Saturday, 27 September 2025

यूपी की कानून-व्यवस्था : अतीत की सिहरन और आज की कसौटी

यूपी की कानून-व्यवस्था : अतीत की सिहरन और आज की कसौटी 

लोकतंत्र और सौहार्द की दुहाई देते हुए सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हाल ही में सरकार की ओर से हुई पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठाए। मगर यह सवाल खुद उनके कार्यकाल के आईने में और भी पैना हो जाता है। सत्ता में रहते हुए जिन घटनाओं ने उत्तर प्रदेश को बार-बार हिंसा और अव्यवस्था की ओर धकेला, उन्हें नज़रअंदाज़ कर आज नैतिकता का उपदेश देना जनता को रास नहीं रहा। 2012 से 2017 के बीच यूपी कई बार सांप्रदायिक तनाव और हिंसा का गवाह बना। भदोही में मुहर्रम के दौरान ताजिया जुलूस को लेकर हुए टकराव को मीडिया ने समय रहते उजागर किया था, मगर तत्कालीन ज़िला प्रशासन ने खतरे की आशंका को नकार दिया। परिणाम यह हुआ कि दंगे भड़के, करोड़ों रुपये की संपत्ति जलकर खाक हो गई और प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। आलोचकों का आरोप है कि उस समय स्थानीय नेताओं और अफ़सरों के निजी समीकरणों ने स्थिति को और बिगाड़ा। इसी तरह सीतापुर, बरेली, मेरठ और कानपुर जैसे शहरों में भी कई बार हिंसक झड़पें हुईं। विपक्षी दलों और स्वतंत्र पत्रकारों ने बार-बार यह सवाल उठाया कि आखिर दंगों की आशंका के बावजूद पर्याप्त चौकसी क्यों नहीं बरती गई। आज अखिलेश यादव जब सरकार की सख्ती कोकमज़ोरीबताते हैं तो कई नागरिक उन्हें उनके ही दौर की याद दिलाते हैं। उस समय भी पुलिस लाठीचार्ज, पत्रकारों पर हमले और विरोधी स्वर दबाने की घटनाएं सुर्खि़यों में थीं। यह वही पृष्ठभूमि है जो वर्तमान बयानों को जनता की नज़रों में खोखला बना देती है 

सुरेश गांधी

राजनीतिक स्मृति कभी छोटी नहीं होती। जनता उन दिनों को याद रखती है जब दंगे, लाठीचार्ज और प्रशासनिक निष्क्रियता ने राज्य को असुरक्षा के घेरे में डाला था। ऐसे में आज का हर भाषण तभी प्रभावी होगा, जब वह आत्मावलोकन और जिम्मेदारी की भावना से निकले। नैतिकता का उपदेश देने से पहले अपने शासनकाल का निष्पक्ष मूल्यांकन ही किसी भी नेता को असली विश्वसनीयता दे सकता है। हालांकि यह भी उतना ही सच है कि किसी भी सरकार के लिए पुलिस बल का अति प्रयोग लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। सत्ता चाहे किसी की भी हो, जनता उम्मीद करती है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर असहमति की आवाज़ को कुचला जाए। परंतु यह अपेक्षा तब और मजबूत हो जाती है जब विपक्षी नेता स्वयं अपने अतीत से सीख लेकर रचनात्मक सुझाव दें। यूपी भारत का सबसे बड़ा राज्य, सांस्कृतिक वैभव और धार्मिक आस्था की धरती है, लेकिन कानून-व्यवस्था को लेकर यहां हमेशा सख़्त सवाल उठते रहे हैं। 

