सूर्य की गोद में लोक की आस्था
“सूर्य की
गोद
में
लोक
की
आस्था”,
यह
सिर्फ
एक
शीर्षक
नहीं,
एक
अनुभूति
है।
छठ
हमें
बताता
है
कि
आस्था
और
साधना
किसी
प्रतीक
से
अधिक,
समाज
और
प्रकृति
का
सम्मिलन
हैं।
जहां
हम
सूर्य
को
अर्घ्य
देते
हैं,
वहां
वह
हमें
जीवन
का
उत्तरदायित्व
भी
सिखाता
है
- स्वच्छता,
संयम,
सामुदायिकता
और
सहानुभूति।
घंटों
की
गूंज,
गीतों
की
लय,
घाटों
पर
जल
की
शीतलता,
ये
सब
मिलकर
एक
संदेश
दे
जाते
हैं
: जीवन
तब
पवित्र
है
जब
हम
उसे
साझा
करें,
श्रम
की
इज्जत
करें
और
प्रकृति
के
प्रति
कृतज्ञ
रहें।
छठ
वह
पल
है
जब
लोक
के
तिनके
भी
सूर्य
की
किरणों
में
सुनहरी
हो
जाते
हैं
और
यही
सुनहरी
किरण
हमारे
भीतर
की
आस्था
को
हमेशा
जीवंत
बनाए
रखे।
छठ
की
यह
गोद,
यही
आस्था,
हमें
याद
दिलाती
है
कि
हर
डूबना
अंत
नहीं,
हर
डूबने
के
बाद
एक
नई
भोर
अवश्य
आती
है.
सूर्य
उपासना
की
परंपरा
वैदिक
काल
से
चली
आ
रही
है।
ऋग्वेद
में
कहा
गया
है,
“सूर्यो
विश्वस्य
चक्षुः।”
अर्थात्
सूर्य
सम्पूर्ण
विश्व
की
आंख
है।
विष्णु
पुराण,
भगवत
पुराण,
ब्रह्म
वैवर्त
पुराण
में
भी
सूर्योपासना
के
महात्म्य
का
विस्तृत
उल्लेख
है।
यास्क
ने
स्थानीय
देवताओं
में
सूर्य
को
प्रथम
स्थान
दिया
है।
छठ
उसी
वैदिक
परंपरा
का
लोक
संस्करण
है,
जहां
मंत्र
नहीं,
मांग
और
ममता
है,
जहां
कर्मकांड
नहीं,
करुणा
और
कृतज्ञता
है
सुरेश गांधी
हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक
मास के शुक्ल पक्ष
की षष्ठी तिथि को मनाया
जाने वाला छठ पर्व
भारतीय लोकजीवन का वह अध्याय
है, जहाँ आस्था का
सूर्य अपनी संपूर्ण ज्योति
बिखेरता है। यह कोई
साधारण त्योहार नहीं, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के
बीच सामंजस्य का महापर्व है।
यह पर्व न केवल
धार्मिक आस्था का प्रतीक है,
बल्कि यह उस ग्रामीण
चेतना, उस मातृशक्ति की
साधना का भी उत्सव
है जो सदियों से
लोकजीवन में आत्मा की
तरह रची-बसी है।
छठ की शुरुआत चतुर्थी
तिथि से नहाय-खाय
के साथ होती है
और सप्तमी को उगते सूर्य
को अर्घ्य देकर इसका समापन
होता है। इन चार
दिनों में श्रद्धा, संयम
और तपस्या की पराकाष्ठा देखने
को मिलती है। यह पर्व
सादगी में भव्यता और
मौन में संगीत का
संदेश देता है। घुटन-सी खिसकती है
जब घाट पर सुबह
की पहली किरन टूटती
है, जैसे कोई पुराना
गीत अचानक ही दोहरा दिया
गया हो। मिट्टी की
सौंधी गंध, पानी की
तरंगों पर उठती हुई
हल्की सी परछाई और
मन के भीतर एक
अनंत-सा सन्नाटा, यही
वह क्षण है जब
लोक अपना चेहरा दिखाता
है। छठ का यह
महापर्व, जिसे हम सरलता
और भक्ति के साथ मनाते
हैं, वस्तुतः उस स्नेह का
प्रतीक है जो मानव
ने सूर्य से सदियों से
जोड़ा है। इस पर्व
का नाम बड़ा ही
