जनमानस की सोच में छिपी जाति की जकड़न तोड़ने की चाह...
योगी सरकार का यह कदम साहसिक है। यह न केवल प्रशासनिक सुधार, बल्कि सामाजिक संदेश भी है. जाति का दिखावा राष्ट्र के लिए घातक है। अगर सरकार सख्ती दिखाए, सोशल मीडिया पर निगरानी बढ़ाए और शिक्षा-जागरूकता को साथ ले, तो यह पहल अंबेडकर के जातिविहीन भारत के सपने को आगे बढ़ा सकती है। मगर सच यह भी केवल कानून से सामाजिक क्रांति नहीं होती। यदि समाज ने अपने मन के भीतर झांकने का साहस न किया, तो यह प्रयास भी कई पूर्ववर्ती कोशिशों की तरह कागज पर ही सिमटता नजर आयेगा. हालांकि सनातन के शोर में जाति की कड़वाहट कुछ कम जरुर हुई है, लेकिन जब तक हर भारतीय इसे आत्मसात नहीं करेगा, रग-रग में समा चुका जाति की जकड़न यूं ही स्वीट प्वाइजन के रुप में समाज में वैमनस्यता फैलाता रहेगा. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या हम सचमुच जाति से ऊपर उठकर एक समान, न्यायपूर्ण और बंधुत्वमय राष्ट्र बनाने को तैयार हैं? क्या हम सदियों के सामाजिक वैमनस्य पर सरकारी प्रतिबंध के आदेश को मानने को तैयार है? क्या इस आदेश से बदलेंगे सदियों के मनोविकार? क्या सरकारी फरमान बनाम सामाजिक सोच से मिटेगा जाति का ज़हर? क्या जाति की राजनीति पर योगी का अंतिम प्रहार है? क्या कानून की सख्ती बनाम दिल की दीवार से सच में टूटेगी जाति की जकड़न? क्या इस आदेश से बदलेगा देश का मिज़ाज? क्या राजनीतिक दल, जिनकी “खुराक” जाति-आधारित वोटबैंक है, इस मुहिम से खुद को जोड़ पाएंगे? क्या हम अपने नामों, अपने रिश्तों, अपनी सोच से जाति की दीवार हटा पाएंगे? क्योंकि बदलाव की असली परीक्षा जनमानस की सोच में ही छिपी है. फिरहाल, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दृष्टिकोण न सिर्फ यूपी, बल्कि पूरे देश के लिए आईना है। कानून ने रास्ता दिखाया है, अब समाज को अपनी चाल बदलनी होगी
सुरेश गांधी
जी हां, भारत की वह भूमि जहां राजनीति की हर बिसात पर जाति की गोटियां चलती रही हैं, जहां चुनावी गणित का सबसे प्रबल सूत्र “कौन-सी जाति किस पाले में” रहा है, अब एक नए मोड़ पर खड़ा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने 22 सितंबर 2025 को वह कदम उठा दिया है, जिसे कई लोग असंभव मानते थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया निर्देश को आधार बनाते हुए प्रदेश सरकार ने जातिगत रैलियों, जाति-आधारित राजनीतिक सभाओं और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया है। यह आदेश सिर्फ प्रशासनिक परिपत्र नहीं, बल्कि एक विचार है, एक ऐसी पहल, जो सदियों पुराने सामाजिक ढांचे को चुनौती देती है। सवाल, मगर, उतना ही गूढ़ है : क्या महज़ सरकारी फरमान से जाति का वह जहर मिटाया जा सकता है, जो हजारों सालों से हमारी नसों में घुला है?