2013 से 14 का समय याद कीजिए, जब सूबे में अपराध का ग्राफ़ इतना ऊंचा था कि तत्कालीन राज्यपाल अज़ीज़ कुरैशी और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त की थी। महिलाएं, किसान, व्यापारी, पत्रकार, किसी को सुरक्षा का भरोसा नहीं था। दंगे, हत्या, लूट, बलात्कार, फर्जी मुकदमे, अवैध खनन और ज़मीन कब्ज़ा जैसी घटनाओं ने लोगों को भयभीत कर दिया था। बिजली संकट, टूटी सड़के, जर्जर स्कूल सरेराह पिटते टीचर जैसी तमाम चिंताएं आम थी। मकान जलना, दुकानों का खाक होना, निर्दोषों को फंसाना, अधिकारों का हनन सपाईयों का धंधा या यूं कहे अधिकार हो गया था। किसानों को बकाया नहीं मिल रहा था, योजनाएं ठप थीं। मीडिया और पत्रकारों पर दबाव इतना था कि सच लिखने वालों को धमकाया गया, कुछ की हत्या हुई, कुछ फंसाएं गए या यूं कहें स्वाधीन पत्रकारिता दबाव में थी। जनता के मन में यह छवि बन गई थी कि कानून दलदल में धंस गया है। लेकिन समय बदला है और जनता आज यह पूछती है क्या वर्तमान सरकार ने वाकई अपराध पर अंकुश लगाया है, या वह केवल पुराने दौर की प्रतिध्वनि है

उस दौर की घटनाओं को आज भी लोग भूले नहीं हैं। भदोही के मुहर्रम विवाद में ताजिया जुलूस पर टकराव, दुकानों को आग के हवाले करना और प्रशासन का समय पर कोई कदम उठाना, सीतापुर, बरेली, मेरठ, कानपुर जैसे जिलों में लगातार दंगे, अवैध कब्ज़ों और फर्जी मुकदमों की भरमार, इन सबने राज्य की छवि को बुरी तरह प्रभावित किया। उस समय पत्रकारों पर हमले हुए, कई मारे गए, कई पर झूठे केस लादे गए। 
उद्योगपति और निवेशक प्रदेश से किनारा करने लगे। बिजली व्यवस्था चरमराई, किसान बकाया भुगतान को तरसते रहे। यह वह दौर था, जब लोग अपने घरों में भी सुरक्षित महसूस नहीं करते थे और पुलिस-प्रशासन पर भरोसा लगभग टूट चुका था। लेकिन 2017 में योगी आदित्यनाथ सरकार के सत्ता में आने के बादकानून का राजस्थापित करने की नीति अपनाई गई। सरकार नेजीरो टॉलरेंसका नारा दिया और अपराधियों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई शुरू की। 2017 से अब तक लगभग 14,900 मुठभेड़ अभियानों में 238 अपराधी मारे गए और 30,000 से अधिक गिरफ्तार हुए।ऑपरेशन कन्विक्शनके तहत नए कानूनों के अंतर्गत 457 मामलों का निपटारा एक वर्ष में हुआ, जिनमें चार दोषियों को मृत्युदंड और 19 को 20 साल से अधिक की सजा मिली। 2022 की एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की कुल अपराध दर राष्ट्रीय औसत से कम है।

हाल में बरेली में दंगे की साज़िश रचने के आरोप में मौलाना तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी इसी नीति का उदाहरण है। जनता ने दोबारा भारी बहुमत देकर इसे स्वीकार भी किया। पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों में उत्तर प्रदेश अभी भी देश में सबसे ऊपर है। 2023 में 65,000 से अधिक मामले दर्ज हुए। हाथरस की भीड़ त्रासदी, वाराणसी गैंगरेप और संभल की हिंसा जैसे ताज़ा मामले बताते हैं कि व्यवस्था को अभी और मज़बूत करने की ज़रूरत है। 
कठोर कार्रवाई जितनी ज़रूरी है, उतनी ही ज़रूरी न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और पुलिस की जवाबदेही है। मुठभेड़ों पर मानवाधिकार सवाल उठाते हैं। इंटरनेट बंद करने और बुलडोज़र नीति पर भी बहस जारी है। सत्ता में चाहे कोई भी हो, जनता की पहली अपेक्षा सुरक्षा और निष्पक्ष न्याय की है। 
कानून-व्यवस्था का असली अर्थ केवल अपराधियों को मार गिराना नहीं, बल्कि हर नागरिक में यह भरोसा जगाना है कि वह सुरक्षित है और न्याय पाएगा, चाहे उसका धर्म, जाति या सामाजिक दर्जा कुछ भी हो। अतीत केगुंडाराजने जो सिहरन छोड़ी थी, उसने ही जनता को बदलाव के लिए प्रेरित किया। अब यह योगी सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह सिर्फ सख्ती का नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण और निष्पक्ष शासन का उदाहरण पेश करे।

