रामनगर की रामलीलाः जहां हर गली में बसती है अयोध्या, हर दृश्य में झलकता है त्रेता युग
गंगा के उस पार बसे रामनगर में हर साल आश्विन मास की संध्या आते ही लगता है मानो त्रेता युग लौट आया हो। गलियां अयोध्या बन जाती हैं, किला राजमहल, चौपालें जनकपुर और मैदान स्वर्णिम लंका। ढोल-नगाड़ों की थाप, अवधी की चौपाइयों और “जय श्रीराम” के उद्घोष के बीच जब हजारों श्रद्धालु प्रसंग-दर-प्रसंग कथा के साथ चलते हैं, तो यह आयोजन केवल नाट्य नहीं, बल्कि आस्था और संस्कृति का जीवंत महाकुंभ प्रतीत होता है. जी हां, इन दिनों रामनगर भक्ति और उल्लास से सराबोर हैं। चारों ओर दीपों की रौशनी, ढोल-नगाड़ों की गूंज और रामचरितमानस की चौपाइयों की स्वर-लहरियां वातावरण को अद्भुत बना देती हैं। हर वर्ष की भांति इस बार भी आश्विन मास में यहां रामनगर की ऐतिहासिक रामलीला आरंभ हुई है, जिसने नगर को अयोध्या के पावन रूप में ढाल दिया है। यह केवल नाट्य प्रस्तुति नहीं, बल्कि श्रद्धा, संस्कृति और अध्यात्म का ऐसा जीवंत महाकुंभ है, जिसे देखकर हर कोई अपने आपको त्रेता युग का साक्षी मान बैठता है। खास यह है कि रामनगर की रामलीला को यूनेस्को ने “मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर” घोषित किया है। हर साल यहां हजारों विदेशी शोधार्थी और पर्यटक पहुंचते हैं, जो भारतीय संस्कृति की इस अद्वितीय परंपरा को नजदीक से देखना चाहते हैं
सुरेश गांधी
धर्म एवं आस्था
की नगरी काशी से
गंगा पार उतरते ही
रामनगर का वातावरण नवरात्र
के दिनों में पूरी तरह
बदल जाता है। सजी
हुई गलियां, आस्थावान जनसमूह और चौपाइयों की
गूंज, सब मिलकर ऐसा
दृश्य रचते हैं, मानो
स्वयं तुलसीदास की रामचरितमानस जीवंत
हो उठी हो। संध्या
होते ही लगता है
मानो त्रेता युग लौट आया
है. गलियां अयोध्या बन जाती हैं,
किला राजमहल, चौपालें जनकपुर और मैदान स्वर्णिम
लंका। ढोल-नगाड़ों की
थाप, अवधी की चौपाइयों
और “जय श्रीराम” के
उद्घोष के बीच जब
हजारों श्रद्धालु प्रसंग-दर-प्रसंग कथा
के साथ चलते हैं,
तो यह आयोजन केवल
नाट्य नहीं, बल्कि आस्था और संस्कृति का
जीवंत महाकुंभ प्रतीत होता है, यही
है विश्वविख्यात रामनगर की रामलीला। यह
रामलीला केवल मंचन नहीं,
बल्कि जीवन का अनुष्ठान
है। यहां हर दर्शक
केवल देखने नहीं आता, बल्कि
कथा का हिस्सा बनता
है।
रामलीला देखने वाले श्रद्धालु इसे
नाटक नहीं मानते। उनके
लिए यह भक्ति और
दर्शन का अनुभव है।
जब सीता स्वयंवर के
दृश्य में भगवान राम
शिवधनुष उठाते हैं, तो हजारों
की भीड़ का “जय
श्रीराम” उद्घोष वातावरण को थर्रा देता
है। लंका दहन के
समय आकाश में उठती
अग्नि-लपटें केवल दृश्य नहीं,
बल्कि अधर्म पर धर्म की
विजय का जीवंत प्रतीक
बन जाती हैं। तेजी
