परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं मां सीता
गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में सीता जी को संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली माता कहा है। माता सीता शक्ति, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं। अतः वे परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं। एक पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सभी के लिए पूजनीय रहा है। संसार में एकमात्र मां सीता ही है जिन्होंन धरती से जन्म लिया तो धरती में ही समा गयी
सुरेश गांधी
21 अप्रैल 2018 के दिन सीता जयंती का उत्सव संपूर्ण भारत में उत्साह व श्रद्धा के साथ मनाया जाएगा। यह पर्व मां सीता के जन्म दिवस के रुप में जाना जाता है। वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को भी जानकी-जयंती के रूप में मनाया जाता है, परंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष को सीता-जयंती के रूप में भी मनाने की परंपरा रही है। इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमी के नाम से भी संबोद्धित किया जाता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को सीता नवमी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान श्रीराम की प्राणप्रिया आद्याशक्ति, सर्वमंगलदायिनी, पतिव्रताओं में शिरोमणि श्री सीता माताजी का प्राकट्य हुआ था। इसे पर्व को जानकी नवमी भी कहते हैं। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी पर पुष्य नक्षत्र में जब राजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए भूमि जोत रहे थे, उसी समय उन्हें पृथ्वी में दबी हुई एक बालिका मिली। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को सीता कहते हैं। इसलिए उस बालिका का नाम सीता रखा गया। माता सीता की उत्पत्ति भूमि से हुई थी, इस कारण उन्हें ‘अन्नपूर्णा’ भी कहा जाता है। भगवती सीता जी की पति-परायणता, त्याग सेवा, संयम, सहिष्णुता, लज्जा, विनयशीलता भारतीय संस्कृति में नारी भावना का चरमोत्कृष्ट उदाहरण है। उनकी त्याग व तपस्या समस्त नारी जाति के लिए अनुकरणीय है।
भारत और नेपाल की सीमा के नजदीक बसा है ‘जनकपुर‘। जनकपुर वह जगह है जहां त्रेतायुग में माता सीता भूमि से अवतरित हुई थीं। यह स्थान माता सीता के जन्मस्थान के रूप में सदियों से धार्मिक आस्था का केंद्र है। जनकपुर, नेपाल के धानुषा जिले के दक्षिणी तराई शहर से लगभग 200 किमी दूर दक्षिण-पूर्व है। जनकपुर में मां सीता का भव्य मंदिर है, जो भारतीय सीमा से महज 22 किमी दूरी पर है। हालांकि नेपाल में 2015 में आए विनाशकारी भूकंप में यह मंदिर भी क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसका जीर्णोद्धार कराया गया। त्रेतायुग में मिथला के राजा जनक जब भूमि में हल जोत रहे थे, तभी उन्हें सीता जी एक स्वर्ण जड़ित बक्से में मिली थीं। रामायण में मिथिला राज्य का उल्लेख मिलता है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री सीता थीं। जिनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम से हुआ था। जनकपुर की अपनी भाषा और लिपि के साथ प्राचीन मैथिली संस्कृति का केंद्र है। जनकपुर के निवासी सीता जी को जानकी देवी कहते हैं। जनकपुर के केंद्र उत्तर और पश्चिम में जानकी मंदिर है। यह मंदिर 1911 में बनाया गया था। जनकपुर में कई तालाब हैं जिनमें 2 सबसे महत्वपूर्ण हैं धनुष सागर और गंगा सागर। यहां की बोली मैथिली अभी भी व्यापक रूप से इस क्षेत्र में बोली जाती है।
पौराणिक मान्यताएं
