Saturday, 29 May 2021

मिशन बनाम व्यवसायिक पत्रकारिता के बीच साख की चुनौती

मिशन बनाम व्यवसायिक पत्रकारिता के बीच साख की चुनौती

मीडिया का मतलब जनभावनाओं की अभिव्यक्ति है। लेकिन मीडिया सच और गलत के अंतर को दिखाने से बचे तो तो उसे पत्रकारिता कैसे कहा जायेगा? भारत में ही अनके ऐसे उदाहरण सामने चुके है, जहां अपनी खामियां छुपाने के लिए सरकारें अमित त्रिपाठी जैसे भ्रष्ट बेईमान अफसर माफियाओं के साठगांठ से पत्रकारों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह अलग  बात है कि सपाराज के गुंडे माफिया योगीराज में जेल की हवा खां रहे है। लेकिन दबावों की राजनीति के समक्ष नतमस्तक होते मीडिया के बीच कुछ पत्रकार एवं मीडिया हाउस तनकर सामने खड़े हुए, नुकसान की परवाह किए बिना

सुरेश गांधी

अभिव्यक्ति की आजादी प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है। तो भला उस अधिकार से मीडिया को क्यों रोका जाएं। कोई भी सरकार ठीक से काम कर रही हैं यह तब पता चलेगी जब उसे सही और गलत का अंतर समझ में आएगा। लेकिन अफसोस है कि सरकारों एवं प्रशासनिक अफसर उन पत्रकारों या मीडिया हाउसों के खिलाफ हो जाते है, जो उनकी खामियां उजागर करती है। वे खींझ इस हद तक निकालने पर आमादा पर हो जाते है कि माफियाओं की साठगांठ से पत्रकरों की हत्या घर-गृहस्थी लुटवाने के साथ मीडिया हाउसों के विज्ञापनों पर रोक लगा देते है। जबकि कुछ चाटुकार मीडिया संस्थानों पत्रकारों पर इस कदर मेहरबान रहते है कि अपनी पूरी खजाना उनके लिए खोल देते है। पर वो भूल जाते है कि कई बार मीडिया में छाई रहने वाली सरकारों का पतन होते हमनें देखा है। देश में दबाव के अलावा प्रलोभन की राजनीति का कुचक्र जाल भी पैर पसारता जा रहा है। यानी दबाव चले तो प्रलोभन से मीडिया को बस में करने के हथकंडे अपनाए जाने की खबरें आम होने लगी है। कहने में संकोच नहीं कि मीडिया का एक वर्ग इस जाल में फंसने की स्वयं बेताब नजर रहा है। यह पत्रकारिता नहीं विशुद्ध व्यवसाय है। व्यवसाय अगर पत्रकारिता पर हावी होने लगेगा तो पत्रकारिता बचेगी कहां?

देश ही नहीं दुनिया में दबाव की राजनीति को शिकस्त देने की जरूरत है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी भी बरकरार रह सके और सत्ता संस्थानों पर अंकुश भी बना रहे। बता दें, वर्ष 2006 से 2021 तक दुनिया भर में 1,211 पत्रकारों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों में से करीब 90 फीसदी को दोषी करार नहीं दिया गया। पत्रकारों की ये हत्याएं संघर्षरहित क्षेत्रों में हुई, जो राजनीति, अपराध और भ्रष्टाचार पर रिपोर्टिंग के लिए खबरनवीसों को निशाना बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, पत्रकारों के लिए काम करने के लिहाज से अरब देश सबसे खतरनाक हैं, जहां 30 प्रतिशत हत्याएं हुई। इसके बाद लातिन अमेरिका और कैरीबियाई क्षेत्र (26 प्रतिशत) और एशिया तथा प्रशांत देश (24 प्रतिशत) आते हैं। वर्ष 2019 से अब तक भारत में किसी पत्रकार की हत्या नहीं हुई है। वर्ष 2017 की रिपोर्ट बताती है कि 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर था। वर्ष 1992 से 2017 के बीच भारत में 75 पत्रकारों की हत्या हुई। जबकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2013 से 2014 में भारत में जितने पत्रकारों पर हमले हुए, उनमें से 70 फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये।

