चैतन्य, सजीवता व सांस्कृतिक एकीकरण के अग्रदूत है श्रीराम

मर्यादा
पुरुषोत्तम
भगवान
श्री
राम
अपने
पूरे
जीवन
में
समस्त
मानव
जाति
के
लिए
पाथेय
और
आदर्श
प्रस्तुत
किया।
श्री
रामचरितमानस
कोई
कहानी
नहीं
मानव
जीवन
का
सूत्र
है।
इसमें
सामाजिक
जीवन
जीने
की
कला
सिखाई
गई
है।
राज्याभिषेक
के
स्थान
पर
वनवास
का
आदेश
सुनकर
श्री
राम
तनिक
भी
विचलित
नहीं
हुए
अपितु
धर्म
का
पालन
करने
के
लिए
पत्नि
सीता
और
भ्राता
लक्ष्मण
के
साथ
कंटकाकीर्ण
वनमार्ग
पर
अग्रसर
हो
जाते
हैं
और
उत्तर
से
दक्षिण
तक
उन्होंने
जिस
आर्य
संस्कृति
की
पताका
स्थापित
की
वह
सेना
या
नाकेबंदी
के
दम
पर
नही
बल्कि
अनार्यों
के
सहयोग
से
ही
की.
उनका
दिल
जीतकर
उन्ही
के
बल
औऱ
सदिच्छा
जाग्रत
कर
किया।
राम
अकेले
ऐसे
राजा
है
जो
विस्तारवाद,
साम्राज्यवाद
और
नस्लवाद
को
नीति
और
नैतिकता
के
धरातल
पर
खारिज
करते
हुए
धर्म
का
पताका
लहराया।
उन्होंने
बताया
कि
सच्चाई
के
रास्ते
पर
चलकर
किसी
भी
अन्याय
को
हराया
जा
सकता
है।
मतलब
साफ
है
राम
सिर्फ
भारत
के
सांस्कृतिक
एकीकरण
के
अग्रदूत
ही
नहीं
चैतन्य
व
सजीवता
के
जीवंत
उदाहरण
है।
यह
अदभुत
नहीं
तो
और
क्या
है
कि
जनकपुर
में
सीताजी
को
पाकर,
दो
कुलों
(वंशों)
को
जोड़ा
तो
वनवास
काल
में
सीता
को
खोकर
अनेक
कुलों
को
एक-दुसरे
से
मिलाया।
राम
घर-बन
कहीं
भी
रहे
बस
एक-दुसरे
को
जोड़ते
ही
रहे

सुरेश गांधी
रामनवमी का व्रत हमें
भगवान श्रीराम से जुड़ने का
अवसर प्रदान करता है। इस
व्रत के माध्यम से
भक्त भगवान को अपना मन
समर्पित कर देता है
और तब प्राणी को
आराम का अनुभव होता
है। श्रीराम आज भी उतने
ही प्रासंगिक हैं। क्योंकि उनकी
कार्यप्रणाली का ही दूसरा
नाम-प्रजातंत्र है। उनकी कार्यप्रणाली
को समझने से पहले श्रीराम
को समझना होगा। श्रीराम यानी संस्कृति, धर्म,
राष्ट्रीयता और पराक्रम। सच
कहा जाए तो अध्यात्म
गीता का आरंभ श्रीराम
जन्म से आरंभ होकर
श्रीकृष्ण रूप में पूर्ण
होता है। एक आम
आदमी बनकर जीवनयापन करने
के लिए जो तत्व,
आदर्श, नियम और धारणा
जरूरी होती है उनके
सामंजस्य का नाम श्रीराम
है। एक गाय की
तरह सरल और आदर्श
लेकर जिंदगी गुजारना यानी श्रीराम होना
है। एक मानव को
एक मानव बनकर श्रेष्ठतम
होते आता है-इसका
साक्षात उदाहरण यानी श्रीराम। नर
से नारायण कैसे बना जाए
यह उनके जीवन से
सीखा जा सकता है।
कहा जा सकता है
राम सिर्फ एक नाम नहीं
हैं। राम हिन्दुस्तान की
सांस्कृतिक विरासत हैं। राम हिन्दुओं
की एकता और अखंडता
का प्रतीक हैं। राम सनातन
धर्म की पहचान है।
धर्मस्वरूप राम -सबको जोड़ता
है, मिलाता है! राम ने
अपने व्यक्तित्व के द्वारा आदि