हिंदू पौराणिक पवित्र ग्रंथ रामायण की मुख्य नायक और नायिका भगवान श्रीराम और माता सीता है। श्रीराम के तीन भाई थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। श्रीराम सबसे बड़े पुत्र थे। ठीक इसी तरह माता सीता की तीन बहनें मांडवी, श्रुतकीर्ति और उर्मिला थी। माता सीता सबसे बड़ी थीं। सीता उपनिषद में वर्णित है कि सीता उपनिषद अथर्ववेद का एक भाग है। इसलिए इसे अथर्ववेदीय उपनिषद भी कहते हैं। इस उपनिषद के अनुसार देवगण तथा प्रजापति के मध्य हुए प्रश्नोत्तर में ‘सीता‘ को शाश्वत शक्ति का आधार माना गया है। इसमें सीता को प्रकृति का स्वरूप बताया गया है। उन्हें ही प्रकृति में परिलक्षित होते हुए देखा गया है। सीता जी को प्रकृति का स्वरूप कहा गया है। यहां सीता शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है। यह नाम साक्षात ‘योगमाया‘ का है। सीता को भगवान श्रीराम का सानिध्य प्राप्त है, जिसके कारण वे विश्वकल्याणकारी हैं। राजा जनक ने उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, इसी कारण उनका नाम ‘जानकी’ पड़ा। सीता मां का चरित्र सभी के लिये मार्गदर्शक रहा है और आज भी प्रासंगिक है। सीता जी ही प्रकृति हैं वही प्रणव और उसका कारक भी हैं। सीता जी जग माता हैं और श्री राम को जगत-पिता बताया गया है। एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे हैं और सीता जी ही वही योगमाया है। वाल्मीकि रामायण तथा वेद-उपनिषदों में माता सीता के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में एक स्तुति में कहा गया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता जी आप हमारा कल्याण करें।
व्रत से मिलता है सौभाग्यवती का फल
सीता जयंती के उपलक्ष्य पर भक्तगण माता की उपासना करते हैं। परम्परागत ढंग से श्रद्धा पूर्वक पूजन अर्चन किया जाता है। सीता जी की विधि-विधान पूर्वक आराधना की जाती है। इस दिन व्रत करने को सबसे उत्तम बताया गया है। व्रतधारी को व्रत से जुडे सभी नियमों का पालन करना चाहिए। सुबह स्नान आदि से निवृत होकर माता सीता व श्री राम जी की पूजा उपासना करनी चाहिए। पूजन में चावल, जौ, तिल आदि का प्रयोग करना चाहिए। इस व्रत को करने से सौभाग्य सुख व संतान की प्राप्त होती है। मां सीता लक्ष्मी का ही रुप है। इसलिए इस दिन व्रत धारण करने से परिवर में सुख-समृ्द्धि और धन कि वृद्धि होती है। एक अन्य मत के अनुसार माता का जन्म क्योंकि भूमि से हुआ था, इसलिए वे अन्नपूर्णा कहलाती है। माता जानकी का व्रत करने से उपावसक में त्याग, शील, ममता और समर्पण जैसे गुण आते है। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है एवं राम-सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम ‘श्री सीतायै नमः‘ और ‘श्रीसीता-रामाय नमः‘ का उच्चारण करना लाभदायी रहता है।
सीता नवमी की पौराणिक कथाएं
सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई। अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था। इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है। सीता (जानकी) नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो। इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा करने के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा, किंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया। अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। उसने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। अतः सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजन-अर्चन करते है, उन्हें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य प्राप्त होते हैं। इस दिन जानकी स्तोत्र, रामचंद्रष्टाकम्, रामचरित मानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
जहां माता सीता धरती में समाई
कहते है जब मर्यादा पुरुषोंत्तम श्रीराम ने राज्याभिषेक पूर्व अश्वमेघ घोड़े को छोड़ा था तब मां जानकी के लव-कुश पुत्रों ने सीतामढ़ी में ही पकड़ा था। घोड़े के साथ चल रहे हनुमान को यहां न सिर्फ लवकुश पुत्रों से युद्ध करनी पड़ी बल्कि पराजय का भी सामना करना पड़ा। लवकुश पुत्रों ने हनुमान को यहां बंधक बना लिया। इससे क्रोधित होकर यहां हनुमान ने अपना शरीर विकराल कर लिया। लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह बालक सामान्य नहीं बल्कि श्रीराम के ही पुत्र है तो उन्होंने अपना रुप छोटा कर लिया। उसी विराट रुप में यहां विराजमान है हनुमान। मूर्ति की उंचाई 125 फीट है। मान्यता