यमराज की कृपा और यमुना का स्नेह, रिश्तों का शाश्वत उत्सव है भाईदूज
दीपों के पर्व की उजास अभी थमी भी नहीं होती कि कार्तिक शुक्ल द्वितीया का पावन दिन अपने साथ एक और अलौकिक उजाला लेकर आता है, भाईदूज। यह पर्व केवल तिलक, आरती और उपहार का नहीं, बल्कि प्रेम, विश्वास और रक्षा-संकल्प का उत्सव है। इस दिन बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसकी दीर्घायु की कामना करती है, और भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है। मतलब साफ है भैयादूज, वह दिन जो भाई-बहन के अमिट स्नेह का प्रतीक है। यह पर्व केवल तिलक और मिठाई का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की उस आत्मीय धारा का उत्सव है, जो रिश्तों को भावनाओं से जोड़ती है। काश! हर भाई अपनी बहन की मुस्कान की रक्षा करे, हर बहन अपने भाई के जीवन में मंगलकामना की दीपशिखा बन जाए। तभी तो इस पर्व की सार्थकता होगी, जहां प्रेम तिलक बने, स्नेह आरती बने और जीवन उत्सव बन जाए। भाईदूज उस उजाले का पर्व है जहां हर बहन अपने भाई के जीवन में मंगल दीप जलाती है। यह दीप केवल तिलक का नहीं, बल्कि संस्कारों का उजाला है। इस दिन जब घरों में तिलक की खुशबू घुलती है, यमुना की धाराएं गुनगुनाती हैं और प्रेम का वचन गूंजता है, तब लगता है मानो जीवन स्वयं आशीर्वाद बन गया हो
सुरेश गांधी
दीपों की जगमगाहट में
जब अभी भी घर-आंगन का हर
कोना उजाला समेटे होता है, दीयों
की लौ अब भी
अपनी मधुर थरथराहट में
प्रेम, भक्ति और उत्साह की
कहानी कहती है, उसी
पावन क्षण में आता
है भाईदूज। भाईदूज को “यम द्वितीया”
भी कहा जाता है,
क्योंकि इसका संबंध मृत्यु
के देवता यमराज से है। यह
पर्व दीपावली की श्रृंखला का
अंतिम सोपान है. वह दिन,
जब बहन अपने भाई
के मस्तक पर तिलक लगाकर
न केवल उसके मंगल
की कामना करती है, बल्कि
उसे अकाल मृत्यु से
मुक्ति का आशीर्वाद भी
देती है। यह पर्व
भारतीय संस्कृति के उस भावलोक
का प्रतीक है, जिसमें रक्त
से अधिक शुद्ध, निष्ठा
से अधिक दृढ़ और
आत्मा से अधिक पवित्र
होता है, भाई-बहन
का रिश्ता। भाईदूज एक ऐसा पर्व
है जो हमें याद
दिलाता है कि जीवन
का सबसे बड़ा उत्सव
प्रेम है। यह त्योहार
मृत्यु के भय को
प्रेम के उजाले में
बदल देता है। यह
वह क्षण है जब
तिलक का लाल रंग
केवल सिंदूर नहीं, बल्कि विश्वास, आशीर्वाद और अमरता का
प्रतीक बन जाता है।
जहां बहन के हाथों
की आरती जलती है,
वहां मृत्यु भी नम्र होकर
जीवन का आशीर्वाद देती
है।
शुभ मुहूर्त
इस बार भाई दूज पर आयुष्मान योग, द्वितीया तिथि में सर्वार्थ सिद्धि योग और रवि योग बन रहे हैं, जो बेहद शुभ फलदायी योग है. ऐसे में केवल 2.15 घंटे का मुहूर्त है. पंचांग के अनुसार, कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि 22 अक्टूबर को रात 8 बजकर 16 मिनट पर शुरू हो रही है. इस तिथि का समापन 23 अक्टूबर को रात 10 बजकर 46 मिनट पर होगा. उदयातिथि के आधार पर भाई दूज 23 अक्टूबर दिन गुरुवार को है. उस दिन यम द्वितीया मनाई जाएगी. इस बार भाई दूज दिवाली के 2 दिन बाद है. भाई दूज के दिन आयुष्मान योग प्रातःकाल से लेकर अगले दिन 24 अक्टूबर को सुबह 5 बजे तक है. यह योग भाई और बहन की आयु में बढ़ोत्तरी करने वाला होगा.इसके अलावा द्वितीया तिथि में सर्वार्थ सिद्धि योग 24 अक्टूबर को सायं 04ः51 से लेकर सुबह 06ः28 तक है, वहीं रवि योग भी 04ः51 से लेकर 06ः28 तक है. भाई दूज पर विशाखा नक्षत्र प्रातःकाल से लेकर अगले दिन सुबह 04ः51 तक है, फिर अनुराधा नक्षत्र है. 23 अक्टूबर को भाई दूज के दिन ब्रह्म मुहूर्त 04ः45 से 05ः36 तक है, जो स्नान के लिए उत्तम समय माना जाता है. उस दिन का शुभ समय यानि अभिजीत मुहूर्त दिन में 11ः43 से दोपहर 12ः28 प तक है. अमृत काल शाम में 06ः57 से रात 08ः45 तक रहेगा.
