जब अंधेरे से लड़ता है मनुष्य, तब जन्म लेती है दिवाली
जब तक कहीं भी असत्य, अन्याय या असमानता रूपी अंधेरा है, तब तक हमें अपने भीतर की ज्योति प्रज्ज्वलित करते रहना होगा। दीपावली केवल त्योहार नहीं, यह सतत आत्मजागरण की यात्रा है। दीपावली केवल बाहर के घरों को नहीं, बल्कि भीतर की आत्मा को आलोकित करती है। यह हमें याद दिलाती है कि हर व्यक्ति के भीतर एक रावण है, अहंकार, क्रोध और अज्ञान का प्रतीक, जिसे जलाना आवश्यक है। दीयों की यह श्रृंखला केवल मिट्टी के दीपक नहीं, बल्कि उम्मीदों के उजाले हैं, जो हर बार जीवन को यह विश्वास दिलाते हैं, अंधकार चाहे जितना भी गहरा क्यों न हो, एक दीपक पर्याप्त है उसे मिटाने के लिए। या यूं कहे हर दीप एक संकल्प है, तमस से ज्योति की ओर बढ़ने का। तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर, अविद्या से ज्ञान की ओर, और अन्याय से न्याय की ओर यात्रा। यह केवल भारतीय संस्कृति का नहीं, बल्कि मानव सभ्यता का उत्सव है, जहां मनुष्य अपने भीतर की सीमाओं को लांघ कर उजास की तलाश करता है. दीपावली हर वर्ष हमें यही स्मरण कराती है कि जब तक मनुष्य के भीतर अंधेरा है, तब तक उसे दीप जलाते रहना होगा, क्योंकि दीप केवल घर को नहीं, चेतना को भी प्रकाशित करता है
सुरेश गांधी
अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है दीपावली। यह केवल दीपों की ज्योति से सजे घरों और रोशनी से जगमगाती गलियों का उत्सव नहीं, बल्कि यह अंतर्मन को आलोकित करने वाला आध्यात्मिक पर्व है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जब बाहरी अंधकार बढ़ता है, तब भीतर का प्रकाश जगाने की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। मतलब साफ है दीपावली का अर्थ केवल घर सजाने, धन की प्राप्ति या पटाखों की गूंज भर नहीं है। यह वह क्षण है जब हम अपने भीतर के अंधकार, अज्ञान, अहंकार, अन्याय, असमानता, ईर्ष्या और मोह, को पहचानते हैं और उन्हें मिटाने का संकल्प लेते हैं। जैसा कि कहा गया है, “सत्याधारस्तपस्तैलं, दयावर्तिः क्षमा शिखा...” अर्थात् दीपक का आधार सत्य हो, उसमें तप का तेल हो, बाती दया की और लौ क्षमा की हो। यही दीप, मानवता की सच्ची ज्योति है।
दीपावली केवल बाहरी दीयों की नहीं, बल्कि भीतरी ज्योति की साधना है। यदि मन में करुणा न हो, सत्य न हो, क्षमा का भाव न हो, तो लाख दीपक जला लें, समाज का अंधकार नहीं मिटेगा। दीपावली तभी सार्थक है जब हम अपने भीतर का दीप जलाएं। यह ज्योति आत्मविश्वास का, विवेक का और धर्म का प्रतीक है। इसी से जीवन की दिशा निर्धारित होती है। यही कारण है कि भारतीय परंपरा में दीप प्रज्ज्वलन को तमसो मा ज्योतिर्गमय, अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर प्रस्थान कहा गया है।