सहज, “सूर्य की गोद में
लोक की आस्था” पर
जो भाव इसमें घुला
है, वह शब्दों से
कहीं गहरा है।
सूर्य और छठी मइया
चार दिन, अनगिनत भावनाएं
गीतों की मौन गूंजः लोक-संस्कृति का संगीत
छठ गीत, वही
मुखर काव्य-प्रधान शब्द, जो पीढ़ी दर
पीढ़ी घर-घर तक
पहुँचा है, इस पर्व
की आत्मा हैं। इन गीतों
में सिर्फ देव से प्रार्थना
नहीं, बल्कि समाज के लिए,
रोगियों के लिए, निर्धनों
के लिए मानवीय याचना
भी समायी रहती है, “नेत्रहीनों
को दृष्टि दो, रोगियों को
स्वास्थ्य दो, निर्धनों को
साधन दो।” लोकगीतों की
यही मानवता छठ को व्यापक
बनाती है; यहाँ मांग
व्यक्ति-विशेष के लिए नहीं,
समुदाय के कल्याण के
लिए होती है। गीतों
का स्वर, ताल और संवाद,
सब मिलकर एक ऐसा परिवेश
बनाते हैं जिसमें श्रद्धा
का हर स्पर्श संवेदनशील
हो जाता है। और
जब घाट पर हजारों
हाथ दीप लिए एक
साथ उठते हैं, तब
एक सामूहिक संगीत बनता है, यह
संगीत केवल कानों तक
नहीं, हृदय तक गया
करता है।
कृषक जीवन और पुरुषार्थ का पर्व
छठ पर्व की
जड़ें कृषि-समाज की
मेहनत में गहरी रची-बसी हैं। जब
विज्ञान की वर्तमान सुविधाएँ
न थीं, तब भी
किसान ने सूर्य की
आवश्यकता समझ ली थी,
उसकी उष्मा बिना खेत सुने
ही रह जाते। इसलिए
किसानों ने अपनी पहली
पैदावार और अपनी श्रम-प्रतिफल पहले सूर्य को
अर्पित किया। यह सिर्फ आस्था
नहीं, स्वीकृतिपूर्ण व्यवहार था, जीवन के
उस क्रम का सम्मान
जिसने उनके अस्तित्व को
सम्भाला। छठ में दिखने
वाली आत्म-निर्भरता, स्वच्छता
और संग्रह की परंपरा बताती
है कि यह पर्व
किस तरह से किसान
की संस्कृति का आराध्य बन
गया। खेतों से निकले अनाज
और खेतों के श्रम का
हिस्सा जब लोक-अभिव्यक्ति
बनता है, तब त्योहार
का अर्थ भी परिवर्तन
से ऊपर उठकर स्थायी
बन जाता है।
स्त्री का सशक्त अभिनयः छठ की नायिकाएं
छठ में महिलाओं
की भूमिका केवल पारंपरिक नहीं,
बल्कि निर्णायक है। नहाय-खाय
से लेकर घाटों की
तैयारी तक, गीतों की
रचना से लेकर व्रत
धारणा तक, अधिकांश श्रम
और आस्था की बुनियाद स्त्रियों
के हाथों में होती है।
उनकी श्रद्धा में घर-परिवार
के संरक्षण की वीणा बजती
है, उनकी कोशिशें समाज
के लिए सेवा और
समर्पण का संदेश देती
हैं। इसमें अद्भुत बात यह है
कि महिलाएं अपनी आस्था के
साथ साथ सार्वजनिक स्थानों
पर उतर कर सामूहिकता
का नेतृत्व भी करती हैं।
यही सशक्तिकरण लोक-आधारित परंपराओं
में संभावनाओं को दिखाता है,
जहां नारी शक्ति केवल
घरेलू नहीं, सार्वजनिक-सांस्कृतिक भी है।
विज्ञान और परंपरा का अनूठा संगम
छठ केवल आस्तिकताओं
का खेल नहीं, इसमें
विज्ञान का भी अपना
स्थान है। प्रातः और
सायंकाल की किरणें मानव
शरीर के लिए उपयोगी
विटामिन डी का स्त्रोत
हैं। घाटों पर खड़े रहकर
