भरत मिलाप : बन्धुत्व की पवित्रतम गाथा और काशी का अनुपम उत्सव
भरत मिलाप केवल मंचन नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों और भरत के त्याग की स्मृति है। जब राम के वनवास के बाद राजपाठ मिला तो भरत ने गद्दी पर अपने प्रभु की पादुका रख दी और स्वयं सेवक बनकर राज संभाला। यही चरित्र हमें बताता है कि बन्धुत्व और अपनत्व का भाव यदि घर-घर में जीवित हो जाए, तो विभाजन और संघर्ष की जगह प्रेम और सौहार्द स्थायी हो जाए। भरत मिलाप केवल पांच मिनट की लीला नहीं, बल्कि जीवन की गहरी सीख है। यह बताता है कि भाईचारा, त्याग, प्रेम और मर्यादा ही जीवन को सफल और समाज को संगठित बनाते हैं। तुलसी के रामचरित के पात्र हमारे लिए आदर्श चरित्र हैं, राम आदर्श पुत्र, भरत आदर्श भाई, लक्ष्मण आदर्श अनुज और शत्रुघ्न आदर्श सहचर। नाटी इमली का यह भरत मिलाप इस सत्य का उद्घोष करता है कि जहां प्रेम और बन्धुत्व है, वहीं सच्चा धर्म और समाज की स्थायी नींव है. नाटी इमली का भरत मिलाप केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि काशी की धड़कन है। यह परंपरा बताती है कि रामकथा ग्रंथों तक सीमित नहीं, बल्कि काशी की संस्कृति और आस्था की जीवंत धारा है, जो हर वर्ष हजारों-लाखों श्रद्धालुओं को अपने संग बहा ले जाती है
सुरेश गांधी
गोधूलि की उस पावन
बेला में, जब सूर्यास्त
की लालिमा आसमान को रंग देती
है और चारों ओर
ध्वनित होते हैं “राजा
रामचंद्र की जय!”, काशी
का नाटी इमली मैदान
बन्धुत्व और आस्था की
अनूठी मिसाल का साक्षी बनता
है। आंखों में काजल, माथे
पर चंदन, सिर पर लाल
पगड़ी धारण किए जब
प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न
आपस में गले मिलते
हैं, तो वह दृश्य
केवल लीला नहीं रहता,
बल्कि सजीव अनुभव बनकर
हर भक्त के हृदय
में उतर जाता है।
यह वही क्षण है,
जब विरह और मिलन
के बीच की रेखा
मिट जाती है, भरत
का दर्द, राम का वात्सल्य
और भाईचारे की गहनतम अनुभूति।
पांच मिनट की इस
झांकी में जो भाव
उमड़ते हैं, वे जीवनभर
के लिए आस्था का
आधार बन जाते हैं.
कहा जाता है
कि संत शिरोमणि गोस्वामी
तुलसीदास ने इस भरत
मिलाप की परंपरा की
नींव रखी थी। उनके
शरीर त्याग के बाद संत
मेधा भगत को स्वप्न
में उनकी प्रेरणा मिली
और तब नाटी इमली
की धरती पर यह
मंचन प्रारंभ हुआ। तभी से
यह परंपरा 482 वर्षों से अखंड रूप
से चल रही है।
मान्यता है कि जिस
चबूतरे पर यह लीला
होती है, वहीं प्रभु
राम ने स्वयं मेधा
भगत को साक्षात दर्शन
दिए थे। इस लीला
के दिन काशी की
अन्य सभी रामलीलाएं बंद
हो जाती हैं, क्योंकि
नाटी इमली का भरत
मिलाप सर्वोपरि माना जाता है।
काशी नरेश की उपस्थिति
इसकी गरिमा को और बढ़ा
देती है। 1796 में महाराज उदित
नारायण सिंह से प्रारंभ
हुई यह परंपरा आज
भी काशी नरेश की
पीढ़ियां निभा रही हैं।
रामचरित में वर्णित आदर्श
पात्रों से हमें शिक्षा
मिलती है कि भाईचारा,
प्रेम और मर्यादा ही
समाज और परिवार का
आधार हैं।
भीड़ का उत्साह और आस्था का सागर
सात दिन में
नौ त्योहार मनाने वाली काशी की
संस्कृति विश्व विख्यात है। इन्हीं में
से एक अनूठी परंपरा
है नाटी इमली का
भरत मिलाप, जो विजयादशमी के
दूसरे दिन लाखों श्रद्धालुओं
को काशी की धरती
पर खींच लाता है।
लीला स्थल पर सूर्योदय
से ही श्रद्धालुओं का
सैलाब उमड़ने लगता है। गलियां,
छतें, चबूतरे, हर ओर लोगों
का रेला। घंटों इंतजार के बावजूद कोई
अधीर नहीं, मानो हर दिल
केवल उस क्षण की
प्रतीक्षा में धड़क रहा
हो। और जब मिलन
का वह दृश्य सामने
आता है, तो अस्ताचलगामी
सूर्य भी मानो ठिठक
जाता है। लोगों की
आंखें छलछला उठती हैं, रोम-रोम पुलकित हो
उठता है और जयघोष
