Monday, 27 October 2025

देव दीपावली : हर दीप एक मंत्र है, हर लौ एक प्रार्थना!

देव दीपावली : हर दीप एक मंत्र है, हर लौ एक प्रार्थना

कार्तिक पूर्णिमा की वह पावन संध्या जब अस्सी घाट से लेकर राजघाट तक, गंगा के दोनों किनारे दीपों से सजते हैं, तो दृश्य किसी कल्पना से परे होता है. गंगा की लहरें मानो आरती की थाल बन जाती हैं। यह वह रात होती है जब गंगा सचमुच बोलती है, दीयों की लौ में, आरती के स्वर में, और भक्तों की सांसों में। हर दीप एक मंत्र है, हर लौ एक प्रार्थना। हर घाट, हर सीढ़ी, हर लहर कह उठती हैहर हर महादेव!” “हर दीप में है भोलेनाथ, हर लौ में है जीवन, हर ज्योति में है मुक्ति।दीयों के प्रतिबिंब में गंगा की मुस्कान झिलमिलाती है, और लगता है. साक्षात भोलेनाथ गंगा तट पर ध्यानस्थ बैठे हैं। नावों पर बैठे श्रद्धालु जब दीप प्रवाहित करते हैं, तो वह दीप जल में नहीं, आस्था के अनंत सागर में तैरते हैं। मतलब साफ है देव दीपावली केवल एक पर्व नहीं, यह प्रकाश के रूप में व्यक्त हुई भक्ति है। गंगा के दोनों तट जब लाखों दीपों से सजते हैं, तब लगता है कि धरती पर नहीं, स्वयं कैलास पर आरती हो रही हो। हर दीप की लौ में भोलेनाथ का ही प्रतिबिंब झिलमिला उठता है, वाराणसी की देव दीपावली इसीलिए दुनिया की एकमात्र ऐसी दीपावली है, जहां दीप देवों के लिए जलते हैं, कि देवताओं की आराधना में

सुरेश गांधी 

दीपों की टिमटिमाती रोशनी में, आरती के लहराते धुए में, शंखनाद के गूंजते स्वर में और श्रद्धा से झुके हर माथे में। यह कोई साधारण रात नहीं होती, यह वह क्षण होता है जब देवताओं की दीवाली, देव दीपावली मनाई जाती है. अर्द्धचंद्राकार घाटों की कतार जब पंद्रह लाख दीपों से जगमगाती है, तो गंगा मानो चांदनी ओढ़े, शिव के चरणों में आरती बन जाती है. पौराणिक मान्यता कहती है, कार्तिक पूर्णिमा की रात देवता स्वर्ग से उतरकर काशी आते हैं और गंगा में स्नान कर पुनः देवलोक लौटते हैं। उनके स्वागत में काशीवासी दीप प्रज्वलित करते हैं, गंगा आरती करते हैं और घाटों को पुष्पों से सजाते हैं। तभी तो इसे देव दीपावली कहा गया, देवताओं की दीपावली! दशाश्वमेध से लेकर राजघाट तक, और अस्सी से लेकर पंचगंगा तक, हर घाट इस रात बोलता है। गंगा की लहरें जब दीयों के प्रतिबिंब से लहराती हैं, तो लगता है कि देवताओं की आरती स्वयं प्रकृति गा रही हो। गंगा की लहरों पर तैरते दीप जैसे कह रहे हों, “हम अंधकार नहीं, प्रकाश के प्रतिनिधि हैं।