सूर्य के उजाले में
होना, ओजोन और पराबैगनी
किरणों का अनुभव, इनसे
शरीर पर प्रतिकूल जीवाणुओं
का नाश संभव है।
लोक परंपराएं कई बार वैज्ञानिक
तथ्यों को बिना किसी
शब्दबद्ध प्रमाण के, अनुभव के
आधार पर मानती आई
हैं। छठ उन्हीं अनुभवों
का एक जीवंत उदाहरण
है जहां लोक-ज्ञान
और आधुनिक विज्ञान एक-दूसरे के
परिपूरक सिद्ध होते हैं।
आधुनिकता के बीच टिके रहने का दर्शन
आज के युग
में जहां त्यौहार बाजारों
और विज्ञापनों के कारण अक्सर
रंग-भंगिमाएँ बदल लेते हैं,
छठ ने अपनी सादगी
और आत्म-शुद्धि कायम
रखी है। कोई बड़ी
संस्थाओं की आवश्यकता नहीं,
कोई महंगी सजावट नहीं, बस श्रद्धा और
परिश्रम। लोग स्वयं घाट
साफ करते हैं, सामूहिक
रूप से आयोजन संभालते
हैं, और लोकगीतों की
धुनों से वातावरण तरंगित
होता है। छठ ने
यह सिखाया है कि परंपरा
सिर्फ स्मारक नहीं, जीवन का व्यवहार
भी हो सकती है,
यदि वह लोक-हित
में संचालित हो और समाज
के मूल्यों से जुड़ी रहे।
पवित्रता और पुरुषार्थ
तमाम पर्व-त्योहारों
ने समय के साथ
अपनी मूल जड़ें कहीं
न कहीं खो दी
हैं। आधुनिकता की आंधियों में
जब कई परंपराएं अपना
रूप बदल चुकी हैं,
तब भी एक पर्व
ऐसा है जो आज
भी अपनी मौलिकता में
जीवित है, छठ। यह
केवल पूजा नहीं, यह
लोक और प्रकृति का
मिलन है, यह आस्था
का समुद्र है, जिसमें हर
लहर श्रद्धा की भाषा बोलती
है। छठ, यानी सूर्योपासना
का लोक महापर्व। यह
उस सूर्य की वंदना है
जो सृष्टि का प्राण है,
जीवन का सार है
और चेतना का मूल स्रोत
है। बिहार और पूर्वांचल की
मिट्टी से निकला यह
लोक पर्व आज सीमाओं
से परे फैल चुका
है, मॉरीशस, फिजी, नेपाल, अमेरिका तक। जहां-जहां
भारतीय प्रवासी हैं, वहां-वहां
गूंजता है छठ का
लोकगीत, “केलवा के पात पर
उगेलन सुरुज देव, अर्घ दिहीं
न व्रतीया।”
लोक पर्व, लोक की शक्ति
छठ किसी वैदिक
कर्मकांड का पर्व नहीं।
यह लोक द्वारा, लोक
के लिए, लोक में
जिया जाने वाला उत्सव
है। यहां कोई पुरोहित
नहीं, कोई यज्ञोपवीत का
बंधन नहीं, सिर्फ मन की पवित्रता
और श्रम की श्रद्धा
है। यह पर्व इसलिए
भी विशेष है क्योंकि यहां
भक्त और भगवान के
बीच कोई मध्यस्थ नहीं
होता। जल में खड़े
होकर जब करोड़ों व्रती
अस्ताचल और उदयाचल सूर्य
को अर्घ्य देते हैं, तब
अमीर-गरीब का भेद
मिट जाता है। सूर्य
की किरणें सब पर समान
रूप से पड़ती हैं।
सूर्य की दृष्टि में
सब एक हैं, सभी
सूर्य-परिवार के सदस्य।
अर्घ्य : जीवन का सर्वोच्च सम्मान
‘अर्घ्य’ शब्द ही बताता
है कि यह केवल
भेंट नहीं, सम्मान है, सबसे बड़ा
आदर। जीवन में केवल
दो व्यक्तियों को अर्घ्य दिया
जाता है, भगवान सूर्य
और विवाह के समय जवाई
को। यह प्रतीक है
कि जो जीवन देता
है, उसे ही सर्वोच्च