राम के आलोक का अर्थ त्रेतायुग की उस अमावस्या को जब श्रीराम चौदह वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तब उनके स्वागत में दीपों की असंख्य पंक्तियां जलीं। वह केवल विजयोत्सव नहीं था, बल्कि एक युग के पुनर्जागरण का प्रतीक था। कैकेयी के मन का अंधेरा मिटा था, मंथरा की कुटिलता मरी थी और अयोध्या का हृदय प्रकाश से भर उठा था। आज भी जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल परंपरा नहीं निभाते, बल्कि यह संकल्प दोहराते हैं कि हर वर्ष अपने भीतर की लंका को जलाकर, मन में राम की अयोध्या बसाएं। आज जब समाज धन को ही सुख का पर्याय मान बैठा है, दीपावली हमें याद दिलाती है कि लक्ष्मी की कृपा तभी स्थायी है जब उसके साथ सरस्वती और गणेश की उपस्थिति भी हो।
धन के साथ बुद्धि और ज्ञान न हो तो वह विनाश का कारण बनता है। धन की दौड़ में ज्ञान और करुणा को खो देना अंधकार में लौटना है। सच्चा उत्सव तब है जब हम अपने ज्ञान, संस्कार और सृजन की ज्योति को प्रज्ज्वलित करें। दीपावली का सबसे बड़ा संदेश है, “अंधकार से लड़ना।” समाज में व्याप्त अशिक्षा, गरीबी, असमानता, कट्टरता और स्वार्थ जैसे अंधेरे से जूझना ही दीपोत्सव की सच्ची साधना है।
श्रीराम ने जैसे वनवासियों, भालू-बंदरों और समाज के सबसे कमजोर वर्ग को साथ लेकर रावण जैसे बलशाली का अंत किया, वैसे ही हमें भी अपने समाज के ‘रावण’, भ्रष्टाचार, हिंसा, असमानता और अन्याय से मिलकर लड़ना होगा।
दीपावली इस बात की भी प्रेरणा देती है कि एक अकेला दीपक भी अंधकार को चुनौती दे सकता है। अगर हर व्यक्ति अपने हिस्से का एक दीपक जलाए, तो पूरा समाज उजाला बन जाएगा। मतलब साफ है दीपावली केवल उत्सव नहीं, बल्कि तमाम जिंदगियों का उजाला है। यह वह क्षण है जब जीवन के कोने-कोने में ज्योति उतरती है, जब निराशा के तम से आशा का दीप झिलमिलाने लगता है। अर्श से लेकर फर्श तक हर ओर प्रकाश की छटा बिखर जाती है। मकान-दुकान, आंगन-दफ्तर, सबमें स्वच्छता और सौंदर्य का नया अध्याय रचता है। बच्चे, युवा, बुजुर्ग सभी इस तरह झूमते नजर आते हैं मानो सृष्टि का आनंद उनके भीतर समा गया हो। यह केवल दीयों का पर्व नहीं, बल्कि मानव चेतना के जागरण का उत्सव है, वह क्षण जब मनुष्य अपने भीतर के अंधकार को पहचानकर उसे प्रकाश में रूपांतरित करता है। यह पर्व धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तीनों स्तरों पर हमारी चेतना को आलोकित करता है। जब दीप जलता है तो अंधकार अपने आप छट जाता है, यही इस पर्व का संदेश है कि प्रकाश फैलाना ही अंधकार मिटाने का उपाय है.ज्ञान का उत्सव मनाने का समय
स्वच्छता और संवेदना का दीपोत्सव
दीपावली से पहले घरों
की सफाई केवल दिखावे
के लिए नहीं की
जाती; यह प्रतीक है
मन और परिवेश को
निर्मल करने का। मगर
विडंबना है कि हम
घर तो सजाते हैं,
लेकिन समाज की गलियों
में गंदगी फैला देते हैं।
देवी लक्ष्मी को स्वच्छता प्रिय
है, इसलिए यदि हम सच
में उनका स्वागत करना
चाहते हैं, तो अपने
घर के बाहर की
दुनिया को भी स्वच्छ
रखना होगा, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप
से।
सच के साथ होती है लक्ष्मी
पौराणिक कथाएं हमें बताती हैं
कि लक्ष्मी केवल वहीं टिकती
हैं जहां धर्म और
सत्य का वास हो।
रावण की लंका सोने
की थी, पर वह
विनाश का प्रतीक बनी।
