Friday, 26 September 2025

कन्या पूजन : शक्ति की अनंत ज्योति और समाज के आत्मावलोकन का व्रत

कन्या पूजन : शक्ति की अनंत ज्योति 

और समाज के आत्मावलोकन का व्रत 

नवरात्रि का अंतिम अध्याय हमें बोध कराता है कि देवी केवल मंदिरों की प्रतिमा नहीं, बल्कि हर बेटी, बहन और मां में सजीव है। कन्या पूजन महज रस्म नहीं, संकल्प है, स्त्री के सम्मान, शिक्षा और अधिकार का। सच्चा उत्सव तभी है जब हम उस शक्ति को प्रतिदिन नमन करें, कि केवल एक दिन। नवरात्रि हमें बताता है, जहां कन्या का मान है, वहीं सच्ची शक्ति का स्थान है। मतलब साफ है नवरात्रि का कन्या पूजन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है, जो स्त्री को सृजन की सर्वोच्च शक्ति मानती है। नवरात्र हमें याद दिलाता है कि देवी केवल मंदिरों में नहीं, हमारे घर की बेटियों, बहनों और माताओं में निवास करती है। जब हम कन्याओं का पूजन करते हैं, तो यह केवल प्रतीक नहीं बल्कि एक संकल्प है, हर बालिका के सम्मान, शिक्षा, सुरक्षा और समान अधिकार का। तभी नवरात्रि की साधना पूर्ण मानी जाएगी और शक्ति की उपासना सार्थक होगी 

सुरेश गांधी 

नवरात्रि केवल उपवास, मंत्रोच्चार और देवी प्रतिमाओं की स्थापना का पर्व नहीं, बल्कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों का उत्सव है। जबकि नवरात्रि के समापन पर कन्या पूजन हमें यह स्मरण कराता है कि देवी केवल मंदिरों की प्रतिमा नहीं, बल्कि हर घर की बेटियों में, हर मां की ममता में, हर बहन की मुस्कान में विद्यमान है। यही इस अनुष्ठान का सार है। जब तक यह भाव हमारे समाज में जीवित है, तब तक शक्ति की यह आराधना हमें आशीर्वाद देती रहेगी और हमारी संस्कृति का दीपक सदैव प्रज्वलित रहेगा। नौ दिनों की यह साधना तब पूरी होती है, जब अंतिम दिन कन्या पूजन के साथ शक्ति का आह्वान संपन्न किया जाता है। यही वह क्षण है, जब धार्मिक अनुष्ठान मानवता के सबसे गहरे अर्थों से जुड़ता है। 

देवी भागवत और भविष्य पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि मां दुर्गा का पूजन कन्या पूजन के बिना अधूरा माना जाता है। अष्टमी और नवमी, इन दोनों तिथियों का विशेष महत्व है। दो वर्ष से दस वर्ष तक की कन्याओं को देवी स्वरूप मानकर उनके चरण धोना, चुनरी ओढ़ाना, तिलक करना और हलवा-पूड़ी चने का प्रसाद अर्पित करना केवल धार्मिक विधि नहीं, बल्कि उस विश्वास का प्रतीक है कि सृष्टि की मूल शक्ति स्त्री में ही निहित है। 

शास्त्रों के अनुसार कन्या पूजन से समस्त दोषों का नाश होता है और साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ काम, चार की पूजा से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छह की पूजा से सिद्धि, सात की पूजा से राज्य, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी पर प्रभुत्व तक प्राप्त होने की मान्यता है। कन्या पूजन में जिन बालिकाओं को आमंत्रित किया जाता है, उन्हें उनके विशेष रूपों के नाम से पुकारा जाता है, कौमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, चण्डिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा। 