दीयों की मृदुल रोशनी में प्रेम का उजास
भैयादूज का वातावरण दीपावली
की जगमगाहट से भरा होता
है, लेकिन इसमें एक शांत और
कोमल भाव झलकता है।
जहां दीपावली लक्ष्मी और गणेश के
स्वागत का उत्सव है,
वहीं भैयादूज मानवीय संवेदना और आत्मीय रिश्तों
का उत्सव है। गांव की
गलियों में जब बहनें
आरती की थाल लेकर
मुस्कुराती हुई भाइयों के
माथे पर रोली का
तिलक लगाती हैं, तो लगता
है मानो स्वयं यमुना
धरती पर उतर आई
हो, भाई के जीवन
में मंगलकामना का अमृत घोलने।
संस्कारों से सजे रिश्तों का अमर गीत
आज जब रिश्तों
की परिभाषाएं बदल रही हैं,
भैयादूज हमें याद दिलाता
है कि हर बंधन
का मूल्य भौतिकता में नहीं, भावना
में है। यह पर्व
संस्कारों, समर्पण और स्नेह के
उस भाव को पुनर्जीवित
करता है, जो भारतीय
परिवारों की आत्मा है।
भैया-बहन का यह
नन्हा सा उत्सव हमें
यह सिखाता है कि त्योहार
केवल पर्व नहीं होते,
वे भावनाओं के पुनर्जन्म का
अवसर होते हैं।
यम-यमुना की कथा, स्नेह का शाश्वत संवाद
पौराणिक ग्रंथों में इस दिन
का उल्लेख “यम द्वितीया” के
नाम से मिलता है।
कथा कहती है, सूर्यदेव
की संतान यमराज और यमुना में
बचपन से ही गहरा
स्नेह था। यमुना बार-बार अपने भाई
यमराज से आग्रह करतीं
कि वे एक बार
उनके घर आएं और
उनका आतिथ्य स्वीकार करें, किंतु यमराज अपने कर्मों के
बोझ से मुक्त ही
नहीं हो पाते थे।
एक दिन जब कार्तिक
शुक्ल द्वितीया आई, तब यमराज
ने सोचा, आज बहन की
बात मान लेनी चाहिए।
वे यमुना के घर पहुंचे।
यमुना ने स्नान कराया,
पुष्पों से आरती उतारी,
व्यंजन परोसे और स्नेह में
भीगी हुई आँखों से
कहा, “भैया, यह मेरा सौभाग्य
है कि आप मेरे
घर आए।” यमराज बहन
के प्रेम से अभिभूत हो
उठे। उन्होंने कहा “हे बहन,
मांगो जो चाहो।” यमुना
ने निवेदन किया, “हे भ्रात, जो
भी बहन इस दिन
अपने भाई का तिलक
करे, वह आपकी कृपा
से अकाल मृत्यु के
भय से मुक्त हो
जाए।” यमराज ने “तथास्तु” कहा,
और तभी से यह
दिन अकाल मृत्यु से
मुक्ति का प्रतीक बन
गया। यमराज ने बहन से
प्रसन्न होकर कहा, “आज
से जो इस दिन
बहन के घर जाकर
तिलक ग्रहण करेगा, वह यम के
भय से मुक्त रहेगा।” यमराज
और यमुना का यह स्नेह-प्रसंग युगों से भारतीय परिवारों
में उस भाई-बहन
के पवित्र बंधन का अमिट
प्रतीक बन गया, जो
समय के प्रवाह से
परे है।
संबंधों की सजीव परंपरा
भाईदूज केवल धार्मिक मान्यता
का नहीं, बल्कि भावनाओं के गहन संसार
का पर्व है। जहाँ
राखी का धागा रक्षा
का वचन देता है,
वहीं भाईदूज का तिलक मृत्यु
पर विजय का प्रतीक
है। सुबह जब बहनें
स्नान कर शुभ वस्त्र
धारण करती हैं, दीपक
प्रज्वलित करती हैं, और
चावल से चौक बनाती
हैं, तब वह क्षण
केवल अनुष्ठान नहीं रहता, वह
बन जाता है संस्कारों
का उत्सव। भाई को आसन
पर बिठाकर बहन जब तिलक
करती है, आरती उतारती
है, मिठाई खिलाती है, तब उसके