से अंत तक धर्म
का सही स्वरूप उपस्थित
किया है।

श्रीराम इस संसार को
राक्षसों से मुक्त करने
के लिए अयोध्यापति दशरथ
के घर आएं। उनका
सारा जीवन मानव समाज
की सेवा को समर्पित
रहा। युगों बाद भी राम
से जुड़े आदर्श आज
हिन्दुओं के ही नहीं
बल्कि सारे मानव समाज
के आदर्श हैं। एक राजा
ने तीन विवाह कर
कुल को कलह में
झोक दिया। भाई भरत ने
भाई की पादुकाओं से
ही राज चलाया। सीता
हरण की पीड़ा, लंका
के दहन से रावण
के घमंड का चूर
होना, अंतिम समय में लक्ष्मण
का रावण से ज्ञान
प्राप्त करना आदि कुछ
ऐसे उदाहरण है, जिसमें आज
की राजनीति, समाज और संयुक्त
परिवार बहुत कुछ सीख
सकते हैं। राम के
नाम, रूप, धाम, लीला,
आचरण में सिर्फ और
सिर्फ एक-दुसरे को
जोड़ने की दिव्य शैली
विद्यमान है। चाहे बाललीला
हो या वनलीला, या
फिर जनकपुर की यात्रा, वन
यात्रा में फूलों भरा
मार्ग हो या कांटों
भरा, भगवान राम ने अपने
चरित्र से सबकों तारा
है, या यूं कहें
मिलाया है। भारतीय संतों
व चिंतकों ने विश्वास व्यक्त
किया है कि जब
धर्म की सारी मर्यादाएं
टूट जायेंगे तो भी राम
का चरित्र सारे समाज को
मिलाने के लिए सदा
सर्वदा प्रस्तुत रहेगा।
‘भजेउ राम
सम्भु
धनु
भारी।
फिर
तो
-सिय
जय
माल,
राम
उर
मेली।।
अब
तो
मिले
जनक
दशरथ,
अति
प्रीति।
सम
समधी
देखे
हम
आजू।।
निमिकुल और रघुकुल का
विरोध मिटाकर, उत्तम नाता जोड़कर, उन्हे
राम ने समधी बना
दिया। परशुराम को शांत कर
ब्राम्हण और क्षत्रिय के
बीच का संघर्ष, आक्रोश,
अश्रद्धा को राम ने
समाप्त कर दिया। वनपथ
के दौरान राम ने निषाद
को हृदय से लगाकर
उपेक्षा, हीनभावना, निम्नकुल के प्रति छुआछूत
जैसे विचार व भेदभावों को
राम ने मिटा दिया।
राम ने वनचरों को
सभ्य बनाकर उन्हें श्रेष्ठ लोगों से मिला दिया।
वन से लौटने के
बाद राम का अयोध्या
में पशु कुलाधम का
मानवकुल श्रेष्ठ से मिलन, सर्वोपरि
मिलन है। राम के
व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है
कि वह दोनों को
एक दूसरे के इतना निकट
ला दिए। वह चाहते
तो अकेले रावण को मारकर
सीता को प्राप्त कर
सकते थे। लेकिन उन्होंने
लंका प्रवेश के दौरान चाहे
सेतु निर्माण हो या रावण
द्वारा दण्डित और देश से
निष्कासित विभीषण की सलाह, समाज
द्वारा उपेक्षित एवं तिरस्कृत वानर
सुग्रीवादि और वनवासियों की
सेवा श्रम सहायता लेकर
ही श्रीरामजी ने रावण कुल
का अंत किया।

हनुमानजी को भक्ति एवं
शक्ति और उपासकों को
अनुरक्ति एवं युक्ति देकर,
दोनों को जोड़ने का
काम रामजी ने ही किया
है। श्रीरामजी के कर्म, धर्म,
व्यहार, परमार्थ इस बात के
गवाह है कि हर
अवस्था, हर दशा, हर