जबकि राम की अयोध्या,
मर्यादा और धर्म का
प्रतीक बनकर आज भी
स्मरणीय है। लक्ष्मी कभी
स्थायी नहीं रहतीं, वह
परीक्षा लेती हैं कि
हम धन के दास
हैं या उपयोगकर्ता। जब
धन का उपयोग समाज
के कल्याण में होता है,
तब ही वह लक्ष्मी
बनता है, अन्यथा वह
अलक्ष्मी के रूप में
अभिशाप साबित होती है।
उजाले की ओर बढ़ने का संकल्प
दीपावली हमें हर वर्ष
यह याद दिलाने आती
है कि जो नया
सृजन करता है, उसे
अंधकार कभी दबा नहीं
सकता। उजाला अंततः विजय पाता है।
इसलिए, इस दीपावली अपने
घर के साथ-साथ
अपने अंतर्मन की मुंडेर पर
भी दीप जलाइए, सत्य
का, दया का, क्षमा
का और विवेक का।
आपका एक दीप किसी
और के अंधकार को
मिटा सकता है। यही
दीवाली का सार है,
अपने लिए नहीं, दूसरों
के लिए भी उजाला
करना।
महालक्ष्मी : संपन्नता, सौंदर्य
और सौभाग्य की अधिष्ठात्री
दीपावली का मूल तत्व
महालक्ष्मी की आराधना में
निहित है। वे दैहिक,
दैविक, भौतिक, सभी प्रकार की
संपत्तियों की अधिष्ठात्री हैं।
शास्त्रों में कहा गया
है कि इस दिन
विधिपूर्वक किया गया लक्ष्मी
पूजन व्यक्ति को न केवल
भौतिक समृद्धि देता है, बल्कि
उसके जीवन से आर्थिक
संकटों को दूर करता
है। परंतु लक्ष्मी का आगमन केवल
धन से नहीं होता,
ज्ञान, बुद्धि और विवेक के
साथ ही उनका वास
संभव है। यही कारण
है कि लक्ष्मी पूजन
के साथ भगवान गणेश
और मां सरस्वती की
उपासना अनिवार्य मानी गई है।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’
धनतेरस से भाई दूज तक : आनंद की श्रृंखला
दीपावली उत्सव एक श्रृंखला की
तरह है जो धनतेरस
से प्रारंभ होकर भाई दूज
पर पूर्ण होती है। धनतेरस
पर घर-घर में
शुभ खरीदारी होती है, नरक
चतुर्दशी बुराई के अंत का
प्रतीक बनकर आती है,
और दीपावली की अमावस्या का
अंधकार दीपों की रोशनी में
रूपांतरित होकर संदेश देता
है कृ हर कालरात्रि
के पार भी एक
प्रभात है। गोवर्धन पूजा
से लेकर भाई दूज
तक यह पर्व केवल
पूजा-पाठ का ही
नहीं, बल्कि रिश्तों, प्रेम और आस्था के
पुनर्जागरण का भी अवसर
है।
आस्था का अनुशासन
दीपावली की रात्रि महानिशीथ
कहलाती है। इस रात
विधिपूर्वक लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती और कुबेर का
पूजन किया जाता है।
ताम्बे के कलश में
गंगाजल, दूध, दही, शहद
और सिक्के रखकर लाल वस्त्र
से आवृत किया जाता
है। पंचमुखी दीपक प्रज्ज्वलित कर
महालक्ष्मी का आवाहन किया
जाता है। यह पूजन
केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि का प्रतीक है,
भीतर की दरिद्रता और
अंधकार को मिटाकर समृद्धि
का द्वार खोलने का प्रयास।
बहीखातों से कुबेर तक : समृद्धि का संकेत
व्यापारी वर्ग के लिए
दीपावली विशेष महत्व रखती है। इस
दिन नए बहीखातों, कंप्यूटरों
और लेखा पुस्तकों का
पूजन किया जाता है।
यह केवल आर्थिक आरंभ
नहीं, बल्कि “श्रीगणेशाय नमः” के साथ
नए वर्ष की शुभ
शुरुआत का प्रतीक है।
कुबेर पूजन से धन
की स्थायित्व की कामना की
जाती है, जिससे घर
और व्यापार दोनों में संपन्नता बनी
रहे।
क्यों होती है आतिशबाजी?