स्थान प्राप्त है। सूर्य देव
वह दृश्य देवता हैं, जिनकी उपस्थिति
हर दिन हमें दिखती
है। वह सृष्टि के
प्रत्यक्ष आत्मा हैं, ऊर्जा, प्रकाश,
जीवन और चेतना के
प्रतीक।
लोकगीतों में सजी सूर्य भक्ति की सरस धारा
छठ गीतों में
निहित भावलोक ही इस पर्व
की आत्मा है। लोकगीतों में
मनुष्य अपने लिए नहीं,
समाज के कल्याण के
लिए प्रार्थना करता है, “हे
देवता! नेत्रहीनों को दृष्टि दो,
रोगियों को स्वास्थ्य दो,
निर्धनों को धन दो।”
यह गीत मानवता का
सामूहिक मंत्र है। एक अन्य
गीत में कहा गया,
“हे देवता! हमें पांच विद्वान
पुत्र दो और दस
हल की खेती दो।”
यह गीत कृषक जीवन
का सार है, पुरुषार्थ
और समृद्धि का संगम।
कृषक संस्कृति का पर्व
छठ पर्व की
जड़ें कृषक समाज के
हृदय में हैं। जब
विज्ञान नहीं था, तब
भी किसान सूर्य को जानता था,
उसकी ऊर्जा से फसलें लहलहाती
थीं। इसलिए छठ केवल पूजा
नहीं, पुरुषार्थ का उत्सव है।
किसान अपनी उपज का
पहला अंश सूर्य को
अर्पित करता है, यह
कृतज्ञता है, यह विश्वास
है कि जो देता
है, उसे पहले अर्पण
करना धर्म है। इसलिए
छठ को ‘कृषक पुरुषार्थ
का पर्व’ भी कहा जा
सकता है।
छठ की तैयारी, स्वच्छता से श्रद्धा तक
छठ की शुरुआत
होती है नहाय-खाय
से। यह केवल एक
रस्म नहीं, बल्कि शुद्धि का संस्कार है।
व्रती उस दिन अरवा
(सादा चावल) खाते हैं, नमक
नहीं लेते। नमक निषेध का
भी वैज्ञानिक आधार है, यह
शरीर से अशुद्धि दूर
करता है और चर्म
रोगों से बचाता है।
छठ के अवसर पर
गांव-घर, गलियां, घाट,
सब चमक उठते हैं।
कोई सरकारी आदेश नहीं, कोई
सफाई अभियान नहीं, फिर भी सफाई
ऐसी कि सूरज की
किरणें भी झिलमिला उठें।
यही छठ की पहचान
है, लोक स्वच्छता और
आत्म अनुशासन का पर्व।
खरना : देवी षष्ठी का आगमन
दूसरे दिन का पूजन
है खरना, इस दिन घर
में देवी षष्ठी का
आगमन होता है। इस
दिन व्रती गुड़ और साठी
चावल की खीर, पूड़ी
या घी लगी रोटी
बनाकर प्रसाद लेते हैं। घर
के सभी सदस्य पहले
प्रसाद ग्रहण करते हैं, फिर
व्रती खाता है। इसके
बाद शुरू होता है
36 घंटे का निर्जला उपवास,
अथाह श्रद्धा और आत्मबल का
प्रतीक। खरना के साथ
ही घर में गीतों
की गूंज शुरू हो
जाती है, “सुरज देव,
जनम-जनम के दुख
कटे, छठी मइया घर
बइठीं आइलें।”
सूर्य अस्ताचल और उदयाचल, दोनों को अर्घ्य
छठ पर्व की
सबसे अनोखी बात यह है
कि इसमें सूर्य के अस्त होते
और उगते दोनों रूपों
की पूजा की जाती
है। सायंकाल नदी-तालाब के
घाटों पर जब दीपों
की कतारें सजती हैं, व्रती
कमर तक जल में
खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य
को अर्घ्य देते हैं। यह
त्याग और धन्यवाद का
क्षण होता है। रात्रि
में भक्त जागरण करते
हैं, छठ गीतों से
वातावरण भर जाता है।
