Saturday, 25 October 2025

छठ : सूर्य की अनादि उपासना और लोक आस्था का विज्ञान

छठ : सूर्य की अनादि उपासना और लोक आस्था का विज्ञान 

छठ महापर्व केवल आस्था नहीं, बल्कि एक दार्शनिक सूत्र है, सूर्य की ऊर्जा, जल की शुद्धता, पृथ्वी की सहनशीलता और स्त्री की मातृत्वशक्ति, इन चारों के संगम से यह पर्व साकार होता है। व्रती जब गंगा या तालाब के जल में कमर तक डूबकर अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य देती है, तो वह केवल प्रकृति को नहीं, जीवन के हर अंश को प्रणाम कर रही होती है। वेदों में कहा गया, “सूर्यं देवं सहस्राक्षं प्रजापतिमनुत्तमम्।सूर्य सहस्र नेत्रों वाले उस परम पुरुष हैं, जो सबका पालन करते हैं। मतलब साफ है छठ पर्व, हिरण्यगर्भ से लेकर मानव के हृदय तक फैली उस ज्योति का उत्सव है, जो कहती है, “जीवन सूर्य है, और उसकी आराधना ही आत्मा का उत्कर्ष है।उगते को नहीं, डूबते सूर्य को भी प्रणाम, यही जीवन का पूर्ण दर्शन है।करिहा क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार...” यह केवल गीत नहीं, लोकमानव की आत्मा का स्वागत है। उगते सूर्य को प्रणाम तो पूरी दुनिया करती है, किंतु डूबते सूर्य को भी अर्घ्य देने की परंपरा केवल भारतभूमि की माटी में ही पल्लवित हुई। यही वह दर्शन है, जिसने हमें सिखाया कि उदय और अस्त, जन्म और मृत्यु, सफलता और अवसान, सब एक ही चक्र का हिस्सा हैं। यही भारतीय दृष्टि है, जोशिवऔरशवदोनों में समान भाव देखती है। छठ महापर्व इसी दर्शन का उत्सव है, जहां श्रद्धा, विज्ञान, अनुशासन और पर्यावरण की चेतना एक साथ अवतरित होती है

सुरेश गांधी

पूरी दुनिया उगते सूर्य को प्रणाम करती है, लेकिन केवल भारतवासी डूबते सूर्य की आराधना करते हैं। यह दर्शन हमें सिखाता है कि जो अस्त होता है, वह भी आदरणीय है। क्योंकि हर अस्त सूर्य कल फिर उदित होने की संभावना का प्रतीक है। सुबह का तरुण सूर्य जीवन की ऊर्जा का प्रतीक है, तो संध्या का थका-हारा सूर्य त्याग, अनुभव और समर्पण का प्रतीक। उदय और अस्त का यह द्वंद्व ही जीवन का पूर्णत्व है। यही भावना भारतीय संस्कृति को यिन-यांग से आगे, संतुलन और समरसता के आदर्श तक ले जाती है। कहते हैं दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है, लेकिन भारतीय सभ्यता डूबते सूरज के भी आगे सिर झुकाती है।

यह दृष्टि हमें सिखाती है कि जीवन में अवसान भी पवित्र है। जो सूर्य पूरे दिन अपनी ऊर्जा लुटाता है, शाम को जब थक कर अस्ताचल की ओर बढ़ता है तो वह केवल थका हुआ नहीं, बल्कि त्याग का प्रतीक बन जाता है। उदयमान सूर्य तरुणाई का, और अस्त सूर्य अनुभव का प्रतीक है। एक ऊर्जा देता है, दूसरा शांति सिखाता है। छठ इसी द्वैत में संतुलन सिखाता है कि हर अवसान के पीछे एक नया उदय छिपा होता है। लोकगीतों में छठी मइया की करुणा और कृपा दोनों झलकती हैं, “छठी मइया तोहर महिमा अपरंपार...” “नदी किनारे घाट बनवइहें, अर्घ दिही सूर्य भगवान के...” यह गीत केवल भक्ति नहीं, लोकसंस्कृति की जीवंत थाती हैं।

