Sunday, 28 September 2025

नवरात्र जागृत करें अपने अंतःकरण की छुपी दैवी शक्ति!

नवरात्र जागृत करें अपने अंतःकरण की छुपी दैवी शक्ति!

मां दुर्गा के नौ स्वरूपों से हमें शक्ति, विद्या, साहस, संयम, सिद्धि, ज्ञान और स्थिरता की सीख मिलती है. इस मौके पर हर भक्त के जीवन में शक्ति और भक्ति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है. वैसे भी शिव की कार्यशक्ति से जन्मी मां दुर्गा का मानव जीवन में खासा महत्व है। मतलब साफ है नवरात्र केवल उपवास, आरती या देवी गीतों का उत्सव नहीं, बल्कि आत्मशक्ति को जागृत करने का आमंत्रण है। यह स्मरण कराता है कि जिस दिव्यता की हम पूजा करते हैं, वह बाहर नहीं, हमारे भीतर ही सुप्त है। रात्रि की निस्तब्धता में किया गया मंत्रजाप, साधक को उसी आंतरिक देवी तक पहुंचाता है। इसलिए इन नौ रात्रियों का वास्तविक महत्व केवल अनुष्ठानों में नहीं, उस साधना में है जो मन को स्थिर करती है, ज्ञान को प्रकाशित करती है और आत्मा को अद्वितीय बल प्रदान करती है। नवरात्र की हर रात हमें पुकारती है, अपने भीतर की देवी को जागृत करो, क्योंकि वही शक्ति मानव को भय, मोह और अज्ञान के अंधकार से मुक्त कर सकती है। यही नवरात्र का शाश्वत संदेश है . नवरात्र केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शुद्धि की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यह ऋतु परिवर्तन का प्राकृतिक संतुलन है, आत्मशक्ति का जागरण है और ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं से संवाद का अवसर है। इन नौ रातों में साधक यदि संकल्प और श्रद्धा के साथ साधना करें, तो जीवन की तीनों परतोंकृशरीर, मन और आत्माकृमें नई ऊर्जा का संचार निश्चित है 

सुरेश गांधी

भारत के आध्यात्मिक इतिहास में शक्ति की उपासना का अनूठा स्थान है। जब विश्व की अधिकांश सभ्यताओं ने परमसत्ता को एक पुरुष के रूप में देखा, तब यही भारत था जिसने उस परब्रह्म को स्त्री-शक्ति के रूप में स्वीकार किया। शिव को साक्षी मानें तो उनकीकार्यशक्तिही मां दुर्गा हैं। प्रकृति स्त्रैण है और परमात्मा पुरुष, दोनों के संगम से ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार का अद्भुत क्रम चलता है। यही अद्वैत विचार हमें बताता है कि शक्ति और शिव का अस्तित्व अलग नहीं, एक-दूसरे के पूरक हैं। नवरात्र इसी अद्वैत का ज्वलंत प्रतीक है। नौ दिनों तक चलने वाला यह उत्सव केवल पर्व नहीं, बल्कि आत्मजागरण का पथ है।

देवी दुर्गा की उपासना में कलश स्थापना, मंत्रोच्चार, सुमधुर घंटियों की झंकार, धूप-बत्तियों की सुगंध, सब मिलकर साधक के अंतर्मन को दिव्यता की ओर उन्मुख करते हैं। यह नौ दिन भक्ति और साधना के ऐसे क्षण हैं, जब भक्त अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने का संकल्प लेता है। 

मानव जीवन में साहस, स्थिरता और आत्म-संयम के बिना प्रगति की कोई राह नहीं। आज जब समाज लालच, वासनाओं और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, तब नवरात्र हमें आत्मअनुशासन का स्मरण कराता है। देवी के नौ रूप, शैलपुत्री से लेकर सिद्धिदात्री तक, मनुष्य के अंतःकरण में छिपी शक्तियों का प्रतीक हैं। 

