Wednesday, 1 October 2025

ठुमरी का सूरज गंगा में विलीन : काशी की कंठध्वनि थम गई

ठुमरी का सूरज गंगा में विलीन : काशी की कंठध्वनि थम गई

अब काशी का मणिकर्णिका घाट उनकी चिरविश्रांति का साक्षी बनेगा

पंडित छन्नूलाल मिश्र को संगीत जगत की भावभीनी श्रद्धांजलि

सोशल मीडिया पर लोग सांझा कर रहे है उनके साथ बीताएं पलों ण्वं अनुभवों को

आज उनका स्वर थम गया, पर उनकी गूंज पीढ़ियों तक गूंजती रहेगी

सुरेश गांधी 

वाराणसी. भारतीय शास्त्रीय संगीत के आकाश में आज एक ऐसा तारा अस्त हो गया, जिसकी आभा से पूरा बनारस, पूरा भारत जगमगाता रहा।  जिसकी चमक दशकों तक गंगा-जमुनी तहजीब और बनारसियत की पहचान रही। पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र अब इस दुनिया में नहीं हैं। गुरुवार तड़के 415 बजे मिर्जापुर में उन्होंने अपनी बेटी के घर अंतिम सांस ली। 89 वर्ष की आयु में यह महान गायक जब अनंत में लीन हुए, तो मानोराग, रस और रागिनी का साधकसदा के लिए मौन हो गया। आज जब उनकी चिता की अग्नि धधकेगी, गंगा की लहरें मानो उनकी ठुमरी गुनगुनाएंगी। सचमुच, बनारस की कंठध्वनि थम गई है, पर उनके स्वर शाश्वत हैं, वे हवाओं में बहते रहेंगे, पीढ़ियों तक राग-रस और भक्ति का संदेश सुनाते रहेंगे। भारतीय संगीत परंपरा का इतिहास जब लिखा जाएगा तो उसमें एक नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज रहेगा, पंडित छन्नूलाल मिश्र। 

वे केवल गायक नहीं थे, बल्कि बनारस की जीवित परंपरा, लोकसंस्कृति के संवाहक और शास्त्रीयता को जनभाषा में ढालने वाले साधक थे। आज उनका स्वर थम गया, पर उनकी गूंज पीढ़ियों तक गूंजती रहेगी। 

भारत की आत्मा जब गाती है तो उसकी धुन में गंगा की लहरें, काशी की गलियां और लोकजीवन की करुणा मिल जाती है। आज वही स्वर, वही रस, वही गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक मौन हो गया। पंडित जी केवल शास्त्रीय संगीत के साधक नहीं थे, वे बनारस की धड़कन थे। उनकी ठुमरी, दादरा, कजरी और भजन में वह माटी की सोंधी गंध आती थी, जिसे सुनकर लगता था कि बनारस स्वयं गा रहा हो। 

खेले मसाने में होली दिगम्बरजैसी उनकी अमर रचनाएं जीवन और मृत्यु की दार्शनिकता को लोकधुन में ढालकर साधारण जन-जन तक पहुँचा देती थीं। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी, संस्कार और रस को सहजता से जनमानस के भीतर उतार देना। उनका जाना भारतीय संगीत धारा के लिए अपूरणीय क्षति है। आज बनारस की गलियां सूनी होंगी, गंगा का प्रवाह मानो थम-सा गया होगा और संगीत का आसमान एक तारा
खो चुका है। 
लेकिन यह सच है कि स्वर कभी मरते नहींकृवे हवाओं में तैरते रहते हैं, पीढ़ियों को प्रेरित करते रहते हैं। 

आज जब उनकी पार्थिव देह मणिकर्णिका घाट पर पंचतत्व में विलीन होगी, तो काशी की गंगा उनके गाए भजन, ठुमरी और कजरी को अपनी लहरों में हमेशा के लिए समेट लेगी। भारत ने अपना एक अमूल्य रत्न खोया है।

जन्म से साधना तक का सफर

3 अगस्त
1936 को आजमगढ़ के हरिहरपुर गांव में जन्मे छन्नूलाल मिश्र ने संगीत की शिक्षा बिहार के मुजफ्फरपुर से आरंभ की। फिर काशी ने उन्हें मांजा और बनारस की माटी ने उनके स्वर को अमरता दी। गुरुओं के मार्गदर्शन से उन्होंने ख्याल और पूरब अंग की ठुमरी में वह गहराई पाई, जो बाद में उनकी पहचान बन गई। उनके सुरों में वह बनारसीपन था, जो शास्त्रीय संगीत को भी सहज और आत्मीय बना देता था।