हर लौ, हर ज्योति में भक्ति का कंपन है, हर दीप में श्रद्धा का प्रणाम है। यह रात केवल आंखों से नहीं, आत्मा से देखी जाती है। गंगा की लहरों पर नाचते दीप, मंदिरों से उठती आरती, हवा में घुली कर्पूर की सुगंध, सब मिलकर शिवत्व की भाषा बोलते हैं। हर दीप जैसे कह रहा हो, “मैं शिव की ज्योति हूँ, मैं प्रकाश हूँ, मैं भक्ति का स्वर हूँ।काशी की हवाओं में उस रात मंत्रोच्चार का संगीत होता है, “ त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्...” ऐसा लगता है कि स्वयं महादेव, विश्वनाथ, गंगा तट पर विराजे हों, और हर दीप से उनकी ज्योति फूट रही हो। चांदनी रात में गंगा की धाराएं जब दीपों से आच्छादित होती हैं, तो वह किसी आरती की थाल-सी प्रतीत होती हैं, जिसे स्वयं काशी विश्वनाथ के चरणों में चढ़ाया जा रहा हो। मतलब साफ है काशी में देव दीपावली का अर्थ केवल रोशनी नहीं, बल्कि अंतरतम के अंधकार को जलाने की साधना है। दीपों का प्रतिबिंब जल में झिलमिलाता है, तो लगता है गंगा मुस्कुरा रही हो। नावों पर बैठे श्रद्धालु जब एक-एक दीप प्रवाहित करते हैं, तो वह दीप केवल जल में नहीं, बल्कि संसार के अंधकार में प्रकाश की आशा लेकर आगे बढ़ते हैं।

ऐसा लगता है जैसे पूरा ब्रह्मांड मानो आज काशी के घाटों पर उतर आया हो। देव दीपावली की रात, जब धरती पर दीपक, जल में प्रतिबिंब और आकाश में आतिशबाज़ी, तीनों एक साथ झिलमिलाते हैं, तब लगता है कि स्वयं देवता गंगा तट पर विराजमान हो गए हैं। दीपों की कतारें जैसे श्रद्धा के श्लोक लिख रही होती है, “दीपो भद्रं जनयेत...” हर दीप के साथ आस्था की लहरें गंगा की धारा में उतरती है, और हर मन सूर्य, शिव मातृगंगा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा होता है। हम दीप जलाते हैं, तो अंधकार से संवाद करते हैं, उसे चुनौती देते हैं, और उसी क्षण हम देवत्व के सहभागी बन जाते हैं। काशी की देव दीपावली हमें सिखाती है, “अंधकार चाहे जितना गहरा हो, एक दीप पर्याप्त है।और जब वह दीप काशी में जलता है, तो केवल घाट नहीं, पूरा ब्रह्मांड आलोकित हो उठता है।

त्रिपुरासुर का वध औरत्रिपुरारीमहादेव 

पुराणों के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा की संध्या को भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था, जिसने तीनों लोकों में आतंक मचा रखा था। देवता अत्याचार से मुक्ति पाकर आनंदित हुए, उस विजय के उपलक्ष्य में देवताओं ने स्वर्ग और काशी दोनों जगह दीप प्रज्वलित कर हर्ष मनाया। तभी से यह दिनदेव दीपावलीकहलाया। कहते हैं, उस समय अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को भी भोलेनाथ ने नष्ट किया था, और तभी काशीपुराधिपति शिव को त्रिपुरारी नाम से भी जाना जाने लगा। इस दिन बाबा विश्वनाथ के त्रिपुरारी स्वरूप की आराधना के साथ देव दीपावली का शुभारंभ होता है। हर दीप उस विजय की स्मृति है, अंधकार पर प्रकाश की, असुरता पर देवत्व की, और अहंकार पर नम्रता की।

अहिल्याबाई से शुरू हुई आधुनिक परंपरा

धार की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने पंचगंगा घाट पर पत्थरों से हजारा दीप स्तंभ बनवाया था। वहीं से आधुनिक देव दीपावली का सिलसिला आरंभ हुआ। फिर यह उत्सव अस्सी से पंचगंगा, दशाश्वमेध से राजघाट तक फैल गया, आज यह केवल घाटों का नहीं, बल्कि पूरे काशी का महोत्सव बन गया है। अब गंगा पार रेती पर भी लाखों दीप जगमगाते हैं।

भीतर के अंधकार को मिटाने का पर्व

त्रिपुरासुर के वध की कथा केवल एक दैत्य के अंत की नहीं, बल्कि अहंकार, क्रोध, लोभ और अज्ञान पर विजय का प्रतीक है। जब हम दीप जलाते हैं, तो वह बाहर का नहीं, भीतर का अंधकार मिटाने का प्रयत्न होता है। देव दीपावली कहती है, “यदि तुम्हारे भीतर का दीप बुझा है, तो बाहरी रोशनी व्यर्थ है।हर दीप का अर्थ केवल रोशनी नहीं। यह अहंकार के अंधकार को जलाने का प्रतीक है। त्रिपुरासुर का वध केवल राक्षस का संहार नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के अंधकार, काम, क्रोध, लोभ, और मोह का अंत है। देव दीपावली हमें यही सिखाती है कि जब भीतर का दीप जलता है, तभी बाहरी दीप की रोशनी अर्थपूर्ण होती है।