वर्ष 2015 में पत्रकारों की हत्या के दो मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। पत्रकारों पर हमलों के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है और उसके बाद बिहार का नंबर आता है। ऐसे मामलों में अब तक किसी को सजा नहीं हुई है। यह चिंता की बात है। रिपोर्ट यह भी है कि इसमें यूपी के कई पत्रकारों की हत्याओं का आंकड़ा दर्ज ही नहीं है। यूपी में सपा के अखिलेश राज में 200 से अधिक पत्रकारों का उत्पीड़न किया गया, जिसमें दो दर्जन से अधिक हत्याएं हुई। इसमें कई को जिंदा जला दिया गया तो कईयों को सरेराह सड़कों पर माफियाओं के द्वारा मरवा दिया गया तो कईयों पर फर्जी रपट दर्ज कराकर उनके घर-गृहस्थी लूटवा लिया गया। लेकिन अखिलेशकाल के बेईमान अधिकारी कुछ दलाल पत्रकारों की साजिश में इन्हें हत्या या उत्पीड़न माना ही नहीं गया। परिणाम यह है कि अपराधियों को सजा नहीं मिलने की वजह से उनके हौसले बुलंद हो जाते हैं। वे ऐसे ही कई और अपराध को अंजाम देते हैं। कानून और न्याय व्यवस्था को धता बताते हैं। कुछ एनजीओं की नजर में यह मानवाधिकार का गंभीर उल्लंघन है। लेकिन उन्हें कौन बताएं कि मानवाधिकार भी उन्हीं सरकारों प्रशासनिक अधिकारियों पर निर्भर है, उन्हें वे जो रिपोर्ट देते है वहीं सच मान लेता है।

अपराधियों को सजा मिलने से बढ़े अपराध

अपराधियों को सजा नहीं होने की वजह से पूरे समाज पर खतरा उत्पन्न हो जाता है। इससे आमजन के मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, भ्रष्टाचार और अपराध को बढ़ावा मिलता है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, वर्ष 2018 में बिहार और झारखंड में दो-दो पत्रकारों की हत्या हुई। कहीं पत्रकार को पीट-पीटकर मार डाला गया, तो कहीं गाड़ी से कुचल दिया गया। कहने का अभिप्राय है कि स्थानीय स्तर पर सबसे ज्यादा पत्रकारों को काम के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ती है। इन मामलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जिसकी वजह से पत्रकार निर्भीक होकर पूरी ईमानदारी से काम नहीं कर पाते। हर साल आज का दिन हमें हिंदी पत्रकारिता पर बात करने के लिए मिलता है। दशकों से इस दिन आमतौर पर हिंदी पत्रकारिता की दिशा और दशा पर चिंता जताते हुए आयोजन होते हुए दिखते हैं। कभी कभी हिंदी पत्रकारिता के गुणगान के आयोजन भी हो जाते हैं। इस बार भी कई जगह हो रहे होंगे। लेकिन उन आयोजनों मे हुए विचार विमर्शों के बारे में खुद हिंदी अखबारों और हिंदी टीवी चौनलों में कुछ भी पढ़ने-सुनने को नहीं मिलता। खैर ये कोई बड़ी चिंता की बात नहीं। क्योंकि हिंदी के अलावा और दूसरी भाषाओं की पत्रकारिता पर ही कौन सा विमर्श हो रहा है। खासतौर पर अंग्रेजी पत्रकारिता तो इस समय अपनी अस्मिता की चिंता को छोड़ धड़ल्ले से हिंदी के शब्द, हिंदी के वक्ताओं और हिंदी भाषी जनता को हूबहू कहते दिखाना चाह रही है। यानी पत्रकारिता चाहे हिंदी में हो या किसी दूसरी भाषा में, वह अपनी भाषाई अस्मिता को छोड़ती हुई सिर्फ पत्रकारिता ही दिखाई दे रही है।

