वैदिक परंपरा का नया स्वर्णिम उषाकाल
वाराणसी
की
सकरी
गलियों
से
उठता
एक
स्वर
इन
दिनों
पूरे
देश
को
मंत्रमुग्ध
कर
रहा
है,
वह
स्वर
19 वर्षीय
देवव्रत
रेखे
का
है।
वेदों
की
ऋचाओं
में
डूबा
यह
युवा,
जिसकी
आंखों
में
तप
का
तेज
और
वाणी
में
मंत्रों
का
कंपित
स्पंदन
है,
आज
उस
पुर्नजागरण
का
केंद्र
बन
गया
है
जिसकी
प्रतीक्षा
भारत
सदियों
से
करता
आया
है।
सोशल
मीडिया
से
लेकर
सड़कों
तक,
मंत्रोच्चारण
से
लेकर
शोभायात्रा
तक,
हर
जगह
देवव्रत
का
नाम,
उनके
स्वर
की
आभा
और
उनके
संकल्प
की
सुगंध
फैल
चुकी
है।
उनकी
50 दिनों
की
कठिन
‘लगन-साधना’,
प्रतिदिन
1800 जप,
ब्रह्ममुहूर्त
की
तप-प्रक्रिया,
और
जन्म-लग्न
आधारित
मंत्रों
की
अद्भुत
साधना
ने
उन्हें
सिर्फ
एक
वैदिक
अद्वितीयता
ही
नहीं,
बल्कि
आधुनिक
पीढ़ी
के
लिए
प्रेरणा
बना
दिया
है।
प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
और
मुख्यमंत्री
योगी
आदित्यनाथ
के
आशीर्वाद
संदेशों
ने
इस
युवा
को
साधना
के
मार्ग
से
राष्ट्रीय
पहचान
तक
पहुँचा
दिया।
सम्मान
समारोह
में
जुटी
हजारों
की
भीड़,
फूलों
की
बारिश
और
संपूर्ण
वैदिक
वातावरण
ने
बता
दिया
कि
सनातन
की
अग्नि
अभी
बुझी
नहींकृ
वह
और
तेज
हो
उठी
है।
देवव्रत
रेखे
अब
केवल
एक
युवा
नहीं,
भारत
की
सांस्कृतिक
चेतना
का
उगता
हुआ
सूरज
हैं
सुरेश गांधी
भारत की सभ्यता
में कई बार ऐसे
क्षण आते हैं जब
भविष्य और अतीत एक-दूसरे को स्पर्श करते
प्रतीत होते हैं। ऐसे
क्षण कभी किसी क्रांतिकारी
के उदय से जन्म
लेते हैं, कभी किसी
तपस्वी से, कभी किसी
मनीषी से, और कभीकृ
बहुत दुर्लभ अवसरों पर, किसी युवा
बाल-ऋषि से। आज
19 वर्षीय देवव्रत रेखे उसी दुर्लभ
परंपरा के वाहक बनकर
सामने आए हैं। जिनकी
शोभायात्रा में हजारों लोगों
की सहभागिता, जिनके सम्मान में सोने का
कंगन और 1,11,116 रुपये का अभिनंदन, जिनके
मंत्रोच्चारण पर विद्वानों की
प्रशंसा, जिनके 50 दिनों के कठिन ‘लगन-साधना’ ने लोगों को
चमत्कृत किया, और जिनके लिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ ने आशीर्वाद संदेश
भेजा, यह सब महज़
किसी अनुष्ठान की जानकारी नहीं,
बल्कि युवा भारत में
सांस्कृतिक जागरण की एक नई
कहानी है। लेकिन यह
कहानी अचानक नहीं जन्मी। इसके
पीछे है अनुशासन, त्याग,
साधना, श्रम, मनोबल और विलक्षण आध्यात्मिक
परिपक्वता। और सबसे अधिककृ
वह संस्कार जो आधुनिक पीढ़ी
में प्रायः लुप्त होते जा रहे
हैं। देवव्रत रेखे किसी खानदानी
वैदिक परंपरा से नहीं आते।
उनका परिवार साधारण है, न कोई
विशाल आश्रम, न कोई राजनीतिक
पृष्ठभूमि, न कोई संस्थागत
शक्ति। लेकिन संस्कार, श्रम और प्रतिभा,
ये तीनों गुण उनमें बचपन
से ही स्पष्ट दिखाई
देते थे।
सम्मान समारोह में दिखी भव्यता
किसी आयोजन की सफलता नहीं,
जन-मन की प्रतिक्रिया
थी। फूलों की वर्षा, बटूकों
की पंक्ति, वैदिक ऋचाओं की गूँज, रथ
पर विराजमान देवव्रत और हजारों लोगों
की भीड़. शोभायात्रा किसी
‘स्टेज इवेंट’ का दृश्य नहीं
लग रही थी, यह
संस्कृति की सामूहिक चेतना
का उत्थान था। लोग यह
देखकर आश्वस्त थे कि आधुनिक
भारत की भीड़ सिर्फ
फिल्मों, राजनीति और खेल में
ही नहीं, वेद, संस्कार और
अध्यात्म में भी अपना
नायक खोज सकती है।
यह दृश्य इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि यह
कहा जा रहा है
कि आधुनिक युवाओं को धर्म-अनुष्ठान
से दूरी है। देवव्रत
ने यह मिथक तोड़
दिया।
बड़ा सवाल तो
यह है, क्यों देवव्रत
रेखे एक “आइकन” बनते
जा रहे हैं? जवाब
है वे साधारण नहीं,
