Tuesday, 18 November 2025

‘चौकीदार चोर’ से ‘वोट डकैती’ तक, हर आरोप कांग्रेस को नंगा किया

चौकीदार चोरसेवोट डकैतीतक, हर आरोप कांग्रेस को नंगा किया 

2019 में राहुल गांधी का नारा था, ‘चौकीदार चोर है 2025 में नया आरोप आया, ‘वोट चोरी’, फिरवोट डकैती लेकिन दोनों बार जनता ने कांग्रेस की पूरी कहानी को खारिज कर दिया। बिहार विधानसभा चुनाव ने यह साफ कर दिया कि आरोप जितने तीखे हों, अगर जमीन पर संगठन हो, मुद्दों की समझ कमजोर हो और राजनीति केवल शोर पर खड़ी हो, तो नतीजे भी उतने ही बेरहम आते हैं। महागठबंधन के लिए यह हार नहीं, एक कठोर राजनीतिक आईना है। मतलब साफ है राहुल नेवोट चोरीका नैरेटिव गढ़ा, पर जनता को कहानी समझ ही नहीं आई. या यूं कहे कांग्रेस और राहुल गांधी का यह दांव उल्टा पड़ गया. राहुल गांधी की 16 दिन की यात्रा, 25 जिलों का दौरा, महागठबंधन के नेताओं का स्टेज, सबकुछ इसी कथा को स्थापित करने के लिए। लेकिन समस्या यह रही, ठोस उदाहरण, आंकड़े, केस स्टडी, कोई जमीनी साक्ष्य 

सुरेश गांधी

फिरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 कांग्रेस के लिए कड़वी सीख और गहरी राजनीतिक चेतावनी बनकर सामने आया है। महागठबंधन ने जितने आत्मविश्वास के साथवोट चोरीका नैरेटिव खड़ा किया था, वह हकीकत में उतने ही तेज़ी से ढह गया। चुनाव खत्म होते-होते यह स्पष्ट हो गया कि जनता उस मुद्दे पर खड़ी नहीं हुई, जिस पर कांग्रेस ने अपना सबसे बड़ा दांव खेला। नतीजा, कांग्रेस इस चुनाव में अपने सबसे कमजोर प्रदर्शनों की ओर बढ़ती दिख रही है। राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा 17 अगस्त से 1 सितंबर तक चली। 25 जिलों में 16 दिन का यह अभियान महागठबंधन के बड़े प्रदर्शन के रूप में पेश किया गया। लेकिन राजनीतिक तापमान बनाने के बावजूद यह यात्रा वोटों में तब्दील हो सकी। कांग्रेस नेताओं का ही आंतरिक मानना है उसका यह मुद्दा जनता को समझ नहीं आया, अभियान में अपेक्षित ऊर्जा नहीं थी, और सबसे महत्वपूर्ण, कोई ठोस उदाहरण लोगों के सामने नहीं रखा जा सका। जबकि दूसरी तरफ चुनाव आयोग ने एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) को पूरी तरह सफल बताते हुए कहा कि एक भी अपील लंबित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलीलें भी असरदार साबित नहीं हुईं। सबसे बड़ी कमी यही रही, नैरेटिव था, प्रमाण कमजोर थे।

मतलब साफ है कांग्रेस मुख्य मुद्दों को भुना नहीं सकी. जबकि यह चुनाव बेरोजगारी, पलायन, भ्रष्टाचार, खराब कानून-व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चुनौतियों जैसे विषयों पर होना चाहिए था। लेकिन महागठबंधन खासकर राहुल गांधी ने अपनी 70-80 फीसदी रैलियों में सिर्फवोट चोरी’, एसआईआर और चुनाव आयोग पर सवाल उठाए। इसका सीधा असर यह पड़ा कि, जनता के असली मुद्दे पीछे चले गए, और कांग्रेस एक ही नारे में उलझती चली गई। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता की स्वीकारोक्ति बेहद महत्वपूर्ण है, “हमें जेडयू विपक्ष को बेरोजगारी भ्रष्टाचार पर घेरना चाहिए था, पर पूरी ऊर्जा वोटर अधिकार यात्रा में लग गई।चुनाव प्रचार के अंतिम चरणों में कांग्रेस के कई नेताओं ने आरोपों की तीव्रता बढ़ा दी। राहुल गांधी ने तो दिल्ली मेंएटम बमऔर बिहार सेहाइड्रोजन बमफोड़ने की बात कही। लेकिन जनता को यह भाषा और आक्रामकता दोनों अस्वीकार्य लगे। 2019 का अनुभव दोहराया गया, ‘चौकीदार चोर हैकी तरहवोट चोरभी उल्टा पड़ गया।

कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी वही रही, जो वर्षों से पार्टी का पीछा कर रही है, संगठन का कमजोर ढांचा। जहां बीजेपी पन्ना प्रमुख, बूथ कमेटी, शक्ति केंद्र, माइक्रो-मैनेजमेंट के मजबूत तंत्र पर काम करती रही, वहीं कांग्रेस के पास बूथ तक पहुंचने वाली टीमें, ब्लॉक स्तर का कैडर, और सक्रिय जिला संगठन लगभग नहीं के बराबर थे। चुनावी राजनीति में यह स्थिति सीधे हार का दूसरा नाम है। महागठबंधन के भीतर आपसी टकराव भी कांग्रेस को भारी पड़ा। यहाँ तक कि कई जगह आरजेडी और कांग्रेस के कार्यकर्ता एक-दूसरे से तालमेल बैठाने के बजाय आपसी लड़ाई में उलझे रहे। कांग्रेस ने चुनाव बाद भी मतदाता सूची में गड़बड़ियों की शिकायत दोहराई। लेकिन सच्चाई यह भी है कि गड़बड़ी पकड़ने के लिए जो बूथ-स्तरीय टीमें चाहिए होती हैं, कांग्रेस के पास वे थीं ही नहीं। बीजेपी और सहयोगियों ने हफ्तों गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले जाकर नामों का मिलान किया। कांग्रेस कई सीटों पर यह तक पहचान नहीं पाई कि, कहां नाम हटे, कहां ट्रांसफर हुए, और किन वर्गों पर असर पड़ा। जब संगठन कमजोर हो, तो चुनाव आयोग से लेकर प्रतिद्वंद्वी तक हर रणनीति भारी पड़ती है।

नारे हवा बदलते हैं, चुनाव बूथ जीतते हैं

कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक गहरी सीख छोड़ता है, 1. नैरेटिव तभी वोट में बदलता है, जब संगठन उसे जमीन तक पहुंचाए। 2. बूथ कमेटियों के बिना कोई भी विपक्ष सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनौती नहीं दे सकता। 3. मतदाता सूची सत्यापन विज्ञान है, बयानबाज़ी नहीं। कांग्रेस नेताओं की रैलियों और सोशल मीडिया अभियानों से हवा जरूर बनी, लेकिन यह हवा बूथों तक पहुंच नहीं पाई। बीजेपी-जेडीयू का मॉडल एक बार फिर साबित कर गया कि चुनाव नारे से नहीं, नेटवर्क से जीते जाते हैं। मतलब साफ हैवोट चोरीके शोर में जनता की आवाज दब गई। और चुनाव का अंतिम फैसला यही कहता है जनता वही सुनती है जो उसके जीवन को छूता है, और वही नेता चुनती है जो रोजमर्रा की समस्याओं पर बात करे। कांग्रेस ने मुद्दा बड़ा उठाया, पर मंच छोटा चुन लिया। आरोप बड़े लगाए, पर प्रमाण नहीं दिए। यात्राएं लंबी निकालीं, पर संगठन मजबूत नहीं किया। परिणाम नैरेटिव गूंजा, पर विश्वास नहीं बना। जोर लगा, पर वोट नहीं आए। उधर चुनाव आयोग कहता रहा, “एक भी अपील लंबित नहीं।सुप्रीम कोर्ट का रुख भी यही रहा। कहानी जितनी बनाई गई थी, जमीन पर उतनी ही कमजोर निकली। असल मुद्दों से भटका अभियान, बेरोजगारी, पलायन, अपराध पीछे छूटे. बिहार इस समय किन समस्याओं से जूझ रहा है, यह किसी से छिपा नहीं, बेरोजगारी, पलायन, भ्रष्टाचार, अपराध, किसानों की बदहाली। लेकिन कांग्रेस ने जेडीयू-बीजेपी को बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर घेरने के बजाय इन मुद्दों को लगभग किनारे रख दिया। यह चुनावी रणनीति की सबसे बड़ी विफलता थी।वोट डकैतीकी भाषा ने नुकसान ही बढ़ाया. राहुल गांधी काएटम बमऔरहाइड्रोजन बमभी सिर्फ फुस्स हो गया, बल्कि जनता को यह आक्रामकता पसन्द आई, विश्वसनीय लगी। यानी वैसा ही हुआ जैसा 2019 में हुआ था, नारा चल गया, पर वोट नहीं मिले। राजनीतिक विश्लेषणों में बार-बार कहा जाता है, “चुनाव हवा से नहीं, बूथ से जीते जाते हैं।यह बात इस बार बिहार में 100 फीसदी सही साबित हुई। चुनाव आयोग से लेकर अदालत तक, जनता से लेकर विश्लेषकों तक, सभी का निष्कर्ष समान रहा, “कांग्रेस का आरोप ज्यादा था, तैयारी कम।नैरेटिव बनाना राजनीति है, लेकिन उसे वोट में बदलना संगठन का काम है, और कांग्रेस के पास यही सबसे कमजोर कड़ी है।

