Monday, 20 October 2025

जब आस्था की लौ को भी 'बेकार खर्च' बताने लगी राजनीति

दीयों से डरती सियासत : अखिलेश के बयान में छिपा अंधकार 

दीपावली का पर्व जब सम्पूर्ण भारत को आलोकित कर रहा था, उसी बीच अखिलेश यादव का एक बयान गूंजा — “दीए-मोमबत्ती जलाने पर क्या खर्च करना, इससे अच्छा क्रिसमस जैसी लाइटिंग कर लो।यह एक साधारण वाक्य नहीं था; यह उस मानसिकता का आईना था, जो भारतीय परंपरा के प्रतीकों को हीन दिखाने मेंआधुनिकताका प्रमाण ढूंढ़ती है। राजनीति के इसअंधकार युगमें जब दीये भी निशाने पर हों, तब समझ लेना चाहिए कि सियासत का नैतिक बल खो गया है। मिट्टी के दीयों को फिजूलखर्ची कहने वाले शायद यह नहीं जानते कि यह दिया सिर्फ प्रकाश नहीं देतायह भारत की आत्मा का प्रतीक है, यह हमारी संस्कृति का दीपस्तंभ है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या आस्था के उजाले को अंधकार की राजनीति निगलने लगी है? क्या अखिलेश का बयान भारतीयता पर प्रहार है? क्या दीपावली पर दिया जलाने को फिजूल बताने वालों की सोच आक्रांताओं जैसी है? क्या तुष्टिकरण की लौ में भारतीयता झुलसती रही है? क्या दीया बुझाने निकली सियासत खुद अंधकार में डूब रही है? क्या राम, दीया और डर सियासत की नई परिभाषा है? जहां भारतीय संस्कृति को वोटबैंक से तोला जाने लगा है. क्या दीपों का मज़ाक उड़ाने वालों की राजनीति अब मंद पड़ रही है? क्या अखिलेश का बयान भारतीय चेतना के विरुद्ध एक विचार है? क्या सेक्युलरिज़्म की आड़ में संस्कार पर प्रहार व दीपावली की रोशनी को भी ‘फिजूल खर्च बताने की सोच खतरनाक है? ये वो सवाल है जिसका जवाब यूपी ही नहीं देश का हर नागरिक चाहता है

सुरेश गांधी

दीपावली का पर्व जब नजदीक आता है, तो पूरा भारत एक अनोखे उजाले से नहा उठता है। गली-मोहल्लों में दीयों की कतारें सजी होती हैं, घर-आँगन में मां लक्ष्मी का स्वागत होता है, और हर हृदय में यह विश्वास जगता है कि अंधकार कितना भी गाढ़ा हो, एक छोटी सी लौ भी उसे पराजित कर सकती है। पर इस बार दीपों का यह उत्सव सिर्फ रोशनी और श्रद्धा का नहीं, राजनीतिक बयानबाजी का भी शिकार बन गया।  समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने अपने एक बयान में कहा— “दीए-मोमबत्तियों पर पैसा खर्च करने का क्या मतलब? हमें क्रिसमस जैसी लाइटिंग से सीखना चाहिए।अब इसे भाषण का जो भी संदर्भ रहा हो, पर बात सीधी हैदीयों की लौ राजनीति की नजर मेंव्यर्थ खर्चबन गई है। और यही बात जनता के मन में चुभ गई। 