यूपी ने अपराध और अराजकता के उस दौर को देखा है, जिसे याद कर आज भी लोग कांप उठते हैं। वर्तमान सरकार ने अपराधियों पर शिकंजा कसा है, लेकिन यह सफर अधूरा है। जब तक हर नागरिक यह महसूस करे कि उसका अधिकार और उसकी सुरक्षा सर्वोपरि है, तब तकअमन और चैनका सपना पूरा नहीं होगा। जनता अब भी यही चाहती है, सिर्फ़ ताबड़तोड़ कार्रवाई नहीं, बल्कि कानून का ऐसा राज जिसमें भय नहीं, भरोसा हो। यही असली कसौटी है, जिस पर उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार को खरा उतरना होगा। वाराणसी व्यापार मंडल के अध्यक्ष अजीत सिंह बग्गा ने कहा, यूपी की राजनीति में क़ानून-व्यवस्था हमेशा से चुनावी मुद्दा रही है। हाल के दिनों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार जिस तरह से दंगाई और उकसाने वालों पर कार्रवाई कर रही है, वह जनता की चर्चा का केंद्र बनी हुई है। 

बरेली में दंगे की साज़िश रचने के आरोप में मौलाना तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी इसका हालिया उदाहरण है। सरकार का संदेश साफ़ है, हिंसा फैलाने वालों को राजनीतिक या सामाजिक हैसियत का संरक्षण नहीं मिलेगा। श्री बग्गा ने 2017 के पहले की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि बनारस में आएं दिन व्यापारियों की हत्या, लूट, फिरौती रंगदारी की घटनाएं होती थी, लेकिन अब एक भी घटना का होना इस बात का प्रमाण है कि योगीराज में हर तबका सुरक्षित है। तब अक्सर निर्दोषों को ही मुकदमों में फँसाकर वास्तविक साज़िशकर्ताओं पर कार्रवाई टाल दी जाती थी। लेकिन योगी सरकार की नीतियों को दोबारा जनादेश मिलने और हालिया सर्वेक्षणों में लगातार लोकप्रियता के संकेत इस बात को दर्शाते हैं कि मतदाता सुरक्षा और सख़्त प्रशासन को प्राथमिकता देते हैं। यह भी स्पष्ट है कि नागरिक अब दंगों के दौर में लौटने से बचना चाहते हैं और स्थिर शासन को तरजीह दे रहे हैं। 

योगी सरकार ने बार-बार यह दिखाने की कोशिश की है कि दंगा या 
सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में त्वरित कार्रवाई ही कानून-व्यवस्था की पहली शर्त है। हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए, जहाँ दंगों की आहट पर ही पुलिस ने सक्रिय होकर संभावित उकसाने वालों को हिरासत में लिया। 
यही कारण है कि प्रदेश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ अपेक्षाकृत कम हुई हैं। हांलाकि ताज़ा घटनाएं जो भय की याद ताज़ा करती हैं, लेकिन उस दौर के सापेक्ष कुछ भी नहीं है. वाराणसी बीएचयू गैंगरेप की घटना में शामिल अभियुक्तों की तत्काल गिरफ्तारी की गयी. संभल हिंसा में हुई पांच मौतों में भी तत्काल कार्रवाई करते हुए स्थिति नियंत्रण में की गयी. हाथरस दुर्घटना (2024) : एक धार्मिक आयोजन में भीड़ की चपेट में आकर 121 लोगों की मौत हुई। झांसी अस्पताल अग्निकांड : नवजात शिशुओं की मौत हुई, सवाल खड़े हुए कि अस्पताल सुरक्षा व्यवस्था कहां थी। ये घटनाएँ यह दिखाती हैं कि अपराध और व्यवस्था के बीच तनाव अभी भी कहीं-कहीं फूट पड़ता है। जब आज की कार्रवाई को पुरानी विफलताओं से तुलना करेंगे, तो कुछ प्रश्न अनिवार्य हो जाते हैं :