प्रकृति का संतुलन और प्रकाश का विज्ञान

शरद ऋतु के इस मौसम में जब दिन छोटे और रातें लंबी होती हैं, तब प्रकाश का संतुलन बनाए रखने के लिए दीप जलाने की परंपरा आरंभ हुई। यह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच थी, दीप का प्रकाश वायुमंडल को शुद्ध करता है, और दीयों का ताप सर्द मौसम में शरीर को ऊर्जा देता है। यही कारण है कि कार्तिक मास को सर्वश्रेष्ठ धार्मिक और स्वास्थ्यप्रद काल कहा गया है।

भक्ति, पर्यटन और संस्कृति का संगम

आज देव दीपावली केवल आस्था नहीं, बल्कि विश्व पर्यटन का आकर्षण बन चुकी है। 5 नवंबर को होने वाली इस वर्ष की देव दीपावली पर घाटों से लेकर मंदिरों तक लगभग 20 लाख दीप जलेंगे। चेतसिंह घाट से थ्रीडी लेजर शो में शिव-महिमा का प्रदर्शन होगा, गंगा आरती में 21 ब्राह्मणों की मंडली वैदिक स्वर में आराधना करेगी। विदेशों से आए श्रद्धालु नावों से यह नजारा देखेंगे, जहाँ गंगा की लहरों पर बहते दीप भारत की आत्मा का प्रकाश बनकर तैरेंगे। सभी अस्सी घाटों पर जब लाखों दीप जलते हैं, तो वह केवल दृश्य नहीं, अनुभूति होती है। गंगा की लहरें, दीपों की कतारें, और हवा में घुली कर्पूर की सुगंध, सब मिलकर शिव के ध्यान का साक्षात स्वरूप बन जाती हैं। इस अवसर पर हर घाट कला, संगीत और भक्ति से जीवित हो उठता है। शास्त्रीय संगीत, बांसुरी, ढोलक, और लोक नृत्य, सब एक सुर में काशी की जीवंत आत्मा को प्रकट करते हैं। यूनेस्को की क्रिएटिव सिटी सूची में शामिल काशी इस दिन कला, संस्कृति और अध्यात्म का संगम प्रस्तुत करती है। यह आयोजन केवल देवताओं का स्वागत नहीं, बल्कि मानवता, प्रेम और एकता के दीप जलाने का प्रतीक है।

जब गंगा बोलती है, काशी सुनती है

कार्तिक पूर्णिमा की चांदनी जब गंगा की लहरों से टकराती है और लाखों दीपों की लौ उसमें मिलती है, तब धरती पर तारों का समंदर उतर आता है। अस्सी से लेकर राजघाट तक गंगा के तट पर यह दृश्य इतना मोहक होता है कि शब्द जैसे कम पड़ जाते हैं, अद्भुत, अलौकिक, अविस्मरणीय। गंगा की कलकल में उस रात जैसे कोई अदृश्य संगीत बजता है। शंखों की गूंज और घंटों की लय के बीच हर दीप बोलता है, “मैं प्रकाश हूँ, मैं शिव हूँ, मैं भक्ति का प्रतीक हूँ।काशी की देव दीपावली इसीलिए अनोखी है, क्योंकि यह केवल उत्सव नहीं, प्रकाश का दर्शन है। काशी की देव दीपावली यह सिखाती है कि प्रकाश केवल जलाने की चीज़ नहीं, बल्कि जीने की साधना है। हर दीप की लौ में शिव की छवि है, हर झिलमिल में भक्ति का संदेश। यह वह रात होती है जब गंगा बोलती है, “हर दीप में है भोलेनाथ, हर लौ में है जीवन, हर ज्योति में है मुक्ति।कहा जा कसता है काशी में देव दीपावली केवल उत्सव नहीं, सनातन धर्म की आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन है। गंगा आरती की लहरों में जब शंख गूंजता है, तो वह केवल ध्वनि नहीं, वह गंगा की हृदय-धड़कन है। उस रात काशी का आकाश दीपों से सजता है, और धरती पर महादेव की मुस्कान उतरती है। हर दीप जैसे कह रहा होता है, “मैं भोलेनाथ की ज्योति हूँ, मैं शिवत्व का अंश हूँ।

