Wednesday, 19 November 2025

कांग्रेस : कमजोर होती प्लेटफार्म, राहुल गांधी युग में पतन की पटकथा

कांग्रेस : कमजोर होती प्लेटफार्म, राहुल गांधी युग में पतन की पटकथा 

भारतीय राजनीति में कांग्रेस कभी एक विराट पर्वत जैसी दिखाई देती थी, 28 राज्यों में प्रभाव, सत्ता में गहरी पकड़, और राष्ट्रव्यापी जनाधार। पर आज वही पार्टी कुछ चुनिंदा राज्यों में सिमट चुकी है। यह संकट अचानक पैदा नहीं हुआ, इसकी जड़ में वह नेतृत्व है, जिसके हाथ में पार्टी ने 2004 से लेकर अब तक अपने भविष्य की कमान थमा रखी है। राहुल गांधी की राजनीति, उनके चुनावी दांव, आरोप-प्रत्यारोप की शैली और रणनीतियों ने कांग्रेस को जितना उठाया उससे कई गुना ज़्यादा डुबोया है, यह निष्कर्ष अब देश के विस्तृत राजनीतिक परिदृश्य को देखकर साफ दिखाई देता है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है संविधानिक संस्थाओं पर अविश्वास का नैरेटिव अब किसका तारणहार बन पाएगा?’’ 

            सुरेश गांधी

भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस, जिसे कभीराष्ट्रमाताकहा जाता था, आज अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है। आज, कांग्रेस का वजूद सिर्फ राष्ट्रीय पैमाने पर सीमित हो गया है, बल्कि उसकी विधानमंडल शक्ति, संगठनात्मक संरचना और जनाधार भी चिंताजनक गिरावट पर है। राहुल गांधी 2004 में राजनीति में आए। 2009 के बाद उन्होंने पार्टी के भीतर निर्णयों पर गहरा प्रभाव जमाना शुरू किया। इसी कालखंड से कांग्रेस के चुनावी ग्राफ का निरंतर पतन शुरू हुआ। 2009 के बाद देशभर के 83 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 71 चुनाव हारी। 2014 लोकसभा में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई, इतिहास की सबसे शर्मनाक हार। 99 सीटों तक पहुँचने में पूरा एक दशक लग गया. 2014 में 11 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी, आज सिर्फ 3 राज्य, कर्नाटक, तेलंगाना, हिमाचल। विधानसभा सीटों का ग्राफ हर साल गिरता गया, और कांग्रेस अब चुनाव मैदान में बड़े प्रतिद्वंद्वी के रूप में भी नहीं बची। उनके पक्ष में यह तर्क है कि वह दशक के अंत में कांग्रेस को नया उत्साह देने की कोशिश कर रहे थे, युवाओं को अपील करना, सोशल मीडिया का उपयोग करना, “भारत जोड़ो यात्राजैसी पहलों का नेतृत्व करना। लेकिन इन पहलों का चुनावी लाभ सीमित रहा, खासकर राज्यों के स्तर पर, जहां पार्टी का धरातलीय जाल (ग्रासरुट नेटवर्क) धीरे-धीरे खोता गया।

जबकि राहुल की राजनीति ने कांग्रेस को ऐसा बना दिया है कि जनता भरोसा करती है, संगठन में ऊर्जा बची है, नेतृत्व की दिशा स्पष्ट है। यह अलग बात है इस नाकामी को वह संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास का राजनीतिक हथियार बनाते है. राहुल कीनई राजनीतिका यह नया हथकंडा है. खासतौर से तब जब चुनावी पकड़ कमजोर हो जाती है, और जनता का विश्वास क्षीण होता जाता है, तब राहुलआरोपों की राजनीतिको हथियार बना लेते हैं। बीते कुछ वर्षों में राहुल गांधी और कांग्रेस की यही रणनीति रही, चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट, सेना, लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्नचिह्न। लेकिन इस बार जवाब आया देश के 272 दिग्गजों की ओर से। यह एक साधारण प्रतिक्रिया नहीं थी। यह राष्ट्र की संस्थाओं पर हो रहे अनवरत प्रहार के खिलाफ एक सामूहिक चेतावनी थी। देश के 272 प्रतिष्ठित व्यक्तियों, 16 पूर्व जज, 123 सेवानिवृत्त नौकरशाह, 14 पूर्व राजदूत और 133 पूर्व सैन्य अधिकारियों ने एक खुला पत्र जारी कर चुनाव आयोग के पक्ष में मजबूती से खड़ा होने की घोषणा की। पत्र की भाषा सख्त, स्पष्ट और सीधी थी। उसमें कहा गया, “भारत का लोकतंत्र बाहरी हमले से नहीं, बल्कि बेबुनियाद और जहरीली राजनीतिक बयानबाजी से चुनौती का सामना कर रहा है।और यह आरोप किसी एक नेता पर नहीं, बल्कि सीधे-सीधे राहुल गांधी और विपक्ष के नेताओं की हालिया टिप्पणियों पर केंद्रित था।

