Sunday, 28 September 2025

अंतरमन के युद्ध में जीत ही असली दशहरा

अंतरमन के युद्ध में जीत ही असली दशहरा

शरद ऋतु की सुनहरी धूप और कनकाभा आकाश के बीच जब विजयादशमी का पर्व आता है, रावण के पुतले की अग्नि केवल एक कथा का अंत नहीं करती, बल्कि हर दिल को यह याद दिलाती है कि सबसे कठिन रणक्षेत्र बाहर नहीं, भीतर है। अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध और मोह से जूझते हमारे अंतर्मन में ही असली युद्ध चलता है। राम-रावण की कहानी हमें सिखाती है कि बाहरी रावण को जलाना प्रतीक मात्र है, सच्ची विजय तब है, जब हम अपने मन के अंधकार को परास्त कर मर्यादा, करुणा और सत्य की रोशनी को स्थायी बना सकें। मतलब साफ है रावण दहन का मेला देखने वाले कई लोग वही हैं जो सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देते हैं। स्वच्छता पर भाषण देने वाला खुद घर का कूड़ा पड़ोसी के आंगन में डाल देता है। महंगाई पर रोने वाला मिलावट करता है। जब तक हम अपने भीतर के दोषों को पहचानकर उन्हें मिटाने का साहस नहीं जुटाते, तब तक किसी महानायक की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है. दशहरा हमें यही संदेश देता है कि असत्य चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, अंततः जीत सत्य और सद्गुण की होती है। इस विजयादशमी पर हमें केवल पुतले नहीं, बल्कि अपने भीतर और समाज में फैले वास्तविकरावणोंको भी जलाने का संकल्प लेना होगा, तभी यह पर्व अपनी सार्थकता को पूर्ण कर सकेगा 

सुरेश गांधी

आश्विन मास की शुक्ल पक्ष दशमी, जिसे विजयादशमी कहा जाता है, भारतीय सांस्कृतिक चेतना का ऐसा पर्व है, जो हर बार हमें आत्मशुद्धि, नैतिक बल और सामूहिक शक्ति के नये आयाम से परिचित कराता है। नवरात्र के नौ दिन शक्ति-साधना और देवी आराधना के बाद यह दसवां दिन केवल राम-रावण युद्ध की विजयगाथा भर नहीं है, बल्कि यह अपने भीतर छिपी बुराइयों, द्वेष, क्रोध, लालच और अहंकार को अग्नि में समर्पित कर, नयी ऊर्जा से जीने का संदेश देता है। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दशहरा आते ही पूरे देश मेंबुराई पर अच्छाई की जीतका उद्घोष गूंजने लगता है। नगरों से लेकर गांवों तक रावण दहन की तैयारी होती है। लेकिन हर साल रावण के पुतले जलाने के बावजूद समाज के भीतर की असली बुराइयां, दहेज के दानव, बलात्कार, हिंसा, भ्रष्टाचार, महंगाई, अपराध, क्यों और कैसे जीवित रह जाती हैं?

यह प्रश्न हर विजयादशमी पर हमारे सामने खड़ा हो जाता है। लोग भूल जाते हैं कि रावण महापंडित और महाज्ञानी था, लेकिन अपने बल और ज्ञान के अहंकार में उसने खुद को भगवान मान लिया। यही उसका पतन बना। आज के दौर में भी हमारे आसपास ऐसे कईरावणहैं, जो अहंकार और स्वार्थ में डूबे हैं, दहेज के लोभी, महिलाओं के प्रति हिंसा करने वाले, सत्ता और धन के मद में चूर अपराधी। आंकड़े बताते हैं कि नारी उत्पीड़न से लेकर लूटपाट और हत्याओं तक के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सवाल यह है कि जब तक इन सामाजिक रावणों को हम नहीं जलाएंगे, तब तक रावण दहन का असली संदेश अधूरा ही रहेगा। 

नवरात्रि के नौ दिनों में हम देवी के विभिन्न रूपों की पूजा करते हैं, दुर्गा, काली, शैलपुत्री, कुष्मांडा, जो आसुरी शक्तियों के विनाश का प्रतीक हैं। विजयादशमी इन आराधनाओं का अंतिम क्षण है, जब हम यह संकल्प लेते हैं कि भीतर और बाहर की बुराइयों पर विजय प्राप्त करेंगे। प्राचीन परंपरा रही है कि इसी दिन राजा शस्त्र पूजन कर रणयात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। यह दिन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक शक्तियों, मनोबल, धर्मबल, संयम और साहस का लेखा-जोखा करने का अवसर भी है। 