अब इंटरनेट मीडिया

पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भविष्य में पत्रकारिता में बेहतर उत्थान की कल्पना बिना वेब मीडिया या कहे इंटरनेट के अधूरी-सी लगती है। मतलब लगभग 80 फीसदी आबादी इंटरनेट से जुड़ चुकी है। तमाम चुनौतियों के बावजूद आज इंटरनेट रोजमर्रा के जीवन में बहुतायत में शामिल हो चुका है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांशीडिजिटल भारतयोजना के चलते भारत के प्रत्येक नागरिक तक इंटरनेट संबंधित मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिए केंद्र सरकार प्रतिबद्ध है। इसी के मद्देनजर हम भारत में पत्रकारिता के भविष्य की और नजर दौड़ाएं तो हमे इंटरनेट पत्रकारिता का स्वर्णिम भविष्य नजर आने लगेगा। अंग्रेजी में पुरानी कहावत है कि आपको वही सरकार मिलती है, जिसके योग्य आप हैं। यही बात पत्रकारिता के बारे में कही जा सकती है। पत्रकारिता के विकास की दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी सामाजिक परिस्थितियां क्या हैं। यह बहुत कुछ समाज की राजनैतिक रुझान पर भी निर्भर करता है। मोटे तौर पर समाज में पत्रकारिता के प्रति एक आदर का भाव विद्यमान होता है, किंतु अब वहां पत्रकारिता पर सवाल उठने लगे हैं, उसे संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है और दूसरी तरफ जिस पत्रकारिता को लोकशिक्षण का अनिवार्य माध्यम सदियों से माना गया है, उससे लोकशिक्षण के बजाय लोकमनोरंजन की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जा रही है।

दिमाग की बत्ती जली रहनी चाहिए

मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में जा रहा है। उनका एजेंडा पैसा कमाना है। देश और अवाम से उनका कोई लेना-देना नहीं है। पाठकों तक हर तरह का समाचार पहुंचाने के लिए दिमाग की बत्ती जली रहनी चाहिए। यह बुझनी नहीं चाहिए। ताकि कोई आपका इस्तेमाल कर सके। किसी चीज की सराहना करना मेरा काम नहीं। मैं अपनी बात बोलूंगा। यदि आप मुझे दीवार दिखाने ले जायेंगे, तो मैं उसे मुक्का मार कर देखूंगा कि यह कहां से गिरनेवाली है। बात साफ है। यदि नागरिकों की दिलचस्पी लोकहित के गंभीर प्रश्नों में नहीं है तो ऐसे में पत्रकारिता का विकास होने के बजाय उसके बीमार पडने की आशंका अधिक है। यह तो समाज को ही तय करना होगा कि उसे चमक-दमक, शोशेबाजी, नकली बहसों, चुटकुलेबाजी, अविश्वसनीय समाचारों आदि की आवश्यकता है या अपने समय के प्रश्नों से रूबरू होने की। आज 40 से कम उम्र का मीडिया ग्राहक बहुसंख्य पाठक-दर्शक है। वह कहीं भी रहता हो, अब पेशे और पैसे को लेकर अपने पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक आक्रामक और अपनी सोच तथा सरोकारों को लेकर पक्का शहरी जीव है। वह सोशल मीडिया में उपस्थिति दर्ज करवा के खुद को आधा पत्रकार भी मानने लगा है। ऐसे युवा को संपादकीय लेख और लंबे ब्योरे उबाते हैं। उसे खबरों का वह उत्तेजक चटपटा गुलदस्ता पसंद है, जहां लगातार ब्रेकिंग न्यूज की उत्तेजना मिले और जिसमें बॉलीवुड, क्रिकेट, गुजरात चुनाव, मिस वर्ल्ड की नवीनतम पोशाक सब पर सचित्र सामग्री उपलब्ध हो। जहां वह कभी-कभी सिटिजन जर्नलिस्ट बनकर भागीदारी भी कर सके। इंटरनेट की आज दो शक्लें हैं। एक भव्य, उजली और ज्ञान से भरपूर, दूसरी स्याह और खुराफाती। हम सब सर्च इंजनों और विविध -पोर्टलों के ज्ञान और उनके लिंक्स से जुड़कर दिमाग को दुनियाभर से रही सूचनाओं और विचारों के प्रवाह से तुरंत जोड़कर समृद्ध होते रहते हैं। लेकिन, इसी सुविधा ने साइबर स्पेस में बैठे पेशेवर हैकरों के लिए सूचनाओं, जानकारियों और ग्राहकों की पहचान पसंद के तमाम बिकाऊ ब्योरों जानकारियों में सेंध लगाने के कई चोर दरवाजे भी खोल दिये हैं। अमेरिकी सरकार, पनामा या स्विस बैंकों के गुप्त राज लीक होने से साफ हो गया है कि अभी साइबर अपराधों को रोकने और इनको वाजिब दंड देने में मौजूदा साइबर कानून नाकाम हैं।