से बदलते आधुनिक जीवन में जहां
उत्सव केवल दिखावे और
व्यापार तक सीमित हो
रहे हैं, वहां रामनगर
की रामलीला हमें याद दिलाती
है कि उत्सव केवल
मनोरंजन नहीं, बल्कि संस्कृति और समाज की
आत्मा होते हैं। यह
लीला एक ऐसा दर्पण
है, जिसमें भारतीय जीवन-मूल्य, धर्म
और लोकसंस्कृति एक साथ झलकते
हैं। मतलब साफ है
रामनगर की रामलीला केवल
एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय समाज और संस्कृति
की धड़कन है। यह
हमें जोड़ती है, हमारे भीतर
छिपे श्रद्धा और विश्वास को
जगाती है और यह
संदेश देती है कि
चाहे समय कितना भी
बदल जाए, धर्म, सत्य
और संस्कृति की ज्योति कभी
बुझने नहीं चाहिए।
ढाई सौ वर्षों से बहती आस्था की गंगा
रामनगर की रामलीला की
परंपरा लगभग ढाई सौ
वर्ष पुरानी है। 18वीं शताब्दी में
काशी नरेश महाराजा उदित
नारायण सिंह ने इसकी
शुरुआत की थी। उनका
उद्देश्य था कि रामचरितमानस
केवल ग्रंथों तक सीमित न
रहकर जन-जन तक
जीवंत स्वरूप में पहुंचे। तब
से लेकर आज तक
यह परंपरा निरंतर चल रही है
और काशी नरेश इसकी
गरिमा और परंपरा के
संरक्षक बने हुए हैं।
काशी नरेश आज भी
राजसिंहासन पर विराजकर रामलीला
का संचालन करते हैं। जनता
उन्हें भगवान राम का प्रतिनिधि
मानकर नमन करती है।
यह दृश्य हर उस व्यक्ति
के लिए अद्भुत होता
है, जो पहली बार
इस लीला का हिस्सा
बनता है। यह केवल
औपचारिक परंपरा नहीं, बल्कि जनता और राजपरिवार
के बीच आस्था का
वह सेतु है, जो
सदियों से अटूट बना
हुआ है। खास बात
यह है कि इसमें
आधुनिक नाट्य तकनीक या कृत्रिम मंच
का उपयोग नहीं होता। पूरा
नगर ही मंच बन
जाता है, कहीं जनकपुर,
कहीं चित्रकूट, कहीं पंचवटी, तो
कहीं लंका। दर्शक कथा के साथ-साथ स्थान बदलते
हैं और वे स्वयं
को उस कालखंड में
जीता हुआ अनुभव करते
हैं। दर्शक भी स्थिर होकर
नहीं बैठते, बल्कि कथा के साथ
चलते हैं, स्थल-दर-स्थल तक जाते
हैं और कथा का
अंग बन जाते हैं।
यही कारण है कि
यहां की रामलीला 31 दिनों
तक निरंतर चलती है और
तुलसीदास कृत रामचरितमानस का
हर प्रसंग अभिनय और पाठ के
साथ प्रस्तुत होता है। इस
रामलीला की आत्मा है,
तुलसीदास का रामचरितमानस। प्रत्येक
प्रसंग और संवाद सीधे
मानस से लिए जाते
हैं। अवधी की चौपाइयां
जब गंगा तट पर
गूंजती हैं, तो पूरा
वातावरण भक्तिरस से भर जाता
है। यहां कलाकार किसी
पारिश्रमिक की अपेक्षा नहीं
रखते। उनका पुरस्कार है,
जनता का आशीर्वाद और
ईश्वर की कृपा। यही
कारण है कि यह
आयोजन केवल नाट्यकला न
रहकर भक्ति और सेवा का
जीवंत उदाहरण है।
31 दिनों का अनुष्ठान
लगभग पूरे महीने
प्रतिदिन रामचरितमानस के प्रसंग क्रमवार
मंचित होते हैं।
दर्शक की उमड़ती है
भीड़
लोग केवल देखने
नहीं, बल्कि कथा के साथ