बता दें, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकारी अभिलेखों और पत्राचार में अब जाति न लिखने का निर्देश देकर एक स्पष्ट संदेश दिया है, राज्य के नागरिक सबसे पहले नागरिक हैं, उनकी जातीय पहचान नहीं। ऐसे समय में जब यूपी की राजनीति जातीय समीकरणों पर टिकी है, यह निर्णय सामाजिक समरसता की दिशा में साहसिक पहल है।
जातिगत रैलियों और राजनीतिक सभाओं
पर पूर्ण प्रतिबंध। राजनीतिक दल अब “जाति
महापंचायत” या “जातीय शक्ति
प्रदर्शन” नहीं कर सकेंगे।
सोशल मीडिया पर सख्त निगरानी।
जातिगत नफरत फैलाने वाले
पोस्ट्स पर आईपीसी की
धारा 153ए के तहत
कड़ी कार्रवाई होगी।
देखा जाएं तो पिछले कुछ वर्षों में देशभर में “सनातन” शब्द सिर्फ़ आस्था का पर्याय नहीं रहा, बल्कि राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बनकर उभरा है।
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में यह लहर और गहरी दिखती है। राम मंदिर निर्माण से लेकर काशी - विश्वनाथ धाम तक, 2014 से 2024 का दशक भारतीय संस्कृति के आत्मविश्वास को नई ऊर्जा देने वाला रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने सनातन परंपरा को गौरव और राष्ट्र निर्माण से जोड़ने का प्रयास किया है। परंतु राजनीति की खेती केवल आस्था से नहीं उगती।
यूपी की हकीकत यह
भी है कि जातीय
गोलबंदी आज भी सत्ता
का सबसे बड़ा गणित
तय करती है। मोदी
- योगी नेतृत्व ने इसे समझते
हुए “सबका साथ, सबका
विकास” का नारा दिया
और गैर यादव पिछड़े,
गैर जाटव दलित, ब्राह्मण,
ठाकुर जैसे समूहों को
जोड़ने की रणनीति अपनाई।
यह वही “सोशल इंजीनियरिंग”
है जो जातीय दीवारों
को भले न तोड़
पाई हो, लेकिन उन्हें
नए सिरे से परिभाषित
जरूर कर गई। सनातन
का राष्ट्रीय विमर्श जातीय राजनीति के बरक्स खड़ा
दिखाई देता है। जब
धार्मिक, सांस्कृतिक पहचान को साझा गौरव
का आधार बनाया जाता
है, तो यह जाति
के संकुचित खांचों को कमजोर करने
की संभावना रखता है। काशी,
अयोध्या और प्रयागराज की
भव्यता केवल धार्मिक उत्सव
नहीं, बल्कि यह संदेश भी
है कि हमारी जड़ें
साझा हैं। फिर भी
यह मान लेना कि
एक दशक में जातीय
गोलबंदी पूरी तरह खत्म
हो गई है, वास्तविकता
से दूर होगा। पंचायत
से लेकर विधानसभा तक
चुनावी समीकरण जाति के बिना
अधूरे हैं।
मोदी - योगी की जोड़ी
ने जाति से ऊपर
उठने का नैरेटिव गढ़ा,
लेकिन यह भी सच
है कि टिकट बंटवारे
से लेकर बूथ प्रबंधन
तक जातीय संतुलन को बारीकी से
साधा जाता है। अगले
चरण की चुनौती यही
है, आस्था और विकास के
बड़े एजेंडे को इस तरह
गढ़ा जाए कि जातीय
पहचान राजनीतिक औज़ार न रह
जाए, बल्कि केवल सांस्कृतिक विविधता
का हिस्सा बनकर रह जाए।
सनातन का स्वर तभी
वास्तविक राष्ट्रनिर्माण का वाहक बनेगा
जब वह सामाजिक समानता
और न्याय के संदेश को
भी उतनी ही मजबूती
से साथ ले चले।
इसलिए 2014 से 2024 तक का अनुभव
हमें यही बताता है
: सनातन का जागरण राष्ट्र
को नई दिशा देता
है,