परिस्थिति और प्रत्येक देश
काल में राम का
क्रियाकलाप चरितार्थ हुआ है। यह
अदभुत नहीं तो और
क्या है कि जनकपुर
में सीताजी को पाकर, दो
कुलों (वंशों) को जोड़ा तो
वनवास काल में सीता
को खोकर अनेक कुलों
को एक-दुसरे से
मिलाया। राम घर-बन
कहीं भी रहे बस
एक-दुसरे को जोड़ते ही
रहे। आत्मा को परमात्मा की
प्राप्ति श्रीराम कृपा से ही
संभव है। भौतिक विज्ञान
से अध्यात्म विज्ञान का सामंजस्य श्रीरामजी
के व्यक्तित्व से ही सहज
सम्भव हुआ है। आज
जो राम को यथार्थ
रूप में जानता, भजता
और पाता है वही
जुड़ता और जोड़ता है
सबसे। कहने का अभिप्राय
है अलगाव, बिलगाव और बिखराव आदि
टूटन और घुटन से
बचने के लिए राम
के आचरण को ही
अपनाना होगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद, रूढिवाद, भाषावाद और आतंकवाद जैसे
अनेकों समाजघातीवाद, जो सिर उठा
रहें हैं, उनके आक्रोश
को भी राम का
व्यक्तित्व ही समाप्त कर
सकता है। राम ने
कभी छोटे-बड़े उंच-नीच का भेदभाव
नहीं किया। महल का, कुटियों
के लिए थोड़ा भी
भेदभाव चुभ जाता था
राम को। उत्तम भोजन,
कीमती वस्त्र और सुंदर निवास
का सुख सबको सुलभ
हो, राम यही चाहते
थे। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के लिए
यह कार्य असम्भव न था। कौशल्या
साम्राज्ञी थी उत्तरकौशल की।
उनका जीवन बहुत
दुखमय था. वे कभी
सुखी नहीं रहे. राम
को जल-समाधि लेकर
अपना जीवन समाप्त करना
पड़ा. राम के दुख
से हमें सबक लेनी
चाहिए कि जिसने इतना
दुख झेलने के बाद भी
उफ्फ तक नहीं किया
हो। अगर राम की
प्रासंगिकता बरकरार रखनी है, तो
हमें राम के नाम
को केवल भक्ति के
आधार पर नहीं, बल्कि
उनके जीवन के आधार
पर आधुनिक जीवन-दर्शन से
संबद्ध करके देखना होगा।
भगवान श्री विष्णुजी के
बाद श्री नारायणजी के
इस अवतार की आनंद अनुभूति
के लिए देवाधिदेव स्वयंभू
श्री महादेव 11वें रुद्र बनकर
श्री मारुति नंदन के रूप
में निकल पड़े। यहां
तक कि भोलेनाथ स्वयं
माता उमाजी को सुनाते हैं
कि मैं तो राम
नाम में ही वरण
करता हूं। जिस नाम
के महान प्रभाव ने
पत्थरों को तारा है।
लोकजीवन के अंतिम यात्रा
के समय भी इसी
‘राम नाम सत्य है’
के घोष ने जीवनयात्रा
पूर्ण की है। और
कौन नहीं जानता आखिर
बापू ने अंत समय
में ‘हे राम’ किसके
लिए पुकारा था। आदिकवि ने
उनके संबंध में लिखा है
कि वे गाम्भीर्य में
उदधि के समान और
धैर्य में हिमालय के
समान हैं। राम के
चरित्र में पग-पग
पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के
दर्शन होते हैं. जी
हां, भक्ति की बात बहुत
होती है, लेकिन राम
के जीवन पर बिल्कुल
बात नहीं होती है.