रावण रथ पर सवार था, असंख्य अस्त्र-शस्त्रों से लैस था, जबकि राम निःशस्त्र थे। परंतु सत्य और धर्म उनके साथ थे। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखारावण रथी विरथ रघुबीरा।राम का आत्मबल और धर्म के प्रति निष्ठा ही उनकी विजय का आधार बनी। यही दशहरा का सार है कि बाहरी सामर्थ्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है आंतरिक निष्ठा और आत्मबल। आज के समाज को भी यही सीख चाहिए कि बाहरी हथियारों से नहीं, बल्कि सत्य, साहस और सामूहिक संकल्प से ही बुराई पर काबू पाया जा सकता है। 

दशहरा केवल धार्मिक आस्था का उत्सव नहीं है। यह हमें याद दिलाता है कि शक्ति ही सृष्टि का मूल तत्व है, ‘शक्ति सृजति ब्रह्मांडम् दुर्गा की अष्टभुजा आठ शक्तियों का प्रतीक है, शरीर-बल, विद्या-बल, चातुर्य-बल, धन-बल, शस्त्र-बल, शौर्य-बल, मनोबल और धर्म-बल। इन शक्तियों को अर्जित किए बिना तो व्यक्ति और ही समाज असुर प्रवृत्तियों का अंत कर सकता है। रावण का प्रतीकात्मक दहन हमें बताता है कि समाज में पनपती हिंसक प्रवृत्तियां, चाहे वह उग्रवाद हो या माओवादी सोच, रावण की ही आधुनिक छाया हैं।

यह पर्व हमें निडर होकर इनसे सामना करने का साहस देता है। साथ ही यह साम्प्रदायिक सौहार्द की जीवंत मिसाल भी है। देशभर में रामलीला मंचन में मुस्लिम कलाकारों की भागीदारी, पूजा सामग्री बनाने से लेकर पुतला तैयार करने तक में मुस्लिम परिवारों का योगदान भारत की साझी संस्कृति को और मजबूत करता है। भारत की विविधता इस पर्व को और भी विराट बनाती है, बंगाल, उड़ीसा, असम में दुर्गा पूजा की भव्यता और सिंदूर खेला का उल्लास। 

महाराष्ट्र में सरस्वती वंदना और स्वर्णपत्र विनिमय की परंपरा। कुल्लू (हिमाचल) में देवताओं की पालकी और नृत्य-गान का अद्भुत संगम। बस्तर में मां दंतेश्वरी की आराधना, जो पंद्रहवीं शताब्दी से चली रही है। मैसूर की रोशनी से सजी सड़कों और हाथी सज्जित जुलूस की भव्यता। गुजरात का गरबा और डांडिया, जहां भक्ति और लोकसंगीत पूरी रात गूंजते हैं। दक्षिण भारत में लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की क्रमिक पूजा का गूढ़ आध्यात्मिक संदेश। विजयादशमी केवल पौराणिक प्रसंगों की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि अपने समय को समझने और समाज को जोड़ने का संकल्प है। जब हम रावण के पुतले को जलाते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि असली जीत दूसरों पर नहीं, बल्कि अपने भीतर की नकारात्मक प्रवृत्तियों पर होती है। 

यही इस पर्व का चिरस्थायी संदेश है, आत्मशुद्धि, सामाजिक समरसता और अडिग मर्यादा की विजय। 

मतलब साफ है विजयादशमी केवल एक पौराणिक उत्सव नहीं, बल्कि धर्म, शक्ति और आत्मबल की साधना का जीवंत प्रतीक है। यह दिन याद दिलाता है कि असत्य चाहे कितना ही प्रबल क्यों हो, अंततः जीत सत्य की ही होती है। 

श्रीराम का रावण पर विजय प्राप्त करना, देवी दुर्गा का महिषासुर का वध करना, समाज को यही शिक्षा देता है कि आंतरिक और बाहरी आसुरी प्रवृत्तियों का अंत तभी संभव है जब हम अपने भीतर की शक्ति को जागृत करें। 

