निर्णय की नई धुरी : बिहार में महिलाएं और युवा लिखेंगे लोकतंत्र की पटकथा
महिलाएं अब कल्याण योजनाओं की पात्र नहीं, बल्कि निर्णय लेने वाली शक्ति हैं। और युवा अब नारे सुनने वाली भीड़ नहीं, बल्कि नए शासन-ढांचे का सवाल पूछने वाला नागरिक है। इसलिए बिहार का परिणाम चाहे जो भी हो, देश को यह मानना होगा कि लोकतंत्र की धुरी अब गांव की महिलाओं और विश्वविद्यालय के युवाओं की ओर खिसक चुकी है। यही बिहार का संदेश है और यही भारत की नई राजनीति की दिशा
सुरेश गांधी
फिरहाल, बिहार में इस बार
का चुनाव केवल एक प्रांत
की सत्ता परिवर्तन की कवायद नहीं
है। यह चुनाव देश
की राजनीति को नए सामाजिक
समीकरण, नई प्राथमिकताएं और
नई राजनीतिक भाषा देने की
स्थिति में है। कारण
स्पष्ट है दिल्ली की
दिशा कई बार पटना
से तय होती है।
बिहार की राजनीति का
स्वभाव हमेशा से प्रयोगशैली, वैचारिक
संघर्ष और सामाजिक चेतना
का केंद्र रहा है। इस
बार भी वही हो
रहा है, बस पैमाना
बदल गया है। बिहार
में बंपर वोटिंग इसके
संकेत दे रहे है.
बता दें, बिहार विधानसभा
चुनाव के पहले चरण
में 18 जिलों की 121 सीटों पर हुए वोटिंग
में 64.66 फीसदी मतदान हुआ. इससे पहले
2000 में 62 फीसदी वोटिंग हुई थी. ये
इतिहास में सर्वाधिक वोटिंग
है. पिछले विधानसभा चुनाव 2020 में 57 फीसदी से ज्यादा वोट
पड़े थे. अगले चरण
में मतदाताओं की जिम्मेदारी ज्यादा
बड़ी है ताकि इतिहास
में रिकॉर्ड कायम किया जा
सके. मतलब साफ है
पिछले एक दशक में
बिहार के चुनावों की
सबसे बड़ी घटनाओं में
से एक है महिलाओं
का मतदान में निरंतर और
निर्णायक रूप से आगे
आना। नवीनतम मतदान रुझानों में महिला वोटिंग
पुरुषों से अधिक रही
है, कहीं 1.5 फीसदी तो कहीं 3 फीसदी
तक का अंतर। यह
एक साधारण प्रतिशत का मामला नहीं,
बल्कि राजनीतिक सत्ता के समीकरण को
पलट देने वाला बदलाव
है।
महिलाओं ने सरकारी योजनाओं
का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से अपने
जीवन में महसूस किया
है, रसोई गैस से
लेकर नल-जल और
शौचालय तक, आवास योजना
से लेकर स्वयं सहायता
समूहों की आर्थिक मजबूती
तक। इन्हीं कारणों से एनडीए के
पास महिलाओं का एक स्थिर
आधार वोट मौजूद है।
लेकिन यह कहानी एकतरफा
नहीं है। महंगाई, परिवार
की आर्थिक असुरक्षा और रोजगार के
अवसरों की कमी ने
महिलाओं के भीतर परिवर्तन
की आकांक्षा भी पैदा की
है। और इसी भावना
पर राजेडी व महागठबंधन ने
“नौकरी और रोज़गार” का
बड़ा वादा केंद्र में
रखा है, जिसने युवतियों
और छात्राओं के भीतर तेजस्वी
यादव की छवि को
“नई पीढ़ी के नायक”
के रूप में उभारा
है। यानी इस बार
महिलाओं के मन में
“स्थिरता बनाम बदलाव” की
दो धाराएं साथ-साथ बह
रही हैं। परिणाम इन्हीं
के संतुलन पर टिके होंगे।
यहां जिक्र करना जरुरी है
कि बिहार ने हमेशा भारतीय
राजनीति को बौद्धिक, सामाजिक
और आंदोलनकारी स्वर दिया है।
जेपी आंदोलन से लेकर मंडल-युग तक, कर्पूरी
