जहां नीतीश, वहीं जीत? या इस बार बदलेगा बिहार का गणित!
चुनाव आयोग द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही सूबे की सियासत में सरगर्मी चरम पर पहुंच गई है। इस चुनाव में हर दल के लिए दांव बड़ा है, नीतीश कुमार के लिए यह एंटी-इंकंबेंसी के बीच अपने शासन की विश्वसनीयता साबित करने की चुनौती है, तो भाजपा के लिए यह परीक्षा अपने संगठनात्मक दमखम और विपक्ष के ‘वोट चोरी’ के आरोपों से ऊपर उठकर जीत दर्ज करने की। दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव के लिए यह मौका है ‘जंगलराज’ की छवि को तोड़कर खुद को एक सक्षम, विकासवादी और युवा नेतृत्व के रूप में स्थापित करने का। बिहार, यह वह भूमि है जहां लोकतंत्र की धड़कन सबसे पहले सुनी गई थी। लिच्छवियों से लेकर आज के चुनाव आयोग तक, बिहार सदा से जनमत की दिशा तय करता आया है। अब फिर वही समय आ गया है, जब सियासत के आकाश में नारों का शोर, विकास के दावों का गूंज और जनविश्वास की कसौटी पर उतरने की तैयारी दिखने लगी है। चुनाव आयोग बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तारीखों का ऐलान के बाद जीत हार के समीकरण बैठाएं जाने लगे है. वैसे भी इस बार का चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि नेतृत्व, विश्वसनीयता और जनता के धैर्य की परीक्षा है। सियासत का मैदान तीन ध्रुवों में बँटा है, नीतीश कुमार का अनुभव, तेजस्वी यादव का युवा जोश और प्रशांत किशोर की नई चुनौती
सुरेश गांधी 
लोकतंत्र की भूमि बिहार
एक बार फिर राजनीति
के रंग में रंगने
को तैयार है। लोकतंत्र की
यह धरती हमेशा से
देश की दिशा तय
करती आई है। यहां
का मतदाता हर बार अपने
निर्णय से दिल्ली तक
की राजनीति को संदेश देता
है। 2025 का यह चुनाव
केवल बिहार का नहीं, बल्कि
भारत के लोकतंत्र का
एक नया प्रस्थान-बिंदु
है। यह चुनाव बताएगा
कि क्या जनता अब
भी “चेहरों” के पीछे चलती
है या “विचारों” के
पीछे? ऐसे में बड़ा
सवाल तो यही क्या
शासन के अनुभव की
जीत होगी या जनभावना
का विस्फोट? उत्तर तो आने वाले
महीनों में मिलेगा, पर
एक बात तय है,
बिहार की धरती पर
लोकतंत्र की गूंज फिर
से सबसे प्रखर स्वर
में सुनाई देगी। खास यह है
कि इस बार का
चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन
नहीं, बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण, नेतृत्व की विश्वसनीयता और
जन आकांक्षा बनाम अनुभव का
मुकाबला होगा। एक तरफ नीतीश
कुमार हैं, दो दशकों
से प्रशासन और गठबंधन की
कला के धनी नेता,
तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव
हैं, युवा जोश, परिवर्तन
और सामाजिक न्याय की नई व्याख्या
के साथ मैदान में,
और तीसरे कोने पर प्रशांत
किशोर हैं, जो इस
बार रणनीतिकार नहीं, स्वयं एक विकल्प बनकर
उभरे हैं। 
राजनीतिक धरातल : तीन ध्रुवों में बंटा मैदान
महागठबंधन : तेजस्वी की उम्मीद, कांग्रेस की उलझन  
विपक्षी खेमे में तेजस्वी यादव अब निर्विवाद चेहरा बन चुके हैं। तमाम सर्वेक्षणों में वे मुख्यमंत्री पद की रेस में नीतीश कुमार से आगे दिखाए जा रहे हैं। युवाओं और रोजगार की समस्या पर उनकी आवाज़ जनता को छू रही है। ‘बदलाव की राजनीति’ का नारा इस बार महज भाषण नहीं, बल्कि ठोस मुद्दा बनकर उभर रहा है। हालांकि गठबंधन के भीतर कांग्रेस की सीमित भूमिका और वाम दलों की असंगति समीकरण को कमजोर बना सकती है। तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी परीक्षा होगी, क्या वे केवल “विरोध” की राजनीति से आगे बढ़कर “विश्वसनीय शासन” का भरोसा दे पाएंगे?
