गंगा की धारा और ठुमरी की तान में अमर हुए छन्नूलाल
आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो लगता है कि पं. छन्नूलाल मिश्र केवल एक गायक नहीं थे, बल्कि काशी की आत्मा थे। उनकी ठुमरी बनारस के घाटों पर गूंजती रहेगी, उनकी भक्ति संकटमोचन में स्वर देती रहेगी और उनका नाम भारतीय संगीत के इतिहास में अमर रहेगा। वे गए नहीं, बस गंगा की लहरों में घुलकर अनश्वर हो गए हैं। भले ही उनका शरीर अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनका स्वर अनश्वर है। उनकी ठुमरियां, उनके भजन और उनकी गूंज आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी। उनका जाना हमें शोक से भरता है, लेकिन उनका जीवन हमें बताता है कि संघर्षों के बीच साधना कैसे की जाती है, और साधना से कला को अध्यात्म तक कैसे पहुंचाया जाता है। पं. छन्नूलाल मिश्र चले गए, लेकिन उनकी गूंज बची है. काशी की गलियों में, गंगा की लहरों में, और हर उस दिल में जहां ठुमरी का रस है, वे हमेशा जीवित रहेंगे। उनका जाना एक युग का अंत है, लेकिन उनकी ठुमरी एक अनश्वर विरासत है। वे नहीं रहे, पर उनका स्वर अब गंगा की धारा बनकर अमर हो गया है
सुरेश गांधी
वाराणसी की संकरी गलियों
में जब भी गंगा
की बयार बहती है,
तो उसमें ठुमरी की कोई अदृश्य
तान घुली रहती है।
यह तान कभी बेगम
अख्तर से जुड़ती थी,
कभी गिरिजा देवी से, और
पिछले कई दशकों से
यह तान एक ही
व्यक्तित्व में साकार होती
रही, पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र। यह तान कभी
“कौन गलि गयो श्याम”
बन जाती, कभी “होरी खेलन
कैसे जाऊँ” और कभी रामभक्ति
का गूढ़ गान। अब
जब यह स्वर कंठ
मौन हो गया है,
तो काशी की गलियां
और घाट किसी अनजाने
सन्नाटे से भर उठे
हैं। 2 अक्टूबर 2025 की रात, गंगा
किनारे वह कंठ जो
दशकों से काशी की
आत्मा था, निस्तब्ध हो
गया। भारतीय शास्त्रीय संगीत के आकाश में
आज एक ऐसा तारा
अस्त हो गया, जिसकी
आभा से पूरा बनारस,
पूरा भारत जगमगाता रहा।
जिसकी चमक दशकों तक
गंगा-जमुनी तहजीब और बनारसियत की
पहचान रही। पद्मविभूषण पंडित
छन्नूलाल मिश्र अब इस दुनिया
में नहीं हैं। 89 वर्ष
की आयु में यह
महान गायक जब अनंत
में लीन हुए, तो
मानो “राग, रस और
रागिनी का साधक” सदा
के लिए मौन हो
गया। यह सच है
कि स्वर कभी मरते
नहीं, वे हवाओं में
तैरते रहते हैं, पीढ़ियों
को प्रेरित करते रहते हैं।
जब उनके पोते
ने चिता को अग्नि
दी, गंगा की लहरें
मानो उनकी ठुमरी गुनगुना
रही थी. सचमुच, बनारस
की कंठध्वनि थम गई है,
पर उनके स्वर शाश्वत
हैं, वे हवाओं में
बहते रहेंगे, पीढ़ियों तक राग-रस
और भक्ति का संदेश सुनाते
रहेंगे। भारतीय संगीत परंपरा का इतिहास जब
लिखा जाएगा तो उसमें एक
नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज रहेगा,
पंडित छन्नूलाल मिश्र। वे केवल गायक
नहीं थे, बल्कि बनारस
की जीवित परंपरा, लोकसंस्कृति के संवाहक और
शास्त्रीयता को जनभाषा में
ढालने वाले साधक थे।
