राम की मर्यादा और गांधी का सत्य : रामराज्य से स्वराज्य तक
गांधी और राम दोनों ही इस बात के प्रमाण हैं कि जीवन का वास्तविक बल सत्ता, धन या शस्त्रों में नहीं, बल्कि सत्य, धर्म और मर्यादा में निहित है। श्रीराम का “रामराज्य” और गांधी का “सत्याग्रही भारत”, दोनों ही हमें यह प्रेरणा देते हैं कि समाज तभी टिकेगा जब उसके मूल में न्याय, समानता और मानवीय करुणा होगी। इस दृष्टि से गांधी और राम एक-दूसरे के पूरक हैं, एक अवतार का आदर्श और दूसरा मानव का संघर्षशील उदाहरण। मतलब साफ है महात्मा गांधी और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, दोनों नाम अपने-अपने कालखंड में जनमानस के लिए मार्गदर्शक रहे। श्रीराम को मानवता का अवतार, धर्म और मर्यादा का प्रतीक माना गया, वहीं गांधी जी को सत्य और अहिंसा का पुजारी कहा गया। एक देवत्व के प्रतिनिधि, तो दूसरे मानव होकर भी आदर्शों के चरम उदाहरण। दोनों की समानता और भिन्नता को समझना आज के समाज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था
सुरेश गांधी
भारत भूमि सदैव से उन महापुरुषों की जन्मभूमि रही है, जिन्होंने अपने जीवन से मानवता को नई दिशा दी। त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और आधुनिक भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, दोनों ही ऐसे ही युगपुरुष हैं। यद्यपि दोनों के बीच सहस्राब्दियों का अंतर है, परंतु उनके जीवन और आदर्शों में एक अदृश्य सेतु दिखाई देता है। यह सेतु सत्य, धर्म, मर्यादा और अहिंसा के उन मूल्यों से जुड़ा है, जिनकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। राम ने जीवनभर धर्मपालन की जो मर्यादा स्थापित की, वह असाधारण थी। पिता के वचन की रक्षा के लिए राज्य और वैभव छोड़कर वनवास स्वीकार करना, पत्नी की रक्षा के लिए महायुद्ध करना और प्रजा के लिए व्यक्तिगत सुख-दुख का त्याग करना, यह सब उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाता है।
रामराज्य का आदर्श केवल एक धार्मिक संकल्पना नहीं, बल्कि न्याय, समानता और समरसता से परिपूर्ण समाज की कल्पना थी। गांधी जी का जीवन भी इसी मर्यादा का आधुनिक रूप कहा जा सकता है। उन्होंने राजनीति को सत्ता का साधन न मानकर सत्य और सेवा का माध्यम बनाया। सत्याग्रह और अहिंसा को उन्होंने केवल राजनीतिक हथियार नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन बना दिया। उनका सपना भी “रामराज्य” का था, जहां न्याय, समानता और करुणा के आधार पर समाज का निर्माण हो।गांधी के लिए रामराज्य
कोई धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक आदर्श था, जिसमें हर
व्यक्ति को सम्मान और
अधिकार मिल सके। राम
और गांधी की तुलना देवत्व
और मानवता की तुलना नहीं
है। श्रीराम अवतार हैं, जबकि गांधी
साधारण मानव होते हुए
भी असाधारण आदर्शों तक पहुंचे। दोनों
में से कोई तुलना
संभव हो तो वह
केवल उनके आदर्शों की
है। राम ने धर्म
की मर्यादा का पालन किया,
गांधी ने सत्य और
अहिंसा की मर्यादा को
जिया। राम के जीवन
ने प्रजा को धर्म का
मार्ग दिखाया, गांधी के जीवन ने
पूरे विश्व को अहिंसा का
संदेश दिया। आज जब समाज
में हिंसा, असहिष्णुता और विघटन की
प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं,
तब गांधी और राम दोनों