तीसरी दिशा : प्रशांत किशोर का प्रयोग 
राजनीति में विश्लेषक के
रूप में पहचान बनाने
वाले प्रशांत किशोर (पीके) अब अपने ही
बनाए खेल में उतर
चुके हैं। उनकी ‘जन
सराज पार्टी’ इस बार मैदान
में है, और वे
खुद को न भाजपा,
न राजद, बल्कि जनता के विकल्प
के रूप में पेश
कर रहे हैं। उनका
तर्क साफ़ है, “बिहार
को नई राजनीति चाहिए,
न कि पुराने चेहरों
की अदला-बदली।” युवाओं,
पहली बार वोट देने
वालों और शहरी मतदाताओं
में उनकी छवि “बदलाव
के प्रतीक” के रूप में
बन रही है। हालांकि
अभी यह देखना शेष
है कि क्या यह
ऊर्जा वोटों में भी तब्दील
हो पाएगी या फिर यह
लहर सिर्फ चर्चा बनकर रह जाएगी।
जनता के मुद्दे : वादों से आगे हकीकत 
बिहार के मतदाता अब
केवल जाति समीकरणों पर
नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार, बिजली, सड़क और स्वास्थ्य
जैसे ठोस सवालों पर
निर्णय कर रहे हैं।
बेरोज़गारी आज भी राज्य
की सबसे बड़ी चुनौती
है। पलायन की पीड़ा, शिक्षा
की गुणवत्ता और किसानों के
लिए बाज़ार तक पहुँच का
अभाव चुनावी मुद्दों में प्रमुख हैं।
महिलाओं की सुरक्षा और
छात्रवृत्ति योजनाओं की पारदर्शिता भी
चर्चाओं में है। प्रशासनिक
तंत्र की सुस्ती और
भ्रष्टाचार पर जनता अब
खुलकर सवाल उठा रही
है। इन सबके बीच
यह चुनाव कहीं न कहीं
“विकास बनाम विश्वास” की
जंग बनने जा रहा
है। 
वोटर लिस्ट में सुधार और नई पारदर्शिता की पहल
चुनाव आयोग ने इस
बार 22 वर्षों बाद मतदाता सूची
में गहन सुधार किया
है। 21 लाख से अधिक
नए मतदाता जोड़े गए हैं,
जबकि 3.66 लाख मृत या
स्थानांतरित मतदाताओं के नाम हटाए
गए हैं। साथ ही
17 नई पहलकदमियाँ कृ वेबकैस्टिंग, बूथ
स्तर एजेंट मॉनिटरिंग, दिव्यांगों के लिए विशेष
व्यवस्था आदि कृ लागू
की जा रही हैं।
इससे आयोग की कोशिश
स्पष्ट है कि “बिहार
में निष्पक्ष चुनाव की नई मिसाल”
कायम की जाए। 
कौन किस पर भारी?