आज उनका स्वर थम
गया, पर उनकी गूंज
पीढ़ियों तक गूंजती रहेगी।
वैसे भी भारत की
आत्मा जब गाती है
तो उसकी धुन में
गंगा की लहरें, काशी
की गलियां और लोकजीवन की
करुणा मिल जाती है।
आज वही स्वर, वही
रस, वही गंगा-जमुनी
तहजीब का प्रतीक मौन
हो गया। पंडित जी
केवल शास्त्रीय संगीत के साधक नहीं
थे, वे बनारस की
धड़कन थे। उनकी ठुमरी,
दादरा, कजरी और भजन
में वह माटी की
सोंधी गंध आती थी,
जिसे सुनकर लगता था कि
बनारस स्वयं गा रहा हो।
“खेले मसाने में होली दिगम्बर”
जैसी उनकी अमर रचनाएं
जीवन और मृत्यु की
दार्शनिकता को लोकधुन में
ढालकर साधारण जन-जन तक
पहुँचा देती थीं। यही
उनकी सबसे बड़ी विशेषता
थी, संस्कार और रस को
सहजता से जनमानस के
भीतर उतार देना। उनका
जाना भारतीय संगीत धारा के लिए
अपूरणीय क्षति है।
संघर्षों से साधना तक : गोरखपुर से काशी तक की यात्रा
पं. छन्नूलाल मिश्र का जन्म गोरखपुर जनपद के हरिहरपुर गांव में 9 अगस्त 1930 को हुआ। यह गांव वैसे तो आम गांवों की तरह ही था, लेकिन इसकी मिट्टी में संगीत की महक थी। उनके पिता पं. बुध्दीलाल मिश्र स्वयं लोकगायक और गवैया थे। बचपन में ही पं. मिश्र ने अपने पिता की गोद में बैठकर आल्हा, सोहर और भजन सुना। बचपन में खेतों में हल जोतते-जोते वे आल्हा गुनगुनाते। मेले और बारातों में गाना ही उनका खेल था। वहीं से उनके भीतर संगीत का बीज पड़ा। कहते हैं, उनका जीवन प्रारंभिक दौर से ही आर्थिक अभावों से घिरा रहा। कठिनाई इतनी कि कभी-कभी रियाज़ के लिए साधन जुटाना भी कठिन हो जाता। लेकिन इस संघर्ष ने ही उनके भीतर गहन साधना का संकल्प भरा। उन्होंने गुरु शीतला प्रसाद त्रिपाठी से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली।
इसके बाद वाराणसी में आकर वे महान गायक पं. हनुमान प्रसाद मिश्र और उस्ताद अब्दुल गनी खां के शिष्य बने। यहां से उनकी ठुमरी की यात्रा शुरू होती है। मतलब साफ है काशी ने उन्हें मांजा और बनारस की माटी ने उनके स्वर को अमरता दी। गुरुओं के मार्गदर्शन से उन्होंने ख्याल और पूरब अंग की ठुमरी में वह गहराई पाई, जो बाद में उनकी पहचान बन गई।उनके
सुरों में वह बनारसीपन
था, जो शास्त्रीय संगीत
को भी सहज और
आत्मीय बना देता था।
जब भी उन्हें कोई
बड़ी उपलब्धि मिलती, वे सीधा संकटमोचन
मंदिर पहुँचते। कहते थे— मेरी
आवाज़ का मालिक हनुमान
हैं, मैं तो बस
उनका सेवक हूँ। यही
कारण था कि पद्मविभूषण
की घोषणा के दिन भी
वे भीड़ से बचकर
महंत विश्वम्भर नाथ मिश्र के
घर जा पहुँचे।
ठुमरी : केवल गान नहीं, जीवन का दर्शन
भक्ति और रामचरित : संगीत में अध्यात्म का प्रवाह
काशी और गंगा से आत्मीय रिश्ता
वाराणसी उनकी कर्मभूमि रही।
वे कहा करते थे,
“काशी के बिना मेरी
ठुमरी अधूरी है, गंगा के
बिना मेरा स्वर अधूरा
है।” मणिकर्णिका घाट, संकटमोचन मंदिर
और काशी की गलियों
में उनका स्वर अक्सर
गूंजता। संकटमोचन संगीत समारोह में जब वे
गाते, तो लोग मानते
कि यह केवल गायन