के संदेश पहले से अधिक
प्रासंगिक हो उठते हैं।
राम का जीवन त्याग
और कर्तव्य का स्मरण कराता
है, तो गांधी का
जीवन सत्य और नैतिकता
की शक्ति को जगाता है।
एक ने धर्म के
मार्ग पर चलकर आदर्श
शासन का उदाहरण दिया,
दूसरे ने अहिंसा और
सत्य के बल पर
साम्राज्य को झुका दिया।
श्रीराम : धर्म और मर्यादा के प्रतीक
राम केवल एक
राजा या योद्धा नहीं
थे, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उनका जीवन
इस बात का प्रमाण
है कि धर्म का
पालन करना, कर्तव्य को सर्वोपरि रखना
और न्याय को आधार बनाना
ही सच्चा नेतृत्व है। उन्होंने अपने
जीवन को व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं से ऊपर रखकर
धर्म और कर्तव्य का
पालन किया। जब उन्हें पिता
के वचन की रक्षा
के लिए वनवास स्वीकार
करना पड़ा, तो उन्होंने
बिना किसी विरोध के
इसे सहर्ष स्वीकार किया। जब माता सीता
का हरण हुआ, तो
उन्होंने धर्म और नीति
का पालन करते हुए
रावण का संहार किया।
जब प्रजा की अपेक्षाएं कठोर
हो उठीं, तो व्यक्तिगत भावनाओं
का त्याग कर राजधर्म निभाया।
श्रीराम का जीवन यह
संदेश देता है कि
सच्चा नेतृत्व केवल सत्ता की
महिमा में नहीं, बल्कि
कर्तव्य और धर्म की
रक्षा में है। मतलब
साफ है चाहे वनवास
की कठिनाई हो, सीता की
अग्निपरीक्षा का प्रसंग हो
या भ्रातृप्रेम का उदाहरण, राम
ने हर परिस्थिति में
आदर्श आचरण किया। उनके
जीवन का मूल मंत्र
था, धर्म की रक्षा
ही सबसे बड़ा कर्तव्य
है।
महात्मा गांधी : सत्य और अहिंसा के पुजारी
गांधी जी का जीवन
संघर्षों से भरा था,
लेकिन उनका संघर्ष शस्त्रों
से नहीं, बल्कि आत्मबल और सत्याग्रह से
लड़ा गया। दक्षिण अफ्रीका
में रेलगाड़ी से बाहर फेंके
जाने की घटना ने
उन्हें अन्याय के खिलाफ खड़ा
किया। भारत लौटकर उन्होंने
असहयोग आंदोलन, सत्याग्रह और नमक मार्च
जैसे आंदोलनों के माध्यम से
जनता को जागरूक किया।
अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष करते
समय उन्होंने हिंसा का मार्ग छोड़कर
अहिंसा को हथियार बनाया।
गांधी जी का मानना
था कि साधन की
शुद्धि उतनी ही आवश्यक
है जितना कि लक्ष्य की
पवित्रता। यही कारण था
कि उन्होंने सत्ता को साध्य नहीं,
बल्कि सेवा का माध्यम
माना। उन्होंने कहा, “अहिंसा केवल आचरण का
नियम नहीं है, बल्कि
यह मन, वचन और
कर्म की शुद्धि है।”
गांधी जी के लिए
राजनीति सत्ता का खेल नहीं,
बल्कि सेवा और नैतिकता
का मार्ग थी।
रामराज्य और गांधी का सपना
गांधी जी बार-बार
‘रामराज्य’ की बात करते
थे। उनका रामराज्य धार्मिक
अवधारणा से अधिक एक
आदर्श सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था
का प्रतीक था। गांधी जी
के रामराज्य में सबको समान
अधिकार मिलने थे। वहां अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच, जाति-भेद और शोषण
की कोई जगह नहीं
थी। यह एक ऐसी
व्यवस्था थी जहां सत्ता
जनसेवा का साधन बने,
न कि निजी स्वार्थ
का। आजादी के आंदोलन में
गांधी जी का सबसे
बड़ा संबल यही विचार
था। उन्होंने कहा था, “मैं
उस रामराज्य की स्थापना चाहता
हूँ, जिसमें हर व्यक्ति को
समान अवसर मिले, और
किसी का भी शोषण
न हो।” वे मानते
थे कि राजनीति तभी
सफल होगी जब उसमें
जनता का भला सर्वोपरि
होगा, न कि सत्ता
की भूख।
तुलना या प्रेरणा?