राम का पूरा जीवन
दुखमय बीता है, लेकिन
फिर भी वे अपने
निर्वाह-कर्तव्य से आजीवन डिगे
नहीं.
राम जैसा दुख
इस दुनिया में किसी ने
नहीं झेला. राम के जीवन
को देखें आप, तो बचपन
से ही वे दुख
में थे. वे पैदा
हुए और थोड़े से
बड़े हुए, तो विश्वामित्र
उन्हें राक्षसों का संहार करने
के लिए लेकर चले
गये. अपने उस पिता
से बिछड़ गये, जिसने
राम के बिना रह
पाने की कभी कल्पना
भी नहीं की थी.
सीता से शादी हो
गयी, तो उसके कुछ
समय बाद ही उन्हें
वनवास जाना पड़ा. एक
बार फिर से वे
अपने पिता से बिछड़
गये और राज-पाट
छोड़कर जंगल में रहने
चले गये. कुछ समय
बाद रावण ने सीता
को उठा लिया. राम
अपनी पत्नी से बिछड़ गये
और उसके लिए उन्हें
लंका जाकर युद्ध करना
पड़ा. वहां से जब
वापस लौटे, तो थोड़ा-सा
जय-जयकार हुआ, लेकिन फिर
उन पर अभियोग लगा
दिया गया कि उन्होंने
सीता का निष्कासन किया.
इस वियोग में वे कितना
तड़पे होंगे, इसका किसी को
अंदाजा नहीं हो सकता.
राम की आदर्श प्रासंगिकता
कैसे बरकरार रहे और अगली
पीढ़ी को कैसे समृद्ध
करे, इस पर हमें
विचार करना चाहिए. हमारे
पास सशक्त माध्यम हैं, जिनके जरिये
राम के आदर्श को
लोगों तक पहुंचाया जा
सकता है. राम के
संदेश को जन-जन
तक पहुंचाने को हमें अपना
कर्तव्य समझना चाहिए. सर्वगुण सम्पन्न राम सबको प्रिय
लगते थे ही। दशरथ-कौशल्या के राम प्राणाधार
थे। ममतामयी मां भला कैसे
इंकार कर सकती थी-पुत्र के इस प्रस्ताव
को। ‘अब तो बंधु
सखा संग लेहि बोलाईं
और अनुज सखा संग
भोजन करही‘। यह
नित्य का नियम था
राम का। छोटों को
बड़ों से और अमीरों
को गरीबों से जोड़ने का
यह पहला अभियान था,
बाल राम का। उसके
बाद से तो फिर
नियम ही निमय बनने
लग गए, वह नियम
जो आज भी प्रासंगिक
है।
सियाराम
मय
सब
जग
जानी।
करहुं
प्रणाम
जोरि
जुग
पानी।।
अर्थात राम के निहितार्थ
को समझने की जरूरत है।
हिंदू धर्म शास्त्र में
भगवान के तीन प्रमुख
रूप माने गये हैं-
ब्रह्मा, विष्णु और महेश. इन
तीनों में विष्णु के
ही अवतार बहुत हुए हैं.
राम भी विष्णु के
ही अवतार हैं. चूंकि वे
विष्णु के अवतार हैं,
इसलिए एक तरह से
वे विष्णु ही हैं. धार्मिक
और आध्यात्मिक लोग राम के
प्रति वैसी ही आस्था
रखते हैं, जैसी आस्था
विष्णु के प्रति है.