इन नामों से संबोधित बालिकाएं शक्ति के नौ रूप हैं। इनके साथ भैरव स्वरूप में एक बालक को भी बैठाया जाता है। दो वर्ष की कौमारी से लेकर दस वर्ष की सुभद्रा तक हर आयु का अपना प्रतीक अर्थ है। कोई दुख-दारिर्द्य का नाश करती है, तो कोई रोग मुक्ति, विद्या, राजयोग और शत्रु पर विजय का आशीर्वाद देती है। यह केवल कल्पना नहीं, बल्कि उस भाव का विस्तार है कि बालिका में ब्रह्मांड की सम्पूर्ण ऊर्जा विद्यमान है। होगा। नवरात्र हमें यह स्मरण कराता है कि यदि कन्या ही नहीं बचेगी तो पूजा का अर्थ भी नहीं बचेगा। इसलिए कन्या भ्रूण हत्या रोकने, बालिकाओं की शिक्षा, सुरक्षा और समान अधिकार सुनिश्चित करने का संकल्प ही सच्चे कन्या पूजन की परिणति है। कन्या पूजन का यह पावन अवसर हमें बताता है कि मां आदिशक्ति की कृपा पाने के लिए केवल मंत्रोच्चार नहीं, बल्कि हर बेटी के प्रति स्नेह, सम्मान और सुरक्षा का व्रत ही वास्तविक आराधना है। तभी नवरात्रि का यह अंतिम पुष्प वास्तव में शक्ति की अनंत ज्योति में खिल उठेगा।

प्रकृति और नारी : एक ही चेतना

नवरात्रि के नौ दिन साधना, तप और आत्मशुद्धि के पर्व हैं। नवरात्रि की देवी मां दुर्गा केवल युद्ध की देवी नहीं, बल्कि प्रकृति का जीवंत रूप हैं। या यूं कहे मां दुर्गा केवल शौर्य की देवी नहीं, प्रकृति की चेतना भी हैं। जब प्रकृति की तरह ही नारी में धैर्य, करुणा, सृजन और सहनशीलता का अनंत भंडार है। इसी कारण कन्या पूजन केवल धार्मिक विधान नहीं, बल्कि इस चेतना का उत्सव है कि नारी ही सृष्टि की आधारशिला है। ये दिन अपने चरम पर पहुंचते हैं, तब उनका समापन होता है कन्या पूजन से, एक ऐसा अनुष्ठान, जिसमें धर्म, समाज और प्रकृति का अनोखा संगम है। प्रकृति में जो सृजन, धैर्य, करुणा और सहनशीलता है, वही नारी का असली स्वरूप है। जिस प्रकार प्रकृति अपने वात्सल्य से किसी को वंचित नहीं करती, उसी तरह नारी भी ममता, प्रेम और करुणा का अनंत स्रोत है। कन्या पूजन इस साम्य को स्वीकारने का अवसर है, यह समझने का क्षण कि नारी को पूजना दरअसल सृष्टि की शक्ति को नमन करना है।

समाज के लिए दर्पण

यह विडंबना ही है कि जिस देश में कन्या को देवी मानकर पूजन किया जाता है, वहीं कन्या भ्रूण हत्या, दहेज और स्त्री-अत्याचार की घटनाएं थमती नहीं। शास्त्रों में कन्या पूजन का विधान केवल आस्था का विधान नहीं, बल्कि समाज को यह स्मरण कराने के लिए है कि स्त्री का सम्मान हर युग में सर्वोपरि है। आज जब हम कन्या के चरण पखारते हैं, तो यह केवल प्रतीकात्मक अनुष्ठान रह जाए। जरूरत है कि हम इसे अपने आचरण में उतारें, बेटियों को जन्म से शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार दें। कन्या पूजन तभी सार्थक है, जब हम अपने घर, मोहल्ले और समाज में स्त्री को बराबर का स्थान और सम्मान दें। 

अनुष्ठान की विधि और भाव

कन्या पूजन की शुरुआत आमंत्रण से होती है। परंपरा है कि पूजन से एक दिन पहले ही कन्याओं को घर बुलाने का निमंत्रण दिया जाता है। पूजन के दिन परिवारजन सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं और घर के पवित्र स्थान पर मां दुर्गा के समक्ष दीप जलाते हैं। बालिकाओं का स्वागत पुष्पवर्षा से किया जाता है। उनके चरण दूध या स्वच्छ जल से धोकर माथे पर तिलक लगाया जाता है। उन्हें लाल चुनरी ओढ़ाई जाती है, श्रृंगार कर हलवा-पूड़ी और काले चने का प्रसाद परोसा जाता है। अंत में सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा और उपहार देकर आशीर्वाद लिया जाता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि उस विनम्रता और कृतज्ञता का प्रतीक है, जो मानव को सृजन शक्ति के प्रति होनी चाहिए।