अगर चुनाव केवल
दो ध्रुवों, एनडीए बनाम महागठबंधन के
बीच सिमटा रहा, तो मुकाबला
बेहद कड़ा होगा। परंतु
यदि प्रशांत किशोर की पार्टी ने
तीसरा मोर्चा बना लिया, तो
दोनों गठबंधनों का वोट बैंक
खिसक सकता है। जातीय
समीकरण अब भी निर्णायक
रहेंगे,यादव, कुर्मी, अति पिछड़ा, दलित
और अल्पसंख्यक वोट पूरे खेल
का रुख तय करेंगे।
नीतीश कुमार का ‘सुशासन’ ब्रांड
अब कुछ फीका पड़ा
है, जबकि तेजस्वी की
छवि ‘नए बिहार’ की
आशा के रूप में
उभर रही है। भाजपा
के लिए प्रधानमंत्री मोदी
की लोकप्रियता सबसे बड़ा हथियार
है, जबकि राजद के
लिए ‘लालू ब्रांड राजनीति’
का भावनात्मक असर अब भी
जीवित है। 
सघन संघर्ष और अनिश्चित भविष्य 
यह लगभग तय
है कि इस बार
का चुनाव इतिहास रचने वाला होगा,
न केवल अपने परिणाम
से, बल्कि उस संदेश से
जो यह देश को
देगा। यदि एनडीए बहुमत
लाता है, तो इसे
“स्थायित्व की जीत” कहा
जाएगा। यदि महागठबंधन या
तेजस्वी की अगुवाई में
नई सरकार बनती है, तो
यह “परिवर्तन की पुकार” का
प्रमाण होगी।  और
यदि कोई तीसरी शक्ति
निर्णायक बन जाती है,
तो बिहार एक बार फिर
गठबंधन राजनीति के नए अध्याय
की ओर बढ़ जाएगा।
एनडीए बनाम महागठबंधन : 
आंकड़ों में सत्ता का संतुलन 
बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों
में फिलहाल एनडीए गठबंधन के पास बहुमत
है। एनडीए का संख्याबल 131 है,
जिसमें भाजपा 80, जनता दल (यूनाइटेड)
45, जीतन राम मांझी की
हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (से.)
4 और दो निर्दलीय विधायक
शामिल हैं। विपक्षी महागठबंधन
के पास 111 विधायक हैं। इसमें आरजेडी
के 77, कांग्रेस के 19, भाकपा (माले) के 11, और सीपीआई व
सीपीएम के 2-2 विधायक शामिल हैं। 2020 के चुनाव में
आरजेडी 75 सीटों पर जीतकर सबसे
बड़ी पार्टी बनी थी, जबकि
भाजपा 74 सीटों पर रही। जनता
दल (यू) 43 सीटें लेकर तीसरे स्थान
पर रही थी। दिलचस्प
यह कि वोट शेयर
में राजद को 23.5 फीसदी
और भाजपा को 19.8 फीसदी वोट मिले थे,
यानी महज 3.7 फीसदी का अंतर। फिर
भी सत्ता की डोर एनडीए
के हाथ में रही।
इसे बिहार के मतदाताओं की
“संतुलित राजनीति“ कहा जा सकता
है, जहां एक दल
को पूर्ण बहुमत से ज़्यादा “गठबंधन
की संगति“ मायने रखती है। 
नीतीश कुमार के सामने चुनौती : विकास बनाम थकान 
नीतीश कुमार बीते दो दशकों
से बिहार की राजनीति के
सबसे स्थायी चेहरा हैं। उन्होंने ’सुशासन
बाबू’ की छवि से
राज्य को विकास की
नई परिभाषा दी, लेकिन अब
उनके सामने बड़ी चुनौती ‘एंटी-इंकंबेंसी’ की है। शिक्षा,
स्वास्थ्य, रोजगार और शराबबंदी जैसे
मुद्दे बार-बार जनता
के बीच उठते हैं।
युवाओं में सरकारी नौकरियों
की कमी और उद्योगों
की अनुपस्थिति पर नाराजगी है।
फिर भी नीतीश का
‘काम करने वाले नेता’
वाला नैरेटिव अब भी टिकाऊ
है। उनके लिए सबसे
बड़ी परीक्षा यह होगी कि
क्या वे अपने पुराने
वोट बैंक, अति पिछड़े, महिला
मतदाता और सुशासन समर्थक
वर्ग, को फिर से
एकजुट रख पाएंगे? 