और भारत के सर्वसाधारण
जनमानस में राम आस्था
के प्रतीक हैं. लेकिन, राम
केवल आस्था तक सीमित नहीं
हैं, बल्कि वे तो असीम
हैं. यही वजह है
कि जो रामकथा है,
उस पर लगभग तीन
सौ पुस्तकें लिखी गयी हैं
और विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी
हैं. यहां तक कि
उर्दू और फारसी में
भी रामकथा पर किताबें लिखी
गयी हैं. उर्दू में
तो कई किताबें हैं,
लेकिन फारसी में केवल एक
ही किताब है, और वह
हिंदुस्तान में ही लिखी
गयी है. वह है-
मसीही रामायण. मसीही नाम से भ्रम
होता है कि शायद
यह किसी ईसाई ने
लिखी होगी, लेकिन इसे मुल्ला वसी
ने लिखी थी. जामिया
मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में
लगभग सारी उर्दू रामायणें
मौजूद हैं. अगर तीन
सौ से ज्यादा रामकथाएं
हैं, तो इससे अंदाजा
लगाया जा सकता है
कि राम के प्रति
कितना श्रद्धा है, कितनी अकीदत
है, और कितना विश्वास
लोगों में है. सभी
रामकथाओं पर बात करना
तो मुश्किल है, लेकिन वाल्मिकी
के रामायण पर चर्चा की
जा सकती है.
श्री राम जी
की अवतार यात्रा का सर्वप्रथम भाग
उनका शिष्योचित व्यवहार है, जिसे उन्होंने
पूर्ण श्रद्धा से निभाया, पहले
गुरु वशिष्ठ के आश्रम में
तत्पश्चात गुरु विश्वामित्र के
साथ उनके यज्ञ के
आयोजन को सफल बनाने
के अतिरिक्त उन्हीं की आज्ञा से
श्रीराम ने जनक जी
की प्रतिज्ञा का मान रखते
हुए धनुष भंग किया
व सीताजी के साथ स्वयंवर
भी किया। इसके पश्चात एक
पुत्र के रूप में
पिता के वचन की
मर्यादा रखने के लिए
सहर्ष वन को प्रस्थान
कर गए। यहाँ सीता
माता का त्याग भी
उल्लेखनीय है जो इस
यात्रा में उनकी सहचारिणी
बनीं एवं लक्ष्मण जी
का भी जो उनके
सेवक रूप में उनके
साथ रहे. यह दोनों
उनके अवतार कालीन यात्रा को आदर्श रूप
में परिपूर्ण करने में सहायक
रहे। एक आदर्श भाई,
एक आदर्श मित्र, एक आदर्श सेवक,
एक आदर्श पति बनकर हम
वर्तमान में रावण का
वध कर सकते हैं।
वहीं मुखिया जी ने कहा
आज का व्यक्ति डॉक्टर,
वकील, अभिनेता, नेता बन गया
है, लेकिन मानव नहीं बन
सका। जब तक हम
मानव नहीं बन सकते
असुरी शक्तियों का सामना नहीं
कर सकते। राम के दूत
बनकर गए अंगद को
जब बन्दी बनाकर रावण के दरबार
मे लाया गया तब
विभीषण ने यह कहकर
राजनयिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया,
’नीति विरोध न मारिये दूता“
आज पूरी दुनियां में
राजनयिक सिद्धान्त इसी नीति पर
खड़े है। जिस लोककल्याणकारी
राज्य का शोर हम
सुनते है उसकी अवधारणा
भी हमें राम ने
ही दी है। वंचित,
शोषित, वास्तविक जरूरतमंद के साथ सत्ता
का खड़ा होना राम
राज की बुनियाद है।
वह राज्य में अमीरों से
ज्यादा टैक्स वसूलने और गरीबों को
मदद की अर्थनीति का
प्रतिपादन करते है। राम
आज चीन और अमेरिका
की नव साम्राज्यवादी नीतियों
के लिए भी नैतिक
आदर्श है। राम ने
बाली को मारकर उसका
राज पाट नही भोगा।
इसी तरह तत्सम के
सबसे प्रतापी अनार्य राजा रावण के
वध के बाद सारा
राजपाट विभीषण को सौंप दिया.