आंतरिक साधना और ब्रह्मांड का विज्ञान

नवरात्रि के नौ दिन हमारे भीतर चलने वाले गुणों की साधना हैं। तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इन तीन अवस्थाओं की यात्रा आत्मा को शुद्ध करती है। पहले तीन दिन तमोगुण को पराजित करने, अगले तीन दिन रजोगुण को संतुलित करने और अंतिम तीन दिन सतोगुण में स्थापित होने के लिए माने जाते हैं। यह यात्रा तभी पूर्ण होती है, जब हम शक्ति के प्रति कृतज्ञता को जीवन का हिस्सा बनाएं। कन्या पूजन इस साधना का अंतिम सोपान है। यह वह क्षण है, जब हम अपने भीतर के भय, नकारात्मकता और संकुचित सोच को त्यागते हैं। देवी की कृपा तभी प्राप्त होती है, जब मन निर्मल हो और नारी के प्रति दृष्टि पवित्र। 

आधुनिक संदर्भ में कन्या पूजन

आज जबकि देश प्रगति के दावों के साथ आगे बढ़ रहा है, यह प्रश्न और भी गूंजता है, जब कन्या ही सुरक्षित नहीं, तो पूजन का अर्थ क्या? हर दिन समाचार पत्रों में बलात्कार, शोषण और भ्रूण हत्या की खबरें आती हैं। यह विडंबना है कि हम एक ओर कन्या को देवी मानते हैं, दूसरी ओर उसके अस्तित्व को खतरे में डालते हैं। इसलिए नवरात्रि केवल उत्सव नहीं, आत्मावलोकन का पर्व भी है। जब हम कन्या पूजन करते हैं, तो यह संकल्प भी लें कि समाज में कन्या को वास्तविक सम्मान और सुरक्षा दिलाएंगे। कन्या के प्रति अपराधों को रोकने, उसकी शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी समाज और परिवार दोनों को उठानी होगी।

संकल्प का पर्व

नवरात्रि हमें बताता है कि शिव सत्य हैं और शक्ति ही उस सत्य को गति देती है। शक्ति के बिना शिव शून्य हैं, जैसे नारी के बिना जीवन अधूरा है। इसलिए कन्या पूजन केवल देवी की आराधना नहीं, बल्कि उस शाश्वत सत्य का स्मरण है कि जहां नारी का सम्मान है, वहीं भगवान का वास है। कन्या पूजन की महिमा तभी सार्थक है, जब समाज कन्या को जन्म से लेकर जीवन के हर पड़ाव तक समान सम्मान दे। नवरात्रि के नौ दिन तम, रज और सतकृतीन गुणों की साधना हैं। तमोगुण से रजोगुण और अंततः सतोगुण की ओर यह यात्रा तभी सफल है, जब हम नारी को केवल पर्व पर नहीं, बल्कि हर दिन आदर दें। कहा जा सकता है कन्या पूजन को केवल पर्व की रस्म मानें। इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। अपने घर की, पड़ोस की, समाज की हर बेटी को वही सम्मान दें, जो आप देवी को देते हैं। गरीब बालिकाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा का संकल्प लें। तभी नवरात्रि का यह अंतिम सोपान सच्चे अर्थों में सफल होगा। कन्या पूजन, एक ऐसा रिवाज़, जिसमें धर्म, दर्शन और जीवन के गहन अर्थ एक साथ झिलमिलाते हैं। यह केवल उपवास का अंतिम पड़ाव नहीं, बल्कि उस आदिशक्ति को नमन है, जो सृष्टि का मूल है और हर कन्या में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है। 