चलते हैं।
कला नहीं, साधना
कलाकार कोई पारिश्रमिक नहीं
लेते, वे इसे अपनी
सेवा और साधना मानते
हैं।
भाषा और लोकधुनों
की शक्ति
चौपाइयों की स्वर लहरियां
और अवधी की मिठास
वातावरण को भक्तिमय बना
देती हैं।
लीला की विशेषताएं
परंपरा
: 18वीं शताब्दी में काशी नरेश
उदित नारायण सिंह ने की
शुरुआत।
मंचन
शैली
: पूरा नगर ही मंच,
दर्शक कथा के साथ
चलते हैं। किला प्रांगण
में सजीव होता त्रेता
युग।
अवधि
: 31 दिन तक निरंतर रामचरितमानस
का जीवंत मंचन।
काशी
नरेश
की
भूमिका
: आयोजन के संरक्षक; श्रद्धालुओं
के लिए भगवान राम
का प्रतिनिधि। आज भी लीला
के संरक्षक, आस्था और परंपरा का
प्रतीक।
वैश्विक
पहचान
: यूनेस्को द्वारा “मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक
धरोहर” घोषित।
भक्ति
की
विशेषता
: कलाकार बिना पारिश्रमिक, केवल
सेवा भाव से अभिनय
करते हैं।
सीता
स्वयंवर
: जनकपुर के राजदरबार में
धनुष तोड़ते ही उमड़ पड़ी
हर्ष, ध्वनि, राम-सीता मिलन
का अलौकिक दृश्य। दरबार की चौपाल में
गूंजती चौपाइयां और ‘जय श्रीराम’।
लंका
दहन
: आकाश को चीरती मशालें,
जब अधर्म पर धर्म की
विजय होती है।
रामजन्मोत्सव
: किले के आंगन में
जब ढोल-नगाड़ों की
गूंज के बीच रामलला
प्रकट होते हैं, तो
पूरा वातावरण ‘जय श्रीराम’ के
उद्घोष से गूंज उठता
है।
राम-सीता
विवाह
बारात
: राम-सीता विवाह का
प्रसंग आते ही पूरा
रामनगर जनकपुर में बदल जाता
है। ढोलक की थाप
और शहनाई की गूंज के
बीच बारात गलियों से गुजरती है।
छतों और चौखटों से
महिलाएं फूल बरसाती हैं।
बच्चे कौतूहल से बारात का
हिस्सा बनने को आतुर
दिखाई देते हैं। लोग
कहते हैं, जब तक
रामनगर की बारात न
देखी, तब तक विवाह
का असली आनंद अधूरा
है। खास यह है
कि फूलों से सजी गलियों
से गुजरती रामबारात, तों से झरते
फूल और चौखटों से
उठते मंगलगीत।
वनगमन
प्रसंग
: वनगमन का दृश्य सबसे
मार्मिक होता है। राम,
सीता और लक्ष्मण जब
राजमहल छोड़कर वनगमन करते हैं, तो
हजारों श्रद्धालु उनके साथ-साथ
पैदल चल पड़ते हैं।
यह दृश्य केवल नाटक नहीं
लगता, बल्कि सचमुच ऐसा लगता है
मानो राम वन की
ओर बढ़ रहे हों
और नगर की जनता
उन्हें विदा कर रही
हो। हजारों श्रद्धालु साथ-साथ चलते
हुए उन्हें भावुक विदाई देते हैं।
हनुमान
झांकी
: रामभक्ति की अद्भुत झलक,
हनुमान का रूप देखते
ही श्रद्धालुओं में भक्ति और
उत्साह का ज्वार उमड़
पड़ता है।
लंका
दहन
: लंका दहन और रावण
वध का दृश्य आते
ही पूरा आकाश “जय
श्रीराम” के उद्घोष से
गूंज उठता है। विशाल
मैदान में खड़े रावण
के पुतले के गिरते ही
श्रद्धालुओं की आँखों में
उल्लास और भक्ति की
चमक एक साथ दिखाई
देती है। अग्नि की
लपटों में घिरी स्वर्णिम
लंका, हनुमान के जयकारों से