वह चाहते तो किष्किंधा और
लंका दोनों को अयोध्या के
उपनिवेश बना सकते थे।
साम्रज्यवाद की घिनोनी मानसिकता
के विरुद्ध भी राम ने
एक सुस्पष्ट सन्देश दिया है। मानुष
लीला में श्रीराम अन्याय,
असत्य और हिंसा का
प्रतिरोध करते हुए धर्म
के प्रति समर्पित छवि वाले एक
ऐसे अनोखे व्यक्तित्व को रचते हैं
जो जीवन में बार-बार निजी-हित
और लोक-हित के
बीच चुनाव के द्वद्व की
चुनौती वाली विकट परिस्थितियों
का सामना करता है। उनके
जीवन के घटना क्रम
को देखें तो स्पष्ट हो
जाता है कि तात्कालिक
आकर्षणों और प्रलोभनों को
किनारे करते हुए वह
व्यक्तित्व धर्म मार्ग पर
अडिग रहते हुए हर
कसौटी पर बेदाग और
खरा उतरता है। व्यापक लोकहित
या समष्टि का कल्याण ऐसा
लक्ष्य साबित होता है कि
उसके आगे सब कुछ
छोटा पड़ जाता है।
राज-धर्म का निर्वाह
करते हुए श्रीराम एक
मानक स्थापित करते हैं और
रामराज्य कल्याणकारी राज्य व्यवस्था का आदर्श बन
गया। महात्मा गांधी भी राम-राज्य
के विचार से अभिभूत थे।
आज भी भारत की
जनता अपने राज नेताओं
से ऐसे ही चरित्र
को ढूढती है जो लोक
कल्याण के प्रति समर्पित
हो। छल-छद्म वाले
नेताओं की भीड़ में
लोग दृढ़ और जनहित
को समर्पित नेतृत्व की तलाश कर
रहे हैं। मानव इतिहास
में राम-कथा की
जितनी व्याप्ति है वैसी व्याप्ति
का श्रेय विश्व में शायद ही
किसी अन्य नायक को
मिला हो। श्रीराम की
कथा के सूत्र वैदिक,
बौद्ध जातक कथा, प्राकृत
के जैन ग्रंथ पउम
चरिय में भी मिलते
हैं। राम राज्य यानी
पारदर्शी राज्य। ऐसा राज्य जिसमें
कोई दरिद्र, दुखी और दीन
नहीं हो। रामायण में
लिखा है कि राम
राज्य में कोई बीमार
नहीं होता था। पिता
के सामने पुत्र की मृत्यु नहीं
होती थी। स्त्रियां पतिव्रता
और सदा सुहागन होती
थी। लोग हृष्ट-पुष्ट
और धार्मिक होते थे। स्वधर्म
पर चलने वाली प्रजा
केवल राजा से नहीं
बल्कि परस्पर भी प्रेम करती
थी। श्रीराम के राज में
महामारी और अकाल नहीं
होते थे। दैहिक, दैविक
और भौतिक तापों से प्रजा मुक्त
थी।
राम को हर
व्यक्ति अपने नजरिये से
देखता है. राम का
एक रूप वह है,
जिसमें धार्मिक नजरिये से उन्हें अवतार
माना जाता है. वह
सही है. लेकिन, सच
यह भी है कि
उन्हें मनुष्य के भीतर एक
आदर्श पुरुष के रूप में
देखना चाहिए। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है,
यानी जो पुरुषों में
भी उत्तम हो. जब हम
मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं, तब
पुरुष शब्द का बोध
होता है और पुरुष
एक पुलिंग शब्द है. राम
को अगर पुरुष कहा
गया है, इसका अर्थ
है कि वे मनुष्य
हैं. क्योंकि ईश्वर न तो पुरुष
है, न ही स्त्री
है. हालांकि, हम लोग ईश्वर
को भी पुलिंग की
ही संज्ञा देते हैं, स्त्रीलिंग
की नहीं. इसलिए राम अगर मर्यादा
पुरुषोत्तम हैं, तो इसका
अर्थ है कि वे
पुरुष हैं, पर हां,
पुरुषों में भी वे
उत्तम हैं. अब अगर
राम और पुरुष, इन
दोनों को आमने-सामने
रखकर देखें, तो राम ने
पुरुष के सभी रूपों
को जिया है. जैसे
कि- पुत्र के रूप को,
भाई के रूप को,
पति के रूप को,
पिता के रूप को,
और अगर घर में
कोई और भी है,
तो उस रिश्ते के
रूप को भी उन्होंने
जिया है. और सभी
रूपों में उनका जीवन
एक आदर्श पुरुष का जीवन रहा
है. यही वह तत्व
है, जो उनकी प्रासंगिकता
को हमेशा बरकरार रखता है.