संगीत की विविधता 

उनकी गायकी केवल शास्त्रीय मंच की नहीं थी, बल्कि लोकजीवन की भी थी। ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी और भजन, सब उनके सुरों में एकाकार हो उठते थे।खेले मसाने में होली दिगम्बरऔरश्याम मोरा नहीं आएजैसी प्रस्तुतियां आज भी श्रोताओं की आत्मा में गूंजती हैं। उनकी गायकी में शास्त्रीयता के साथ-साथ लोक की आत्मा भी झलकती थी। 

उनके गायन में केवल संगीत की गहराई थी, बल्कि जीवन-दर्शन और आध्यात्मिक आनंद का अनुभव भी मिलता था। ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर वे शीर्ष ग्रेड कलाकार रहे। 

सम्मान और उपलब्धियां 

उनकी साधना को देश ने अनेक सम्मान दिए, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2000), पद्मभूषण (2010), पद्मविभूषण (2020), साथ ही सुर सिंगार संसद का शिरोमणि सम्मान, नौशाद पुरस्कार, यश भारती और संगीत शिरोमणि पुरस्कार भी उनके खाते में जुड़े। वे उत्तर-केंद्रीय सांस्कृतिक केंद्र, संस्कृति मंत्रालय के सदस्य भी रहे।

मोदी से आत्मीय रिश्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनका गहरा नाता रहा। 2014 में उन्होंने मोदी के वाराणसी नामांकन में प्रस्तावक की भूमिका निभाई और शपथग्रहण समारोह मेंबधइयागीत गाकर उस ऐतिहासिक क्षण को लोकधारा की मिठास से भर दिया। यह प्रसंग इस बात का प्रमाण है कि वे केवल गायक नहीं, बल्कि संस्कृति और राजनीति के बीच सेतु भी थे।

संघर्ष और अंतिम समय 

बीते महीनों से वे अस्वस्थ थे। बीएचयू में इलाज के दौरान उन्हें हार्ट अटैक और चेस्ट इंफेक्शन की समस्या हुई। स्वास्थ्य में सुधार होने पर अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद 27 सितंबर को वे बेटी के घर मिर्जापुर गए। 

वहीं आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। बेटी नम्रता ने बताया कि हीमोग्लोबिन लेवल और त्वचा संबंधी दिक्कतें बनी रहीं। मिर्जापुर में मां विंध्यवासिनी मेडिकल कॉलेज और रामकृष्ण सेवा मिशन चिकित्सालय में उपचार हुआ, पर स्थिति सुधरी नहीं। गुरुवार सुबह उनका जीवन-दीपक शांत हो गया।

अंतिम यात्रा 

पंडित जी का पार्थिव शरीर गुरुवार को वाराणसी लाया जाएगा। दिनभर अंतिम दर्शन होंगे और शाम सात बजे मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार किया जाएगा। 

हजारों संगीत प्रेमियों और शिष्यों की उपस्थिति से गंगा किनारे काशी की हवा उनके सुरों में डूबी होगी।

स्वर कभी नहीं मरते

पंडित जी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि संगीत केवल कला नहीं, बल्कि साधना है। 

वे चले गए, पर उनकी गायकी, उनके भजन, उनकी ठुमरी और उनकी अमर रचनाएं सदियों तक पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी। 

आज जब गंगा किनारे उनकी चिता जलेगी, तो काशी की हवाओं में उनका स्वर तैरता रहेगा। सचमुच, स्वर कभी मरते नहीं, वे शाश्वत होते हैं। 

आज जब उनकी देह पंचतत्व में विलीन होगी, गंगा उनकी गाई ठुमरी और भजन को अपनी लहरों में हमेशा के लिए समेट लेगी। 

भारतीय संस्कृति ने अपना एक सच्चा प्रहरी खो दिया है। पंडित छन्नूलाल मिश्र को कोटि-कोटि श्रद्धांजलि।

सुरों का साधक, बनारस की आत्मा, मेरी स्मृतियों में सदा

जीवित रहेंगे पंडित छन्नूलाल मिश्र” : सुरेश गांधी 

आज भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह अनमोल धरोहर मौन हो गई, जिसने जाने कितनी पीढ़ियों को अपने स्वर से जीवन का अर्थ समझाया। पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र जी का जाना केवल बनारस या संगीत जगत की क्षति नहीं है, यह हम सबकी आत्मा को छू लेने वाला शोक है। मेरे लिए पंडित जी सिर्फ़ एक महान गायक नहीं थे, बल्कि आत्मीय लगाव और प्रेरणा के स्रोत भी थे। कई बार उनसे बातचीत, इंटरव्यू और निजी क्षण बिताने का सौभाग्य मिला। उनकी सरलता, अपनापन और सहजता हर मुलाक़ात में झलकती थी।अस्वस्थ होने पर जब मैं मिर्जापुर उनके आवास गया था, तो वहां उनके कई शिष्यों और परिजनों से भेंट हुई। उस समय भी उनकी आँखों में संगीत के प्रति वही जज़्बा और जीवन के प्रति वही सहज मुस्कान थी। यह अपनापन ही उन्हें महान कलाकार से बढ़कर एक संतुलित व्यक्तित्व बनाता था। 