सपा राजनीति का इतिहास देखें तो उसका आधार हमेशातुष्टिकरणऔरजातिवादपर टिका रहा है। मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव तकपार्टी का हर दौर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से संचालित रहा है। सपा के शासनकाल में कभीसबका साथ, सबका विकासजैसी भावना दिखाई नहीं दी। नीतियों की जगह नारों ने, और आदर्शों की जगह वोटबैंक की लालसा ने हमेशा वर्चस्व बनाए रखा। अखिलेश यादव के बयानों में यह प्रवृत्ति बार-बार झलकती है। कभी वे बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री को तंज कसते हैं — “सबसे ज़्यादा अंदर टेबल और दक्षिणा लेने वाले वही हैं।कभी कहते हैं — “भाजपा को दुर्गंध पसंद है, इसलिए गौशालाएं बनवा रही है।अब सवाल यह उठता हैगाय, गौशाला, मंदिर, या दीया... क्या ये सब अखिलेश जी कोधर्मका प्रतीक दिखते हैं या इन्हेंवोटों की दीवारसमझ लिया गया हैऐसे में बड़ा सवाल तो यही है सियासत को दीयों से डर क्यों? जबकि दीपावली पर दीया जलाना कभी खर्च नहीं होता, यह आत्मा का निवेश है। जो नेता इसे व्यर्थ समझते हैं, वे शायद समझ नहीं पा रहे कि भारत की पहचान बल्बों से नहीं, दीयों से बनी है। 

राजनीति
को समझना होगायह देश मिट्टी से बना है, मिट्टी के दीए से, और उस दीए की लौ से जो सत्ता के अंधकार को भी चुनौती देती है। दीयों को बुझाकर कोई भी प्रकाश का विकल्प नहीं खोज सकता। दीपावली की लौ से डरना दरअसल जनता की चेतना से डरना है। और जो नेता जनता के उजाले से डरने लगेउसका अंधकार तय है।  तमसो मा ज्योतिर्गमय यही दीपावली का शाश्वत संदेश है। पर अफसोस, आज सियासत को इस उजाले से ही डर लगने लगा है। जबकि सच तो यह है दीपावली की सबसे बड़ी सीख यही है कि उजाला कभी व्यर्थ नहीं होता। उसका मोल रुपये में नहीं, भावना में होता है। जो लोग इसे खर्च समझते हैं, वे दरअसल खुद अंधकार में जी रहे हैं।

सियासत को चाहिए कि वह त्योहारों की आस्था से टकराने के बजाय उनसे सीख लेकैसे समाज को जोड़ा जाता है, कैसे आशा को जगाया जाता है। क्योंकि अंततः दीया जलाना केवल पूजा नहीं, एक घोषणा है किहम अंधकार से नहीं डरते. अखिलेश यादव के बयान बार-बार यह संकेत देते हैं कि उनकी प्राथमिकता देश या समाज नहीं, बल्कि कुछकट्टर वोटोंकी तुष्टि है। उनकी हर टिप्पणी में धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा और तुष्टिकरण का चेहरा झलकता है। कभी वे मंदिर जाने पर व्यंग्य करते हैं, कभी संतों पर प्रश्न उठाते हैं। 

प्रश्न यह नहीं कि वे किस धर्म में विश्वास रखते हैं, प्रश्न यह है कि वे बार-बार भारतीय आस्था का अपमान क्यों करते हैं? क्या दीया जलाना अपराध है? क्या दीपावली की परंपरा को निभाना पिछड़ापन है? या फिर भारतीयता से प्रेम करना अबराजनीतिक असुविधाबन गया है?

तुष्टिकरण की राजनीति का असली चेहरा

सपा का जन्म ही तुष्टिकरण के गर्भ से हुआ। उस दौर में जब राष्ट्रहित की राजनीति होनी चाहिए थी, तब इस दल ने मुस्लिम वोटबैंक के लिए जातीय विभाजन को हवा दी। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू प्रतीकों से दूरी बनाना, राम मंदिर के विरोध में खड़ा होना, या अब दीपावली की परंपरा को उपहास में बदल देनायह उसी मानसिकता का विस्तार है। दलितों और पिछड़ों की बात करने वाली यह पार्टी सत्ता में आते ही उन्हीं वर्गों को हाशिए पर धकेल देती है। उनके शासनकाल में दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएं बढ़ीं, अपराधों में उछाल आया, और प्रशासनिक जवाबदेही का नामोनिशान मिट गया। ऐसा लगा मानो शासन व्यवस्था किसी एक वर्ग विशेष की सुविधा और दूसरे वर्ग के दमन के लिए बनाई गई हो। यह कोई प्रशासनिक चूक नहीं थी, बल्कि मानसिकता की अभिव्यक्ति थीएक ऐसी सोच जो समाज को जोड़ने नहीं, बाँटने में यकीन रखती है। जाति, धर्म और वर्ग के नाम पर समाज को खंडित करना ही सपा की राजनीतिक रणनीति रही है। 