चीयर्स लीडर्स बनने से बचना होगा

पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न पहले भी थी, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी. और यह रहना भी चाहिए। लेकिन आज मीडिया चीयरलीडर्स बन गये हैं। इससे बचना होगा। संपादकीय अखबार की आत्मा है। उस आत्मा को बचाये रखना है, उसे बचाते हुए ऐसा बिजनेस मॉडल बनाना पड़ेगा, जिससे आप बचे भी रहें, आगे भी बढ़ें और जनहित की पत्रकारिता भी कर सकें। आज एकल ही नहीं, सरकारों, सरकारी खुफिया प्रकोष्ठों तथा कॉरपोरेट जगत से भी इनको मोटे ग्राहक मिलने लगे हैं। ये ग्राहक शत्रु सरकारों और बाहरी देशों के अपने पसंदीदा नेता को चुनाव जितवाने और नापसंदों को हरवाने के लिए बड़ी फीस देकर ऐन चुनाव के समय उनके शर्मनाक राज-मामले उजागर करने का काम तक इन अनैतिक साइबर खुफिया दस्तों को सौंप रहे हैं। अब समय है कि जो लोग भी लोकतंत्र में सही सूचनाओं के खुलापन और मीडिया में लोकतांत्रिकता के पक्षधर हैं, वे आनेवाले समय के तूफानों को झेलने और वैचारिकता में सचाई को बचाये रखने के तरीकों पर समवेत विचार शुरू कर दें। कहना होगा जहां भारत अभी तक मूलभूत जरूरतों के लिए सिसक रहा है वहीं इंडिया किलकारियां मार रहा है, वह इंडिया जहां कारपोरेट सेक्टर है, मॉल हैं फिल्मी ग्लैमर है, राजनीति है, थैलीशाहों और कालेधन वालों की बस्ती है, इसके लिए हम भले ही सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक दलों को दोषी ठहराएं और थोड़ा बहुत लिखकर इतिश्री भी करते रहें, लेकिन वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद हम कलमकारों पत्रकारों से देश को जो उम्मीदें थीं उस पर हम भी पूरी तरह खरे नहीं उतरें हैं। आज ज्यादातर कलमकार, पत्रकार सत्ता की दलाली में चूर इठलाते नजर आतें हैं उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐन-केन प्रकारेण कोई पद प्राप्त कर लिया जाए, अखबार को बड़ा विज्ञापन मिल जाये या उनकी लिखी पुस्तकों को पुरस्कार मिल जाए, उनके परिजनों को सत्ता की जुगाड़ के चलते कोई बेहतर नौकरी मिल जाए आदि आदि। आज के कुछ पत्रकारों में आत्मसम्मान की बोली भी लगानी पड़ रही है तो हम कलमकार, पत्रकार आज पीछे नहीं रह रहे हैं यही कारण है की समाज में हम कलमकारों, पत्रकारों  का अस्तित्व भी दिन दिन कमजोर होता जा रहा है जो की बेहद अफसोस जनक है। हम कलमकारों ने अपने को देवदूत अल्लामियां भगवान् समझ लिया है, आम जनता से हमारा कोई जुड़ाव ही नहीं रह गया है।

घातक साबित होगा फेक न्यूज का इस्तेमाल

फेक न्यूज बड़ी चुनौती बन गयी है. कोई संपादक अपने अखबार में छपनेवाले कंटेंट पर नजर रख सकता है. लेकिन, किसी के व्हाट्सएप या अन्य साइट्स पर क्या आता है, उसके बस में नहीं है. फेक न्यूज की फैक्टरियां हिंदू-मुसलिम को लड़ा रही हैं. किसी नेता को बड़ा दिखा रही हैं, तो किसी को नीचा दिखाने में लगी हैं. सत्ता में बैठे लोग यदि फेक न्यूज का सहारा लेने लगे हैं, तो यह बहुत घातक होगा. जब तक अखबारों के लिए वाजिब मूल्य लोगों की चुकाने की आदत नहीं पड़ेगी, पेड न्यूज का दौर चलता रहेगा। जरूरत है राजनेताओं की मनसा को समझने एकजुट होकर देश के आम नागरिकों की सम्सयायों को उजागर करते हुए सरकारों को आइना दिखाने की, वरना वो दिन दूर नहीं की देश के नागरिकों में पत्रकारों कलमकारों का विश्वास तो टूटेगा ही साथ ही सरकारें भी कलमकारों पत्रकारों को सबक देने से नहीं बाज आयेंगीं। बदलते परिवेश में आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्मचिंतन करें। हमें अपने मान सम्मान को बनाये रखने के साथ लोगों की कड़वी बातों को सुनने की भी आदत डालनी होगी। आम लोंगो की समस्याओं भावनाओं को समझते हुए अपने दायित्वों को निभाना होगा। यह भी ध्यान रखना होगा की देश का आम नागरिक हमसे अपेक्षा क्या कर रहा है।

सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध

मैं हमेशा सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहा। हमारा सूत्र गांधीपत्रकार नहीं आंदोलनयूं ही नहीं है। इसके पीछे पूरी कुर्बानी है। समाज के अंतिम आदमी के साथ में हमेशा से मजबूती से खड़ा रहा। जहां भी आम आदमी, समाज और राष्ट्र के विरुद्ध कुछ गलत दिखा, उसके खिलाफ एक मजबूत और निष्पक्ष चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका निभाई है। जिन घपलों-घोटालों को शासन-प्रशासन ने छुपाकर रखना चाहा, उसे सबके सामने उजागर किया। हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि हमने सबसे अधिक घपले-घोटाले उजागर किये हैं। मेरा उद्देष्य है कि मैं समाज के हर वर्ग की आवाज बनू। जोर-शोर से उनके मुद्दे उठाये। इस कार्य में कई प्रकार की बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें अपने पाठकों का नैतिक समर्थन हर बार मिला है। हम जानते हैं कि एक पत्रकार के लिए पाठकों का प्रेम ही उसकी बड़ी पूंजी होती है। निष्पक्ष खबरों के साथ ही आधुनिकतम जानकारियों से अपने पाठकों को अवगत कराने का हमारा प्रयास रहा है। मैं स्वांतः सुखाय के लिए लिखता हूं। मंचों के लिए या पुरस्कार के लिए नहीं। पुरस्कार कैसे मिलते हैं यह अब सबको पता है। यही कारण है पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं रहा गया। अब तो पद्मश्री तक मैनेज होती है। बोरा भर कर सैंटाक्लॉज के गिफ्ट की तरह यश भारती बंटा, जिसको मिला यदि वह गैरत वाला होगा तो मैं नहीं मानता कि वह अपनी घर की नेम प्लेट पर या विजिटिंग कार्ड पर यशभारती सम्मान प्राप्त फंला यादव, खान...लिखेगा। मैं अपनी पीठ पर यह लटका कर नही चलना चाहता हूं कि मैं इतिहासकार हूं, उपन्यासकार हूं...पत्रकार हूं।

भविष्य की पत्रकारिता चुनौतीपूर्ण

भविष्य की पत्रकारिता के लिए पत्रकारों लिए काफी चुनौतीपूर्ण शामित होगी। पत्रकारिता को बरकरार रखने के लिए पत्रकारों को काफी मेहनत करने की जरूरत होगी। भविष्य में डिजिटल पत्रकारिता को काफी महत्व मिलेगा, लेकिन प्रिंट मीडिया का अस्तित्व बरकरार रहेगा और प्रिंट मीडिया लोग दस्तावेज के रूप में सुरक्षित रखेगें। अब जैसे ही पत्रकार खबर में गोलमाल करेगा, जनता धड़ से पकड़ लेगी। क्योंकि सोशल मीडिया पर आपकी खबर की बखिया उधेड़ दी जाएगी। समाचार भी तथ्यपरक लिखें क्योंकि सोशल मीडिया पर ज्यादातर अफवाहों का ही बाजार गर्म रहता है। पत्रकार खोजी होता है। सार्वजनिक जीवन में जो कुछ अच्छा या बुरा जान पड़े उसके प्रति लोगों को आगाह करना उसका कर्तव्य है, परंतु ऐसा करते हुए उसे हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि वह तो सच्चाई का एकमात्र प्रवक्ता है और ही देश की जनता ने उसे अंतिम रूप से फैसला सुनाने का कोई विशेष अधिकार दिया है। पत्रकार हद से हद इतना भर कर सकता है कि किसी मसले की सच्चाई को लेकर जितनी दावेदारियां हैं, सबको उन्हीं के शब्दों में लोगों के सामने पेश कर दे। ध्यान हमेशा इस बात पर रहना चाहिए कि तथ्यों को खोज-बीन और एक कथानक के रूप में उनकी बुनावट करते वक्त मीडिया के हाथों अलग से सच्चाई का निर्माण हो जाये। सभ्य समाज के निर्माण में पत्रकारों की अहम भूमिका है। चाहे कोई भी दौर रहा हो। पत्रकारों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भ्रष्टाचार को जड़ मूल से खत्म कराने में पत्रकार अहम भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।

