवल आरोपों के बजाय सबूतों और कानूनी रास्तों का सहारा लेना चाहिए। चुनाव आयोग को प्रक्रिया की पारदर्शिता और जनता के भरोसे को सर्वोपरि रखना चाहिए। सरकार को नागरिकता का एक सर्वमान्य और ठोस प्रमाणपत्र (यूनिवर्सल सिटिजन कार्ड) देना होगा। आजादी के 78 साल बाद भी अगर यह सवाल बना हुआ है कि “कौन भारतीय है?”, तो यह केवल हास्यास्पद ही नहीं बल्कि लोकतांत्रिक विफलता है। मतदाता सूची पर चल रही यह बहस केवल बिहार का मुद्दा नहीं, बल्कि पूरे भारत की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता की परीक्षा है।
चुनाव आयोग को सिद्ध करना होगा कि एसआईआर न केवल वैधानिक है, बल्कि लोकतंत्र को मजबूत करने का प्रयास है, न कि उसे कमजोर करने वाला कदम। पारदर्शिता बनाए रखना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। विपक्ष को कहना चाहिए कि वह “वोट चोरी“ जैसे नारे छोड़कर ठोस तथ्य और कानूनी प्रक्रिया पर भरोसा रखे। जनता अब केवल आरोपों से प्रभावित नहीं होती, उसे साक्ष्य और समाधान चाहिए। नियम और संस्थान, जैसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश, रिप्रजेंटेशन आफ दी पिपुल एक्ट, 1950, और अन्य, जब लोकतंत्र की रक्षा के लिए काम करते हैं, तो उन्हें राजनीतिक लाभ से ऊपर रखा जाना चाहिए.
भारत का लोकतंत्र अपनी मजबूती और व्यापकता के लिए पूरी दुनिया में सराहा जाता है। लेकिन यही लोकतंत्र तब सवालों के घेरे में आ जाता है जब मतदाता सूची पर विवाद खड़ा होता है। ताज़ा मामला बिहार का है, जहां विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की प्रक्रिया को लेकर बड़ा राजनीतिक तूफ़ान खड़ा हो गया है।
मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार ने अपनी हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में विपक्ष के आरोपों का जिस आक्रामक और स्पष्ट शब्दों में जवाब दिया, उसने बहस को नया मोड़ दे दिया है। विपक्ष, खासकर इंडिया गठबंधन का आरोप है कि एसआईआर प्रक्रिया के नाम पर मतदाता सूची से छेड़छाड़ कर बीजेपी को चुनावी लाभ पहुंचाने की तैयारी हो रही है। जबकि चुनाव आयोग का कहना है कि यह महज आरोप है, जिसका कोई ठोस आधार नहीं है। आयोग ने इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने की रणनीति करार दिया। यह विवाद केवल बिहार का नहीं है, बल्कि देश के लोकतंत्र, मतदाता की पहचान और नागरिकता के सवालों से गहराई से जुड़ा है। दरअसल, भारतीय राजनीति में चुनाव से पहले “वोट चोरी” का मुद्दा उठाना नई बात नहीं है। बिहार की राजनीति तो दशकों से इस आरोप की छाया में रही है। कभी पूरे मुहल्ले के मुहल्ले मतदाता सूची से गायब हो जाते थे, तो कभी मृत लोगों के नाम से वोट पड़ते थे। लेकिन अब तकनीकी साधनों और सतर्क मतदाताओं के कारण हालात बदल चुके हैं। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बिहार एसआईआर प्रक्रिया में 1.6 लाख से अधिक बूथ स्तर एजेंटों (बीएलए) और राजनीतिक दलों की भागीदारी रही। फिर भी विपक्ष ने बिना सबूत यह कहना शुरू किया कि आयोग बीजेपी के इशारे पर “वोट चोरी” करवा रहा है।
सीईसी का यह बयान कि “कुछ दल चुनाव आयोग के कंधे पर बंदूक रखकर मतदाताओं को निशाना बना रहे हैं” भले ही विपक्ष को नागवार गुज़रा हो, मगर यह सच्चाई से दूर भी नहीं। दरअसल विपक्ष ने आयोग के खिलाफ नरेटिव खड़ा करके राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की है। इस विवाद का सबसे बड़ा पहलू सीसीटीवी फुटेज है। विपक्ष चाहता है कि मतदाता सूची की अनियमितताओं के सबूत सार्वजनिक किए जाएं। जवाब में ज्ञानेश कुमार ने कहा, क्या चुनाव आयोग को किसी भी मां, बहन, बेटी के सीसीटीवी वीडियो मीडिया में साझा करने चाहिए? हालांकि यहां दो अहम पहलू हैं. विपक्ष का तर्क है, पारदर्शिता के लिए सबूत सार्वजनिक करना ज़रूरी है। आयोग का कहना है कि मतदाताओं की निजता संवैधानिक अधिकार है, इसे किसी भी कीमत पर भंग नहीं किया जा सकता। मतलब साफ है, सच इन दोनों के बीच कहीं है। सीसीटीवी फुटेज को मीडिया में सार्वजनिक करना निजता का उल्लंघन होगा। पर आयोग को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि दोनों पक्षों की मौजूदगी में फुटेज की जांच हो। इस “बीच के रास्ते” से ही पारदर्शिता और निजता दोनों सुरक्षित रह सकती हैं।