राम की मर्यादा और वैश्विक आकर्षण

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय संस्कृति के शाश्वत नायक हैं। उनके आदर्शों की गूंज केवल अयोध्या या काशी तक सीमित नहीं, बल्कि इंडोनेशिया के रामायण काकावीन, थाईलैंड के रामकियेन और कंबोडिया से लेकर श्रीलंका, चीन तक सुनाई देती है। हजारों वर्षों बाद भी यह पर्व अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध अडिग रहने की प्रेरणा देता है। सीता-लक्ष्मण संवाद, जिसमेंभाई सा जग में मित्र नहीं, भाई सा शत्रु नहींजैसे वाक्य आज भी लोकजीवन में ताने की तरह गूंजते हैं, हमें यह सोचने को विवश करते हैं कि पारिवारिक रिश्तों की कसौटी समय के हर युग में कठिन रही है। विजयादशमी हमें उन रिश्तों की मर्यादा और विश्वास को फिर से परखने का अवसर देती है।

समरसता का संदेश

रामनामी चुनरी से लेकर दशहरा पंडालों की सजावट तक, हिन्दू-मुस्लिम साझी परंपरा यह सिद्ध करती है कि त्योहार केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हैं। यही कारण है कि समाज-विरोधी ताकतें यहां कभी पूरी तरह सफल नहीं हो पातीं।

विश्वामित्र संहिता का अद्भुत रहस्य

विश्वामित्र संहिता में वर्णित है कि लंका युद्ध के दौरान जब श्रीराम ने देखा कि उनकी वानर सेना लगातार क्षीण हो रही है, तो वे युद्ध भूमि में ही आसन लगाकर गुरु विश्वामित्र का ध्यान करने लगे। गुरु के मानस रूप के प्रकट होने पर राम ने अपनी व्याकुलता प्रकट की, सभी विद्याओं के बावजूद रावण का अंत असंभव क्यों हो रहा है? तब विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि केवल अस्त्र-शस्त्रों से नहीं, बल्कि शक्ति साधना से ही रावण को हराया जा सकता है। उन्होंने राम कोविजयश्री साधनाकी दीक्षा दी और मां दुर्गा की आराधना कराई। यही साधना विजय का मंत्र बनी।

शक्ति का सनातन संदेश

नवरात्र और दशहरा दो ऐसे पर्व हैं जोशक्ति सृजति ब्रह्मांडमके वैदिक सत्य को पुनः स्थापित करते हैं। अदिति, जो शक्ति का प्राचीन नाम है, वही सृष्टि की मूल आधार है। सृजन और संहार, दोनों ही शक्ति के रूप हैं। उत्तरायण-दक्षिणायण, चैत्र-आश्विन नवरात्र, ये सभी ब्रह्मांडीय चक्र हमें यही सिखाते हैं कि प्रकाश और अप्रकाश, जीवन और मृत्यु, दोनों के संतुलन से ही जगत चलता है। राम और रावण केवल इतिहास या पुराण के चरित्र नहीं, बल्कि हमारे भीतर के मंगल-अमंगल, न्याय-अन्याय, संयम-असंयम के प्रतीक हैं। 

शक्ति की उपासना और संगठन का आह्वान

दशहरा शक्ति अर्जन और संगठन का पर्व है। दुर्गा की अष्टभुजा आठ शक्तियों का प्रतीक है, शरीर-बल, विद्या-बल, चातुर्य-बल, धन-बल, शस्त्र-बल, शौर्य-बल, मनोबल और धर्म-बल। समाज तभी दुराचार और षड्यंत्रकारियों का मुकाबला कर सकता है जब वह इन शक्तियों से संपन्न हो। व्यक्ति के भीतर और समाज में छिपी आसुरी प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए शक्ति साधना आवश्यक है।

शमी की पत्तियां : सौभाग्य का प्रतीक

विजयादशमी पर शमी वृक्ष की पूजा और उसकी पत्तियों का आदान-प्रदान सोने के समान सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। महाभारत काल में पांडवों ने अपने शस्त्र इसी वृक्ष में छुपाए थे और विजय प्राप्त की थी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी लंका पर आक्रमण से पूर्व शमी की पूजा की थी। आज भी यह परंपरा सुख-समृद्धि और विजय का संदेश देती है।

श्रीराम का चंडी पूजन

दशहरा की कथा यह भी बताती है कि लंका विजय से पूर्व ब्रह्माजी के परामर्श पर श्रीराम ने समुद्र तट पर मां चंडी का पूजन किया। 108 नीलकमल की दुर्लभ व्यवस्था में जब एक कमल रावण की मायावी शक्ति से अदृश्य हो गया, तब प्रभु ने अपना नेत्र अर्पित करने का संकल्प लिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने प्रकट होकर विजयश्री का आशीर्वाद दिया। 

