हर जुबान पर “अगले बरस तू जल्दी आ माँ...”
विरह में भी उत्सव, बनारस ने माँ को गंगा की गोद में विदा किया
माँ
गंगा की गोद में
लौटतीं माँ दुर्गा : सिंदूर,
सुर और श्रद्धा से
सराबोर काशी का विसर्जन
गलियों में
उमड़ी
भक्ति,
जुलूस
बना
भावों
का
सागर
सिंदूर खेला
: लाल
भावों
में
भीगी
माँ
की
विदाई
लाल सिंदूर,
गंगा
की
लहरें
और
माँ
की
विदाई
: बनारस
की
भावनाओं
का
उत्सव
डीजे की
थाप
और
गंगा
की
गोद
में
लौटती
माँ
दुर्गा,
काशी
का
भक्तिमय
विसर्जन
मिट्टी से
बनी
माँ,
गंगा
में
विलीन
: भक्ति
और
भाव
का
बनारसी
महापर्व
माँ गंगा
की
गोद
में
लौटतीं
माँ
दुर्गा
: बनारस
का
भावलोक
और
दिखा
भक्ति
का
प्रवाह
सुरेश गांधी
वाराणसी. जब शरद की चाँदनी गंगा के जल पर झिलमिलाती है, तब काशी के घाट किसी जीवित कविता-से लगते हैं। आरती की लौ, ढाक की गूंज, और जयकारों से गूंजता आसमान, सब मिलकर बनारस को एक जीवंत मंदिर में बदल देते हैं। इन्हीं स्वरों और रंगों के बीच माँ दुर्गा अपने भक्तों से विदा लेती हैं। मिट्टी से बनी माँ जब गंगा की गोद में उतरती हैं, तो वह दृश्य केवल विसर्जन नहीं होता, वह भक्ति का भाव-प्रवाह होता है। शहर की गलियाँ गुलाल से रंगी हैं, महिलाओं ने सिंदूर से माँ को विदा किया है, डीजे और नगाड़ों की धुन पर थिरकते युवा माँ के जयघोष में मग्न हैं, और हर हृदय में एक ही आवाज, हर जुबान पर “अगले बरस तू जल्दी आ माँ...”
यही बनारस की
पहचान है, जहाँ हर
आस्था संगीत है, हर विसर्जन
प्रतीक्षा का संकल्प। शनिवार
की दोपहर से ही शहर
की गलियाँ माँ दुर्गा के
जयघोष से गूंज उठीं।
लंका, भेलूपुर, चौकाघाट, महमूरगंज, सोनारपुरा, दशाश्वमेध, और राजघाट सहित
हर मोहल्ला, हर चौक, हर
चौराहा अपने भीतर एक
उत्सव लिए खड़ा था।
सजे-धजे ट्रकों पर
विराजमान माँ की प्रतिमाएँ,
उनके आगे नाचते श्रद्धालु,
डीजे-बैंड की गूंजती
धुनें और हवा में
उड़ता गुलाल, मानो पूरा काशी
माँ के जयघोष में
थिरक उठा हो। डमरू
की थाप, नगाड़ों की
गड़गड़ाहट और “जय माँ
दुर्गा” के घोष ने
गलियों को भक्ति और
उल्लास के रेशों से
बाँध दिया था। डीजे
पर बजते भक्ति गीतों
की लय में लोग
थिरक उठे, कहीं युवाओं
के कदमों की थाप, तो
कहीं ढोल और नगाड़ों
की गर्जना।
सजे-धजे ट्रकों
पर सवार माँ की
प्रतिमाएँ, फूलों की वर्षा और
उड़ते रंग, यह सब
मिलकर बनारस को एक चलता-फिरता उत्सव बना रहे थे।
हर गली के मोड़
पर आरती की थालें
सजी थीं, और लोग
माँ को प्रणाम कर
आगे बढ़ा रहे थे,
जैसे हर घर माँ
की विदाई का द्वार बन
गया हो। माँ की
विदाई से पहले, बनारस
की गलियों में एक और
रंग घुला, सिंदूर का लाल रंग।