यह तस्वीर, जो मेरी स्मृतियों में अब हमेशा के लिए धरोहर बन गई है, उनके उसी आत्मीय स्वरूप की गवाही देती है। उनके पास बैठकर लगता था मानो संगीत की गंगा प्रवाहित हो रही हो। पंडित जी कहते थे, “संगीत आत्मा को जोड़ता है, यह हमें भगवान से मिलाता है।सचमुच, उनकी ठुमरी, चैती और भजन केवल राग नहीं थे, वे साधना थेकाशी की धरोहर थे। उनकी गायकी में बनारस की गलियां, घाट, लोकगीत, उत्सव और मां गंगा का प्रवाह सुनाई देता था। उनकी ठुमरी, चैती, कजरी और दादरा में काशी का रस झलकता था। जब वे गाते थे तो मानो गंगा की धार, घाटों की धड़कन और बनारसी ठसक एक साथ स्वरबद्ध हो जाती थी। जीवन के गूढ़ सत्य थे। आज उनके स्वर थम गए हैं, पर उनकी गूंज अनंतकाल तक रहेगी। बनारस की गलियों में, मणिकर्णिका की धारा में, और हर उस दिल में जो शास्त्रीय संगीत से प्रेम करता है। पंडित जी, आपका जाना व्यक्तिगत शून्य भी छोड़ गया है। लेकिन आपके स्वर, आपका अपनापन और आपकी स्मृतियाँ हमें सदैव प्रेरणा देती रहेंगी। पंडित छन्नूलाल मिश्र का जाना केवल संगीत की क्षति नहीं, बल्कि काशी के आत्मा की आवाज का मौन हो जाना है। किंतु सच यह भी है कि स्वर कभी मरते नहींवे काल की धारा में बहते रहते हैं। उनकी ठुमरी, दादरा, कजरी और मानस सदैव गूंजते रहेंगे और काशी के घाट, गलियां और उत्सव हर युग में उन्हें स्मरण करेंगे। पंडित छन्नूलाल मिश्र अमर रहें...

पद्मविभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र को राष्ट्र की भावभीनी श्रद्धांजलि 

काशी की सुरधारा मौन हो गई : नरेन्द्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र के निधन पर गहरा शोक व्यक्त करते हुए कहा कि उनका जाना भारत के संगीत जगत की अपूरणीय क्षति है। प्रधानमंत्री ने भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए स्मरण किया कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पंडित मिश्र जी उनके प्रस्तावक बने थे। काशी और उसकी परंपराओं के प्रति उनका आत्मीय भाव अद्वितीय था। मोदी ने बताया कि महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर वे उनके आवास पर पधारे थे, और गांधी जयंती के दिन यह स्मृति और भी जीवंत हो उठी है। प्रधानमंत्री ने कहा पंडित छन्नूलाल मिश्र आज भले ही सशरीर हमारे बीच हों, किंतु उनके स्वर, उनकी ठुमरी, उनकी कजरी और उनका गाया मानस युगों तक काशी और भारत की आत्मा में गूंजते रहेंगे। बाबा विश्वनाथ से प्रार्थना है कि वे उन्हें अपने चरणों में स्थान दें।  

संकटमोचन की परंपरा और गुरु-शिष्य संवाद

पंडित मिश्र का जीवन संकटमोचन मंदिर और उसकी परंपराओं से गहराई से जुड़ा रहा। वे संकटमोचन संगीत समारोह के प्रमुख आकर्षण रहे। महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र ने उन्हें अपना गुरु माना और पंडितजी ने वर्षों तक सप्ताह में दो बार संकटमोचन जाकर उन्हें स्वर-साधना कराई। 