बता दें, जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 की धारा 80 और 81 स्पष्ट कहती है कि चुनाव परिणाम घोषित होने के 45 दिनों के भीतर ही किसी भी उम्मीदवार या दल को हाई कोर्ट में चुनाव याचिका दायर करनी होगी। ज्ञानेश कुमार का कहना था कि विपक्ष ने समय रहते यह कानूनी कदम नहीं उठाया और अब केवल मीडिया में आरोप लगा रहा है। यह बात तथ्यात्मक रूप से सही है। कर्नाटक के बर्खास्त मंत्री राजन्ना ने भी कहा था कि “जब महादेवपुरा में फर्जी वोट बन रहे थे तब सरकार क्यों सोई?”। यह सवाल विपक्ष पर बिहार में भी लागू होता है। अगर सचमुच मतदाता सूची में गड़बड़ी थी, तो कांग्रेस या राजद को समय रहते आपत्ति दर्ज करानी चाहिए थी।
बिहार विवाद में “जीरो नंबर वाले पते” पर भी सवाल उठे। विपक्ष ने इसे गड़बड़ी बताया। लेकिन सीईसी ने स्पष्ट किया कि देश भर में करोड़ों घरों को आज तक कोई आधिकारिक नंबर आवंटित नहीं किया गया है, खासकर ग्रामीण और अनधिकृत कॉलोनियों में। ऐसे मामलों में बूथ स्तर अधिकारी (बीएलओ) मतदाता सूची में पता “जीरो नंबर” दर्ज करते हैं। यह कोई षड्यंत्र नहीं बल्कि दशकों से चली आ रही प्रशासनिक लापरवाही का परिणाम है। यह हमारे शासन तंत्र की कमजोरी है कि आज भी करोड़ों भारतीयों का आधिकारिक पता तक दर्ज नहीं है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि “आधार, पैन और वोटर कार्ड नागरिकता साबित नहीं करते”। सुप्रीम कोर्ट ने भी यही मत दोहराया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि जिन दस्तावेजों पर अब तक नागरिकता का भरोसा किया गया, वे केवल पहचान पत्र हैं, नागरिकता प्रमाणपत्र नहीं। यह स्थिति बेहद चिंताजनक है क्योंकि देश के 95 करोड़ मतदाता अब एक सवाल के साथ खड़े हैं, “अगर ये कार्ड नागरिकता का सबूत नहीं तो नागरिकता किससे साबित होगी?” यही कारण है कि विशेषज्ञ अब यूनिवर्सल सिटिजन कार्ड की ज़रूरत पर जोर दे रहे हैं, जैसा अमेरिका का सोशल सिक्योरिटी नंबर या ब्रिटेन का नेशनल इंश्योरेंस नंबर है.विपक्ष की रणनीति और आयोग की चुनौती
विपक्ष को लगता है कि “वोट चोरी” जैसे भावनात्मक मुद्दे उठाकर वह बीजेपी को घेर सकता है। लेकिन जनता अब केवल आरोपों से संतुष्ट नहीं होती, वह ठोस सबूत और विकास की बहस चाहती है। चुनाव आयोग की चुनौती यह है कि वह पारदर्शिता और निजता के बीच संतुलन बनाए। अगर आयोग केवल कानूनी तर्कों से विपक्ष को खारिज करेगा तो संदेह का माहौल बनेगा। पारदर्शी प्रक्रिया अपनाकर ही आयोग जनता के विश्वास को मजबूत कर सकता है। भारतीय लोकतंत्र की ताकत उसका मतदाता (वोटर) है। वही इस व्यवस्था का वास्तविक मालिक है, क्योंकि उसकी एक वोट से सत्ता के समीकरण बदलते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आज राजनीति में अक्सर मतदाता के विवेक और विश्वास पर ही सवाल उठाए जाते हैं।
विपक्ष जब-तब “वोट चोरी” और “ईवीएम गड़बड़ी” का शोर मचाता है, मानो जनता का जनादेश उन्हें स्वीकार ही न हो। बिहार चुनाव इसका ताज़ा उदाहरण है। जब जनता ने अपना फैसला सुना दिया तो विपक्ष ने हार को स्वीकारने के बजाय चुनाव आयोग और व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। विपक्ष ने दावा किया कि वोट चोरी हुई है, लेकिन अब तक इन आरोपों के समर्थन में कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आ पाया। इससे यह संदेश जाता है कि विपक्ष सिर्फ भ्रम फैलाकर अपनी हार का ठीकरा आयोग पर फोड़ना चाहता है।
क्या सच में वोट चोरी संभव है?