अगले दिन सप्तमी की
भोर में घाटों पर
फिर से वही दृश्य,
उगते सूर्य को अर्घ्य, नए
जीवन का स्वागत। यह
सूर्य की पहली किरण,
ऊषा के प्रति नम्र
प्रणाम है, और सायंकाल
की अंतिम किरण प्रत्यूषा के
प्रति आभार।
छठी मइया : सूर्य की मातृ शक्ति का प्रतीक
हालांकि यह पर्व सूर्य
का है, लेकिन लोक
इसे छठी मइया के
रूप में पूजता है।
छठी मइया वस्तुतः सूर्य
की पोषक शक्ति हैं,
उनकी ऊषा और प्रत्यूषा
स्वरूपा। लोक ने सूर्य
के वात्सल्य भाव को मातृत्व
का रूप दिया। इसलिए
छठ केवल सूर्य पूजा
नहीं, मातृत्व और पोषण की
आराधना है।
विज्ञान की दृष्टि से छठ का रहस्य
छठ पर्व केवल
आस्था नहीं, यह विज्ञान और
खगोल का भी पर्व
है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्य
की पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर सामान्य से
अधिक मात्रा में आती हैं।
छठ के समय जब
व्रती जल में खड़े
होकर सूर्य की ओर मुख
करते हैं, तो यह
स्थिति शरीर को संतुलित
ऊर्जा देती है। जल,
सूर्य और मिट्टी, तीनों
तत्वों का संयोग मनुष्य
के शरीर को शुद्ध
करता है। सूर्य की
पराबैगनी किरणें वातावरण में ऑक्सीजन को
ओजोन में बदल देती
हैं, जिससे हानिकारक विकिरणों का प्रभाव कम
होता है। छठ पर्व
के दौरान प्रातः और सायंकाल की
किरणें जब शरीर पर
पड़ती हैं, तो विटामिन
डी का प्राकृतिक संश्लेषण
होता है। इस प्रकार
यह पर्व स्वास्थ्य, प्रकृति
और पर्यावरण के संतुलन का
अद्भुत संगम है।
सामाजिक समरसता : उंच-नीच भूल जाने वाला पल
छठ का सबसे
बड़ा योगदान है, सामाजिक समरसता।
घाट पर जाति, वर्ग,
आर्थिक स्थिति सब भूलकर एक
ही दिशा की ओर
हाथ उठाते हैं। अमीरी-गरीबी
का फर्क मिट जाता
है, हर कोई उसी
सूर्य को अर्घ्य देता
है जो सबका जीवन
दाता है। यही भावार्थ
है, यह पर्व हमें
एक सार्वजनिक चेतना देता है जो
व्यक्तिगत भेदभाव को क्षणिक बना
देता है। यह सामूहिक
भावना न केवल धार्मिक
है, यह समाजशास्त्रीय दृष्टि
से भी अहम है,
यह दिखाता है कि लोक-रिवाज़ किस तरह से
समाज में समरसता और
सहयोग की भावना पैदा
करते हैं। छठ पर्व
केवल धार्मिक नहीं, यह सामाजिक एकता
का सूत्र भी है। इसमें
जाति, वर्ग, संपत्ति का कोई भेद
नहीं। सभी मिलकर घाट
बनाते हैं, घर सजाते
हैं, गीत गाते हैं,
व्रत रखते हैं। लोक-सहभागिता का ऐसा उदाहरण
संसार में दुर्लभ है।
यह पर्व सिखाता है,
स्वच्छता, संयम और सहिष्णुता.
श्रम का सम्मान, प्रकृति
और सूर्य के प्रति कृतज्ञता
और समाज के प्रति
दायित्व का बोध। इसलिए
कहा जा सकता है
कि छठ केवल एक
धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि
भारतीय संस्कृति का जीवंत घोष
है।





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