ठाकुर से लेकर काशीराम
और लालू तक, यह
भूमि बदलाव की प्रयोगशाला रही
है। इस चुनाव में
भी बदलाव हो रहा है,
लेकिन शोर में नहीं,
चेतना में।
कहा जा सकता
है मतदाता का मन अब
जातीय समीकरण से आगे बढ़
रहा है. महिलाएं पहली
बार अपनी राजनीतिक समझ
से वोट कर रही
हैं. युवा पहली बार
रोजगार और भविष्य की
बहस को वोट का
मूल आधार बना रहा
है. यह बदलाव धीमा
नहीं, बल्कि गहरा है। बिहार
की ग्रामीण महिला ने पिछले वर्षों
में रसोई, खेत, घर-चूल्हे
से निकलकर मतदान बूथ तक अपनी
भूमिका विस्तृत की है। नल-जल योजना, उज्ज्वला,
स्वयं सहायता समूह, छात्रा साइकिल-स्कॉलरशिप, आवास योजना, इन
सबने पहली बार राजनीति
को घर की चौखट
पर छुआ है। इसीलिए
महिलाओं के भीतर स्थिरता
बनाम बदलाव की दोहरी चेतना
मौजूद है, वे विकास
का सीधा लाभ महसूस
करती हैं, लेकिन महंगाई,
रोजगार और घरेलू अर्थसंकट
ने भविष्य को लेकर प्रश्न
भी पैदा किए हैं।
यही कारण है कि
महिला मतदाता अब भावनाओं से
नहीं, समझ से वोट
कर रही हैं। बिहार
का युवा पलायन की
पीड़ा और प्रतियोगी परीक्षाओं
के संघर्ष का साक्षी है।
यह पीढ़ी अब सिर्फ
आश्वासन नहीं, संरचनात्मक बदलाव चाहती है। आरजेडी रोजगार
की उम्मीद देकर अपील कर
रहा है। एनडीए स्थिर
शासन और विकास मॉडल
की बात कर रहा
है। यह संघर्ष किसी
दल का नहीं, दो
दृष्टियों का संघर्ष है,
एक नई व्यवस्था लाने
की आकांक्षा, दूसरा मौजूदा विकास मॉडल को मजबूत
करने की स्थिरता। जवाब
कौन देगा, यह परिणाम बताएगा।
लेकिन यह तय है
कि युवा अब निष्क्रिय
मतदाता नहीं रहे.
एनडीए बनाम आरजेडी में
दौड़ केवल सत्ता की
नहीं, मॉडल की है.
आधार एनडीए (मोदी $ नीतीश) आरजेडी व महागठबंधन. यानी
संदेश शासन का अनुभव,
योजनाओं का लाभ, प्रशासनिक
निरंतरता बदलाव, रोजगार, नई पीढ़ी के
भविष्य का मॉडल है.
प्रमुख वोट शक्ति ग्रामीण
महिलाएं, लाभार्थी वर्ग, बूथ संरचना युवा,
छात्र, शहरी मध्य वर्ग.
भावनात्मक अपील “स्थिरता और भरोसा” “नई
शुरुआत और अवसर”. यह
चुनाव बताता है कि भारत
की राजनीति अब नेता और
नारों से नहीं, बल्कि
मतदाता की चेतना और
सामाजिक वास्तविकताओं से संचालित हो
रही है। महिलाएं अब
सत्ता को आकार दे
रही हैं। युवा अब
नीतियों की दिशा तय
कर रहा है। और
यही दो वर्ग, आने
वाले दशक में भारत
की राजनीति का सबसे बड़ा
यथार्थ बनने जा रहे
हैं। बिहार ने संकेत दे
दिया है, लोकतंत्र की
असली ताकत अब जमीनी
समाज के हाथ में
है, न कि मंचों
और नारों में। पहले चरण
के तहत कई खास
सीटों पर फोकस रहा.
जिनमें तेजस्वी यादव की राघोपुर
सीट, तेज प्रताप यादव
की महुआ और तारापुर
सीटें थीं, जहां से
डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी
चुनावी मैदान में थे. दोंनो
दलों ने अपने अपने
तरीके से मतदाताओं को
रिझाया. एनडीए इस बार ’160 पार’
का नारा बुलंद कर
मैदान में है लेकिन
जमीनी समीकरण कुछ और ही
कहानी कह रहे हैं.