यह प्रश्न अक्सर
उठता है कि क्या
गांधी की तुलना राम
से की जा सकती
है। सीधी तुलना करना
शायद उचित नहीं होगा।
श्रीराम को हिंदू धर्म
में विष्णु का अवतार माना
जाता है, जिनका उद्देश्य
धर्म की स्थापना था।
गांधी एक सामान्य मानव
थे, जिन्होंने आत्मसंयम, साधना और संघर्ष से
स्वयं को महान बनाया।
परंतु दोनों में समानता यह
है कि उन्होंने अपने
जीवन को आदर्शों के
आधार पर जिया। श्रीराम
ने धर्म और मर्यादा
को सर्वोच्च माना। गांधी ने सत्य और
अहिंसा को जीवन का
मूल मंत्र बनाया। गांधी जी के अंतिम
शब्द “हे राम” उनके
जीवन और विचारों के
बीच सेतु का प्रमाण
हैं। अर्थात् दोनों ने “आदर्श आधारित
जीवन” को अपनी पहचान
बनाया। गांधी ने राजनीतिक स्वतंत्रता
को भी “रामराज्य” के
आदर्श से जोड़ा।
आज की राजनीति में गांधी और राम की प्रासंगिकता
आज जब राजनीति
जातिवाद, परिवारवाद, तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार की
चपेट में है, तब
राम और गांधी दोनों
ही आदर्शों के ध्रुवतारा बनकर
हमें दिशा दिखाते हैं।
राम हमें सिखाते हैं
कि सत्ता से बड़ा धर्म
है। गांधी हमें बताते हैं
कि सत्ता से बड़ी साधनों
की पवित्रता है। राम ने
व्यक्तिगत सुख-त्याग कर
जनहित में निर्णय लिए।
गांधी ने जेल, अपमान
और कठिनाइयों का सामना कर
सत्य और अहिंसा का
मार्ग चुना। यदि आज के
नेता और दल इन
आदर्शों को आत्मसात कर
लें, तो राजनीति की
गंदगी साफ हो सकती
है। मतलब साफ है
सत्ता साधन नहीं, सेवा
का माध्यम होनी चाहिए। श्रीराम
ने धर्म और मर्यादा
के लिए अपने सुख
का बलिदान किया, वहीं गांधी ने
अहिंसा और सत्य के
लिए संघर्ष किया। आज यदि समाज
और राजनीति इन आदर्शों को
अपनाए, तो वास्तविक अर्थों
में स्वच्छ और न्यायपूर्ण व्यवस्था
संभव हो सकती है।
जनता की जिम्मेदारी
गांधी और राम दोनों
ने जनता को ही
अपनी शक्ति माना। राम का राज्य
जनकल्याण पर आधारित था।
गांधी का आंदोलन जनसहयोग
पर खड़ा था। आज
भी बदलाव केवल नेताओं से
संभव नहीं है। आम
नागरिक को भी अपनी
जिम्मेदारी समझनी होगी। यदि जनता दागी,
अवसरवादी और परिवारवादी नेताओं
को वोट देती रहेगी,
तो गांधी का सपना और
रामराज्य की कल्पना दोनों
अधूरी रह जाएंगी। मतलब
साफ है राम और
गांधी, दोनों अलग-अलग युगों
के महानायक थे, दोनों ने
अलग-अलग युगों में
मानवता को आदर्श जीवन
की राह दिखाई। परंतु
दोनों के आदर्श आज
भी हमारे लिए पथप्रदर्शक हैं।
राम ने मर्यादा और
धर्म से जीवन को
संवारा, तो गांधी ने
सत्य और अहिंसा से
राजनीति को नैतिकता की
ओर मोड़ा। दोनों ही इस बात
का संदेश देते हैं कि
सत्ता सेवा का माध्यम
है, न कि स्वार्थ
का साधन। आज जरूरत है
कि हम केवल उनके
नाम की दुहाई न
दें, बल्कि उनके आदर्शों को
अपने जीवन और समाज