पत्र के मुख्य बिंदु कांग्रेस की राजनीति की पोल खोलते हैं, 1. विपक्ष ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाए, पर एक भी औपचारिक शिकायत या हलफनामा नहीं दिया। यह साफ संदेश था, आरोप हैं, पर सबूत नहीं। 2. राहुल गांधी कीवोट चोरी“, “वोट डकैती“, “एटम बम वाली खोज“, सब राजनीतिक नाटक. 272 दिग्गजों ने विशेष रूप से राहुल गांधी के हालिया बयानों का उल्लेख किया, जिनमें उन्होंने ईसी पर वोट चोरी का आरोप लगाया और दावा किया कि उनकी खोजएटम बमजैसी है। पत्र में कहा गया, “बिना साक्ष्य इस तरह के बयान चुनाव आयोग के अधिकारियों को धमकाने और जनता में भ्रम फैलाने की कोशिश लगते हैं।” 3. एसआईआर प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी : कोर्ट निगरानी में सत्यापन, फर्जी वोटर हटाए गए, दिग्गजों ने साफ किया कि ईसी की एसआईआर प्रक्रिया, न्यायालय पर्यवेक्षण में तकनीकी पारदर्शिता के साथ फर्जी वोट हटाने और नए पात्र मतदाताओं को जोड़ने के लिए पूरी तरह विश्वसनीय तरीके से की गई। 4. “ईसी बीजेपी की बी-टीम है”, यह आरोप राजनीतिक हताशा का संकेत मात्र, जब विपक्ष किसी राज्य में जीतता है, ईवीएमईमानदारजब हारता है, ईवीएमपक्षपाती.” पत्र ने इसेसेलेक्टिव आक्रोशऔरराजनीतिक अवसरवादबताया।

देखा जाएं तो राहुल गांधी के हर आरोप उनके लिए उल्टा दांव साबित होते है, 2025 बिहार चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। 2019 में उनका नारा था, “चौकीदार चोर है“. 2025 में नया नैरेटिव, “वोट चोरी“, फिरवोट डकैती दोनों बार जनता ने इन आरोपों को पूरी तरह खारिज कर दिया। राहुल की, 16 दिन की यात्रा, 25 जिलों का दौरा, लगातार सभाएं, महागठबंधन के बड़े नेता साथ मंच तैयार, कथा तैयार, सबकुछईसी पर आरोपवाले नैरेटिव को मजबूत करने के लिए था। लेकिन, कोई आंकड़ा, कोई वीडियो, कोई केस स्टडी, कोई ठोस उदाहरण, कोई शिकायत, कोई हलफनामा, यानी शोर बहुत, साक्ष्य शून्य। जनता ने समझ लिया कि यह राजनीतिसाक्ष्यनहीं, बल्किआरोप आधारित प्रचारहै। बिहार चुनाव परिणामों ने महागठबंधन को आईना दिखा दिया कि, जब बोतल खाली हो, तो शोर कितना भी करो, वोटर उसे पहचान लेता है।

राहुल गांधी की राजनीति का मूल संकट तीन स्तरों पर दिखाई देता है, 1. रणनीतिक विफलता : राहुल गांधी की रणनीति अक्सरमोमेंटम आधारितरही, कभी यात्रा, कभी अभियान, कभी नारा, कभी अचानक आरोप। लेकिन किसी भी अभियान के लिए जरूरी है, निरंतरता, जमीनी संगठन, बूथ स्तर पर पकड़, तथ्य आधारित संवाद, कार्यकर्ताओं का नेटवर्क, राहुल ने यह कभी मजबूत नहीं किया। 2. वैचारिक दिशाहीनता : कांग्रेस किस रास्ते पर चल रही है? वामपंथी? समाजवादी? उदारवादी?, धर्मनिरपेक्ष?, कल्याणकारी?, नव-उदारवादी? जनता तो छोड़िए, कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी स्पष्ट नहीं। राहुल की सलाहकार टीम अत्यधिक वैचारिक, जमीन से कटे हुए, और राजनीतिक जटिलताओं को समझने में कमजोर मानी जाती है। कांग्रेस की बूथ इकाइयां खत्म हो गईं। जिला संगठन निष्क्रिय। राज्य इकाइयां टूट चुकीं। योग्य नेता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं. जहाँ सरकार है, वहाँ अंतर्कलह चरम पर है। जहाँ विपक्ष है, वहाँ संघर्ष का ढांचा ही नहीं। नेतृत्व ऊपर है, संघर्ष नीचे गायब है।