भाजपा का मिशन 100 और ‘वोट चोरी’ का विवाद
भाजपा बिहार में 100 से अधिक सीटें
जीतने का लक्ष्य लेकर
चल रही है। पार्टी
ने इस बार संगठन
को बूथ स्तर तक
मजबूत किया है। प्रवासी
बिहारियों को साधने के
लिए ‘एक भारत श्रेष्ठ
भारत’ अभियान चलाया जा रहा है,
जिसमें 3 करोड़ से अधिक
प्रवासियों का डेटा जुटाया
गया है। विपक्ष भाजपा
पर ‘ईवीएम में हेराफेरी’ और
‘वोट चोरी’ के आरोप लगाता
रहा है, पर पार्टी
इसे पूरी तरह नकारती
है। भाजपा के लिए इस
चुनाव में यह चुनौती
भी है कि वह
इन आरोपों के बावजूद जनता
के बीच अपनी विश्वसनीयता
बनाए रखे और 2020 की
तरह सीमित अंतर से हारने
की नौबत न आने
दे।
तेजस्वी यादव की अग्निपरीक्षा : ‘जंगलराज’ की छाया और युवाओं की उम्मीदें 
तेजस्वी यादव 2020 में 23.5 फीसदी वोट के साथ
सबसे बड़ी पार्टी के
नेता बनकर उभरे थे।
तब उन्होंने रोजगार, किसान और शिक्षा के
मुद्दों को प्रमुखता से
उठाया था। इस बार
भी बेरोजगारी, पलायन और सामाजिक न्याय
उनके एजेंडे में सबसे ऊपर
है। हालांकि, विपक्ष लगातार उनके पिता लालू
प्रसाद यादव के शासन
को ‘जंगलराज’ कहकर घेरता है।
तेजस्वी के लिए यह
चुनाव उस छवि को
मिटाने और खुद की
‘नई पीढ़ी के नेता’
की पहचान गढ़ने का अवसर
है। उनके सामने चुनौती
यह भी है कि
क्या वे महागठबंधन के
भीतर कांग्रेस, वामदलों और छोटे घटक
दलों के साथ तालमेल
बनाए रख पाएंगे?
प्रशांत किशोर की जनसुराजः रणनीति से संगठन तक की परीक्षा
राजनीति के ‘रणनीतिकार’ प्रशांत
किशोर अब सीधे मैदान
में हैं। उनकी जनसुराज
यात्रा के जरिए उन्होंने
पंचायत स्तर पर व्यापक
नेटवर्क तैयार किया है। इस
बार यह पहला मौका
है जब वे किसी
पार्टी की रणनीति नहीं,
बल्कि खुद के विचारों
और संगठन की परीक्षा में
हैं। जनसुराज ने युवाओं, शिक्षकों
और प्रवासियों के बीच पैठ
बनाने की कोशिश की
है। हालांकि, संगठनात्मक मजबूती और उम्मीदवारों की
चयन प्रक्रिया अभी शुरुआती दौर
में है। फिर भी,
बिहार में यह एक
नया प्रयोग है, जो पारंपरिक
राजनीति के बीच ‘जनसहभागिता’
की नई भाषा गढ़
रहा है।
सीमांचल में नया समीकरण : एआईएमआईएम की नई चाल 
सीमांचल इलाका (किशनगंज, कटिहार, अररिया, पूर्णिया) हमेशा से बिहार की
राजनीति में निर्णायक भूमिका
निभाता रहा है। 2020 में
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ।प्डप्ड
ने यहां से 5 सीटें
जीतकर सबको चौंका दिया
था। लेकिन बाद में पार्टी
के चार विधायक आरजेडी
में शामिल हो गए। अब
एआईएमआईएम ने ‘धर्मनिरपेक्ष वोटों
के बंटवारे’ से बचने के
लिए महागठबंधन में शामिल होने
की पेशकश की है। तेजस्वी
यादव को पत्र लिखकर
ओवैसी ने छह सीटों
पर चुनाव लड़ने की इच्छा
जताई है, मगर आरजेडी
ने उन्हें ‘भाजपा की बी टीम’
बताकर कड़ा जवाब दिया।
इससे साफ है कि
सीमांचल में मुस्लिम वोट
बैंक इस बार निर्णायक
होगा, और यह देखना
दिलचस्प होगा कि ओवैसी
या राजद में से
कौन उसे एकजुट रख
पाता है। 
गठबंधन की अंदरूनी खींचतान और उम्मीदवार चयन की तैयारी
महागठबंधन की ओर से
अभी सीट बंटवारे की
औपचारिक घोषणा नहीं हुई है,
लेकिन आरजेडी ने लगभग 60 संभावित