यह गुरु-शिष्य परंपरा केवल संगीत तक सीमित नहीं रही, बल्कि श्रद्धा और आत्मा का संवाद बन गई। यही कारण था कि पंडितजी स्वयं को "संकटमोचन का आजीवन गायक" मानते रहे। महंत प्रोफेसर विश्वंभर नाथ मिश्र ने कहा, हम सभी के साथ भी उनका आत्मीय और पारिवारिक संबंध बना रहा।  काशी और संकटमोचन उन्हें युगोंदृयुगों तक याद करेंगे, क्योंकि वे सिर्फ कलाकार नहीं, बल्कि परंपरा के वाहक और संस्कृति के अमर गायक थे।

शिष्यों और साहित्यकारों की श्रद्धांजलि


कथक नृत्यांगना संगीता सिन्हा ने उन्हें पिता समान बताया और कहा कि उनसे हर मुलाकात में कुछ कुछ सीखने को मिलता था। कथक डांसर सरला नारायण सिंह ने कहा कि उनकी सरलता और सहजता ही उन्हें महान बनाती थी। बिरहा गायक विष्णु यादव ने उन्हें हर पारंपरिक गायन विधा में सिद्धहस्त बताया। 

लेखक डाॅ. चारुचंद्र सिंह ने कहा, हजारों बरस नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से चमन में दीदावर पैदा होता है। लेखिका डाॅ. मालविका तिवारी ने उन्हें कविता से कथा और शास्त्र से लोक को जोड़ने वाला अद्भुत गायक बताया।

जीवन की कसक और अंतिम पड़ाव 

कोरोनाकाल में पंडितजी को व्यक्तिगत आघात सहना पड़ा, जब उनकी पत्नी माणिक रानी मिश्र और बेटी संगीता मिश्र का निधन हो गया। परंतु उन्होंने टूटकर भी काशी की परंपराओं और उत्सवों को अपने गीतों से जीवित रखा। चाहे मणिकर्णिका घाट की होली हो या सावन की कजरीहर उत्सव उनकी आवाज से गूंज उठता था।

अंतिम विदाई

उनके निधन के बाद मिर्जापुर से उनका पार्थिव शरीर बनारस लाया गया। छोटी गैबी स्थित आवास पर शोकसंतप्तों की भीड़ उमड़ी। भाजपा, संघ और काशी के जनमानस ने उन्हें नमन किया। पुलिस कमिश्नर, मेयर, विधायक और असंख्य लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए। सुपुत्र पंडित रामकुमार मिश्र ने शास्त्रीय विधि से उन्हें मुखाग्नि दी। 

जीवन-संस्मरण : बनारस की माटी से विश्व मंच तक

छोटी गैबी की तंग गलियों से निकले पंडित छन्नूलाल मिश्र का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्ची साधना किसी सीमा में बंधी नहीं रहती। उनकी गायकी ने गंगा की तरह प्रवाहित होकर बनारस से निकलकर पूरे विश्व को अपना रस दिया। पंडित छन्नूलाल मिश्र ने अंतिम सांस तक यह साबित किया कि संगीत कोई पेशा नहीं, बल्कि जीवन का साधन और भक्ति का साधन है। उनकी स्मृति, उनके भजन और उनकी बेटी की आँखों से झलकती तस्वीर हमें बताती है कि असली विरासत केवल पुरस्कार नहीं, बल्कि वह भावनात्मक संसार है जिसे वे पीछे छोड़ गए. 

यादगार किस्से और आत्मीय प्रसंग

1. शिष्यों के साथ गुरु-शिष्य परंपरा : पंडित जी के लिए शिष्य केवल विद्यार्थी नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा थे। वे उन्हें सिर्फ राग और तान ही नहीं सिखाते, बल्कि जीवन की सरलता और अनुशासन भी सिखाते। एक बार उनके एक शिष्य ने मंच पर गलती कर दी। शिष्य बहुत घबराया, पर पंडित जी ने मंच पर ही उसकी पीठ थपथपाई और कहा गलती से डरना नहीं, गलती से सीखना। संगीत डर से नहीं, प्रेम से आगे बढ़ता है। यह प्रसंग उनके गुरु-हृदय का सबसे बड़ा प्रमाण है।

2. विदेश यात्राओं का अनुभव : जब वे पहली बार अमेरिका गए, तो वहाँ के लोगों ने कजरी और चैती सुनी। उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी गहरी लोक-रसिकता शास्त्रीयता के साथ कैसे जुड़ सकती है। पंडित जी ने मंच से उतरकर दर्शकों को समझायायह बनारस की गंगा है, जो लोक और शास्त्र दोनों को साथ बहाती है। उनका यह कथन वहाँ की पत्रिकाओं में छपा और भारतीय संगीत की चर्चा का विषय बन गया।