दबावों से बाहर निकले मीडिया

पूंजी, बाजार और सत्ता के दबावों से मीडिया को बाहर निकालने और जनपक्षीय पत्रकारिता को आगे बढ़ाने की जरुरत है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बीच खबरों की विश्वसनीयता ही मीडिया की साख बचायेगी। फील गुड वाली खबरें नहीं, बल्कि सच्ची, अच्छी और तह तक जाने वाली पत्रकारिता की जरूरत है़। सोशल मीडिया की वजह से पत्रकारिता के समक्ष काफी चुनौतियां उत्पन्न हो गयी हैं। इससे सारे बांध टूट गये हैं। प्रिंट मीडिया को ऐसे में एक फिल्टर की तरह सभी घटनाओं को परख कर टिप्पणी और रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए। इससे विश्वसनीयता बनी रहेगी। सोशल मीडिया में खबरें सत्यता को पुष्ट किये बिना चलायी जाती है। इन सनसनीखेज समाचारों और विचारों पर गंभीरता से विचार कर आगे बढ़ना चाहिए। सोशल मीडिया के आने से सभी पत्रकार, फोटोग्राफर बन गये हैं। अभी पत्रकारिता की भी दो धारा हो गयी है। इस पेशे के कई लोगों को आज सरकार के खिलाफ की खबरें भी अच्छी नहीं लगती है। अभी के निजाम के खिलाफ सुनाना भी नहीं चाहते हैं। सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों नहीं हो, वह अस्थायी होती है। एक अच्छे अखबार और चैनल की उम्र इससे कहीं ज्यादा होती है। पाठक और दर्शक का दबाव सरकारी दबाव से अधिक होता है। यही कारण है कि इस पेशे में वही संस्था या लोग टिक पा रहे हैं, जिनकी जड़ें पुरानी, गहरी और मजबूत हैं।

अवाम के मुद्दे लेकर आगे बढ़े मीडिया

आज हर अखबार किसी किसी घराने या राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है। मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में जा रही है। उनका एजेंडा पैसे कमाना है। देश और अवाम से कोई लेना-देना नहीं है। यदि सोशल मीडिया नहीं होता, तो शायद लोगों की बात दब जाती। लेकिन अब सोशल मीडिया में शोर मचता है तो अखबारों चैनलों को दिखाना छापना पड़ता है। यानी सोशल मीडिया दबी हुई चीजों को बाहर निकालने में अहम भूमिका निभा रहा है। स्थिति बहुत खराब भी नहीं है। मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी भूमिका नहीं निभा रहा, लेकिन न्यू मीडिया उभर कर रहा है। जो काम बिग मीडिया नहीं कर रहा, जिन विषयों पर वह डिबेट नहीं करना चाहता, उसके लिए सोशल मीडिया आवाज बन गया है। हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम क्या कर रहे हैं। कम लोगों को क्या परोस रहे हैं। पत्रकारों को सही चीज के लिए लड़ना और अड़ना सीखना होगा। हर धंधे के बुनियादी वसूल होते हैं। उनके संस्थागत स्मृति के संरक्कोषण की जरूरत होती है। अखबारों का मालिकाना हक बदल रहा है। पहले अखबार के मैनेजरों ने संपादकों को शेयर देना शुरू किया। मेरा मानना है कि घोड़े को घास से दोस्ती नहीं करनी चाहिए। इसी तरह संपादकों की नेता और मैनेजरों से गहरी दोस्ती नहीं होनी चाहिए। आज कई औद्योगिक घराने हैं, जो बड़े मीडिया घराने बन चुके हैं। 

निजीकरण के विरोध में वाराणसी के हजारों कर्मी लखनऊ बिजली पंचायत में होंगे शामिल

निजीकरण के विरोध में वाराणसी के हजारों कर्मी लखनऊ बिजली पंचायत में होंगे शामिल  आज होगा संघर्ष के कार्यक्रमों का ऐलान ...