उम्मीदवारों को चुनावी तैयारी
का निर्देश दे दिया है।
कांग्रेस ने भी अपने
मौजूदा विधायकों को तैयार रहने
को कहा है, जबकि
विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और वाम दलों
ने भी अपने उम्मीदवारों
को हरी झंडी दे
दी है। तेजस्वी यादव
के एक पॉलो रोड
स्थित आवास पर महागठबंधन
की अहम बैठक बुलाई
गई है, जिसमें सीटों
की संख्या, साझा रैलियों की
योजना और प्रचार रणनीति
पर चर्चा होगी। यह बैठक महागठबंधन
के लिए निर्णायक साबित
हो सकती है। 
त्योहारों के बीच चुनावः प्रवासी मतदाता बनेंगे ‘किंगमेकर’
इस बार का
बिहार चुनाव दशहरा के बाद और
दीपावली-छठ के बीच
हो रहा है। इन
त्योहारों पर लाखों प्रवासी
बिहारी अपने घर लौटते
हैं। यही वर्ग इस
बार का ‘निर्णायक मतदाता’
साबित हो सकता है।
एनडीए, महागठबंधन और जनसुराज, सभी
प्रवासी बिहारियों को साधने की
कोशिश में जुटे हैं।
भाजपा ने प्रवासियों के
लिए विशेष संपर्क अभियान चलाया है, जेडीयू ने
पलायन रोकने और रोजगार सृजन
का रोडमैप पेश किया है।
चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास)
ने ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ नारा दिया है.
वहीं, आरजेडी और कांग्रेस ने
प्रवासियों के लिए रोजगार
गारंटी और ‘गांव में
काम’ का वादा किया
है। प्रशांत किशोर की जनसुराज भी
यही कह रही है
कृ “पलायन रोको, बिहार में अवसर दो।”
प्रवासी मतदाताओं का यह वर्ग
न सिर्फ वोटिंग पैटर्न बल्कि प्रचार की दिशा भी
तय करेगा।
वोट का गणित और सत्ता की कमेस्ट्री 
वर्ष          प्रमुख
दल              वोट
प्रतिशत         जीती
सीटें 
2020       आरजेडी                                23.5                        75
2020       बीजेपी                                    19.8                        74
2020       जेडीयू                                    15.7                        43
2015       आरजेडी                                18.8                        80
2015       जेडीयू                                    17.3                        71
2010       जेडीयू                                    22.6                        115
2010       बीजेपी                                    16.5                        91
इन आंकड़ों से
साफ है कि बिहार
में गठबंधन की ‘संगति’ ही
सरकार की कुंजी रही
है। व्यक्तिगत दल कभी भी
पूर्ण बहुमत नहीं पा सके।
मुद्दे वही, स्वर बदल गए हैं
इस बार के
चुनाव में मुद्दों का
फोकस थोड़ा बदला है,
रोजगार अब भी सबसे
बड़ा सवाल है। शिक्षा
और स्वास्थ्य में सुधार के
वादे हर पार्टी के
घोषणापत्र में होंगे। पलायन
एक गहरा सामाजिक घाव
है, जिसे सभी दल
भुनाने की कोशिश कर
रहे हैं। महिलाओं की
सुरक्षा और भागीदारी को
भी सभी दल अपने-अपने तरीके से
साधना चाह रहे हैं।
नीतीश का ‘सात निश्चय
पार्ट-2’, तेजस्वी का ‘10 लाख नौकरी मिशन’,
भाजपा का ‘विकसित बिहार
2030’, और जनसुराज का ‘लोक संवाद
मॉडल’, ये चारों इस
बार बिहार की राजनीति की
नई व्याख्या तय करेंगे।






No comments:
Post a Comment