आदिशक्ति की प्रतिमा

पुराणों के पृष्ठ पलटते ही यह साक्षात् हो उठता है कि नवदुर्गा के नौ रूप केवल अलौकिक देवी नहीं, बल्कि मानव जीवन के गुणों की प्रतीक हैं। मार्कंडेय पुराण और देवी भागवत में मां ने स्वयं कहा है, “कुमारिकाओं में ही मेरा वास है।यही कारण है कि दो वर्ष से दस वर्ष तक की बालिकाओं कोनवदुर्गास्वरूप मानकर उनके चरण धोने, तिलक करने और चुनरी ओढ़ाने की परंपरा चली रही है। जब अष्टमी या नवमी को परिवारजन कन्याओं को आमंत्रित करते हैं, तो वह केवल धार्मिक विधान नहीं, बल्कि एक घोषणा है कि शक्ति, सृजन और करुणा का असली निवास स्त्री में है।

केवल पूजा नहीं, प्रतिज्ञा भी

कन्या पूजन भारतीय मानस को यह स्मरण कराता है कि मातृत्व और नारीत्व का सम्मान कोई रस्म नहीं, बल्कि जीवनदायिनी चेतना है। गांव हो या नगर, इस दिन पड़ोस की नन्हीं बच्चियों को घर बुलाकर भोजन कराना, उनके चरण पखारना, समाज के सामूहिक हृदय को जोड़ता है। उत्तर भारत के देहातों में यह दिन बड़े उत्सव का रूप ले लेता है। महिलाएं गीत गाती हैं, बच्चे सजधज कर आते हैं, और हर आंगन से हलवे-पूड़ी की सुगंध फूट पड़ती है। यह उत्सव बताता है कि धर्म का सार केवल मंत्रोच्चार नहीं, बल्कि सामुदायिक प्रेम और समानता है।

लोकजीवन की झलक

काशी के घाटों पर हजारों कन्याओं को सामूहिक भोज कराने का दृश्य हो, या बंगाल का कुमारी पूजा उत्सव, हर क्षेत्र इस परंपरा को अपनी संस्कृति के रंग में रंग देता है। कहीं लोकगीतों की मीठी लहर है, कहीं आरती की गंभीर गूंज। यह विविधता भारतीय संस्कृति की उसी एकता का संगीत है, जो नारी को जगतजननी मानती है।

शक्ति का साक्षात्कार

कन्या पूजन, जिसेकंजकयाकन्या भोजभी कहा जाता है। यह अनुष्ठान केवल धार्मिक विधान नहीं, बल्कि भारतीय समाज की उस गहन चेतना का प्रतीक है जिसमें स्त्री को सृजन-शक्ति, आदिशक्ति और माँ के रूप में पूजा जाता है। ग्रामीण भारत में कन्या पूजन विशेष उत्सव का रूप ले लेता है। गांव की महिलाएं बालिकाओं को गीत गाकर स्वागत करती हैं, घर की साफ-सफाई से लेकर पकवानों तक में पूरे समाज की भागीदारी होती है। यह सामाजिक एकता का जीवंत उदाहरण है। कई सामाजिक कार्यकर्ता और संतों ने यह संदेश दिया है कि कन्या पूजन तभी सार्थक है जब हम अपने घर, समाज और कार्यस्थलों पर स्त्रियों को समान अवसर, शिक्षा और सुरक्षा प्रदान करें। नवरात्रि का यह आखिरी पड़ाव हमें आंतरिक आत्मचिंतन का अवसर देता है, क्या हम सचमुच उस शक्ति का सम्मान कर रहे हैं जिसे हम देवी कहते हैं? वाराणसी, मिथिला, बंगाल, गुजरात, राजस्थान, हर क्षेत्र में कन्या पूजन का रंग अलग है। कहीं पंडालों में सामूहिक आयोजन होते हैं, कहीं घर-आंगन में सहज आत्मीयता के साथ। बंगाल में दुर्गा विसर्जन से पहलेकुमारी पूजाका भव्य रूप देखा जाता है। काशी के घाटों पर सामूहिक कन्या भोज में हजारों कन्याओं को आमंत्रित करने की परंपरा आज भी जीवंत है।

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