ये स्वरूप हमें संदेश देते हैं कि कामनाओं और अहंकार के असुरों को परास्त कर ही भीतर का प्रकाश जागृत हो सकता है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या कोई ऐसा मनुष्य है जिसे जीवन में शांति, धैर्य और ज्ञान की आवश्यकता हो? क्या कोई बिना संयम और अनुशासन के मानवीय ऊंचाई को छू सकता है

उत्तर स्वाभाविक है, नहीं। यही कारण है कि देवी की आराधना केवल आस्था का नहीं, आत्मोन्नति का भी अनिवार्य साधन है। जप, तप, व्रत और ध्यान से हम अपने भीतर की निष्क्रिय दिव्यता को सजीव कर सकते हैं। 

दुर्गा केवल युद्ध की देवी नहीं; वे विद्या, सौंदर्य, समाधि, अनुशासन और सिद्धियों की भी प्रतीक हैं। वे बताती हैं कि शक्ति का अर्थ केवल बल नहीं, बल्कि संतुलन है, वह स्थिरता जो मन को उद्दीप्त भी करती है और शांत भी। 

नवरात्र इसीलिए मानव जीवन को नयी दिशा देता है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि शक्ति बाहर नहीं, हमारे भीतर ही विद्यमान है। जब दीपक की लौ अंधकार को हटाती है, तब समझना चाहिए कि नवरात्र का असली संदेश भीतर के तम को मिटाना है। मां दुर्गा की कृपा तभी प्राप्त होती है जब हम अपने जीवन को अनुशासन, तपस्या और सद्गुणों से आलोकित करें। 

यही आत्मचेतना का मार्ग है, यही शक्ति-साधना का सार। नवरात्र केवल देवी की आराधना नहीं, मनुष्य के आत्मबल का उत्सव है। यह हमें स्मरण कराता है कि हर हृदय में दिव्यता सोई हुई है, जिसे जागृत करने का समय अब है। मां दुर्गा की यह साधना हमें वही अद्भुत संगम देती है, आध्यात्मिक ऊँचाई और मानवीय श्रेष्ठता का। यही है नवरात्र का असली अर्थ, यही है भारत की सनातन आत्मा का संदेश है। सनातन में रात्रि का महत्व अद्भुत है। दीपावली, महाशिवरात्रि, होलिका दहन, दशहरा, अधिकांश बड़े पर्व रात्रि के आलोक में ही मनाए जाते हैं। नवरात्र भी इन्हीं में से एक है।नवरात्रशब्द का सीधा अर्थ है नौ रात्रियां। 

यह मात्र समय की गणना नहीं, बल्कि साधना और सिद्धि का गूढ़ संकेत है। रात्रि को ज्ञान, ध्यान और आत्मचिंतन का प्रतीक माना गया है। जब संसार निद्रा में होता है, तब साधक का मन ब्रह्म से जुड़ने के लिए सबसे उपयुक्त होता है।

माता के 51 शक्तिपीठों पर इन दिनों अपार भीड़ उमड़ती है। जो वहां नहीं पहुंच पाते, वे अपने निकटवर्ती मंदिरों में माता का दर्शन कर उसी आस्था को जीते हैं। 

यही भारतीय संस्कृति की व्यापकता है, भक्ति का केंद्र किसी स्थान में नहीं, श्रद्धा में है। नवरात्र की रात्रियां हमें आमंत्रित करती हैं कि हम इन क्षणों को मनन-चिंतन, जप-तप और साधना में रूपांतरित करें। शास्त्र कहते हैं कि जब-जब पृथ्वी पर आसुरी शक्तियों का अत्याचार बढ़ा, तब-तब देवी का अवतरण हुआ। 

महिषासुर के आतंक से जब देव और मानव लोक व्याकुल हो उठे, तब समस्त देवताओं की दिव्य ऊर्जाओं से आदि शक्ति प्रकट हुईं। 

जगदंबा ने महिषासुर का संहार कर पुनः सृष्टि में प्राण और रक्षा शक्ति का संचार किया। नवरात्र का पर्व इसी आदिशक्ति के आवाहन और उनके शौर्य का स्मरण है।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो देवी के प्रत्येक रूप में साधक के लिए गहरा संदेश छिपा है। शैलपुत्री पर्वत जैसी स्थिरता का प्रतीक हैं। साधक को सिखाती हैं कि साधना का मूल आधार अडिग मन हैकृकूटस्थ, अचल और सत्य। 