से पूरा वातावरण गूंज
जाता है। इस क्षण
में भक्तों को प्रतीत होता
है कि स्वरूपों में
क्षणिक ही सही, किंतु
भगवान स्वयं अवतरित हो गए हैं।
काशी की आस्था और लोकविश्वास
इस दिन प्रभु
श्रीराम के स्वरूप को
व्यापारी वर्ग पुष्पक विमान
पर लेकर चलता है।
मान्यता है कि ऐसा
करने से व्यापार में
उन्नति होती है। राम
और भरत के मिलन
के बाद तुलसी माला
का एक-एक पत्ता
भक्तों के लिए प्रसाद
बन जाता है। इसे
पाने की लालसा हर
हृदय में सुख-समृद्धि
और सौभाग्य की आकांक्षा से
भरी होती है। यही
वह क्षण है, जब
भक्त और भगवान के
बीच की दूरी मिट
जाती है। भक्तों का
विश्वास है कि जैसे
ही चारों भाई गले मिलते
हैं, वैसे ही स्वरूपों
में प्रभु का अंश अवतरित
होता है और इस
अलौकिक अनुभूति से पूरा वातावरण
दिव्यता से भर उठता
है।
1. परंपरा का अमर प्रवाह
2. आस्था का सैलाब
3. काशी नरेश की उपस्थिति
पूर्व काशी नरेश हाथी
पर सवार होकर लीला
स्थल तक आते हैं।
प्रभु श्रीराम को सोने की
गिन्नी अर्पित कर, पुष्पक विमान
की परिक्रमा करते हैं।
4. बन्धुत्व और प्रेम का संदेश
चौदह वर्षों के
वनवास के बाद राम
और भरत के मिलन
में समर्पण, त्याग और भाईचारे की
गाथा जीवंत हो उठती है।
5. पांच मिनट का अलौकिक अनुभव
यह झांकी केवल
पांच मिनट की होती
है, पर भक्तों के
हृदय में अनंत स्मृतियों
और भावनाओं को जन्म देती
है।
6. लोकविश्वास और सामाजिक सहभागिता
यादव समाज पुष्पक
विमान उठाकर भगवान के दर्शन करता
है। तुलसी माला का प्रत्येक
पत्ता भक्तों के लिए प्रसाद
बन जाता है, जिससे
सुख-समृद्धि का आशीर्वाद मिलता
है।
गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन मेघाभगत
ने रामचरितमानस को जन-जन
तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया।
विशेश्वरगंज स्थित फुटे हनुमान मंदिर
से उन्होंने रामलीला और भरत मिलाप
की नींव रखी। मान्यता
है कि प्रभु राम
ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए
और तभी से इस
लीला का आयोजन शुरू
हुआ।
पुष्पक विमान और यादव समाज
पांच टन वजनी
पुष्पक विमान को कंधे पर
उठाकर ले जाना आज
भी यादव समाज के
लिए गर्व और आस्था
का विषय है। धोती,
बंडी और सिर पर
गमछे का मुरेठा कसकर
जब युवक विमान उठाते
हैं तो वह दृश्य
श्रद्धा और शक्ति दोनों
का प्रतीक बन जाता है।
काशी नरेश की शाही परंपरा
1796 में उदित नारायण
सिंह से प्रारंभ हुई
काशी नरेश की भागीदारी
आज भी अटूट है।
वर्तमान काशीराज अनंत नारायण सिंह
हाथी पर सवार होकर
अपने दल-बल सहित
इस लीला में सम्मिलित
होंगे। देव स्वरूपों को
स्वर्ण गिन्नी भेंट करने की
परंपरा भी इसी शाही
अंदाज का हिस्सा है।
आस्था का अद्भुत क्षण
सूर्यास्त के पहले का
वह क्षण जब राम
और लक्ष्मण भरत-शत्रुघ्न को
गले लगाते हैं, भक्तों के
लिए अलौकिक अनुभव बन जाता है।
“सियावर रामचंद्र की जय“ की
गूंज से पूरा वातावरण
गुंजायमान हो उठता है।
श्रद्धालु मानते हैं कि उस
क्षण प्रभु के साक्षात दर्शन
होते हैं।
सुरक्षा और प्रबंधन
तीन अक्तूबर को
होने वाले इस आयोजन
के लिए पुलिस-प्रशासन
ने कड़े प्रबंध किए
हैं। ड्रोन निगरानी, रूफटॉप फोर्स और सिविल ड्रेस
में तैनात पुलिसकर्मी हर गतिविधि पर
नजर रखेंगे।
कार्यक्रम का क्रम
3ः15
बजे : धूपचंडी मैदान में पुष्पक विमान
पूजन।
3ः45
बजे : राम-लक्ष्मण-सीता
का विमान से प्रस्थान।
4ः00
बजे : नाटी इमली मैदान
में विमान का आगमन।
4ः30
बजे दृ भरत-शत्रुघ्न
संग अयोध्यावासियों का आगमन।
4ः40
बजे : राम-भरत मिलन।
5ः00
बजे : प्रभु परिवार का बड़ा गणेश
(अयोध्या) प्रस्थान।
7ः00 बजे : आरती और समापन।









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