में उतारें। यही दोनों युगपुरुषों
के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। समाज और राजनीति
की सफाई केवल नेताओं
पर निर्भर नहीं रह सकती।
आम नागरिकों को भी जागरूकता
की झाड़ू उठानी होगी।
तभी गांधी का भारत साकार
होगा, जहां सत्ता सेवा
का माध्यम होगी, और राजनीति आदर्शों
की राह पर चलेगी।
गांधी की दुहाई देना
आसान है, लेकिन असली
काम है उनके विचारों
को अपनाना। यही गांधी जयंती
का सबसे बड़ा संदेश
होना चाहिए।
गांधी और राम : आदर्शों का सेतु
भारत की संस्कृति
और इतिहास में ऐसे व्यक्तित्व
बार-बार नहीं जन्म
लेते, जिनके जीवन और आदर्श
समाज को नई दिशा
दें। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और राष्ट्रपिता महात्मा
गांधी दो ऐसे ही
युगपुरुष हैं। दोनों अलग-अलग युगों के
नायक थे, राम त्रेतायुग
के, तो गांधी आधुनिक
भारत के, परंतु दोनों
में एक अदृश्य सेतु
है, जो उनके आदर्शों
और मर्यादाओं से जुड़ा हुआ
है।
गांधी की दुहाई नहीं, उनके आदर्श अपनाए जाएं
भारत की राजनीति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का स्थान उतना ही ऊंचा है, जितना धर्म और संस्कृति में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम या योगेश्वर श्रीकृष्ण का। परंतु अफसोस है कि गांधी जी के नाम और उनके विचारों को आज अधिकांश नेता और दल केवल राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। उनके भाषणों में गांधी दर्शन की दुहाई दी जाती है, लेकिन आचरण में वे ठीक इसके उलट दिखाई देते हैं। गांधी जी ने लोकतंत्र को केवल सत्ता हासिल करने का साधन नहीं माना। वे कहते थे कि “लोकतंत्र तब तक असंभव है जब तक उसमें हर व्यक्ति, चाहे वह मजदूर हो या अछूत, की हिस्सेदारी न हो।” उनके लिए सत्ता ही नहीं, साधनों की पवित्रता भी उतनी ही आवश्यक थी। लेकिन आज की राजनीति में सत्ता का खेल धनबल, बाहुबल, जातिवाद और परिवारवाद पर टिक गया है। जो नेता गांधी का नाम लेकर वोट मांगते हैं, वही विरोधियों को अपशब्दों और हिंसक बयानबाजी से नीचा दिखाने में नहीं हिचकते। यही वर्तमान राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है।
दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय अन्याय
के खिलाफ उनकी पहली लड़ाई
हो या भारत में
सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह,
उन्होंने हमेशा अहिंसा और सत्य का
मार्ग अपनाया। इसी मार्ग ने
करोड़ों भारतीयों को आजादी की
लड़ाई से जोड़ा और
ब्रिटिश हुकूमत को भारत छोड़ने
पर विवश किया। आजादी
के बाद भी उन्होंने
राजनीति को सेवा का
माध्यम बनाने पर जोर दिया
था, लेकिन आज राजनीति सेवा
से अधिक सत्ता की
भूख का पर्याय बन
गई है। हर साल
2 अक्टूबर को हम गांधी