स्पर्श में मां का
आशीर्वाद होता है, दादी
की परंपरा होती है और
भारतीय नारी की संवेदना
का शाश्वत रूप होता है।
यमराज, यमुना और प्रतीकों की गहराई
यदि हम गहराई
से देखें तो यह पर्व
केवल भाई-बहन तक
सीमित नहीं है; यह
जीवन और मृत्यु के
बीच संवाद का प्रतीक भी
है। यमराज मृत्यु के देवता हैं,
भय, अंत और नियति
के प्रतीक। यमुना हैं प्रवाह, जीवन
और शुद्धि की प्रतीक। जब
यमराज अपनी बहन के
घर आते हैं, तो
यह जीवन की विजय
है मृत्यु पर, स्नेह की
विजय है नियति पर,
और परिवार की विजय है
भय पर। भाईदूज इसी
विजय का उत्सव है,
जहाँ प्रेम मृत्यु को भी निरस्त
कर देता है।
चित्रगुप्त पूजा का भी दिन
इसी दिन भगवान
चित्रगुप्त की पूजा का
विधान भी है। कायस्थ
समाज इस दिन अपने
आराध्य देव की उपासना
करता है, क्योंकि चित्रगुप्त
ही हैं जो हर
जीव के कर्मों का
लेखा-जोखा रखते हैं।
इसलिए यह दिन केवल
रिश्तों का नहीं, बल्कि
कर्म और धर्म के
संतुलन का पर्व भी
है। कायस्थ समुदाय इस दिन कलम-दवात की पूजा
करता है, जिससे ज्ञान,
न्याय और सत्य की
शक्ति बनी रहे।
भाईदूज का धार्मिक विधान
भाईदूज के दिन प्रातः
स्नान कर शुद्ध वस्त्र
धारण करने के बाद
बहन अपने घर के
आँगन में चौक बनाती
है। उस पर भाई
को बैठाकर आरती करती है,
तिलक लगाती है, हाथों में
पान, सुपारी, पुष्प, अक्षत रखकर जल अर्पित
करती है। फिर प्रार्थना
करती है, “हे यमराज,
जैसे आपने अपनी बहन
यमुना का स्नेह स्वीकार
किया, वैसे ही मेरे
भाई पर भी आपकी
कृपा बनी रहे। उसे
दीर्घायु दें, सुख दें,
समृद्धि दें।” भाई बदले में
बहन को वस्त्र, मिठाई
या उपहार देता है। यह
उपहार केवल वस्तु नहीं
होता, बल्कि उस बंधन का
प्रतीक होता है, जिसमें
विश्वास, संरक्षण और करुणा समाहित
है।
यमुना स्नान का महत्व
भाईदूज के दिन यमुना
स्नान का विशेष विधान
है। शास्त्रों में कहा गया
है कि जो इस
दिन यमुना में स्नान कर
यमराज की आराधना करता
है, वह यमलोक के
भय से मुक्त होता
है। यमुना का जल केवल
भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि का प्रतीक है।
“यमुनायां स्नानं कृत्वा, यमदर्शनं न भवेत्।” अर्थात
जो यमुना में स्नान करता
है, उसे यमराज का
भय नहीं रहता।
कृष्ण-सुभद्रा कथा
एक अन्य कथा
के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण
ने नरकासुर का वध कर
लौटे, तो उनकी बहन
सुभद्रा ने उनका स्वागत
किया, तिलक लगाया और
आरती उतारी। श्रीकृष्ण ने आशीर्वाद दिया,
“जिस प्रकार तुमने यह तिलक किया
है, वैसे ही प्रत्येक
बहन इस दिन अपने
भाई का तिलक करे
तो उसके घर सुख-समृद्धि बनी रहे।” इसलिए
भाईदूज केवल एक धार्मिक
पर्व नहीं, बल्कि स्नेह और सुरक्षा के
अनंत आश्वासन का उत्सव है।
सामाजिक आयाम
भारतीय संस्कृति में परिवार केवल
संबंधों का समूह नहीं,
बल्कि एक जीवंत संस्था
है। यहाँ भाईदूज जैसे