विजयादशमी का मूल संदेश

दशहरा केवल रावण दहन नहीं, बल्कि आत्मविजय का उत्सव है, आलस्य, अहंकार और आसुरी वृत्तियों पर विजय। यह दिन प्रेरित करता है कि हम अपनी शक्तियों को पहचानें, उन्हें विकसित करें और धर्म के मार्ग पर अडिग रहें। यही कारण है कि शिवाजी जैसे वीरों ने भी विजयादशमी को युद्धारंभ का शुभ मुहूर्त माना। धर्म की विजय और शक्ति की उपासना का यह पर्व हमें सिखाता है कि आत्मबल, संयम और संगठन से ही समाज की रक्षा होती है। जब तक हम अपने भीतर की बुराइयों को नहीं हराएंगे, बाहरी रावणों का अंत संभव नहीं। विजयादशमी हमें उसी सत्य की याद दिलाती है, सत्य की जीत निश्चित है, असत्य चाहे कितना भी प्रबल क्यों हो।

रावण का जटिल व्यक्तित्व

त्रेता से लेकर कलियुग तक राम - रावण लीला की परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी सहस्रों वर्ष पहले थी। हर दशहरा पर हम रावण का पुतला जलाते हैं, बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक मानते हुए। पर क्या सचमुच रावण हर बार मर जाता है? या फिर वह हमारे भीतर, समाज की विसंगतियों में, हर अन्याय और असमानता में जिंदा रहता है? रावण के व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक विरोधाभास हैं। वह शिव का परम भक्त, संगीत और वेदों का प्रकांड ज्ञाता, अद्वितीय पराक्रमी और विद्वान था। यम और सूर्य तक उसके प्रताप से कांपते थे। लंका का स्वर्णिम साम्राज्य उसके इंजीनियरिंग कौशल और शासनकौशल की मिसाल है। उसने समाज में जातिगत भेदभाव को नकारा, शरणागत की रक्षा की, और मर्यादा की ऐसी मिसाल दी कि सीता का अपहरण करने के बावजूद उन्हें कभी स्पर्श नहीं किया। यही कारण है कि भारत के कई हिस्सों, मध्य प्रदेश के विदिशा, झारखंड, हिमाचल के बैजनाथ से लेकर कर्नाटक तक रावण की पूजा आज भी होती है। 

भगवान राम स्वयं उसकी विद्वता के कायल थे। लंका विजय से पहले यज्ञ में ब्राह्मण के रूप में रावण को आमंत्रित करने की कथा इसका प्रमाण है। लक्ष्मण को मृत्युशैया पर शिक्षा देने का प्रसंग बताता है कि ज्ञान के मामले में वह अद्वितीय था। किंतु उसका अहंकार और प्रतिशोधी स्वभाव उसके पतन का कारण बना। कहानी यह भी कहती है कि रावण का युद्ध केवल बहन सुपनखा के अपमान का प्रतिशोध नहीं था, बल्कि एक गहरे आध्यात्मिक उद्देश्य से भी जुड़ा था, असुर योनि से मुक्ति पाने का संकल्प। उसने स्वयं नारायणावतार राम के हाथों मरने को मोक्ष का मार्ग माना। आज का समाज जब दशहरा मनाता है, तो यह सवाल बार-बार उठता हैउः क्या हम वास्तव में अपने भीतर के रावण को परास्त कर पा रहे हैं? भ्रष्टाचार, भेदभाव, स्त्री के प्रति हिंसक दृष्टि, स्वार्थ और लोभकृये सब उस जीवित रावण के ही रूप हैं, जो हमारे चारों ओर मौजूद है।

श्रीराम का आदर्श

रामराज्य का आदर्श केवल मंदिरों में नहीं, जीवन में उतारने से आएगा। जब तक हम समानता, न्याय और करुणा का व्यवहार नहीं अपनाते, पुतले जलाने से कुछ नहीं होगा। राम के नाम पर हिंसा करने वाले, स्त्रियों को वस्तु समझने वाले, जाति-धर्म में बंटा समाज, क्या यह हमारे भीतर का रावण नहीं? रावण का यह जटिल चरित्र हमें आईना दिखाता हैः अच्छाई और बुराई दोनों हर मनुष्य में हैं। दशहरा का वास्तविक संदेश यही है कि हम अपने भीतर छिपे अहंकार, लालच और अन्याय को पहचानें और उसे नष्ट करें। जब तक यह नहीं होता, तब तक रावण सचमुच कभी नहीं मरेगा। 

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