जयंती मनाते हैं। इस दिन
को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय
अहिंसा दिवस का दर्जा
दिया है, ताकि गांधी
के विचार पूरी दुनिया के
लिए मार्गदर्शक बन सकें। भारत
में प्रार्थना सभाओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और स्मृति आयोजनों
के जरिए उनकी याद
ताजा की जाती है।
परंतु केवल औपचारिक आयोजन
ही काफी नहीं हैं।
असली श्रद्धांजलि यही होगी कि
हम उनके आदर्शों को
व्यवहार में उतारें।
बदलाव की शुरुआत स्वयं से होनी चाहिए
गांधी जी कहते थे,
“मेरा जीवन ही मेरा
संदेश है।” उनका जीवन
हमें सिखाता है कि समय
की पाबंदी, अनुशासन, सकारात्मक सोच और कठिनाइयों
में भी धैर्य बनाए
रखना कितनी बड़ी शक्ति है।
वे मानते थे कि बदलाव
की शुरुआत दूसरों से नहीं, स्वयं
से होनी चाहिए। अगर
हम चाहते हैं कि राजनीति
से भ्रष्टाचार, जातिवाद और वंशवाद की
गंदगी साफ हो, तो
सबसे पहले हमें वोट
देते समय सजग होना
होगा। जनता जब तक
दागी और अवसरवादी नेताओं
को सत्ता में पहुँचाती रहेगी,
तब तक गांधी का
सपना अधूरा ही रहेगा। आज
की सबसे बड़ी चुनौती
यही है कि राजनीति
में नैतिकता की जगह अवसरवाद
ने ले ली है।
यह जिम्मेदारी केवल दलों की
नहीं, बल्कि मतदाताओं की भी है।
राजनीतिक दल तभी सुधरेंगे
जब जनता सुधार की
मांग करेगी। जनता यदि अपने
वोट को गांधी के
आदर्शों की कसौटी पर
कसे, तो शायद राजनीति
में भी शुद्धि संभव
हो सके। गांधी जयंती
हमें हर साल यह
याद दिलाती है कि सत्य,
अहिंसा और नैतिकता केवल
किताबों के शब्द नहीं,
बल्कि जीवन का मार्गदर्शन
हैं। हमें यह भी
याद रखना चाहिए कि
गांधी ने कभी हार
नहीं मानी, चाहे कितनी भी
कठिनाइयां आई हों। यही
संदेश आज के दौर
में और अधिक प्रासंगिक
है, जब समाज और
राजनीति दोनों नैतिक संकट से गुजर
रहे हैं।
गांधी : एक व्यक्ति नहीं, विचारों की धारा
यह दुनिया वैसी
कभी न होती जैसी
आज है, अगर इस
धरती पर महात्मा गांधी
जैसे महामानव न आते। गांधी
केवल एक मनुष्य नहीं
थे, बल्कि ऐसी विचारधारा थे
जिसने इंसानियत, लोकतंत्र और जीवन के
मायने ही बदल डाले।
वे जम्हूरियत की आत्मा थे,
संवेदना की धारा थे,
शांति और सहिष्णुता का
प्रतीक थे।
जन्म से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक
2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के
पोरबंदर में जन्मे मोहनदास
करमचंद गांधी बचपन से ही
जैन धर्म की अहिंसा
और शांति की धारा से
प्रभावित हुए। मात्र तेरह
वर्ष की उम्र में
कस्तूरबा से विवाह, फिर
इंग्लैंड से बैरिस्टर की
पढ़ाई और 1893 में दक्षिण अफ्रीका
की यात्रा, यही वह भूमि
थी जहां से उनके
जीवन की असली प्रयोगशाला
शुरू हुई। मेरिट्सबर्ग स्टेशन
पर ट्रेन से बाहर फेंके
जाने की घटना ने