वोट चोरी का शोर या हार का बहाना?

भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया दुनिया की सबसे मजबूत व्यवस्थाओं में गिनी जाती है। करोड़ों मतदाता बूथ तक पहुँचकर अपने अधिकार का प्रयोग करते हैं, और परिणाम में उनका स्पष्ट मत परिलक्षित होता है। लेकिन हालिया नतीजों ने एक बार फिर विपक्ष को उस पुराने राग पर लौटा दिया है, “वोट चोरी हुआ है”, “मशीनें बदली गईं”, “प्रशासन ने खेल कर दिया चुनाव का हार - जीत लोकतंत्र का स्वभाव है, लेकिन जनादेश कोचोरीकहना मतदाताओं के निर्णय और उनकी बुद्धि को कटघरे में खड़ा करना है।सबसे ज्यादा निशाने पर हैं अखिलेश यादव, जिनकी बयानबाज़ी केवल विपक्ष के भीतर सवाल खड़े कर रही है, बल्कि स्वयं उनके नेतृत्व पर भी गंभीर प्रश्न लगा रही है। चुनाव के तुरंत बाद विपक्ष जिस तेजी सेवोट चोरीका शोर मचाने लगा, उसके पीछे दो राजनीतिक मनोविज्ञान साफ दिखते हैं, 1. हार स्वीकारने में असमर्थता, 2. जनता के फैसले पर संदेह डालकर खुद को पीड़ित दिखाने की रणनीति. चुनाव अभियान के दौरान सभाओं की भीड़ देखकर विपक्ष नेलहरमान लिया था। लेकिन चुनाव लहर से नहीं, बूथ की सटीक रणनीति से जीते जाते हैं, जहाँ एनडीए मजबूत रहा और विपक्ष बिखरा हुआ। अखिलेश यादव ने कहा, “वोट चोरी हुआ।लेकिन कोई बूथ का नाम, कोई डेटा, कोई शिकायत, सिर्फ हवा में आरोप। सवाल उठना लाजमी है कि बिना सबूत इतनी बड़ी बात आखिर किस आधार पर? 2. संगठन ज़मीन पर कमजोर, बयानबाजी आसमान पर, समाजवादी पार्टी का बूथ प्रबंधन वर्षों से सबसे बड़ा संकट है। जबकि दूसरी ओर एनडीए ने हर स्तर पर संघठन को मजबूत रखा। जमीनी कमजोरी छिपाने के लिएचोरीका शोर उठाना आसान रास्ता है। 3. हार की जिम्मेदारी से बचने की राजनीतिक चाल. अगर नेतृत्व स्वीकार कर ले कि रणनीति कमजोर थी, उम्मीदवार चयन त्रुटिपूर्ण था, और संगठन असंगठित, तो जवाबदेही बनती है। इसी जवाबदेही से बचने के लिए मशीनों को कसूरवार ठहराना सुविधाजनक है।