जातीय गणित, बेरोजगारी, पलायन और प्रशांत किशोर
की जन सुराज पार्टी
के उभरने से मुकाबला त्रिकोणीय
और दिलचस्प हो चुका है.
हालात कुछ वैसे ही
लग रहे हैं जैसे
लोकसभा चुनाव में बीजेपी के
’400 पार’ के नारे के
बाद नतीजे 293 पर थम गए
थे.
खास यह है
कि ये 243 सीटों वाली विधानसभा में
लगभग दो-तिहाई बहुमत
के बराबर है. लेकिन राजनीतिक
समीकरण, जातीय गणित और प्रशांत
किशोर की जन सुराज
पार्टी के उभरने से
ये लक्ष्य उतना आसान नहीं
जितना दिखता है. साल 2020 के
विधानसभा चुनाव में एनडीए ने
महागठबंधन को मामूली अंतर
125 बनाम 110 सीटें से हराया था.
अबकी बार जनता के
बीच बेरोजगारी, पलायन और विकास ठहरने
की बातों से नाराजगी झलक
रही है. बिहार की
राजनीति अब भी जाति
आधारित है. एनडीए ने
ज़्यादातर उम्मीदवार राजपूत और पिछड़ी जातियों
से दिए हैं जबकि
राजद अपने पुराने यादव-मुस्लिम वोट बैंक पर
भररोसा कर रही है.
महिला वोटर्स ने साल 2020 में
एनडीए को जीत दिलाई
थी, इस बार भी
महलिएं निर्णायक भूमिका में हैं. एनडीए
ने इस बार 35 महिला
उम्मीदवार उतारी है, जबकि तेजस्वी
यादव ने जीविका दीदियों
के लिए 30,000 रुपये की मदद का
वादा किया है. एनडीए
के अंदर भी सब
कुछ सहज नहीं है.
बीजेपी और जेडयू को
101-101 सीटें दी गई हैं
लेकिन चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी
आरवी को 29 सीटें मिलना जेडयू को अखर रहा
है. इसके अलावा बीजेपी
को 2024 लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज
की गई 68 विधानसभा क्षेत्रों को दोबारा अपने
पक्ष में रखना बड़ी
चुनौती है.
बिहार में किसी भी
गठबंधन ने 200 सीट का आंकड़ा
आखिरी बार 2010 में पार किया
था, जब नीतीश कुमार
के नेतृत्व में एनडीए ने
206 सीटें जीती थीं. 2015 में
नीतीश ने आरजेडी के
साथ मिलकर 178 सीटें हासिल की थीं. यानि
160 पार का सपना 15 साल
पुराना रिकॉर्ड दोहराने जैसा है. राज्य
में बेरोजगारी अब भी सबसे
बड़ा मुद्दा है. एनडीए ने
एक करोड़ नौकरियों का
वादा किया है लेकिन
जनता के मन में
भरोसा कम है. सोशल
मीडिया पर चल रहे
मीम्स और रील्स दिखाते
हैं कि युवा अब
वादों से ज्यादा ठोस
काम देखना चाहते हैं. नतीजे 14 नवंबर
को आएंगे. अगर एनडीए 122 से
ऊपर जाता है तो
नीतीश कुमार पांचवीं बार सत्ता में
लौट सकते हैं. लेकिन
अगर वोटों का थोड़ा भी
झुकाव हुआ तो 160 पार
भी 400 पार की तरह
एक सपना बन सकता
है. मतलब साफ है
बिहार में यह चुनाव
पुराने सत्ता चक्रों की पुनरावृत्ति नहीं,
बल्कि समाज की चेतना
के परिवर्तन की कहानी है।
यहां महिलाएँ अब कल्याण योजनाओं
की पात्र नहीं, निर्णय लेने वाली शक्ति
हैं। युवा अब नारे
सुनने वाला भीड़ नहीं,
नए शासन-ढाँचे का
सवाल पूछने वाला नागरिक है।
इसलिए बिहार का परिणाम चाहे
जो हो, देश को
यह मानना होगा कि लोकतंत्र
की धुरी गाँव की
महिलाओं और विश्वविद्यालय के
युवाओं की ओर खिसक
चुकी है। यही बिहार
का संदेश है, और यही
भारत की नई राजनीति
की दिशा।




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