खास यह है, राहुल गांधीः जनता का भरोसा क्यों नहीं जीत पाए? जवाब है 1. आरोपों की राजनीति जनता को पसंद नहीं आई, वोटर अब जागरूक है, वह भावनाओं से ज़्यादा तथ्य चाहता है। 2. हर चुनाव में हार का रिकॉर्ड, विश्वसनीयता वहीं खत्म हो जाती है जहां सफलता का कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं। 3. जनता से संवाद का अभाव : राहुल के भाषणों में विषय हैं, पर समाधान नहीं। प्रश्न हैं, पर योजनाएँ नहीं। भावनाएँ हैं, पर दिशा नहीं। 4. गठबंधन का अस्थायी सहारा : जहाँ कांग्रेस अकेले खड़ी होती है, वहां उसका वोट 10 से 15 फीसदी से आगे नहीं बढ़ पा रहा। यह आरोप कि ईवीएम खराब, ईसी पक्षपाती, वोट चोरी, वोट डकैती, आयोग बीजेपी की बी -टीम, यह सब एक गहरी चुनावी विफलता का संकेत है। जब संगठन कमजोर, मुद्दे कमजोर, नेतृत्व कमजोर, तो ऐसे आरोपराजनीतिक ऑक्सीजनबन जाते हैं। लेकिन 272 दिग्गजों का खुला खत अब इस नैरेटिव को गंभीर झटका है। देश के इन अनुभवी लोगों ने साफ कहा, “आरोप राजनीतिक हैं, साक्ष्य शून्य।यह कांग्रेस की साख पर एक बड़ा सवाल है।

ऐसे में बड़ा सवाल है क्या कांग्रेस वापस उभर सकती है? यह संभव है, पर इसके लिए राहुल गांधी को तीन बड़े कदम उठाने होंगे, 1. आरोपों की राजनीति छोड़कर जनता के मुद्दों पर काम करना, मुद्दे : अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, किसान, युवा, आरोपों से नहीं, योजनाओं से हल होंगे। 2. संगठन का पुनर्गठन : स्थानीय नेतृत्व को आगे लाना होगा। पुराने कार्यकर्ताओं को वापस जोड़ना होगा। डिजिटल नहीं, जमीनी नेटवर्क बनाना होगा। 3. वैचारिक स्पष्टता : कांग्रेस को तय करना होगा कि वह किस राजनीतिक आधार पर आगे जाना चाहती है। मतलब साफ है कांग्रेस का संकट नेतृत्व, नीति और नैरेटिवकृ तीनों का है. राहुल गांधी का नेतृत्व कांग्रेस को वह दिशा नहीं दे पाया जिसकी एक राष्ट्रीय पार्टी को आवश्यकता होती है। चुनावी हार राज्यों में सत्ता खत्म, संगठन कमजोर, विचारधारा अस्पष्ट, और अब संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास का खतरनाक नैरेटिव, इन सबने कांग्रेस को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से या तो उसके पुनरुत्थान का रास्ता निकलेगा, या फिर उसका पतन और गहराएगा। 272 दिग्गजों का खुला पत्र कांग्रेस के लिए चेतावनी है, एक लोकतांत्रिक प्रणाली में हार का अर्थ यह नहीं कि संस्थाएँ गलत हैं। इसका अर्थ सिर्फ यह है कि जनता ने विकल्प चुना। और जनता बार-बार कांग्रेस केकथा आधारित आरोपोंको खारिज कर रही है। यदि कांग्रेस को भविष्य चाहिए, तो उसे सच बोलना होगा, अपने भीतर भी, और देश के सामने भी। वरना वह इतिहास की किताबों में बस यह संदेश छोड़ जाएगी, “सबसे पुरानी पार्टी भी गलत नेतृत्व के नीचे ढह सकती है।