ब्रह्मचारिणी हमें आत्मबल और इंद्रियनियंत्रण का मार्ग दिखाती हैं। ब्रह्मचर्य दमन नहीं, बल्कि उच्च लक्ष्य की ओर स्वयं चुना गया संकल्प है। यह संसार नश्वर है; इसे जानने वाला साधक तात्कालिक आकर्षण से ऊपर उठता है। चंद्रघंटा साधना की ऊर्ध्वगामी प्रक्रिया का संकेत देती हैं। 

अज्ञानी मन अमावस्या की रात जैसा अंधकारमय है, पर तप और योग से उसमें अर्धचंद्र का प्रकाश जागृत होता है। योगशास्त्र का बिंदुचक्र इसी सूक्ष्म बोध का प्रतीक है, जहां साधक अमृत-रस का अनुभव करता है और अपूर्व शांति को प्राप्त करता है। 

रात्रि को साधना का समय क्यों कहा गया? क्योंकि यह वह क्षण है जब बाहरी कोलाहल शांत होता है और अंतर्मन ब्रह्मांड की गूंज को सुन सकता है। रात्रि मनुष्य को अंतर्मुख होने का अवसर देती है। इसी कारण नवरात्र की रातें सिद्धि की रातें कही गई हैं।

आदि शक्ति का अवतरण

कहते हैं सृष्टि के प्रारंभ में जब शून्य में गति और चेतना की पहली हलचल हुई, वही आदिशक्ति का उदय था। कभी समुद्र की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी, तो कभी हिमालय की कन्या अपर्णा-पार्वती : तेज, द्युति, ज्योति, कांति, प्रभा और जीवन का हर स्पंदन उसी शक्ति का संकेत है। 

ऋषियों ने विश्व के कण-कण में इसी देवी को देखा और उसे महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के त्रिगुण रूपों में प्रतिष्ठित किया। 

देवी ही सृष्टि की रचना में ब्रह्मा, पालन में विष्णु और संहार में महेश्वर का रूप धरती हैं। वे ही सज्जनों के हृदय में श्रद्धा, वैष्णवों में विद्या, गृहस्थ के घर में लक्ष्मी और कुलीन नारियों में लज्जा मर्यादा के रूप में निवास करती हैं। ब्रह्मा जी ने जिन नौ स्वरूपों कोनवदुर्गाकहा,

प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टा कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।

पञ्चमं स्कन्दमाता षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरी चाष्टमम्।

नवमं सिद्धिदात्री नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।

यही नव रूप देव - दानव युद्ध की दिव्य कथा में प्रकट होते हैं। देवी भागवत, मार्कण्डेय और शिवपुराण में वर्णन है कि किस प्रकार हिमालयकन्या पार्वती ने अपराजिता स्वरूप धारण कर दानवों का नाश किया, तीनों लोकों में सुख-शांति स्थापित की और 108 रूपों से दैत्यराज्यों का अंत किया। 

महर्षि वेदव्यास ने अपराजिता को अदृश्य, अनश्वर और सर्वोच्च फलदायिनी शक्ति कहा है, जिसे स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी ध्यान में धारण करते हैं। 

गायत्री स्वरूपा इस अपराजिता की वंदना में ऋषियों ने प्रार्थना की,

महादेव्यै विद्महे, दुर्गायै धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात्।

यह मंत्र केवल उच्चारण नहीं, बल्कि विश्वमाता की सर्वव्यापी चेतना से जुड़ने का सेतु है।