जनता मूर्ख नहीं, उसने अपना  मन बनाकर वोट दिया है

आज मतदाता पहले से कहीं अधिक सजग है। योजनाओं का लाभ किसने दिया, किसने सड़क, बिजली, गैस, पेंशन, सुरक्षा सुनिश्चित की, किसके नेतृत्व पर भरोसा किया जा सकता है, इन सबका आकलन करके ही जनता मतदान करती है। ऐसे में विपक्ष का यह कहना किजनादेश चोरी हो गया”, सीधे-सीधे जनता की समझ पर चोट है।

ईवीएम से डर राजनीति का नया चलन

जब विपक्ष जीतता है, “ईवीएम ठीक हैजब विपक्ष हारता है, “ईवीएम खराब हैहर चुनाव में यह दोहरा रवैया लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास फैलाता है। अगर वाकई चोरी हुई होती, तो कानून, आयोग, न्यायालय, हर मंच उपलब्ध है। लेकिन विपक्ष वहां जाने से कतराता है, क्योंकि आरोप सिर्फ नैरेटिव निर्माण के लिए हैं, प्रमाण पेश करने के लिए नहीं।

विपक्ष को चाहिए आत्ममंथन, कि शोर

उम्मीदवार चयन कमजोर, जमीनी कैडर निष्क्रिय, रणनीति बिखरी, सोशल मीडिया पर ज्यादा निर्भरता, बूथ स्तर पर तैयारी शून्य, इन सभी वास्तविक कारणों को स्वीकार करने की बजायवोट चोरीका बहाना उसी राजनीतिक अपरिपक्वता को दिखाता है, जिससे जनता दूरी बना रही है।

जनादेश का सम्मान ही राजनीति की मर्यादा है

लोकतंत्र की खूबसूरती यहीं है कि जनता अंतिम निर्णायक है। उसे किसी नेता की पसंद, नापसंद से फर्क नहीं पड़ता, वह सिर्फ काम, भरोसे और नेतृत्व पर वोट देती है। अखिलेश और विपक्ष को यह समझना ही होगा कि, “जनादेश तो मशीनों से बनता है, आरोपों से...जनादेश बनता है जनविश्वास से।जब तक विपक्ष यह सत्य स्वीकार नहीं करेगा, तब तकवोट चोरीका शोर उसकी सियासी साख को ही कम करता रहेगा। इस बार जनता ने भी सवाल पूछा, आखिर हर बार हार के बाद ही ईवीएम क्यों खराब होती है? नतीजों ने साफ कर दिया कि विपक्ष की तैयारी ढीली थी, ज़मीन कमजोर थी और नेतृत्व भ्रमित। परन्तु हार का सच स्वीकार करने की बजाय विपक्ष और खासकर अखिलेश यादववोट चोरीकी रट पर अड़ गए। यही वजह है कि जनादेश के बाद सबसे ज्यादा किरकिरी भी उन्हीं की हो रही है।

विपक्ष की पहली प्रतिक्रिया : जनता गलत, हम सही!

बूथों पर भारी मतदान के बाद नतीजे एनडीए के पक्ष में आए तो विपक्ष ने वही पुराना हथियार निकाला, ‘जनादेश चोरी हुआपर सवाल यह है कि किस बूथ पर? किस स्तर पर? किस चरण में? एक भी सबूत नहीं। सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस... सिर्फ ट्वीट... और सिर्फ शोर। लोकतंत्र में हार - जीत सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन मतदाता के फैसले को गलत ठहराना, यह राजनीतिक अपरिपक्वता है जिसने विपक्ष की विश्वसनीयता और भी घटा दी। युवा, महिलाएं, पहली बार वोट देने वाले, किसान, सबने विकास और स्थिर नेतृत्व पर भरोसा जताया। इस भरोसे कोचोरीबताकर अखिलेश यादव खुद अपनी छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं। ग्रामीण इलाके से लेकर शहर तक यह चर्चा है, “हमने दिल से वोट दिया, इसे चोरी कैसे कह सकते हैं?” वोट चोरी कहना जनता के फैसले पर सवाल उठाना है। मतदाता ने जिस विश्वास से यह जनादेश दिया, उसे निराधार आरोपों से कलंकित करना लोकतंत्र का अपमान है।

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