नहीं, बल्कि आराधना है। गंगा से
उनका संबंध अद्भुत था। उनके जीवन
के अंतिम वर्षों में भी वे
कहते रहे, “जब मेरी आवाज
थमेगी, तो गंगा इसे
आगे बढ़ाएगी।” आज जब वे
नहीं हैं, तो सचमुच
लगता है कि गंगा
उनकी स्वरधारा को बहा ले
गई है। मतलब साफ
है वाराणसी पहुंचकर उन्होंने न केवल संगीत
साधा बल्कि काशी को अपनी
आत्मा बना लिया। घाटों
पर बैठकर रियाज़ करना, संकटमोचन मंदिर में गाना, और
गलियों में सहजता से
लोगों से मिलना, यही
उनका जीवन बन गया।
वे अक्सर कहते थे, “काशी
की मिट्टी और गंगा की
धारा मेरी तान को
जीवन देती है।“
राम और शिव में लीन गायक
राजनीति से दूर, संस्कृति से ऊँचे
पं. मिश्र का
जीवन राजनीति से दूर रहा।
वे कभी किसी विचारधारा
या दल के चक्रव्यूह
में नहीं बंधे। उन्होंने
कभी सत्ता के दरबार में
स्थान नहीं चाहा। उनकी
पहचान केवल और केवल
संगीत रही। वे मानते
थे कि कलाकार की
पहचान उसकी कला है,
न कि राजनीतिक मंच।
फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने हमेशा उन्हें
विशेष स्नेह दिया। मोदी जी उन्हें
“काशी का गौरव” कहते
थे। प्रधानमंत्री ने उनके निधन
पर श्रद्धांजलि देते हुए कहा,
“पं. छन्नूलाल मिश्र जी ने ठुमरी
और बनारस घराने के संगीत को
अमर कर दिया। वे
भारतीय संगीत के अमूल्य धरोहर
थे।“ उनका जाना व्यक्तिगत
क्षति है। उनका स्वर
हमें हमेशा प्रेरित करेगा।“ यह वक्तव्य बताता
है कि पं. मिश्र
की पहचान केवल कलाकार की
नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर की थी।
व्यक्तिगत संस्मरण : जब दर्द भी सुर बना
मेरे लिए पं.
मिश्र केवल एक कलाकार
नहीं, बल्कि आत्मीय मार्गदर्शक रहे। कई बार
उनसे साक्षात्कार करने का अवसर
मिला। उनकी सहजता, उनकी
हंसी और उनका अपनापन
आज भी मन को
भर देता है। एक
बार जब वे अस्वस्थ
थे, तब मिर्जापुर स्थित
उनके आवास पर उनसे
मिलने गया। वहां उनके
शिष्य और परिवारजन उपस्थित
थे। मैंने पूछा, “पंडित जी, इस अवस्था
में भी रियाज़ करते
हैं?“ वे मुस्कराए और
बोले, “बेटा, दर्द भी एक
सुर है। जब बाकी
सुर साथ न दें,
तो दर्द को गा
लो।“ “संगीत का सुर दर्द
को भी कम कर
देता है।” उस दिन
मैंने जाना कि वे
केवल गायक नहीं, बल्कि
जीवन-दर्शन देने वाले ऋषि
थे। उनकी यह बात
बताती है कि उन्होंने
जीवन को ही संगीत
बना दिया था।
भारतीय संगीत में योगदान : परंपरा और नवाचार
पं. मिश्र ने
ठुमरी को वैश्विक मंच
तक पहुंचाया। वे अमेरिका, ब्रिटेन,
फ्रांस और यूरोप के
कई देशों में गए और
वहां भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा का
प्रचार किया। उन्होंने आल्हा, चैती, होरी, दादरा जैसे लोकधुनों को
भी ठुमरी से जोड़ा। इस
तरह उन्होंने लोक और शास्त्र
का अद्भुत मेल प्रस्तुत किया।
उनकी गायकी में न तो
केवल परंपरा थी और न
केवल प्रयोग, बल्कि दोनों का सामंजस्य था।
पुरस्कारों से बड़ा सम्मान
पद्मश्री (1991), पद्मभूषण (2003), पद्मविभूषण (2010), इसके अलावा उन्हें
कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। लेकिन वे अक्सर कहा
करते, “पुरस्कार तो बाहरी चीज़
है, असली पुरस्कार श्रोता
के दिल में जगह
बनाना है।“ “सबसे बड़ा पुरस्कार
तब मिलता है, जब बनारस
का कोई बच्चा मेरी
ठुमरी गुनगुनाता है।“
अंतिम समय : स्मृतियों और स्मरण में डूबा जीवन
जीवन के अंतिम
वर्षों में पं. मिश्र
का स्वास्थ्य कमजोर हो गया था।
लेकिन उनके भीतर का
गायक कभी नहीं थमा।
वे राम नाम में
लीन रहते, अपने शिष्यों से
बातें करते और हंसी-मजाक में भी
जीवन का रस खोज
लेते। वे अपनी पत्नी
और दिवंगत बेटी को अक्सर
याद करते। यह पीड़ा उन्हें
गहराई तक तोड़ती थी,
लेकिन वे हर बार
संगीत और भक्ति में
शरण पाते।
ठुमरी का शून्य और गंगा की निस्तब्धता
2 अक्टूबर 2025 की रात, जब
वे पंचतत्व में विलीन हुए,
तो काशी की निस्तब्धता
असह्य हो गई। मणिकर्णिका
घाट पर अंतिम संस्कार
हुआ और ऐसा लगा
मानो गंगा ने स्वयं
अपने पुत्र को गोद में
समेट लिया हो। उनका
जाना केवल एक व्यक्ति
का जाना नहीं है,
बल्कि ठुमरी, बनारस घराने और भारतीय संगीत
की एक परंपरा का
विराम है।
अनसुनी बातें : पं. मिश्र की जीवित परंपरा
1. आल्हा से
ठुमरी
तक
: लोग अक्सर उन्हें ठुमरी गायक के रूप
में जानते हैं, लेकिन शुरुआत
में वे आल्हा और
बिरहा गाते थे। गाँव
के मेले में उनकी
“अल्हा ऊदल” गूंजती थी।
बाद में बनारस में
आकर उन्होंने शास्त्रीय संगीत की दीक्षा ली
और ठुमरी की ओर मुड़े।
2. विदेश यात्राओं
का
अनुभव
: जब पहली बार वे
अमेरिका गए, तो मंच
पर बैठकर उन्होंने दादरा और चैती गाई।
श्रोताओं में से कई
भारतीय मूल के लोग
रो पड़े। वे कहते
थे, “विदेश में जाकर समझा
कि भारतीय संगीत केवल ध्वनि नहीं,
बल्कि घर की याद
है।“
3. शिष्यों से
आत्मीयता
: वे अपने शिष्यों से
गुरु की तरह नहीं,
बल्कि पिता की तरह
व्यवहार करते। अक्सर कहते, “गुरु केवल गाना
नहीं सिखाता, जीना भी सिखाता
है।“ इसलिए उनके शिष्य आज
भी उन्हें “बाबा” कहकर याद करते
हैं।
4. परिवार की
पीड़ा
: उनकी बड़ी बेटी की
असमय मृत्यु ने उन्हें भीतर
से तोड़ दिया था।
लेकिन उसी दर्द को
उन्होंने स्वर में ढाल
दिया। जब भी विरह
की ठुमरी गाते, श्रोता उस पीड़ा को
महसूस कर लेते।
5. लोकगीतों के
प्रेमी
: शास्त्रीयता के शिखर पर
पहुँचकर भी वे लोकगीतों
को भूले नहीं। अक्सर
गाँव में जाकर कहते,
“लोक ही असली शास्त्र
है। ठुमरी भी लोक से
ही निकली है।“
अनसुनी बातें
“आल्हा से शुरू हुई
यात्रा, ठुमरी तक पहुँचा सफर”
“विदेशों में भारतीय संगीत
का दूत”
“गुरु ही नहीं,
शिष्यों के लिए पिता
समान”
“व्यक्तिगत पीड़ा को भी
स्वर में ढाल दिया”
संगीत साधना
“ठुमरी : आंसुओं और मुस्कान का
संगम”
“श्रृंगार और भक्ति का
अद्भुत संतुलन”
“गंगा की लहरों
में गूंजती रही उनकी तान”
भक्ति और अध्यात्म
“रामचरितमानस की चौपाइयों में
डूबा स्वर”
“भक्ति ही मोक्ष है, और संगीत भक्ति का सेतु”









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