गूंज उठता है पूरा
रामनगर।
रावण
वध
: विजय का क्षण, रावण
वध के साथ ही
आसमान ‘जय श्रीराम’ के
उद्घोष से थर्रा उठा।
रामराज्याभिषेक
: सोने के सिंहासन पर
विराजमान राम, अयोध्या ही
नहीं, पूरा रामनगर रामराज्य
के उल्लास में डूबा।
काशी
नरेश
का
दरबार
: राजसिंहासन पर विराजमान काशी
नरेश, जनता उन्हें आज
भी भगवान राम का प्रतिनिधि
मानकर श्रद्धा अर्पित करती है।
श्रद्धालुओं और पर्यटकों के अनुभव
वाराणसी की वृद्धा जया
देवी बताती हैं, हर वर्ष
रामलीला देखे बिना जीवन
अधूरा लगता है। यह
हमारे लिए पूजा के
समान है। जर्मनी से
आए शिवानी दंपत्ति कहते हैं, यह
नाटक नहीं, बल्कि जीती-जागती संस्कृति
है। यहां लोग अभिनय
नहीं देखते, बल्कि अपने विश्वास को
जीते हैं। बीएचयू के
सीनियर डॉ विजयनाथ मिश्रा
उनका कहना है कि
यह लीला जीवंत परंपरा
और सांस्कृतिक धरोहर का वह अनमोल
रत्न है, जो आज
भी हमें त्रेता युग
की ओर ले जाता
है। यह आस्था का
मेला, अध्यात्म का उत्सव और
संस्कृति की अद्भुत जीवंतता
है। यहां मौजूद हर
हृदय में राम के
आदर्श अंकुरित हो उठते हैं.
यहां मंच और दर्शक
का भेद मिट जाता
है। हर श्रद्धालु कथा
का हिस्सा बन जाता है।
यह आयोजन हमें बताता है
कि भारत की संस्कृति
में धर्म और कला
एक-दूसरे के पूरक हैं।
यही वह शक्ति है,
जिसने इस परंपरा को
ढाई सौ वर्षों से
अमर बनाए रखा है।
और यही कारण है
कि हर वर्ष गंगा
तट पर स्थित यह
नगर, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों
से आलोकित होकर मानवता को
धर्म, सत्य और मर्यादा
का संदेश देता है। यहां
के कण-कण में
गूंजता है रामचरितमानस का
स्वर. अवधी भाषा का
माधुर्य और भक्ति का
रस जब गंगा तट
पर गूंजता है, तो वातावरण
अलौकिक बन उठता है।
गांव-गांव से आए
लोग, साधु-संत, विदेशी
अतिथि, सभी एक साथ
इस भक्ति-धारा में बहते
हैं। यहां कोई व्यावसायिकता
नहीं, केवल सेवा और
श्रद्धा ही इसकी धुरी
है। यही वह शक्ति
है, जिसने इस परंपरा को
सदियों से अमर बनाए
रखा है।
प्रमुख झांकियां
रामनगर की रामलीला की
सबसे बड़ी खूबी यह
है कि यह पूरे
एक माह तक चलती
है और हर दिन
नए प्रसंग की झांकी प्रस्तुत
होती है। प्रथम दिवस
पर रामजन्मोत्सव का दृश्य होता
है। इसके बाद बाललीलाएं,
गुरुकुल वास, सीता स्वयंवर,
विवाह उत्सव, वनगमन, वनवास के प्रसंग क्रमशः
प्रस्तुत किए जाते हैं।
लंका दहन और रावण
वध का दृश्य अंतिम
दिनों में होता है।
विजयादशमी के दिन राम
का राजतिलक सम्पन्न होता है और
नगर हर्षोल्लास से भर जाता
है। हर दिन हजारों
की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित
रहते हैं और गंगा
किनारे का यह नगर
आस्था की लहरों से
गूंज उठता है।
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