है कि इस रुप के दर्शन बाद भक्तों की अकाल मौत नहीं होती। उस जगह को सीता समाहित स्थल, सीतामढ़ी के नाम से जाना जाता है। मन्दिर के पास ही गंगा तट के समीप महर्षि वाल्मिकी की तपोस्थली है। यही पर सीताजी ने राम द्वारा निर्वासित जीवन बिताया था। लव कुश का जन्म स्थान भी यही है। इस पुण्यभुमि से सटकर ही परम सरल सलिला मा गंगा प्रवाहित होती है, जो उत्त्रवाहिनी है। कहते है त्रेता युग में जब भगवान् श्रीराम ने माता सीता का परित्याग किया तो वे यहीं आकर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं। यहीं पर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों लव-कुश को जन्म दिया। दोनों पुत्रो की शिक्षा-दीक्षा भी यही हुई। और जब श्रीराम ने राज्याभिषेक से पूर्व अश्वमेघ यज्ञ के लिए घोड़ा छोड़ा था तब उन घोड़ों को लव-कुष ने यहीं पर बंधक बनाया था। घोड़े को छुड़ाने जब श्रीराम लक्ष्मण, भरत, षत्रुघ्न समेत अपनी सेना के साथ यहां पहुंचे तो दोनों पुत्रों से महासंग्राम भी यहीं हुआ। इसकी प्रमाणिकता खुदाई के दौरान तीरों आदि के मिले अवषेष खुद ब खुद देते हैं। कहते है श्रीराम के आने से पूर्व उनके दूत चंद्रकेतु, शत्रुघ्न, भरत और लक्ष्मण तक को युद्ध में लवकुष ने परास्त कर दिया था। बाद में स्वयं अयोध्यापति श्रीराम के रणभूमि में आने पर महर्षि वाल्मीकि और माता सीता ने वास्तुस्थिति का ज्ञान कराया। बताते है अनजाने में लव-कुश भाइयों ने महाबली हनुमान को भी बंधक बना लिया था। जबकि बजरंग बली के अथाह बल और शक्ति से कौन परिचित नहीं है। अष्ट सिद्धि और नौ निधियों से युक्त राम भक्त हनुमान को युद्ध में हराना बड़े-बड़े शूरवीरों के बस की बात भी नहीं। लेकिन, यहां महाबली हनुमान को हार का सामना करना पड़ा था। और लवकुष ने माता जानकी के कहने पर उन्हें छोड़ा। जहां पर हनुमान को बंधक बनाया गया था उसी स्थान पर बजरंग बली की 108 फीट ऊंची प्रतिमा विराजमान है। कहते है यहा भी महाबलि हनुमान ने अपना भव्य रुप श्रीराम पुत्रों को दिखाया था। स्वामी जितेन्द्रानन्द तीर्थ उच्चतम न्यायालय दिल्ली मे भारत सरकार के वरिष्ठ अधिवक्ता थे। परमात्मा से आत्मानुराग होने के फलस्वरुप उन्होने सन्यास ग्रहण कर लिया। स्वामी जी हरिद्वार से गंगा किनारे-किनारे पदयात्रा करते हुए 1992 मे सीतामढ़ी पहुंचे। यहां उन्हें दिव्य व अलौकिक शक्ती का अहसास हुआ। स्वामी ने अपनी पदयात्रा को विराम देते हुए इस तपोभूमि मे एक विशाल एव अद्दभुत मन्दिर निर्माण करने का संकल्प लिया। स्वामी जी ने अपनी इस भावना से अपने परम मित्र तथा दिल्ली के प्रमुख उद्योगपति श्री सत्यनारायण प्रकास पुन्ज को अवगत कराई। उन्हे सीतामढ़ी आने के लिए प्रेरित किया। जब पुंज यहां पहुंचे तो इस आध्यात्मिक पुण्यभूमि से खासा प्रभावित हुए। इसके बाद इस तपोस्थली पर भव्य मन्दिर निर्माण का उन्होंने संकल्प लिया। 14 जून 1997 को राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की धर्मपत्नी विमला शर्मा ने सीता मन्दिर की आधारषिला रखी। इसके बाद तो देखते ही देखते एक विषाल मंदिर का रुप का ले लिया। कृत्रिम पहाड की गुफा मे शिव मन्दिर, हनुमान गुफा पर विश्व प्रसिद्ध हनुमान की 125 फीट उची मुर्ति, बाल उद्यान, गेस्ट हाउस, भव्य सीता मन्दिर बन गया। इसके बाद सीता समाहित स्थल ट्रस्ट के कर्ताधर्ता प्रकाष पुंज के अनुरोध पर तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने मर्यादा पुरुसोत्तम भगवान राम एवं माता सीता के विवाहोत्सव के दिन 1 दिसम्बर 2000 को मन्दिर का लोकार्पण किया। इस अवसर पर ट्रस्ट द्वारा आयोजित तीन दिवसीय लोकार्पण उत्सव मे प्रसिद्ध भजन गायक श्री अनूप जलोटा एव मशहुर अभिनेत्री हेमामालिनी द्वारा दुर्गा नृत्य आदि कार्यक्रम संपंन हुआ। स्वामी जितेंद्रानंद जी के असीम प्रयास से और श्री प्रकाश नारायण पुंज की मदद से ये स्थान पर्यटक स्थल के रूप में विख्यात है। हालांकि मंदिर निर्माण के दौरान ही स्वामी जितेन्द्रानंद की असामयिक मौत हो गयी थी। मंदिर परिसर में ही उनकी समाधिस्थल व मूर्ति मौजूद है।