ऋग्वेद के प्रथम देवता से लेकर छठी मैया की लोकपरंपरा तक, सूर्य की ज्योति में सृष्टि, संस्कार और श्रद्धा का उजास. लोक आस्था के इस महापर्व में व्रत छठी माता का होता है, लेकिन आराधना सूर्यदेव की। सूर्य, जो केवल एक खगोलीय पिंड नहीं, बल्कि जीवन और चेतना के आदि स्रोत हैं। वह वैदिक काल के प्रथम देवता हैं, जिनका स्मरण सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है। 🕉ऋग्वेद काहिरण्यगर्भअर्थात सृष्टि का स्वर्ण बीज. ऋग्वेद के दशम मंडल का प्रसिद्ध हिरण्यगर्भ सूक्त कहता है,

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।

सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। (ऋग्वेद दृ 10.121.1)

अर्थात् प्रारंभ में एक ही तेजस्वी सुनहरा पिंड था, वही समस्त सृष्टि का अधिपति बना।हिरण्यगर्भशब्द का अर्थ है स्वर्ण-गर्भ, वह दिव्य अंडाकार ऊर्जा जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। यह व्याख्या आज की बिग बैंग थ्योरी के अद्भुत निकट है अर्थात् ब्रह्मांड एक सूक्ष्म ऊर्जा-बिंदु से ही प्रस्फुटित हुआ। वेदों में यहहिरण्यगर्भही सूर्य का प्रतीक है, जीवन का वह केंद्र जिसने पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश को आकार दिया।

वेदांत कहता है, “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।” (ऋग्वेद 1.115.1) अर्थात् सूर्य ही चल-अचल जगत का आत्मा है। वेदों ने सूर्य को केवल प्रकाश का स्रोत नहीं, बल्कि प्राण का आधार माना। वेदिक ऋषियों ने सूर्य कोसर्वभूतानाम् पतिकहा, क्योंकि उनके बिना जीवन संभव नहीं। यह अद्भुत है कि हजारों वर्ष पूर्व जब कोई वैज्ञानिक उपकरण थे, तब भी वैदिक मनीषियों ने सूर्य को ऊर्जा, जलवायु और जीवंतता का आधार मान लिया था। विष्णु पुराण सृष्टि के रहस्य को विराट पुरुष की इच्छा से जोड़ता है।

विराट पुरुष की आंखों से जो प्रकाश निकला, वही सूर्य बना। मन से चंद्रमा और श्वास से वायु उत्पन्न हुई। इसीलिए सूर्य कोनारायणकहा गया, जो सबको प्राण देता है।आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्, सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रति गच्छति।जिस प्रकार आकाश से गिरा जल अंततः सागर में जाता है, उसी तरह सभी देवताओं की उपासना अंततः नारायण, यानी सूर्य तक पहुंचती है। इसलिए लोक परंपरा में सूर्य कोसूर्य नारायणकहा गया, देवत्व और जीवन के एकमात्र दाता।

आदिति के पुत्र : बारह आदित्य और सूर्य का तेज 

सूर्य कोआदित्यकहा गया क्योंकि वे अदिति के पुत्र हैं। बारह आदित्यों में वे सबसे बड़े माने गए हैं त्याग, तप और अनंत ऊर्जा के प्रतीक। वे इंद्र के समान प्रतिष्ठित होकर भी देवों के संरक्षक हैं। उनका तेज सृष्टि का आधार है। सूर्य को वैदिक काल से ही प्रत्यक्ष देवता माना गया है। वेदों में कहा गया हैसूर्यो विश्वस्य चक्षुःकृ अर्थात् सूर्य ही समस्त सृष्टि की आंख हैं। बिना सूर्य के जीवन की कल्पना असंभव है। प्रकाश, ऊर्जा, ताप, ऋतुचक्र, कृषि, जलचक्र कृ सबका नियंता वही है। सूर्य केवल प्रकृति का, बल्कि मानव आत्मा का भी आराध्य है। इसी सत्य के बोध से छठ का जन्म हुआ कृ एक ऐसा पर्व, जिसमें धर्म भी है, दर्शन भी और विज्ञान भी। देवताओं का राजा भले इंद्र हो, किंतु देवत्व का सर्वश्रेष्ठ तेज सूर्य में ही निहित है। ब्रह्मपुराण कहता है, “मानसं वाचिकं वापि कायजं यच्च दुष्कृतम्, सर्वं सूर्य प्रसादेन तदशेषं व्यपोहति।अर्थात् मन, वचन या कर्म से किया गया हर पाप सूर्य की कृपा से नष्ट हो सकता है। इसीलिए वे पापहारी, जीवनदाता और आरोग्यदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