पंडालों और घाटों पर
सैकड़ों महिलाओं ने पारंपरिक “सिंदूर
खेला” में भाग लिया।
किसी ने माँ के
चरणों में सिंदूर चढ़ाया,
तो किसी ने एक-दूसरे के माथे पर।
आँखों में आंसू और
होंठों पर हँसी लिए
वे कह रही थीं,
“माँ जैसी सुख-समृद्धि
हमारे घर में बनी
रहे।” सिंदूर से रँगे चेहरों
के बीच जब डीजे
पर “जय अंबे गौरी”
की धुन बजी, तो
लगा मानो भक्ति और
श्रृंगार दोनों एक ही सुर
में विलीन हो गए हों।
लाल हवा, लाल आँचल,
और लाल बिंदी के
बीच माँ की प्रतिमा
पर झरते सिंदूर के
कण, यह दृश्य स्वयं
बनारस की भावनाओं का
प्रतीक बन गया।
जुलूस से घाटों तक : श्रद्धा और उत्सव का संगम
गंगा की गोद में विलीन : मिट्टी का नहीं, भावना का विसर्जन
जब प्रतिमा धीरे-धीरे गंगा के
मध्य उतरती है, तो भक्तों
के चेहरे भावों से भर जाते
हैं। किसी की आँखों
में आँसू हैं, किसी
के होंठों पर मुस्कान कृ
पर हर हृदय में
एक ही भाव, विरह
और प्रतीक्षा का संगम। गंगा
की लहरें माँ को अपने
में समेट लेती हैं,
और घाटों पर तैरते दीपक
उस विलयन के साक्षी बन
जाते हैं। बनारस के
लिए यह केवल मिट्टी
का विसर्जन नहीं, श्रद्धा के शिखर का
प्रसाद है। यहाँ हर
भक्त जानता है कृ माँ
गईं नहीं, बस हर हृदय
में समा गईं।
विसर्जन के बाद : शोर के बीच मौन का अर्थ
जब रात उतरती
है, जुलूस लौट जाते हैं,
डीजे थम जाता है,
तब घाटों पर गंगा की
लहरों में बस दीपों
की झिलमिल बचती है। वह
झिलमिल केवल जल नहीं,
भक्ति का उजास है।
यही बनारस की पहचान है,
जहाँ शोर में भी
मौन का संगीत सुनाई
देता है। जहाँ विसर्जन
अंत नहीं, बल्कि अगले मिलन का
वचन बन जाता है।
हर बनारसी की जुबान पर
वही प्रार्थना, “अगले बरस तू
जल्दी आ माँ, गंगा
किनारे फिर वही संगम
होगा।”
गंगा और पर्यावरण : भक्ति में जिम्मेदारी का संदेश
इस वर्ष विसर्जन
के दौरान प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाओं
ने पर्यावरण-अनुकूल पूजा की नई
मिसाल पेश की। कई
पंडालों में केवल मिट्टी
और प्राकृतिक रंगों की प्रतिमाएँ बनाई
गईं। निर्धारित घाटों पर ही विसर्जन
हुआ और ‘क्लीन घाट’
अभियान से गंगा की
शुचिता का संदेश दिया
गया। यह बनारस की
नई चेतना है, जहाँ भक्ति
केवल अनुष्ठान नहीं, कर्तव्य और संवेदना का
भी प्रतीक बन चुकी है।
सिंदूर खेल : माँ की विदाई से पहले लाल भावों का उत्सव
घरों की छतों
पर, पंडालों के सामने, और
गंगा घाटों पर, महिलाओं ने
माँ दुर्गा को विदा करने
से पहले पारंपरिक सिंदूर
खेला किया। साड़ी के पल्लू
में सिंदूर भरकर एक-दूसरे
के गालों पर लगातीं, वे
एक-दूसरे को यही आशीष
देतीं, “माँ जैसी सुख-समृद्धि तुम्हारे घर में भी