हार का ग्राफ : विधानसभा चुनावों में बेजोड़ गिरावट

एक बेहद चिंताजनक पहलू यह है कि राहुल गांधी के प्रभावी होने के बाद से कांग्रेस ने लगभग 83 विधानसभा चुनावों में से 71 हारे हैं। यह हार की दर महज आकस्मिक असफलता नहीं, बल्कि संस्थागत कमजोर­पना का संकेत है, जिसे सिर्फ नेता-व्यक्तित्व की विफलता से नहीं, बल्कि संगठन, नेतृत्व रणनीति और विचारधारा की गहराइयों में देखना होगा। यह ध्यान देने योग्य है कि यह गिरावट सिर्फ चुनाव हारने की बात नहीं है, यह कांग्रेस की निर्णय क्षमता, स्थानीय संगठन शक्ति और चुनावी रणनीति की संपूर्ण विफलता की कहानियों में बदल गई है। राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस वह प्रभावी पार्टी नहीं रह पाई है जो कभी पूरे देश में फैली हुई थी। लोकसभा चुनावों में तस्वीर थोड़ा हद तक बेहतर रही, 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं। यह 2019 के मुकाबले एक सुधार है, लेकिन यह उतनी बड़ी वापसी नहीं थी जितनी कांग्रेस समर्थक इसकी आशा कर रहे थे। इंडिया गठबंधन के रूप में कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण थी, लेकिन अकेले उसकी ताकत राष्ट्रीय स्तर पर अपने पुराने दिन वापस लाने के लिए काफी नहीं दिखी। हालाँकि यह वृद्धि संयोग नहीं थी, कांग्रेस ने रणनीतिक रूप से कुछ क्षेत्रों पर फोकस किया, गठबंधन का सहारा लिया और मोदी-बीजेपी के खिलाफ लामबंद विपक्षी ताकतों का हिस्सा बनी, मगर यह पटरी पर वापसी नहीं, बल्कि रिंग में लौटने की कोशिश थी।

प्रदेशों में शक्ति का सिकुड़ना

सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है कांग्रेस की घटती राज्य-स्तरीय खेती। 2014 में, कांग्रेस के पास 11 राज्यों में सरकार थी, लेकिन अब यह संख्या सिर्फ तीन तक सीमित हो गई हैः कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश। यह सीमितजुड़ावराष्ट्रीय पार्टी की राष्ट्रीय शक्ति की धुंधली पड़ने वाली छवि देता है। यहाँ तक कि हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस स्थिति के तंग आरोप पर चल रही है। कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि क्रॉस-वोटिंग और अंदरूनी दरारें उसकी स्थिरता को खतरे में ला रही हैं। अगर हिमाचल चला गया, तो कांग्रेस का उत्तर भारत में एकमात्र गढ़ भी खतरे में होगा, और उसकी मौजूदगी सिर्फ दक्षिण में टेलंगाना और कर्नाटक तक सीमित रह जाएगी। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि राज्य सरकारों में शक्ति का नुकसान सिर्फसीटों की बातनहीं है, यह संगठनीय जड़ता, स्थानीय नेटवर्क और देशव्यापी संपर्क खोने की कहानी है।

लॉस रिकार्ड और जवाबदेही

हाल ही में भाजपा ने एक तंज के साथ दावा किया है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 95 चुनावों में हार मिली है। यह केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि वास्तविकता का प्रतिबिंब है, जैसा कुछ विश्लेषकों का मानना हैप्रतिष्ठान लिक्विडेशनयानी संस्थागत क्षय का संकेत।

संघठनात्मक कमजोरी

राहुल गांधी, भले ही सार्वजनिक रूप से सक्रिय हों, लेकिन कांग्रेस की संगठन संरचना लगातार कमजोर होती दिख रही है। स्थानीय स्तर पर पार्टी को युवाओं, बूथ लेवल कार्यकर्ताओं, और धरातलीय नेताओं को जोड़ने में असफलता का सामना करना पड़ा है। इस संगठनात्मक विफलता ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी नुक़सान पहुँचाया है।

संवाद और संदेश की कमजोर नींव

राहुल गांधी की सार्वजनिक यात्रा, जैसेभारत जोड़ो यात्राऔर अन्य अभियानों ने नकली उम्मीदों को जगाया, लेकिन चुनावी धरातल पर उनका संदेश अक्सर अस्पष्ट रहा। विपक्ष को जोड़ा जाए, लेकिन उसे जीत में परिवर्तित करने की रणनीति कमजोर पड़ी, शायद इसलिए कि संदेश और संरचना में सामंजस्य नहीं था।