रामायण से छठ की वैदिक परंपरा

छठ व्रत की जड़ें रामायण में गहराई तक जाती हैं। जब भगवान राम और माता सीता वनवास को निकले, तब सीता ने गंगा के तट पर जल में खड़े होकर सूर्यदेव से अयोध्या की रक्षा की प्रार्थना की। 14 वर्ष बाद, अयोध्या लौटने के छह दिन बाद, दीपावली के उपरांत, माता सीता ने पुनः सूर्य षष्ठी व्रत किया। उसी दिन से यह व्रत लोक आस्था का पर्व बन गया। कथा है कि इसी व्रत के प्रभाव से उन्हें लव और कुश का आशीर्वाद मिला। नेपाल और बिहार के सीमावर्ती वाल्मीकि आश्रम में आज भी माना जाता है कि माता सीता ने वहीं सूर्य पूजा की थी, इसलिए छठ पर्व की परंपरा भारत-नेपाल दोनों में समान श्रद्धा से निभाई जाती है।

महाभारत में सूर्योपासना : कुंती

और द्रौपदी की आस्था

महाभारत में भी सूर्य व्रत का उल्लेख मिलता है। माता कुंती ने ऋषि दुर्वासा के वरदान से सूर्यदेव का आह्वान किया और उनके आशीर्वाद से कर्ण का जन्म हुआ। बाद में पांडवों पर संकट आने पर उन्होंने कमर-तक जल में खड़े होकर सूर्यदेव की आराधना की, उन्हें पंचपुत्रों की रक्षा का वरदान मिला। द्रौपदी ने भी सूर्य उपासना से अक्षय पात्र प्राप्त किया था, जिससे वनवास के दौरान भोजन कभी समाप्त नहीं हुआ। कथा है कि द्रौपदी ने रांची के नागड़ी गांव में सूर्यषष्ठी व्रत किया, वही स्थान आज भी झरने के पास छठ का लोकतीर्थ है।

षष्ठी देवी : मातृत्व और नवजीवन की प्रतीक

छठी माता या षष्ठी देवी की कथा राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी से जुड़ी है। संतानहीन राजा ने यज्ञ किया, पर शिशु मृत पैदा हुआ। दुखी राजा ने प्रार्थना की, तब आकाश से देवी षष्ठी प्रकट हुईं, उन्होंने मृत शिशु को जीवन दिया और कहा, “मैं प्रकृति का छठा रूप हूँ, जो संसार के सभी बच्चों की रक्षा करती है।राजा ने आभार स्वरूप देवी की पूजा प्रारंभ की, और तभी से षष्ठी व्रत का प्रचलन आरंभ हुआ। लोकविश्वास है कि छठी मैया नवजात बच्चों की रक्षा करती हैं और गर्भवती स्त्रियों की संरक्षिका हैं।

सूर्य का प्राकट्य दिवस : छठ की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि

बक्सर क्षेत्र की मान्यता है कि ऋषि कश्यप और अदिति के आश्रम में कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य का जन्म हुआ, इसीलिए यह सूर्य जन्म दिवस माना गया। छठ पर्व में सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों की उपासना होती है। प्रातःकाल की पहली किरण ऊषा और संध्या की अंतिम किरण प्रत्यूषा, सूर्य की दो पत्नियां मानी गई हैं। छठ में इन दोनों का अर्घ्य देकर सूर्य के उदय और अस्त दोनों रूपों का अभिनंदन किया जाता है। यह दर्शन बताता है कि जीवन केवल उगने में नहीं, डूबने में भी पूर्णता पाता है,यही छठ की आत्मा है।