मिट्टी के दीये में बसती है भारत की आत्मा

दीपावली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि भारतीय अस्मिता का उत्सव है। मिट्टी का दिया उस किसान की धरती से बनता है, जो अन्न देता है; उस कुम्हार के हाथों से आकार लेता है, जिसके चाक पर संस्कृति घूमती है। उस छोटे से दीए की लौ में सदियों की परंपरा, लोकविश्वास और सांस्कृतिक चेतना झिलमिलाती है। यह वही मिट्टी है, जिसनेतमसो मा ज्योतिर्गमयकहा, जिसने अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने की शिक्षा दी। उस दीए कोफिजूलखर्चीकहना केवल एक परंपरा पर टिप्पणी नहीं, बल्कि उस पूरी भावनात्मक अर्थव्यवस्था पर चोट है जिससे हजारों परिवार जुड़कर दीपावली को जीते हैं। अखिलेश यादव का यह कहना किदीए जलाना सीखो मत, क्रिसमस जैसी लाइटिंग करोदरअसल उस भारतीय भाव को समझ पाने का परिणाम है, जहाँ त्यौहार विलासिता नहीं, जीवन का उत्सव होते हैं। भारत की रोशनी कृत्रिम नहीं होतीवह मिट्टी, तेल, और श्रद्धा के संगम से जन्म लेती है। 

बल्ब दीवारें रोशन करता है, दिया मन को

दीपावली की असली खूबसूरती बिजली के तारों में नहीं, बल्कि उन मिट्टी के दीयों में है जो किसी झोंपड़ी, किसी मंदिर, किसी छोटे-से घर में बराबरी का उजाला देते हैं। दीया गरीब-अमीर का भेद नहीं करता। बिजली की सजावट शहरों तक सीमित रह जाती है, पर मिट्टी का दीया गाँव-गाँव, आँगन-आँगन में एक समान चमक बिखेरता है। इसलिए दीया केवल एक वस्तु नहीं, समानता और समरसता का प्रतीक है। जो इसेफिजूल खर्चकहता है, वह भारत की इस सामाजिक गहराई को नहीं समझता। बिजली के बल्ब दीवारें रोशन करते हैं, पर दीया आत्मा को।

राजनीति और परंपरा का टकराव

त्योहारों को लेकर राजनीतिक बयानबाजी नई नहीं है, पर जब आस्था और संस्कृति को वोट की गणित से तोला जाने लगे, तो वह केवल असंवेदनशीलता नहीं, राष्ट्रीय चेतना के साथ खिलवाड़ है। अखिलेश यादव का यह बयान एक रिफ्लेक्स हो सकता हैआधुनिकता की बात कहने की कोशिश पर यह भूल खतरनाक है कि भारत की आधुनिकता अपनी परंपरा से निकलती है, उसके विरोध से नहीं। राजनीति का काम समाज को जोड़ना है, कि उसकी जड़ों पर प्रहार करना। कुम्हार की भट्ठी जलती रहे, गाँवों के छोटे-छोटे कारीगर दीप बनाते रहें, यही तो आत्मनिर्भर भारत का दर्शन है। पर जब कोई बड़ा नेता यह कहे कि दीए-मोमबत्ती पर खर्च बेकार है,” तो वह केवल भावनाओं को नहीं, एक आर्थिक पारिस्थितिकी को भी ठेस पहुंचाता है।