त्रिगुण और नवरात्र का रहस्य 

आदि शक्ति के तीन महत्त्वपूर्ण आयाम हैं, तमस, रजस और सत्व। तमस जड़ता है, रजस सक्रियता और सत्व वह बोध है जो सीमाओं को तोड़कर परम में विलीन होता है। इन्हीं तीन गुणों को तीन खगोलीय प्रतीकों - पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा से जोड़ा गया है। पृथ्वी तमस का प्रतीक है, सूर्य रजस का और चंद्रमा सत्व का। नवरात्र की साधना भी इसी क्रम में आगे बढ़ती है, पहले तीन दिन तमस की उपासनाः महाकाली जैसे रूपों से जुड़कर हम अपनी भीतरी जड़ता और भय को शक्ति में बदलते हैं। अगले तीन दिन रजस का जागरण : महालक्ष्मी के माध्यम से जीवन की ऊर्जा, कर्म और उत्साह को संतुलित करते हैं। अंतिम तीन दिन सत्व का आरोहणः महासरस्वती की कृपा से ज्ञान, शांति और आत्मबोध की ओर कदम बढ़ाते हैं। तमस गर्भधारण की मौन प्रक्रिया जैसा है, निष्क्रिय दिखने पर भी सृजन का आधार। धरती मां हमें इसी चक्र की याद दिलाती हैः जन्म भी देती है और समय आने पर अपने अंश को अपने में समा भी लेती है। रजस वह जोश है जो हमें कर्म में प्रवृत्त करता है, जबकि सत्व हमें भौतिकता से ऊपर उठाकर आत्मज्ञान की ओर ले जाता है। जो शक्ति, वैभव और सामर्थ्य चाहते हैं वे काली या धरती मां के तमसी रूप की आराधना करते हैं। जो धन, उत्साह और लौकिक सिद्धि के आकांक्षी हैं वे लक्ष्मी की ओर आकृष्ट होते हैं। और जो मोक्ष, ज्ञान आत्मविलयन के साधक हैं, उनका पथ सरस्वती की ओर खुलता है। किंतु साधना का चरम इन तीनों से भी परे है, जहां शक्ति का अहंकार मिटकर शुद्ध चेतना में विलय हो जाता है।

नवरात्र का संदेश

नवरात्र केवल नौ रातों का पर्व नहीं, बल्कि आत्मा के विकास का वैज्ञानिक क्रम है। यह हमें सिखाता है कि भीतर छिपी जड़ता को कैसे शक्ति में, शक्ति को कर्म में और कर्म को ज्ञान में रूपांतरित किया जाए। देवी के प्रत्येक रूप से जुड़ना, अपने भीतर के तमस, रजस और सत्व को समझना और अंततः उन्हें पार कर मोक्ष की ओर बढ़ना ही नवरात्र का सच्चा साध्य है। आदि शक्ति का यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक हैकृसंसार के हर तेज, हर ज्योति, हर चेतना में वही देवी व्याप्त हैं। उन्हें बाहर खोजने से पहले अपने अंतःकरण में पहचानें, क्योंकि ब्रह्मांड की समूची गति उसी शक्ति की स्पंदना है और वही मनुष्य को पूर्णता की ओर ले जाने वाली अनंत ज्योति। विश्व के अधिकांश प्रमुख धर्मों में परमात्मा को पुरुष स्वरूप में पूजा गया। लेकिन भारत एक ऐसा अद्वितीय देश है, जहाँ परब्रह्मा को स्त्री-शक्ति के रूप में, माता के रूप में स्वीकार किया गया। पुरुष और स्त्री, दोनों शक्ति के ही रूप हैं। जैसे माता और पिता के मेल से संतान उत्पन्न होती है, उसी प्रकार शिव और उनकी कार्यशक्ति का संयोग ही देवी शक्ति कहलाता है। शिव पुरुष हैं और प्रकृति स्त्रैण। इन दोनों के संयोग से ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार संभव होता है। यही अद्भुत तत्व नवरात्र में भक्तों के सामने प्रकट होता है, शक्ति और भक्ति का अद्भुत संगम।