कार्रवाई की तीव्रता और न्याय का भरोसा

मुठभेड़ों या कठोर जुर्माना होना सजगता दिखाता है, लेकिन यदि मामलों में आरोपियों

को सज़ा हो, या निर्दोषों को बिना दोषी ठहराए पीटा जाए, तो यह कार्रवाई अधूरी बन जाती है। न्याय की देरी, असमर्थ अभियोजन और कोर्ट में मुकदमे लटके रहना आज भी एक बड़ी समस्या है।

न्याय, सुरक्षा और सामूहिक विश्वास की ओर

उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था की समीक्षा करते हुए दो बातें स्पष्ट हैं : 1. परिवर्तन हुआ है, कार्रवाई की तीव्रता बढ़ी है, पुराने मुकदमों का हल मिल रहा है, कभी-कभी न्याय भी पहुंच रहा है। 2. परिवर्तन अधूरा है, न्याय की गति, निष्पक्षता, जवाबदेही और सुरक्षा दायरा अब भी विवाद के केंद्र में हैं। लेकिन लोकतंत्र में जनता की उम्मीद यही है : सत्ता हो या विपक्ष, न्याय एक सार्वभौमिक मूल्य होना चाहिए। जब कोई सरकार अपवादात्मक कार्रवाई का दावा करती है, तो उसके साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि उसने अपराधियों को दबाया है या अविवेकी कार्रवाई से निर्दोषों पर दबाव बढ़ाया है। 

आज यह कहना आसान है किहम अपराध के खिलाफ हैं।लेकिन भारत में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और विविध राज्य में, न्याय और सुरक्षा का भरोसा निर्णायक है। समाज तभी सुरक्षित होगा जब हर नागरिक ये यकीन कर सके कि बहादुरी के साथ न्याय उसका हक़ है, दबाव किसी राजनीतिक रंग या सामाजिक दबदबे का फल। अखिलेश यादव के दौर में अपराधी खुलकर चले, निर्दोषों को फँसाया गया, इन्हीं कारणों से जनता ने बदलाव की उम्मीद की। योगी सरकार को अब यह साबित करना है कि वह सिर्फ़ सख्ती की सत्ता नहीं, निष्ठा, निष्पक्षता और जनता की सुरक्षा की सरकार है। क्योंकि अपराध पर कार्रवाई तब असरदायक होती है, जब नीति की लकीर बराबर हो, न्याय की रफ्तार तेज हो, और जनता का विश्वास अटूट हो। तभी यूपी अपराध की आग से निकलकर अमन-चैन की धरती कहलाएगा, कि फिर से पुरानेगुंडाराजकी यादों की कब्रगाह। निर्दोषों को फँसाना बंद होना चाहिए, कार्रवाई राजनीति से ऊपर होनी चाहिए, और एक ऐसा माहौल बनना चाहिए जहाँ हर नागरिक बिना भय के अपना जीवन जी सके। तभी यह कहा जा सकेगा कि यूपी को अपराध की आग से निकालकर सुरक्षा और न्याय की ओर ले जाया गया है। 

सामाजिक सुरक्षा बनाम भय का माहौल

हर दिन लूटपाट, बलात्कार और हत्या की खबरें सामने आएँ, तो नागरिकों में भय बढ़ता है। यदि लोग रात को घर से निकलने में डरें, महिलाओं को यात्रा में सुरक्षा लगे, बचपन की यादों में अँधेरी राहों की डरावनी छाया फैले, तो कहने का मूल उद्देश्य अधूरा रह जाता है।

राजनीतिक संरक्षण और अपराधी नेटवर्क

अगर अपराधी और राजनीतिक धड़ों के बीच संबंध रह जाएँ, यदि किसी समुदाय या गुट को अपराध के विरुद्ध कार्रवाई से बाहर रखा जाए तो वही पुरानी संरचना फिर जीवित हो जाती है। इसे रोकने के लिए सत्ता पक्ष भी न्यायकर्मी बनना होगा।

पारदर्शिता और जवाबदेही

यदि कार्रवाई केवल सार्वजनिक दबाव या मीडिया प्रतिध्वनि का परिणाम हो, और जांच-पड़ताल अंदरूनी प्रभुता के अधीन हो, तो निष्पक्षता का प्रश्न उठता है। सच यह है कि हर कार्रवाई पर निगरानी होनी चाहिए कि यह रणनीतिक, न्यायोचित और कानून सम्मत हो। 

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