पर्व रिश्तों को औपचारिकता नहीं,
बल्कि जीवन की आत्मा
बना देते हैं। जहाँ
एक ओर राखी रक्षा
का प्रतीक है, वहीं भाईदूज
आशीर्वाद का प्रतीक है।
यह पर्व सिखाता है
कि रिश्ते पूजा नहीं, विश्वास
से निभते हैं; और विश्वास
केवल हृदय से उपजता
है। आज जब आधुनिकता
के शोर में संबंधों
की मधुरता कहीं खोती जा
रही है, तब भाईदूज
हमें याद दिलाता है,
“रिश्ते निभाने के लिए समय
नहीं, भावनाएँ चाहिएं।”
भाईदूज और नारी का स्नेहलोक
हर बहन के
लिए यह दिन केवल
तिलक या आरती का
नहीं होता, यह उसका मनोकामना
दिवस होता है। जब
वह भाई के माथे
पर चावल का तिलक
लगाती है, तो उसके
मन में एक मौन
प्रार्थना होती है, उसका
भाई हर कठिनाई से
सुरक्षित रहे, हर दुःख
से दूर रहे, और
उसके जीवन की राह
सदैव प्रकाशमय रहे। यह तिलक
बहन के हृदय का
प्रतीक है, जिसमें न
कामना है, न अपेक्षा;
केवल निस्वार्थ स्नेह का अर्पण।
ग्रामीण भारत में परंपराएँ
गांवों में आज भी
भाईदूज का उल्लास अपनी
सहजता और आत्मीयता में
जीवित है। भाई दूर-दूर से बहन
के घर पहुँचते हैं।
बहनें उनकी आरती करती
हैं, घर का बना
पूड़ी-कचौरी, हलवा, गुजिया परोसती हैं। भाई जब
जाते हैं तो बहन
के आँगन की मिट्टी
अपने माथे से लगाते
हैं, मानो यह मिट्टी
स्नेह का तिलक हो,
जो हर जीवन-संकट
में रक्षा करेगा। भाईदूज हमें यह भी
सिखाता है कि हर
रिश्ता केवल खून का
नहीं होता। कई स्थानों पर
यह पर्व सखा-भाव
से भी मनाया जाता
है, जहाँ कोई बहन
न होने पर पड़ोसी
या सखी बहन बनकर
तिलक करती है। यह
परंपरा बताती है कि भारतीय
समाज ने बंधन से
परे भावनाओं का रिश्ता स्वीकार
किया है। भाईदूज का
यह विस्तार ही उसे सांस्कृतिक,
सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि
से अमर बना देता
है। आज जब भौतिकता
ने मानवीय रिश्तों में दूरी ला
दी है, तब भाईदूज
का महत्व और बढ़ जाता
है। यह हमें याद
दिलाता है कि “परिवार”
कोई संस्था नहीं, बल्कि प्रेम का जीवित रूप
है। जब बहनें मोबाइल
स्क्रीन पर आरती करती
हैं, या वीडियो कॉल
से तिलक लगाती हैं,
तब भी उस भावना
की गहराई वैसी ही रहती
है, क्योंकि भावनाओं को न दूरी
रोक सकती है, न
समय। भाईदूज हमें यह सिखाता
है कि रिश्ते केवल
निभाए नहीं जाते, उन्हें
महसूस किया जाता है।
भाईदूज का आध्यात्मिक संदेश
भाईदूज आत्मा को यह बोध
कराता है कि जीवन
और मृत्यु दो विरोधी नहीं,
बल्कि एक ही चक्र
के दो सिरों की
तरह हैं। यमराज का
यमुना के घर आना
यह संकेत है कि जब
प्रेम, श्रद्धा और कर्तव्य साथ
हों, तो मृत्यु भी
पवित्र हो जाती है।
यमुना की धाराएँ बहती
रहती हैं, जैसे प्रेम
की धारा, जो समय के
पार भी जीवित रहती
है। भाईदूज हमें सिखाता है
कि जीवन में भय
नहीं, प्रेम होना चाहिए, क्योंकि
जहाँ स्नेह है, वहाँ मृत्यु
का भय नहीं रहता।




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