🕉वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में सूर्य का स्थान

ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, उपनिषदों और ब्रह्मवैवर्त पुराण तक सूर्य की महिमा का विस्तार मिलता है। निरुक्त के रचयिता यास्क ने सूर्य को स्थानीय देवताओं में प्रथम स्थान दिया। उत्तर वैदिक काल में सूर्य का मानवीकरण हुआ, उन्हें रथ पर आरूढ़ सात घोड़ों वाले देवता के रूप में देखा गया, जो समय, दिशा और दिन-रात के नियंता हैं। बाद में पौराणिक काल में सूर्य के अनेक मंदिर बने, कोणार्क, मोढेरा, वाराणसी और औंढ़ा नागनाथ जैसे तीर्थ आज भी इस सूर्य परंपरा के जीवित साक्षी हैं।

काशी और छठ : जहां से फैली ज्योति

ब्रह्म वैवर्त पुराण में उल्लेख है कि छठ पूजा का प्रारंभ वाराणसी से हुआ। काशी खंड में कहा गया है कि यहां से यह परंपरा बिहार, बंगाल और नेपाल तक फैली। काशी के घाटों पर गंगा आरती और छठ अर्घ्य का समन्वय यह बताता है कि यह शहर सूर्योपासना का प्राचीनतम तीर्थ है। आज भी अस्सी घाट से लेकर राजघाट तक जब डूबते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है, तो लगता है जैसे स्वयं वेदों की ऋचाएं गूंज उठी हों।

सूर्य : प्रत्यक्ष देवता और जीवन का आधार

वेदों ने कहा, “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।अर्थात्, सूर्य समस्त चराचर का आत्मस्वरूप है। सूर्य केवल ऊर्जा का स्रोत नहीं, बल्कि जीवन का सारतत्व है। उसके बिना पेड़-पौधे, प्राणी, जल, वायु, कुछ भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। इसलिए भारत में सूर्य को केवल पूजित देवता माना गया, बल्कि जीवित, जागृत और साक्षात् ईश्वर के रूप में देखा गया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से लेकर श्रीकृष्ण तक, सभी ने सूर्य की उपासना की। वनवास में द्रौपदी की व्यथा से व्यथित होकर भगवान सूर्य ने पांडवों कोअक्षय पात्रदिया, जो द्रौपदी की पाक कला से ब्रह्मांड का पोषण करता रहा। श्रीकृष्ण के पौत्र शाम्ब जब कुष्ठ रोग से पीड़ित हुए, तो ऋषियों ने सूर्योपासना का मार्ग बताया और उसी से उन्हें आरोग्य मिला। छठ पर्व केवल आस्था नहीं, बल्कि वैज्ञानिक संतुलन की साधना भी है। सौरमंडल का केंद्र सूर्य पृथ्वी को केवल ऊर्जा देता है, बल्कि ऋतु-चक्र, जैविक लय और मानसिक संतुलन भी उसी से नियंत्रित होते हैं। सूर्य की किरणों में मौजूद पराबैंगनी (यूवी) तत्व शरीर को रोगाणु-रहित करते हैं। विटामिन डी, जो हमारी हड्डियों और रोगप्रतिरोधक क्षमता के लिए आवश्यक है, केवल सूर्य से ही प्राप्त होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि सूर्य के प्रकाश से सेरोटोनिन और मेलाटोनिन का स्तर बढ़ता है, जो मन को प्रसन्नता, स्थिरता और सकारात्मकता देता है। इस दृष्टि से जब कोई व्यक्ति छठ व्रत के दौरान सूर्य की ओर जल अर्घ्य अर्पित करता है, तो वह ऊर्जा, ध्यान और अनुशासन का योगिक अभ्यास भी कर रहा होता है। सूर्य की स्वर्णिम किरणें जब जल से परावर्तित होती हैं, तो उसका प्रभाव सीधे शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है। यही कारण है कि छठ पर्व को आरोग्य और शुद्धि का पर्व भी कहा गया है।

कोणार्क से गढ़गांव तक : सूर्य की मूर्तिमान आराधना

भारत के हर युग में सूर्य पूजा का केंद्र रहा है। उड़ीसा का कोणार्क सूर्य मंदिर तो इस आराधना का स्थापत्य स्मारक है, जो सूर्य के रथ को दर्शाता है। गुजरात के मोढेरा, बिहार के देहर और उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में भी सूर्य मंदिर आज भी जीवंत हैं। वेदों में सूर्य कोहिरण्यगर्भकहा गया है, स्वर्णिम गर्भ, जिससे सृष्टि उत्पन्न हुई। ऋग्वेद में दर्ज हैभास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः।अर्थात्, “हे सूर्यदेव, आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश के ईश हैं, आपकी ही द्युति से यह ब्रह्मांड प्रकाशित है।रामायण में जब रावण से युद्ध करते हुए श्रीराम थक जाते हैं, तो महर्षि अगस्त्य उन्हेंआदित्य हृदय स्तोत्रका उपदेश देते हैं। श्रीराम सूर्य की स्तुति करते हैं, और उसी प्रकाश से विजयी होते हैं। मतलब साफ है सूर्य केवल प्रकृति का नहीं, जीवन-संघर्ष का भी प्रतीक है।