उन्हें जगा दिया। यह
अपमान केवल उनका नहीं,
बल्कि हर भारतीय का
अपमान था। यहीं से
गांधी सत्याग्रह और संगठन के
प्रतीक बन गए।
आंदोलनों के जनक
भारत लौटने के
बाद गांधी ने चंपारण सत्याग्रह,
खेड़ा आंदोलन, असहयोग आंदोलन, दांडी मार्च और भारत छोड़ो
आंदोलन के जरिए अंग्रेजी
हुकूमत की जड़ों को
हिला दिया। उन्होंने लाठी-गोलियों से
लैस साम्राज्य के सामने केवल
नैतिक बल और अहिंसा
की ढाल खड़ी की।
गांधी जानते थे, “आंख के
बदले आंख पूरी दुनिया
को अंधा बना देगी।”
यही दर्शन उन्हें महात्मा बनाता है।
शहादत की अमर गाथा
30 जनवरी 1948 को गांधीजी ने
“हे राम” कहते हुए
प्राण त्यागे। लेकिन उनकी शहादत ने
भारत को जलती हुई
साम्प्रदायिक आग से बचा
लिया। उनका जीवन ही
नहीं, बल्कि उनका बलिदान भी
भारत के लिए संदेश
था, शांति ही अंतिम मार्ग
है।
वैश्विक व्यक्तित्व
गांधी भारत की सीमाओं
तक सीमित नहीं थे। नेल्सन
मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर
जैसे आंदोलनकारी उनके विचारों से
प्रेरित हुए। आज दुनिया
के 70 से अधिक देशों
में उनकी प्रतिमाएं खड़ी
हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन ने ठीक ही
कहा था, “भविष्य में
लोग यकीन नहीं करेंगे
कि ऐसा कोई हाड़-मांस का इंसान
इस धरती पर कभी
आया था।”
विचारों की प्रासंगिकता
गांधी की सीख आज
भी उतनी ही प्रासंगिक
है, “दुनिया हर किसी की
जरूरत को पूरा करने
के लिए काफी है,
लेकिन लालच को पूरा
करने के लिए नहीं।”
“ऐसे जियो जैसे कल
मरना है और ऐसे
सीखो जैसे हमेशा जीना
है।” “जिस दिन एक
महिला रात में स्वतंत्र
होकर चल सकेगी, उसी
दिन भारत सच्चे अर्थों
में आजाद होगा।” गांधी
मजबूरी का नाम नहीं,
मजबूती का नाम थे।
उन्होंने हमें केवल आजादी
नहीं दी, बल्कि आत्मगौरव
और सभ्यता की असली परिभाषा
दी। उनका सपना सिर्फ
अंग्रेजों से मुक्ति नहीं
था, बल्कि एक ऐसा भारत
गढ़ना था जो भारतीयता
की जड़ों से जुड़ा
हो और पूरी दुनिया
के लिए आदर्श बने।
गांधी के विचार, गांधी का भारत
एक विनम्र तरीके
से आप पूरी दुनिया
को हिला सकते हैं।
स्वतंत्रता का कोई मूल्य
नहीं यदि उसमें गलती
करने की स्वतंत्रता न
हो। विश्वास तब तक तर्कसंगत
है जब तक वह
अंधा न हो जाए।
खुद वो बदलाव बनिए
जो आप दुनिया में
देखना चाहते हैं। जो समय
बचाता है, वही जीवन
बचाता है। सत्य कभी
किसी का अहित नहीं
करता, जो अहित करता
है वह असत्य होता
है। भ्रष्टाचार और हिंसा से
जूझती दुनिया को गांधी का
सत्य और अहिंसा ही
रास्ता दिखा सकता है।
जलवायु संकट और उपभोक्तावाद
की दौड़ में गांधी
का संदेशकृ“जरूरत पूरी करो, लालच
नहीं”, सबसे बड़ा मार्गदर्शन
है। जब तक महिला
सुरक्षित और स्वतंत्र नहीं
होगी, गांधी का भारत अधूरा
रहेगा।