भारत दुनिया का
सबसे बड़ा लोकतंत्र है
और चुनाव आयोग इसकी सबसे
मज़बूत संस्थाओं में से एक।
आयोग की साख और
निष्पक्षता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी
स्वीकार की जाती है।
लाखों कर्मचारी, सुरक्षा बल और तकनीकी
व्यवस्था एक चुनाव को
निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने
में लगे रहते हैं।
ऐसे में यह कहना
कि हर बार वोट
चोरी हो जाती है,
न केवल आयोग बल्कि
जनता के फैसले का
भी अपमान है।
असली मुद्दों से भटकाना
सच यह है
कि विपक्ष जब जनता से
जुड़ने और उनके असली
मुद्दों पर बात करने
में असफल होता है,
तो वह ‘वोट चोरी’
जैसे बहाने ढूंढकर अपनी नाकामी छुपाना
चाहता है। बेरोजगारी, शिक्षा,
महंगाई और स्वास्थ्य जैसे
वास्तविक मुद्दों पर गंभीर विमर्श
के बजाय यह केवल
जनता को भ्रमित करने
का एक हथकंडा बनकर
रह गया है।
लोकतंत्र में मतदाता सर्वोपरि
भारत का मतदाता
अब पहले से अधिक
जागरूक है। वह हर
चाल को समझता है
और भावनाओं में बहने के
बजाय अपने विवेक से
निर्णय लेता है। विपक्ष
को यह समझना होगा
कि लोकतंत्र में जीत-हार
स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि वे
जनता का विश्वास जीतना
चाहते हैं तो झूठ
और आरोपों की राजनीति छोड़कर
वास्तविक मुद्दों और ठोस विकल्पों
के साथ मैदान में
उतरना होगा।
लोकतंत्र की कसौटी
भारत का लोकतंत्र
तभी मजबूत रहता है जब
मतदाता की संप्रभुता और
वोट की पवित्रता दोनों
की रक्षा हो। परंतु, बिहार
में चल रही विशेष
गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया ने इस लोकतांत्रिक
विश्वास की नींव पर
सवाल खड़ा कर दिया
है। भारत निर्वाचन आयोग
(ईसीआई) की यह कार्रवाई
तत्कालीन चुनाव से पहले पारदर्शिता
बहाल करने की कोशिश
दिखती है, लेकिन विपक्ष,
विशेष रूप से इंडिया
गठबंधन इस प्रक्रिया पर
भारी संदेह जता रहा है।
1. 6.5 करोड़ नाम हटाए गए, क्या वाकई ‘वोट चोरी’ हुई?