छठ और योगिक चेतना

ऋषियों ने छठ को षष्ठी तिथि के साथ जोड़ा है, यह वह काल है जब सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर सामान्य से अधिक सक्रिय होती हैं। व्रत, उपवास और ध्यान के माध्यम से शरीर उस ऊर्जा को संतुलित करता है। यही कारण है कि छठ के दौरान स्नान, ध्यान, मौन और उपवास पर इतना बल दिया जाता है। छठ योग का भी एक रूप है, प्राणायाम, साधना, शुद्धि और समर्पण का योग। प्रकति के साथ यह सामंजस्य ही भारतीय दर्शन की मूल आत्मा है।

सूर्य का पुरुष स्वरूप और आत्मा का प्रकाश

ईशावास्य उपनिषद कहता है, हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। हे सूर्यदेव, अपनी स्वर्णिम किरणों का जाल समेटिए ताकि मैं आपके पुरुष स्वरूप का दर्शन कर सकूं। यह श्लोक बताता है कि सूर्य केवल प्रकाश नहीं, बल्कि सत्य, आत्मा और परम चेतना का प्रतीक है। हम सबके भीतर जोप्रकाशहै, वह उसी का प्रतिबिंब है। सूर्य के बिना केवल पृथ्वी अंधकारमय हो जाएगी, बल्कि मानव चेतना का भी अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

सूर्य में सृष्टि, सृष्टि में सूर्य

छठ इस बात की याद दिलाता है कि हम सब उसी सौर ऊर्जा के हिस्से हैं, जिसका स्रोत एक है। यह पर्व हमें कृतज्ञ बनाता है, संयम सिखाता है और जीवन के संतुलन की प्रेरणा देता है। जब व्रती अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देती है, तो वह केवल सूर्य को नहीं, बल्कि अपने जीवन के हर अवसान को भी सम्मान देती है, क्योंकि हर रात के बाद एक नया प्रभात आता है। अंततः छठ केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन के प्रति कृतज्ञता, श्रम के प्रति श्रद्धा, और प्रकृति के प्रति प्रेम की पुनर्पुष्टि है। सूर्य के प्रकाश से ही सृष्टि चलती है और छठ उस प्रकाश के प्रति मानव की सबसे सुंदर, सबसे पवित्र वंदना है।

सूर्य : प्रत्यक्ष देवता, जीवन का अनंत आधार

वेदों ने कहा, “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।अर्थात् सूर्य ही समस्त चराचर का आत्मस्वरूप है। सूर्य केवल ऊर्जा नहीं, प्राण है, चेतना है, समय है। वह दिन के आरंभ का संकेत देता है, ऋतुचक्र को गति देता है, पृथ्वी को जीवन देता है। उसके बिना वायु बहे, जल बहे, जीवन बचे। इसीलिए भारत ने उसे देवता नहीं, जीवन का पालक माना। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आदित्य हृदय स्तोत्र से सूर्य का ध्यान किया, भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब ने सूर्योपासना से कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई, और अर्जुन को द्रौपदी की पीड़ा मिटाने के लिए सूर्य ने ही अक्षय पात्र दिया। सूर्य साक्षात् है, प्रत्यक्ष है, जाग्रत देवता है, इसलिए छठ में किसी पुरोहित, किसी कर्मकांड की आवश्यकता नहीं। बस मन की शुचिता चाहिए, जल की पवित्रता और विश्वास की गहराई। घाट पर उतरते हुए जब सैकड़ों महिलाएं एकसाथ गाती हैं, “कांचहि बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए..” तो लगता है जैसे गंगा की लहरें भी इस लय में झूम रही हों।

 

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