दीए में जलती है मेहनतकश भारत की लौ

दीपावली के दीयों में रोशनी सिर्फ तेल से नहीं आती, उसमें एक-एक घर की उम्मीद जलती है। कुम्हार अपने बच्चों की पढ़ाई उसी दीयों की कमाई से करता है, गाँव की महिलाएँ मिट्टी से मिट्टी जोड़कर लक्ष्मी के आगमन का स्वागत करती हैं। दीया खरीदना दान नहींवह उस मेहनतकश भारत के प्रति सम्मान है जो अपनी साधारणता में महान है। इसलिए जब कोई नेता दीए जलाने कोव्यर्थकहता है, तो वह केवल धार्मिक भावनाओं को नहीं ठेस पहुंचाता, बल्कि उस श्रम संस्कृति को भी अपमानित करता है जिस पर यह देश खड़ा है। त्योहार सिर्फ भक्ति नहीं, अर्थव्यवस्था भी हैं। और भारत की यह अर्थव्यवस्था बड़े उद्योगों से नहीं, छोटे-छोटे हस्तशिल्पों से सांस लेती है।

अब उजाला भी राजनीतिक हो गया!

अब तो हालात ऐसे हैं कि दीपावली का उजाला भीसांप्रदायिकऔरधर्मनिरपेक्षघोषित किया जा रहा है। पटाखा बजाओ तो प्रदूषण, दीया जलाओ तो खर्च! शायद अगली चुनावी घोषणाओं में लिखा होगा— “हम दीपावली को क्रिसमस-ग्रेड लाइटिंग से अपग्रेड करेंगे!” यह व्यंग्य नहीं, हमारे समय की त्रासदी हैजहाँ सियासत आस्था की लौ में भी बिजली का मीटर खोज लेती है। त्योहारों की पवित्रता को राजनीतिक भाषणों की भाषा में मापना दरअसल उस सभ्यता के लिए खतरा है जो अपने पर्वों में एकता खोजती रही है। राजनीति अब इतनी संवेदनहीन हो गई है कि उसे दीयों की टिमटिमाहट भी अंधकार लगने लगी है। वह भूल गई है कि दीया हिंदू है, मुस्लिमवह बस प्रकाश का प्रतीक है। जिस क्षण राजनीति इस प्रतीक से दूरी बना लेती है, वह अपने लोगों से भी दूरी बना लेती है।

उम्मीद की परंपरा

हर साल जब दीपावली आती है, तो वह केवल धन और लक्ष्मी का पर्व नहीं होती, वह उम्मीद का त्योहार है। राम के अयोध्या लौटने की कथा मानवता के भीतर प्रकाश की यात्रा है। हर दिया यह कहता हैकि अंधकार कितना भी गाढ़ा हो, एक छोटी सी लौ भी उसे हराने को काफी है। यह संदेश आज राजनीति को सबसे ज़्यादा सुनने की ज़रूरत है। क्योंकि सत्ता की चकाचौंध में जो लोग दीए की लौ को छोटा समझने लगे हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि भारत का इतिहास दीपों की तरह ही छोटे-छोटे प्रकाश बिंदुओं से बना है। और जब भी किसी ने इन दीयों को बुझाने की कोशिश की, लाखों नई लौ उठ खड़ी हुई।

परंपरा बनाम प्रगतिअसली संतुलन क्या है

यह भी सच है कि परंपरा का अंधानुकरण नहीं होना चाहिए। समय के साथ बदलाव आवश्यक है। पर बदलाव का अर्थ त्याग नहीं, संस्कारों का विस्तार है। क्रिसमस की लाइटिंग से प्रेरणा लेना बुरा नहीं, पर दीए को तुच्छ कहना अनुचित है। लाइटिंग सजावट का प्रतीक हो सकती है, पर दिया संवेदना का प्रतीक है। अखिलेश यादव जैसे नेता यदि यह कहते कि दीपावली में दीए के साथ सोलर लाइट का भी प्रयोग बढ़ाएं,”  तो यह एक सकारात्मक सुझाव होता। पर जब बयान यह हो कि दीयों पर खर्च व्यर्थ है,” तो यह राजनीति की वह भाषा बन जाती है जो परंपरा को समझने से पहले उसे पुरानाठहरा देती है।