सुप्रीम कोर्ट ने 14 अगस्त को बिहार के
ड्राफ्ट मतदाता सूची से हटाए गए
65 लाख नामों की पूरी सूची
और हटाने के कारण सार्वजनिक
करने का निर्देश दिया।
17 अगस्त तक यह सूची
राज्य के मुख्य निर्वाचन
अधिकारी कार्यालयों और जिला स्तर
पर प्रदर्शित कर दी गई
थी, जिससे पारदर्शिता पर सवालों का
जवाब मिल सका। हालांकि
आयोग ने सुप्रीम कोर्ट
में स्पष्ट किया कि ड्राफ्ट
सूची से नामों का
न होना, उनका “डिलीशन“ नहीं है, यह
एक कार्य-प्रगति दस्तावेज है और संबंधित
व्यक्ति आपत्ति दर्ज करा सकते
हैं।
“वोटर अधिकार यात्रा“ और “वोट चोरी“ का आरोप
कांग्रेस के राहुल गांधी
ने “वोटर अधिकार यात्रा“
शुरू की, जिसमें उन्होंने
आरोप लगाया कि वोटर सूची
से गलत तरीके से
लोगों को हटाया गया,
जिससे गरीब और वंचित
वर्गों का मतदान अधिकार
सीमित होगा। इसी नारे को
“वोट चोरी“ करार देते हुए
विपक्ष ने किसान, मजदूर
वर्ग और अल्पसंख्यकों के
प्रति पीढ़ा जताई है।
गणराज्य बचाओ, लोकतंत्र बचाओ, इस नारे के
इर्द-गिर्द यह सवाल उठता
है : क्या यह प्रक्रिया
निष्पक्ष है या राजनीतिक
उद्देश्य से संचालित?
क्या एसआईआर संवैधानिक तौर पर सही है?
सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक
एसआईआर प्रक्रिया पर रोक नहीं
लगाई है, बल्कि 14 अगस्त
के आदेश में आयोग
को आवश्यक निर्देश जारी किए, जैसे
सूची और कारण प्रकाशित
करना, और पहचान-पत्रों
(जैसे आधार, ईपीआईसी) को स्वीकार करना।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता
पी. चिदंबरम ने संसद में
सवाल उठाया कि जब बिहार
की आबादी बढ़ रही है,
तब वोटर सूची से
वोटर कैसे घट सकते
हैं? उन्होंने इस प्रक्रिया को
लोकतांत्रिक रूप से संदिग्ध
बताया।
आखिर सही कौन?
वोटर सूची की
वजह से उपजी असंतुष्टि
को विपक्ष ने तुरंत राजनीतिक
मोर्चे पर ले लिया।
विरोधी नेताओं ने एसआईआर पर
कठोर आलोचना की, राहुल गांधी
से लेकर तेजस्वी यादव
तक, पर सवाल यह
है कि क्या यह
कार्रवाई लोकतंत्र की रक्षा है,
या राजनीतिक लाभ के लिए
की गई रणनीति? वहीं,
चुनाव आयोग का कहना
है कि मतदाता सूची
का पुनरीक्षण एक नियमित प्रक्रिया
है, जिसमें मृतक, स्थानांतरित या डुप्लीकेट के
अलावा फर्जी और दोहराए गए
नाम सूची से हटाए
जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट
के हस्तक्षेप के बाद आयोग
ने स्पष्ट किया है कि
हर जिले की ड्राफ्ट
सूची पारदर्शी तरीके से वेबसाइट पर
डाली जाएगी और जिनके नाम
हटाए गए हैं, वे
शिकायत कर सकेंगे। यानी
आयोग अपने स्तर पर
भरोसा दिलाने की कोशिश कर
रहा है कि लोकतांत्रिक
प्रक्रिया निष्पक्ष रहे। जबकि विपक्ष
का कहना है कि
विशेष पहचान रजिस्टर (एसआईआर) टैग के तहत
लाखों नाम काट दिए
गए हैं, और इसमें
ज्यादातर गरीब, अल्पसंख्यक व पिछड़े वर्ग
के मतदाता प्रभावित हुए हैं। विपक्ष
इसको सत्ता पक्ष की सुनियोजित
चाल बता रहा है,
ताकि असंतुष्ट वर्ग मतदान से
वंचित हो और चुनाव
परिणाम प्रभावित हों। सोशल मीडिया
और जनसभाओं में इसे “वोट
चोरी” और “लोकतंत्र की
हत्या” जैसे शब्दों से
परोसा जा रहा है।
यहां असली सवाल विपक्ष
की मंशा और सच्चाई
दोनों पर खड़ा होता
है। यदि सचमुच वैध
मतदाताओं के नाम काटे
गए हैं तो यह
गंभीर अपराध है और लोकतंत्र
पर सीधा हमला। लेकिन
यदि विपक्ष बिना ठोस प्रमाण
के इस मुद्दे को
हवा दे रहा है,
तो यह सिर्फ जनता
के बीच भ्रम फैलाने
और चुनावी ध्रुवीकरण करने की कोशिश
है।










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