गंगा की गोद में देवताओं का आगमन

पौराणिक मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा की रात देवता स्वर्ग से उतरकर गंगा में स्नान करने आते हैं। उनके स्वागत में काशी के लोग दीप प्रज्वलित करते हैं, यही है देव दीपावली, देवताओं की दीपावली। गंगा का हर लहराता जलकण इस रात देवताओं के चरणस्पर्श से पवित्र होता है, और हर दीप मानो उनकी आरती में लहराता ज्योतिपुष्प बन जाता है। मतलब साफ है दीपों की लौ में केवल तेल और वात नहीं, बल्कि भक्ति, आस्था और प्रेम जलता है। वह दीप कोई वस्तु नहीं, एक व्रत है, जो हर काशीवासी अपने आराध्य शिव के चरणों में अर्पित करता है। देव दीपावली की यह रात इसलिए अनूठी है, क्योंकि इस रात गंगा बोलती है, और उसकी हर लहर, हर दीप की लौ में केवल एक ही नाम झिलमिलाता हैहर हर महादेव।यह वही दिन है जब भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर का वध कर तीनों लोकों को अत्याचार से मुक्त कराया था। तभी देवताओं ने दीप जलाकर उनकी विजय का उत्सव मनाया था.

शरद ऋतु का शृंगार औरदेवताओं का दिन

ऋतुओं में श्रेष्ठ शरद ऋतु, मासों में श्रेष्ठ कार्तिक मास और तिथियों में श्रेष्ठ पूर्णिमा, तीनों का संगम ही बनाता है देव दीपावली को अनुपम। पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन देवता स्वर्ग से उतरकर गंगा में स्नान करने आते हैं, और उनके स्वागत में काशी दीपों से सजाई जाती है। इसी कारण इसे देवताओं की दीपावली कहा गया है। शरद ऋतु में दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती हैं, अर्थात अंधकार का प्रभाव बढ़ता है। उसी से लड़ने का उद्यम है दीप जलाना। इसलिए यह पर्व केवल रोशनी का नहीं, बल्कि अंधकार पर विजय और चेतना के जागरण का प्रतीक है।

पंचगंगा घाट से आरंभ, अब 84 घाटों तक विस्तार

सतुआ बाबा आश्रम के कर्ताधर्ता संतोषानंद जी ने बताया कि देव दीपावली का प्रारंभ पंचगंगा घाट से हुआ था, जहां अहिल्याबाई होल्कर ने पत्थरों से बना प्रसिद्ध हजारा दीप स्तंभ स्थापित कराया था। इसी घाट पर कबीरदास को स्वामी रामानंद नेराम नामकी दीक्षा दी थी। धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे काशी के 84 घाटों तक फैली और अब यह महोत्सव सात समंदर पार तक अपनी प्रसिद्धि बिखेर चुका है। अब तो गंगा पार रेती, नगर के सरोवरों, तालाबों, और मंदिर प्रांगणों तक दीपों की यह श्रृंखला फैल गई है।

ज्योति-स्वरूप और योगिक अर्थ

मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर और माता पार्वती ज्योति रूप में प्रकट हुए थे। योगशास्त्र के अनुसार, यह दिन षट्चक्रों के जागरण और परमानंद की साधना का प्रतीक है। भगवान शंकर का त्रिपुरासुर-वध केवल एक दैवी घटना नहीं, बल्कि यह संदेश है कि जब मनुष्य अपने भीतर के अंधकार, काम, क्रोध, अहंकार को समाप्त करता है, तभी वहदेवत्वतक पहुंचता है। इसलिए देव दीपावली केवल बाहरी दीपोत्सव नहीं, बल्कि आंतरिक आलोक का पर्व भी है।