दीपावली का दिया औरसियासी अंधकार

दीया मिट्टी से बनता है, इसलिए शायद उसेमिट्टी के लोगही सही मायने में समझ सकते हैं। कुम्हार की उंगलियों से निकला यह दीप केवल एक वस्तु नहींएक भाव है। उसकी लौ में आशा, श्रम, और संस्कार झिलमिलाते हैं। लेकिन जिस राजनीति की दृष्टि में सिर्फ वोट का गणित हो, वहां दीये की लौ भी व्यर्थ दिखती है। अखिलेश यादव का बयान बताता है कि राजनीति जब सांस्कृतिक चेतना से कट जाती है, तब उसे अपनी ही परंपराएं बेकार लगने लगती हैं। वे भूल जाते हैं कि दीपावली कोईखर्चनहींएक संस्कार है। मिट्टी का दिया सिखाता है कि अंधकार चाहे जितना गाढ़ा क्यों हो, एक छोटी लौ भी उसे चीर सकती है। यह लौ ही भारत की आत्मा हैऔर शायद इसी उजाले से सियासत की आंखें चौंधिया रही हैं।

रामसे दूरी, ‘रोशनीसे परहेज़

राम नाम समाजवादी राजनीति को हमेशा असहज करता रहा है। कभी राम मंदिर के विरोध में खड़े होते हैं, कभी संतों पर व्यंग्य करते हैं, और अब दीपावली पर तंज कसते हैं। यह वही मानसिकता है जो दशकों सेरामशब्द को राजनीतिक रंग में रंगने की कोशिश करती रही है। पर सच्चाई यह है कि राम भारतीय मानस में हैंऔर दीया उसी रामत्व का प्रतीक है। दीया जलाना तो धर्म का प्रदर्शन है, राजनीति का विरोधयह आत्मा की स्वीकृति है कि अंधकार पर प्रकाश की विजय संभव है। लेकिन राजनीति को यह रोशनी अबअसुविधाजनकलगने लगी है। क्योंकि उजाला विवेक लाता है, और विवेक सवाल उठाता हैकि आखिर किस अधिकार से कोई नेता भारतीय संस्कृति को अपमानित कर सकता है?

भारत के उजाले को बुझा नहीं पाएंगे

राजनीति के सारे गणित, सारे बयान और सारे तुष्टिकरण एक दीए की लौ के सामने बौने हैं। वह दिया, जो मिट्टी का है, लेकिन आत्मा को रोशन करता है। अखिलेश यादव जैसे नेता जब दीयों का मज़ाक उड़ाते हैं, तो वे वस्तुतः उस भारत का मज़ाक उड़ाते हैं जिसने अंधकार से लड़ना सीखा है। यह वही भारत है, जिसने कहा तमसो मा ज्योतिर्गमयअंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। अखिलेश जी शायद भूल गए कि यह दीया किसी धर्म का नहीं, बल्कि इस राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। राजनीति अगर उसे बुझाने निकलेगी, तो खुद अंधकार में डूब जाएगी।

दीयों से नहीं, अंधकार से डरिए अखिलेश जी

दीया बुझाना आसान है, पर उसकी रोशनी को रोक पाना असंभव। अखिलेश यादव का यह बयान केवल आस्था पर कटाक्ष नहीं, बल्कि भारतीयता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह है। जो नेता दीयों से डरने लगे, समझिए कि उसकी राजनीति का दीपक बुझ चुका है। आज समय है कि जनता यह पहचान ले कि कौन उसकी संस्कृति के साथ है और कौन उसकी जड़ों से कट चुका है। क्योंकि जब किसी राष्ट्र की राजनीति उसकी परंपराओं का उपहास उड़ाने लगे, तब उस राष्ट्र के नागरिकों को ही दीप बनना पड़ता हैताकि उजाला कायम रहे, चाहे सियासत कितनी ही अंधेरी क्यों हो।

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