दीपावली की रात अमावस्या
की होती है। पुराणों
में कहा गया है
कि इस दिन पितरों
की यात्रा आरंभ होती है,
इसलिए आकाश में रोशनी
कर मार्गदर्शन की परंपरा प्रचलित
हुई। समय के साथ
यह परंपरा आतिशबाजी के रूप में
विकसित हुई, जो अब
आनंद का प्रतीक बन
चुकी है।
धन और बुद्धि का संतुलन
एक प्राचीन कथा
के अनुसार एक राजा ने
लकड़हारे को चंदन का
जंगल उपहार में दिया, परंतु
अज्ञानवश लकड़हारा उसे जलाने लगा।
राजा ने समझाया, धन
तभी फल देता है
जब उसके साथ बुद्धि
जुड़ी हो। यही कारण
है कि लक्ष्मी के
साथ गणेश की पूजा
की जाती है ताकि
धन के साथ उसे
सदुपयोग करने की बुद्धि
भी प्राप्त हो।
राम, कृष्ण और महावीर, तीनों में एक ही संदेश
दीपावली का धार्मिक इतिहास
बहुरंगी है। रामायण के
अनुसार, यह वह रात
है जब 14 वर्ष का वनवास
समाप्त कर श्रीराम अयोध्या
लौटे थे, और अयोध्या
दीपों की रोशनी से
आलोकित हुई थी। श्रीमद्भागवत
में भगवान कृष्ण ने इसी दिवस
से पूर्व नरकासुर का वध कर
पृथ्वी को आतंक से
मुक्त किया था, यह
बुराई पर अच्छाई की
विजय का प्रतीक है।
और जैन धर्म के
अनुसार, यही वह दिन
है जब भगवान महावीर
ने निर्वाण प्राप्त किया, अर्थात आत्मा ने पूर्ण प्रकाश
का अनुभव किया। तीनों
कथाओं में एक साझा
सूत्र है, प्रकाश का
प्रस्फुटन, अंधकार का अंत।
मन के अंधकार से संघर्ष ही असली दीपावली
दीपावली हमें सिखाती है
कि बाहरी अंधकार से अधिक भयानक
वह अंधेरा है जो भीतर
पनपता है, लोभ, ईर्ष्या,
घृणा और असहिष्णुता का
अंधेरा। जब तक हम
इसे नहीं मिटाते, तब
तक कोई रोशनी हमें
प्रकाशित नहीं कर सकती।
भारतीय दर्शन कहता है कि
अंधकार अनादि है, पर उसे
जीतने का संकल्प मानव
के भीतर है। जब
आदिमानव ने पहली बार
तेल-बत्ती में अग्नि जलाई,
तो उसने केवल रोशनी
नहीं पैदा की, बल्कि
संघर्ष की चेतना भी
जगाई। उसी क्षण मानव
सभ्यता ने अंधेरे से
लोहा लेना सीखा।
राम की अयोध्या और मन की अयोध्या
श्रीराम की अयोध्या वापसी
पर जो दीप जले
थे, उन्होंने न केवल नगर
को आलोकित किया, बल्कि मानव चेतना को
भी। उन दीपों की
लौ आज भी हमें
स्मरण कराती है, अपने मन
की लंका में बसे
रावण को जलाकर वहाँ
राम की अयोध्या बसाओ।
जब तक असत्य, अन्याय
या असमानता रूपी अंधकार रहेगा,
तब तक दीप जलाते
रहना होगा। यह दीप केवल
तेल और बत्ती का
नहीं, बल्कि संघर्ष और संकल्प का
प्रतीक है।
राम का रूपांतरण और दीपावली का सच्चा अर्थ
दिवाली श्रीराम के लौटने का
ही नहीं, बल्कि उनके रूपांतरण का
पर्व भी है। यह
उस क्षण का स्मरण
है जब वनवासी राम
राजा राम बने, मर्यादा
और न्याय के प्रतीक। आज
समाज को फिर ऐसे
ही राम की आवश्यकता
है, तपस्वी, स्त्री-रक्षक, समाज-संरक्षक राम
की, न कि केवल
मंदिरों में पूजित राजा
राम की। दीपावली हमें
बताती है कि अंधकार
से लड़ाई उधार की
रोशनियों से नहीं, बल्कि
अपने अनुभव और तप की
रोशनी से लड़ी जाती
है।
पांच पर्वों में छिपा जीवन-दर्शन
दीपावली केवल एक दिन
का नहीं, बल्कि पाँच पर्वों का
उत्सव है, धानतेरस स्वास्थ्य
और धन के संतुलन
का प्रतीक है। नरक चतुर्दशी
बुराई पर विजय का
स्मरण कराती है। दीपावली लक्ष्मी,
गणेश और सरस्वती की
आराधना का दिन है,
जहाँ ज्ञान, बुद्धि और संपन्नता का
संगम होता है। गोवर्धन
पूजा प्रकृति के संरक्षण का
संदेश देती है। भाई
दूज स्नेह और पारिवारिक प्रेम
का प्रतीक है। ये पाँचों
पर्व मिलकर मनुष्य के लौकिक जीवन
पर अलौकिक आभा बिखेरते हैं।
कहा जा सकता है
दीपावली केवल घर सजाने
और आतिशबाजी करने का नाम
नहीं। यह आत्मसंस्कार और
सह-अस्तित्व का पर्व है।
यह हमें याद दिलाती
है कि जब तक
समाज में कोई वंचित
या दुखी है, तब
तक प्रकाश अधूरा है। दीपावली का
सच्चा अर्थ तभी पूरा
होगा जब हर झोपड़ी,
हर द्वार, हर हृदय में
दीप जल सके।













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