बनी रहे।“ हवा में उड़ता
लाल सिंदूर, डीजे की थाप
के साथ गूंजते “माँ
के जयकारे”, और आँखों में
नम भक्ति, यह दृश्य किसी
साहित्यिक चित्र की तरह बनारस
की आत्मा में बस गया।
बुजुर्ग महिलाओं ने माँ के
चरणों में जल चढ़ाया,
आरती उतारी, और कहा, “जा
माँ, अगले बरस फिर
आना। इस घाट, इस
घर, इस काशी को
फिर अपना आशीष देना।“
विसर्जन जुलूस का भव्यता और श्रद्धा का संगम
दोपहर ढलते-ढलते शहर
के विभिन्न हिस्सों से जुलूस घाटों
की ओर बढ़े। लंका
से अस्सी, सोनारपुरा से मणिकर्णिका, भेलूपुर
से राजघाट तक, जगह-जगह
भक्तों का हुजूम उमड़
आया। डीजे पर “जय
अंबे गौरी” की धुन, युवाओं
का उत्साह, महिलाओं की आरती, और
बच्चों की हँसी, सब
कुछ मिलकर एक अनूठी बनारसी
लय रच रहा था।
हर प्रतिमा के आगे चलता
फूलों की वर्षा करता
समूह, बीच-बीच में
स्थानीय कलाकारों की झाँकियाँ, और
दूर घाट की दिशा
से उठता गंगा आरती
का स्वर कृ यह
सब मिलकर विसर्जन को उत्सव और
उपासना दोनों का अद्भुत संगम
बना देता है।
गंगा तट पर भावनाओं की बाढ़
संध्या होते-होते अस्सी
और दशाश्वमेध घाट माँ के
जयकारों से गूंज उठे।
नावों पर सवार होकर
श्रद्धालु प्रतिमाओं को गंगा के
मध्य तक ले गए।
गंगा की लहरों पर
झिलमिलाते दीपक, सिंदूर से रँगे जल
के छींटे, और माँ की
प्रतिमा का धीरे-धीरे
जल में उतरना कृ
यह क्षण किसी काव्यात्मक
विरह जैसा था। कई
महिलाएँ हाथ जोड़कर बोल
उठीं, “माँ, अब अगले
बरस जल्दी आना...“ लहरें प्रतिमा को अपने साथ
समेट लेती हैं, मानो
गंगा स्वयं माँ को अपने
आँचल में भर लेती
हो।
माँ की विदाई नहीं, पुनर्मिलन का वचन
जैसे ही रात
का तीसरा पहर गहराता है,
घाटों पर अब भी
कुछ दीप तैर रहे
होते हैं। कहीं किसी
के होंठों पर अब भी
गूंजता है, “जय माँ
दुर्गा।” यह केवल जयघोष
नहीं, काशी का प्रण
है, माँ गंगा की
लहरों में उतरी दुर्गा
अब हर घर, हर
मन, हर श्वास में
बस गई हैं। बनारस जानता है, यह विसर्जन
नहीं, पुनर्जन्म है। माँ गईं
नहीं, बस अपने स्वरूप
में लौटकर फिर बनारस के
ही आँगन में उतरेंगी,
“अगले बरस तू जल्दी
आ माँ...”वैसे भी काशी
में माँ दुर्गा का
विसर्जन कभी विदाई नहीं
होता। यह शहर जानता
है कि हर लहर
के पार एक प्रतीक्षा
है, हर विदाई में
एक पुनर्मिलन छिपा है। माँ
गंगा की गोद में
समाती दुर्गा बनारस के हर घर,
हर मन में फिर
से बस जाती हैं।
भक्ति का यह प्रवाह
कभी रुकता नहीं, यहाँ हर दीप,
हर रंग, हर स्वर
यही कहता है, “माँ,
तू गई नहीं... बस
गंगा बनकर हर आत्मा
में बह रही है।”






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