देव-दानव युद्ध 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब महिषासुरादि दैत्यों ने पृथ्वी और देवलोक में आतंक मचाया, तब परम पिता और देवताओं की प्रेरणा से देवी जगदंबा का अवतरण हुआ। उन्होंने इन दैत्यों का संहार कर संसार में पुनः शक्ति और शांति स्थापित की। देवी के 108 रूपों ने तीनों लोकों में दैवीय ऊर्जा का संचार किया और असुरों का नाश किया। यह संदेश देता है कि शक्ति की रक्षा और धर्म की स्थापना में देवी के बिना मानव की सफलता असंभव है। नवरात्र केवल एक पर्व नहीं, बल्कि जीवन में शक्ति, अनुशासन, ज्ञान और भक्ति का दिव्य अवसर है। नौ दिनों की साधना से व्यक्ति अपने भीतर छिपी दैवी शक्तियों को जागृत कर साहस, स्थिरता, संयम और उन्नति प्राप्त करता है। यही नवरात्र का असली संदेश है, शक्ति के माध्यम से मानव जीवन का पुनरुत्थान और अध्यात्म की प्राप्ति। भारत की आध्यात्मिक परंपरा का अद्वितीय सौंदर्य यही है कि यहाँ परमात्मा को केवल पिता या पुरुष के रूप में नहीं, माता-शक्ति के रूप में भी पूजा गया। यह दृष्टि विश्व के अन्य धर्मों में दुर्लभ है। शिव और शक्ति का यही अद्वैत भावकृपुरुष और प्रकृति का समन्वयकृसृष्टि की रचना, पालन और संहार का आधार है। शिव चेतना हैं, तो दुर्गा उनकी कार्यशक्ति। नवरात्र का पर्व इसी गूढ़ सत्य को स्मरण कराता है कि सृष्टि

और साधक दोनों में अंतर्मन की विजय तभी संभव है, जब दैवी शक्ति जागृत हो।

आत्मजागरण

देवी पूजन का अर्थ केवल दीप प्रज्वलित करना और मंत्रोच्चार नहीं है। यह आत्मा में सुप्त ऊर्जाओं को सक्रिय करने की साधना है। जिस प्रकार धरती हमें जन्म देती है और अंततः अपने में समा लेती है, उसी प्रकार यह पर्व हमें याद दिलाता है कि हम प्रकृति का ही अंश हैं। शक्ति की उपासना से हम सामर्थ्य प्राप्त करते हैं, किंतु जब साधक तीनों गुणों, तमस, रजस, सत्वकृके पार चला जाता है, तभी मोक्ष का द्वार खुलता है। नवरात्र इसीलिए केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्म-परिष्कार और अध्यात्म की महान साधना है। जब घंटियों की ध्वनि, धूप की सुगंध और मंत्रों का कंपन भीतर तक उतरता है, तो साधक अनुभव करता है कि शिव और शक्ति अलग नहीं, दोनों का मिलन ही संपूर्ण ब्रह्मांड का नर्तन है। यही नवरात्र का परम संदेश हैः अपने भीतर की देवी शक्ति को जागृत करो, क्योंकि असुरों का असली संहार अंतर्मन की विजय से ही संभव है।

ऋतु परिवर्तन और उपवास का विज्ञान

शारदीय नवरात्र तब आते हैं जब मौसम बदल रहा होता है। प्राचीन ऋषियों ने पाया कि इस समय शरीर रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। संतुलित सात्त्विक आहार, उपवास और ध्यान से व्यक्ति केवल आंतरिक शक्ति अर्जित करता है बल्कि बदलते मौसम को सहने की क्षमता भी विकसित करता है। भारत के मनीषियों ने रात्रि को दिन से अधिक महत्व दिया। दीपावली, शिवरात्रि, होलिका और नवरात्र जैसे उत्सव रात में ही क्यों मनाए जाते हैं? कारण है, रात्रि का तरंगों और विचारों पर वैज्ञानिक प्रभाव। रात में प्रकृति का कोलाहल घट जाता है, इसलिए ध्वनि रेडियो तरंगें दूर तक जाती हैं। सूर्य की किरणें दिन में इन तरंगों को रोकती हैं, जबकि रात में मंत्र-जप की विचार तरंगें सहज प्रवाहित होती हैं। मंदिरों में शंख-घंटे की ध्वनि वातावरण को कीटाणु-मुक्त करती है। इसीलिए साधक रात्रि में ध्यान, बीज मंत्र जप और आंतरिक त्राटक से मनोकामना सिद्धि की साधना करते हैं।

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