3. प्रधानमंत्री मोदी के साथ आत्मीय संबंध : पंडित जी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विशेष लगाव रहा। मोदी जी कई बार उनकी गायकी सुनने के लिए विशेष रूप से समय निकालते थे। एक बार पंडित जी ने कहा थामोदी जी जब गंगा की बात करते हैं, तो लगता है मानो वे भी संगीत ही गा रहे हों। पद्मविभूषण की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री ने स्वयं उन्हें फोन कर बधाई दी थी। पंडित जी ने बड़ी विनम्रता से कहा—“यह सम्मान मेरा नहीं, बनारस का है।

4. संकटमोचन का प्रसंग : जब भी उन्हें कोई बड़ी उपलब्धि मिलती, वे सीधा संकटमोचन मंदिर पहुँचते। कहते थेमेरी आवाज़ का मालिक हनुमान हैं, मैं तो बस उनका सेवक हूँ। यही कारण था कि पद्मविभूषण की घोषणा के दिन भी वे भीड़ से बचकर महंत विश्वम्भर नाथ मिश्र के घर जा पहुँचे।

धरोहर और विरासत

पंडित जी ने अपने भजनों, ठुमरियों और लोकगीतों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुँचाया। उनके भजनहरिहरनाथ गले शीश गदाधरऔर सावन की कजरी आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। वे कहते थे—“संगीत केवल मनोरंजन नहीं, साधना है। यह हमें ईश्वर के और निकट ले जाता है।

भक्ति और सुरों में डूबे अंतिम क्षण

पं. छन्नूलाल मिश्र के जीवन का अंतिम अध्याय भी सुर और भक्ति से ही परिपूर्ण रहा। बीमारी और उम्र की थकान के बावजूद वे अपने भजनों और निर्गुण गाथाओं में डूबे रहे। उनके होंठों पर भगवान राम का नाम और भोलेनाथ की स्मृति हमेशा जीवित रही।  

बेटी की आँखों से पिता का रूप

उनकी बेटी नम्रता मिश्र की यादें मानो उनके जीवन का अंतरंग दस्तावेज़ हैं। नम्रता जी कहती हैंपिताजी अंतिम समय में भी भजनों में लीन रहते थे। वे अपनी पत्नी और बड़ी बेटी को याद करते और उनकी स्मृति में रो पड़ते। भगवान राम के गीत गाते, उनकी कथाएँ सुनाते और काशी तथा भोलेनाथ को याद करते। कोई मिलने जाता तो हंसी-मजाक भी करते। नम्रता जी के शब्दों में पिता का स्वरूप केवल एक महान गायक का नहीं, बल्कि एक संवेदनशील इंसान का है। वे कहती हैं पिता मेरे गुरु भी थे, पर मैंने उन्हें एक माँ की तरह रखा। मैंने उनका बचपन जीने की कोशिश की। वे बच्चों की तरह हरकतें करते और मुझे अक्सर प्यार सेगुड़िया-गुड़ियाकहकर पुकारते।

रियाज़ ही उनका जीवन था

अंतिम दिनों में भी उनका संगीत साधना से मोह नहीं टूटा। बीमार रहने के बावजूद वे दो-दो घंटे तक रियाज़ करते। निर्गुण और भजनों पर ध्यान देते और मिलने वालों को सुनाते। उनके लिए संगीत केवल मंच की सजावट नहीं था, बल्कि जीवन का श्वास था।

संगीत घराने का सपना

छन्नूलाल मिश्र का सपना था कि संगीत केवल व्यक्तिगत विरासत रहे, बल्कि संस्था और समाज का हिस्सा बने। यही कारण है कि जब हरिहरपुर में संगीत महाविद्यालय खोला गया, तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए। नम्रता जी बताती हैंउन्हें बहुत खुशी थी कि वहाँ के कलाकारों को मौका मिलेगा, सरकारी नौकरी भी मिलेगी। वे चाहते थे कि उनका गुरुकुल आगे बढ़े और संगीत घराना मजबूत हो।  

गुरु की बातें और आध्यात्मिकता

अंतिम समय में वे अपने गुरु महाराज की बातें सुनाते और शिष्यों को हिम्मत देते। अपनी बेटी से अक्सर कहतेहिम्मत रखना, मेरी चिंता मत करना। नम्रता जी मानती हैं कि पिता को केवल अपनी साधना और घराने की चिंता थी, लेकिन बेटी के भविष्य की चिंता भी उतनी ही गहरी थी।

भक्ति की गूँज

उनका प्रिय भजनवैष्णव जन तो तेने कहिएअंतिम दिनों में भी उनकी जुबान पर था। यही उनकी आत्मा का संगीत थाभक्ति, करुणा और संवेदना से भरा। 


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