मगर जातीय गोलबंदी की जड़ों को कमजोर करने के लिए शिक्षा, आर्थिक अवसर और सामाजिक न्याय जैसे दीर्घकालिक उपाय ही निर्णायक होंगे। हालांकि यह पहला अवसर नहीं, जब किसी नेता ने जाति की जड़ों को काटने का सपना देखा हो। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी कालजयी कृति । ददपीपसंजपवद वि ब्ेंजम में लिखा थाकृ“जाति-व्यवस्था केवल असमानता नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा का सबसे बड़ा अपमान है।” उन्होंने 1932 के पूना पैक्ट से दलितों के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया, पर लक्ष्य हमेशा “जातिविहीन समाज” था। 1956 में बौद्ध धर्म अपनाकर उन्होंने अंतिम घोषणा की कि हिंदू समाज की जाति-बाधा से मुक्ति तभी मिलेगी, जब मन बदलेगा। जयप्रकाश नारायण ने 1974 की संपूर्ण क्रांति में इसी धारा को आगे बढ़ाया। उनका विश्वास थाकृ“जब तक जाति नहीं मिटेगी, लोकतंत्र अधूरा रहेगा।” उस दौर में बिहार के कई युवाओं ने अपने नामों से जातिसूचक उपनाम हटा दिए। “कुमार”, “रंजन”, “भारती” जैसे सर्वनाम उसी चेतना का परिणाम थे। लेकिन इतिहास साक्षी है कि इन प्रेरक प्रयासों के बावजूद सामाजिक मानसिकता में बदलाव धीमा ही रहा। समाजवादी आंदोलन के बाद भी राजनीतिक दलों ने जाति को सत्ता का सीढ़ी बनाया। मंडल आयोग के बाद 1990 का दशक तो मानो जातीय राजनीति का स्वर्णयुग बन गया।
यूपी हो या अन्य राज्य सत्ता की बुनियाद ही जातीय समीकरणों पर टिकी रही है।
बसपा ने “बहुजन” की छत्रछाया में दलित-बहुजन राजनीति खड़ी की। सपा व राजेडी ने यादव-मुस्लिम समीकरण साधा।
भाजपा ने भी समय-समय पर गैर-यादव पिछड़ों और दलितों को साधने की रणनीति बनाई। ऐसे में योगी सरकार का यह आदेश विपक्ष को चुभना लाजिमी है।
अखिलेश यादव ने इसे
“कॉस्मेटिक” बताते हुए कहा, “5000 साल
से मन में जमी
जातीय ग्रंथि को मिटाने के
लिए सिर्फ आदेश काफी नहीं,
सोच बदलनी होगी।”
भाजपा के सहयोगी भी आशंकित हैं कि यह कदम उनकी परंपरागत रणनीति को चोट पहुंचा सकता है।
डिजिटल युग की नई चुनौती
मन परिवर्तन ही असली क्रांति
यह संदेश है कि जाति का सार्वजनिक महिमामंडन अब बर्दाश्त नहीं होगा। परंतु असली क्रांति तभी संभव होगी, जब लोग अपने भीतर बसे जातिगत अहं को त्यागें।
क्या राजनीतिक दल, जिनकी “खुराक” जाति-आधारित वोटबैंक है, इस मुहिम से खुद को जोड़ पाएंगे? क्या हम अपने नामों, अपने रिश्तों, अपनी सोच से जाति की दीवार हटा पाएंगे? फिर भी यथार्थ की ज़मीन कठिन है।
संविधान द्वारा संरक्षित आरक्षण व्यवस्था, चुनावी टिकटों का बंटवारा और स्थानीय सत्ता का गणित जातीय पहचान से अब भी गहराई से जुड़ा है।
पंचायतों से लेकर विधानसभाओं तक जातीय समीकरणों को दरकिनार करना आज भी किसी दल के लिए असंभव है।ऐसे में केवल प्रशासनिक आदेश से सदियों पुरानी मानसिकता और सामाजिक ढांचे में तुरंत बदलाव की उम्मीद करना व्यावहारिक नहीं।
इसके बावजूद इस पहल को हल्के में नहीं लिया जा सकता। सरकारी दस्तावेज़ों से जाति का उल्लेख हटना प्रतीकात्मक सही, लेकिन मानसिकता बदलने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। यह नागरिकों को यह अहसास दिला सकता है कि शासन उनकी पहचान को जाति से नहीं, नागरिकता से आंकता है।
सच्चा असर तभी दिखेगा जब इसके साथ शिक्षा, रोज़गार और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने वाली नीतियां भी जुड़ें। जब अवसर समान होंगे, तब जातीय दीवारें धीरे-धीरे कमजोर होंगी और राजनीति में जाति का वर्चस्व स्वाभाविक रूप से घटेगा।योगी सरकार का यह आदेश
सामाजिक परिवर्तन की पहली आहट
है। यह केवल प्रशासनिक
फैसला नहीं, बल्कि उस सोच को
चुनौती है जिसने लंबे
समय से राजनीति को
जाति के घेरे में
कैद कर रखा है।
बदलाव की राह लंबी
है, पर हर यात्रा
की शुरुआत एक कदम से
ही होती हैकृयह वही
पहला कदम है।










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