संरचनात्मक और चुनावीय चुनौतियाँ

कांग्रेस को सिर्फ एकनेतृत्व समस्यानहीं है। उसकी गिरावट की गहराई में कई संरचनात्मक और चुनावीय चुनौतियाँ निहित हैं : स्थानीय नेटवर्क का टूटना : कांग्रेस का बूथ स्तर पर नेटवर्क, जो कभी उसकी ताकत रहा करता था, कई राज्यों में कमजोर पड़ गया है। स्थानीय काडर की कमी और बूथ-संयोजन का कमजोर होना विधानसभा चुनावों में उसकी हार का एक बड़ा कारण रहा है। प्रतिद्वंद्वियों का मजबूतीकरण : भाजपा ने अपनी संगठनात्मक क्षमता बढ़ाई है, और राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत होती जा रही है। इसके अलावा, क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस के कुछ पारंपरिक गढ़ों में प्रतिस्पर्धा बढ़ा रही हैं। इन राजनीतिक बदलावों ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी की राह और कठिन बना दी है। गठबंधन राजनीति में जटिलता : इंडिया ब्लॉक की भागीदारी ने कांग्रेस को कुछ सीटों पर फायदा पहुंचाया, लेकिन गठबंधन राजनीति अक्सर विचारधारात्मक जटिलताओं और संसाधन-पारस्परिकता की चुनौतियों से भरी होती है। यह कांग्रेस के लिए एक डबल-एजड तलवार रही है : गठबंधन के बिना अकेले मजबूत होना मुश्किल, और गठबंधन में अपने एजेंडे को लागू करना कठिन। मूल्य और पहचान संकटः कांग्रेस, जिसे कभी भारत के स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, आज एक ऐसी पार्टी बन गई है जिसेपारंपरिककहा जाता है, लेकिन उसकी पहचान आधुनिक भारत में स्पष्ट नहीं है। इसके नीतिगत संदेश, नेतृत्व और संगठन आधुनिक राजनीतिक युग की मांगों के साथ सामंजस्य में नहीं दिखते जैसा कि वोटरों की अपेक्षा होती है।

राहुल गांधी क्यों ज़िम्मेदार हैं?

यह कहना गलत होगा कि राहुल गांधी अकेले कांग्रेस के पतन के लिए जिम्मेदार हैं। पार्टी की समस्या जटिल और गहरी है, यह सिर्फ एक नेता का मामला नहीं, बल्कि एक संस्थान का संकट है। फिर भी, उनके नेतृत्व ने कुछ महत्वपूर्ण मोर्चों पर कांग्रेस को कमजोर किया है : हितों का असंतुलन : राहुल गांधी की ऊर्जा, व्यंजना और भाषण क्षमता में कमी नहीं है, लेकिन उनका संगठनात्मक दृष्टिकोण और रणनीति अक्सर स्थानीय विस्तार और बूथ स्तर तक नहीं पहुँच पाती। राजनीतिक जुड़ाव और जमीन से कटाव : कांग्रेस का जमीनी जुड़ाव घटने का एक बड़ा कारण यह है कि उसके प्रमुख नेता और विचारक ग्रामीण और मध्यम वर्ग के आम मतदाता के मुद्दों से पर्याप्त दूरी बनाए रखते हैं। राहुल की नीतिगत प्राथमिकताएँ और सार्वजनिक निजीकरण, सामाजिक न्याय जैसी चर्चाएँ, बहुत सारे वोटरों की रोज़मर्रा की समस्याओं से मेल नहीं खातीं। लंबे समय की रणनीति की कमी : कांग्रेस ने कई बारपलायन रणनीतिअपनाई है, अचानक बड़े अभियानों, यात्रा और घोषणाओं के माध्यम से सक्रियता दिखाना, लेकिन निरंतरता की कमी रही है। चुनावी जीत पाने के लिए सिर्फ रैली और भाषण पर्याप्त नहीं होते; ज़रूरत है संरचनात्मक बदलाव, स्थिर संगठन, और दीर्घकालीन रणनीति की। राहुल गांधी की भूमिका इस पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण होगी, लेकिन अकेले नेतृत्व से यह काम नहीं हो सकता। यह समय है जब कांग्रेस कोनेतृत्वऔरसंस्थानके बीच संतुलन बनाना होगा, और यह तय करना होगा कि वह सिर्फ एक पारंपरिक पार्टी की मानसिकता में बचेगी या फिर नए भारत की चुनौतियों का जवाब देने वाली एक आधुनिक, जीवंत शक्ति बनेगी। यदि कांग्रेस इस संकट को अवसर में बदलना चाहे, तो उसे सिर्फ हार से सीखना होगा, बल्कि अपनी जड़ें फिर से गहराई तक लगाने होंगे। वरना, वह सिर्फ राजनीतिक इतिहास की एक सीख बनकर रह जाएगी, एक दिग्गज पार्टी, जिसे समय ने पीछे छोड़ दिया। 

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