आतिशबाज़ी से निखरेगी काशी

इस वर्ष काशी की देव दीपावली और भी भव्य होगी। चेतसिंह घाट पर थ्रीडी प्रोजेक्शन मैपिंग के माध्यम सेशिव महिमाऔरगंगा अवतरणपर आधारित शो प्रस्तुत किया जाएगा। आधा घंटे का यह शो तीन बार प्रदर्शित होगा, जिसमें लेजर लाइट, संगीत और हरित क्रैकर्स के साथ अद्भुत दृश्य जीवंत होंगे। गंगा पार रेती पर भी पर्यावरण-मित्र आतिशबाज़ी से काशी का आकाशईको-फ्रेंडली रोशनीसे नहाएगा।

आधुनिकता और परंपरा का संगम

काशी की देव दीपावली आज केवल धार्मिक आयोजन नहीं रही, बल्कि संस्कृति, विरासत और आधुनिकता का संगम बन गई है। शहर के स्वयंसेवी संस्थान, व्यापारी संगठन, और मंदिर समितियाँ मिलकर इसे जन-जन का पर्व बना रही हैं। हर दीप, हर आरती, हर मुस्कान इस शहर के सनातन गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा कर रही है।

दीप जलाओ, अंधकार मिटाओ

देव दीपावली का संदेश शाश्वत हैजहाँ अंधकार है, वहाँ दीप जलाओ।यह केवल दीयों का त्योहार नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के अंधकार, संशय और भय को मिटाने का संकल्प है। काशी की देव दीपावली विश्व को यही बताती है कि जब तक मन में भक्ति और हाथ में दीप है, तब तक अंधकार कभी स्थायी नहीं हो सकता।दीपक देह जलावौं, जो मन का अंधकार मिटावौं।बीसवीं सदी में यहीं से आधुनिक देव दीपावली की परंपरा प्रारंभ हुई। अब यह आयोजन अस्सी से लेकर राजघाट तक सभी चौरासी घाटों तक फैल चुका है, और इसकी ख्याति सात समंदर पार तक पहुँच चुकी है। काशी की देव दीपावली आज संस्कृति और तकनीक दोनों का चमत्कार है। यह पर्व सिखाता है, “दीप मिट्टी का हो सकता है, पर उसका संदेश अमर है, प्रकाश फैलाओ।योगशास्त्र के अनुसार यह षट्चक्र जागरण की यात्रा है, मूलाधार से सहस्त्रार तक। जब साधक इन चक्रों से ऊपर उठता है, तो अंततः शिव-शक्ति के मिलन का अनुभव करता है, यही दिव्यता है। भगवान शंकर का त्रिपुरासुर वध वास्तव में दैहिक, दैविक और भौतिक बंधनों से मुक्ति का प्रतीक है। इसलिए देव दीपावली योग की दृष्टि सेप्रकाश की समाधिका दिन भी मानी जाती है।

भीष्म पंचक और ज्ञान का आलोक

महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है, कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक भीष्म पितामह ने शरशय्या पर लेटे हुए पांडवों को दान, धर्म और मोक्ष का उपदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति में दिया गया यह ज्ञान कालजयी हुआ। इसी अवधि कोभीष्म पंचककहा गया, जो ज्ञान, व्रत और साधना की चरम अवधि है। स्कंदपुराण में वर्णन है, “कार्तिक पूर्णिमा को दीप जलाने से ज्ञान, सदाचार और सद्भाव के दीप जीवन में प्रज्वलित होते हैं।इसलिए देव दीपावली केवल उत्सव नहीं, ज्ञान का महायज्ञ है। आज जब संसार भौतिकता के अंधकार में उलझा है, काशी बताती है कि प्रकाश केवल बिजली से नहीं, आस्था से जन्मता है। हर दीप में संदेश है, “अहंकार बुझाओ, विनम्रता जलाओ।देव दीपावली की यही सार्वभौमिकता है, एक मिट्टी का दीप भी मानवता को प्रकाशमान कर सकता है। या यूं कहेअंधकार चाहे जितना गहरा हो, एक दीप पर्याप्त है।स्कंदपुराण में वर्णन है, कार्तिक पूर्णिमा को दीप जलाने से ज्ञान, सदाचार और सद्भाव के दीप जीवन में प्रज्वलित होते हैं। इसलिए देव दीपावली केवल उत्सव नहीं, ज्ञान का महायज्ञ है।

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