साधना आधारित हैं. आज के
समय में लोकप्रियता अक्सर
बिना श्रम के मिलती
है। देवव्रत उन दुर्लभ युवाओं
में हैं जिनकी प्रसिद्धि
उनके तप, अध्ययन और
अनुभव से उपजी है।
वे आधुनिकता और परंपरा दोनों
में विश्वास रखते हैं. वे
स्मार्टफोन भी चलाते हैं,
परंतु उसका प्रयोग केवल
ग्रंथों का अध्ययन, मंत्रों
की रिकॉर्डिंग और शोध के
लिए करते हैं। उनकी
वाणी में मात्र ध्वनि
नहीं, ऊर्जा है. उनका मंत्र-उच्चारण वैज्ञानिक स्वर-सिद्धि पर
आधारित है।
विद्वानों के अनुसार, देवव्रत
की आवाज़ में कंपन
है, स्पंदन है, और चेतना
को छू लेने वाली
ध्वनि है। वे ‘ज्ञान’
को प्रदर्शन नहीं, समर्पण मानते हैं. उनके शब्दों
में, साधना जितनी बढ़े, उतना सिर
और झुकना चाहिए। देवव्रत का उदय एक
संदेश है, सनातन कोई
बीती हुई चीज नहीं,
बल्कि जीवंत शक्ति है। आज की
पीढ़ी को अपनी संस्कृति
से जोड़ने की आवश्यकता है,
और यह तभी संभव
है जब उनमें प्रेरणा
देने वाले युवा आदर्श
हों। देवव्रत का व्यक्तित्व उसी
आदर्श की पहली सीढ़ी
है। उनके तीन बड़े
लक्ष्य हैं, 1. “युवा वेद गुरुकुल
मॉडल” : जहाँ भारत की
नई पीढ़ी, विज्ञान, संस्कृत, वेद, समाजशास्त्र, नैतिक
शिक्षा को एकीकृत रूप
में पढ़े। बच्चों के
लिए सरल वैदिक मंत्र
कार्यक्रम, आज बच्चों में
ध्यान की कमी, स्मरणशक्ति
का अभाव, मोबाइल की लत, और
मानसिक दबाव बढ़ रहा
है। देवव्रत ऐसे मंत्र और
अभ्यास तैयार कर रहे हैं
जो बच्चों के लिए सरल
हों, 1 मिनट के 3 मिनट
के और 5 मिनट के
अनुष्ठान। उनका मानना है
धर्म का अर्थ पूजा
नहीं, कर्तव्य है। धर्म का
अर्थ कर्म है। धर्म
का अर्थ राष्ट्र है।
देवव्रत के वायरल वीडियो
पर लोगों की प्रतिक्रियाएं बताती
हैं कि समाज आज
भी संस्कृति को संजोना चाहता
है। एक बुज़ुर्ग महिला
ने कहा, “बेटा, तूने हमारी परंपरा
को बचा लिया।” एक
युवा ने लिखा, “यह
19 साल का लड़का नहीं,
सनातन का पुनर्जागरण है।”
एक शिक्षक का संदेश था,
“हम पहली बार किसी
ऐसे युवा को देख
रहे हैं जो साधना
का अर्थ समझता है।”
ये प्रतिक्रियाएँ सिर्फ प्रशंसा नहीं, समाज की उदासी,
भटकाव और खोई परंपरा
की पुनः खोज का
बयान हैं।
देवव्रत के माध्यम से
यह स्पष्ट हुआ है कि
भारत केवल आर्थिक महाशक्ति
नहीं, केवल डिजिटल महाशक्ति
नहीं, केवल सैन्य शक्ति
नहीं, भारत सांस्कृतिक शक्ति
है और जब संस्कृति
जागती है, राष्ट्र की
आत्मा जाग उठती है।
और यही कारण है
कि इस युवा के
उदय को सामान्य घटना
नहीं माना जा सकता।
19 वर्ष की आयु में
जहाँ सामान्य युवा मोबाइल, करियर,
मनोरंजन और दिखावे में
उलझे होते हैं, वहीं
देवव्रत ने तप, संस्कृति
और राष्ट्र को अपना मार्ग
चुना। उनके 50 दिनों की कठिन साधना,
लगन-मंत्र, संयमित जीवन, विनम्रता और विद्वत्ता ने
उन्हें न केवल लोकप्रिय
बनाया, बल्कि एक राष्ट्रीय आध्यात्मिक
प्रतीक के रूप में
स्थापित किया है। प्रधानमंत्री
और मुख्यमंत्री का आशीर्वाद, लाखों
लोगों का प्रेम, सोशल
मीडिया की व्यापक प्रतिक्रिया
और समाज का अटूट
विश्वास. यह सब मिलकर
सिर्फ देवव्रत रेखे की नहीं,
बल्कि सनातन भारत की नई
कहानी लिख रहे हैं।
यह कहानी बताती है कि जब
युवा संस्कृति संभाल लेते हैं, तब
राष्ट्र स्वर्णिम युग में प्रवेश
करता है। देवव्रत रेखे
उसी स्वर्णिम युग के प्रथम
दीप की तरह हैं,
जो उजाला फैला रहा है,
दिशा बता रहा है,
और लोगों के दिलों में
विश्वास जगा रहा है
कि “भारत सिर्फ जगा
नहीं है, उठ खड़ा
हुआ है।”




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