‘आन दिन उगइ छा हो दीनानाथ...’ की गूंज से मुखर हुई काशी
उषाकालीन अर्घ्य के साथ पूर्ण हुआ व्रत, गूंजे घाटों पर छठ गीत
दीपों और
फूलों
से
सजे
घाटों
पर
श्रद्धा
का
अनोखा
नज़ारा
भोर की
लालिमा
में
जलती
रही
भक्ति
की
लौ,
हर
चेहरे
पर
दिखी
तृप्ति
प्रकृति, परिवार
और
परमात्मा
के
संगम
का
पर्व
बना
छठ
महापर्व
गीत, भक्ति
और
आत्मसंयम
की
अनोखी
साधना
सुरेश गांधी
वाराणसी।
‘‘आन दिन उगइ छा
हो दीनानाथ, महिमा तोहार अपार हे छठी
मईया...’’, ‘‘अपनी शरण में
ही रखिह छठी मईया,
दिह आसिस हजार...’’ ऐसे
भक्तिपूर्ण स्वरों की स्वर-लहरियां
जब गंगा घाटों पर
गूंजने लगीं, तब पूर्व आकाश
की लालिमा में सूर्यदेव का
तेज प्रस्फुटित हो उठा। मंगलवार
की भोर में व्रतियों
ने कमर भर जल
में खड़े होकर दूध,
गंगा जल, गुड़, आटा,
ठेकुआ, फल और पंचमेवा
से भरे सूप के
साथ उदीयमान सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित
किया और परिवार की
सुख-समृद्धि, संतान की दीर्घायु व
समाज के मंगल की
कामना की। इसी के
साथ व्रतियों ने अपने 36 घंटे
के निर्जला उपवास को पूर्ण किया
और चार दिवसीय लोक
आस्था के महापर्व छठ
का विधि-विधानपूर्वक समापन
हो गया।
भोर से ही
गंगा, वरुणा, अस्सी, राजघाट, सामनेघाट और ग्रामीण तालाबों-कुंडों पर श्रद्धालुओं की
भीड़ उमड़ पड़ी। व्रती
महिलाएं सोलह श्रृंगार में,
माथे पर सिंदूर की
लंबी रेखा और आंखों
में भक्ति का तेज लिए
भगवान भास्कर के दर्शन की
प्रतीक्षा में जल में
खड़ी रहीं। इसी बीच घाटों
पर गूंजा, “आन दिन उगइ
छा हो दीनानाथ, महिमा
तोहार अपार हे छठी
मईया...” “अपनी शरण में
ही रखिह छठी मईया,
दिह आसिस हजार...” लोकगीतों
और वैदिक मंत्रों की ध्वनि से
काशी के घाट आस्था
के रंग में रंग
उठे।
रात से ही उमड़ने लगी श्रद्धालुओं की भीड़
अर्घ्य से पहले ही आधी रात के बाद से श्रद्धालु परिवार सहित घाटों की ओर बढ़ने लगे थे। महिलाओं के परिजन सिर पर दौरी और सूप लिए, महिलाएं पूजन सामग्री व फल-सामग्री संभाले हुए छठी मईया की आराधना के लिए घाटों की ओर जा रहे थे। शहर के साथ ग्रामीण क्षेत्रों के तालाब और कुंड भी दीपों की रोशनी से नहाए नजर आए। हनुमान पूजा समिति शास्त्री घाट, कचहरी, सामनेघाट, पांडेपुर और भेलूपुर के घाटों पर विशेष सजावट की गई थी। रंग-बिरंगी झालरों और बल्बों की रोशनी में नहाए घाटों का दृश्य मनोहारी था। रात के अंधेरे में दीपों की जगमगाहट और श्रद्धा का उजास एक साथ छलक उठा।
व्रत का पारण और प्रसाद का वितरण
अर्घ्य के उपरांत व्रतियों
ने घाट पर ही
पारण किया। भगवान भास्कर को अर्घ्य देने
के बाद ठेकुआ, केला,
नारियल और गुड़ का
प्रसाद बांटा गया। श्रद्धालुओं ने
व्रतियों से आशीर्वाद लिया।
शहर में कई स्थानों
पर बनाए गए कृत्रिम
जलाशयों में भी व्रतियों
ने अर्घ्य अर्पित किया और वहीं
व्रत का पारण कर
परिवार के साथ प्रसाद
ग्रहण किया।
चार दिन की तपस्या का समापन, तृप्ति और श्रद्धा का उजास
छठ पर्व का
यह समापन केवल व्रत का
नहीं, बल्कि आत्मसंयम, शुद्धता और आस्था की
चरम अभिव्यक्ति का क्षण था।
नहाय-खाय, खरना, संध्या
अर्घ्य और उषाकालीन अर्घ्य
की अनुक्रमिक विधियों से गुजरते हुए
व्रतियों ने आत्मशक्ति और
जीवन-संयम का साक्षात्
अनुभव किया। यह पर्व उस
भारतीय परंपरा का उत्सव है
जिसमें प्रकृति, परिवार और परमात्मा एक
सूत्र में बंध जाते
हैं। छठ पर्व न
केवल लोक आस्था का
पर्व है, बल्कि यह
भारतीय जीवन-दर्शन की
जीवंत व्याख्या है। इसमें सूर्यदेव
के माध्यम से प्रकृति के
प्रति आभार और मातृशक्ति
के माध्यम से समाज की
एकता का संदेश निहित
है। जल, माटी, सूर्य
और गीत, इन चार
तत्वों के संगम से
जो आस्था उपजती है, वही भारतीय
संस्कृति की आत्मा है।
काशी के घाटों से
लेकर गांव के तालाबों
तक छठ ने आज
एक बार फिर यह
सन्देश दे दिया कि
जहां आस्था है, वहां प्रकाश
है।



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