कहते हैं कि
रामनवमी के दिन ही
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की
रचना का श्रीगणोश किया
था। श्रीराम ने अपने जीवन
का उद्देश्य अधर्म का नाश कर
धर्म की स्थापना करना
बनाया। इसीलिए नवमी को शक्ति
मां सिद्धिदात्री के साथ शक्तिधर
श्रीराम की पूजा की
जाती है। देखा जाय
तो अवतार शब्द का अर्थ
है ऊपर से नीचे
उतरना। अवतार लेने से अभिप्राय
है ईश्वर का प्रकट रूप
में हमारी आंखों के सामने लीला
करना। श्रीरामचरित मानस में जिन
राम की लीलाओं का
वर्णन किया गया है,
वह अवतारी हैं। धर्मग्रंथों में
अवतारों के पांच भेद
बताए गए हैं, जो
इस प्रकार हैं- पूर्णावतार, अंशावतार,
कलावतार, आवेशावतार, अधिकारी अवतार। जिनमें से रामावतार को
ग्रंथों में पूर्णावतार माना
गया है। उनके अवतार
का मुख्य उद्देश्य मर्यादा की स्थापना था,
अतः श्रीराम मार्यादा-पुरुषोत्तम कहलाए। सिर्फ भगवान राम का नाम
जपते रहने में नहीं,
वरन इसके साथ सात्विक
भाव से अपने कर्म
में रमना ही प्रभु
राम की सच्ची भक्ति
है। राम हमारे सत्कर्मो,
परिश्रमशीलता, मर्यादा, प्रेम और परोपकारी भाव
में हैं। राम का
अर्थ है- रम जाना।
लीन हो जाना। जीवन
की सारी लौकिकता के
मध्य रहकर भी उससे
निस्पृह हो जाना और
अपनी चेतना को अपने लक्ष्य
पर केंद्रित कर देना।
एक
धोबी की टिप्पणी पर
गर्भवती सीता को निष्कासित
करना आज कौन स्वीकार
करेगा। वहीं सीता की
उदारता-श्रद्धा की गहनता अग्नि
परीक्षा काल में भी
और निष्कासन काल में भी
हृदय-स्पर्शी बनी रही।
कुबेरनाथ
राय की पुस्तक ‘रामायण
महातीर्थम्’ मेें राम के
वैज्ञानिक स्वरूप का भी गहन
चिन्तन है। ‘यथा पिण्डे
तथा ब्रह्माण्डे’ के सिद्धान्त की
भी विवेचना की है। जैसे-
अहल्या जम्बूदीप की जड़भूत गायत्री
की प्रतीक है (अ से
ह तक – पूरी वर्णमाला
जिसमें लीन हो अर्थात्
वाक् रूपा ब्राह्मणी शक्ति;
अथवा जो अहनि (दिन)
में लय हो जाये-
उषा और सन्ध्या।) इस
जड़भूत ब्राह्मी को सविता के
अवतार राम द्वारा चेतन
किया गया। रामायण के
प्रारंभिक द्वार पर यह कथा
इसलिए भी है कि
मध्याह्न कालीन सावित्री सीता के सम्पर्क
में आने से पूर्व
प्रात: गायत्री की प्रतिरूप (अहल्या)
से राम का जुड़ना
भी आवश्यक था।इस एक उद्देश्य को
ही शाश्वत स्वरूप दिया। इसके आगे शेष
सबकुछ नश्वर था। राजपाट-व्यक्ति-समाज। राजनीति-कूटनीति में राम प्रवीण
थे। पौरुष के प्रतिबिम्ब थे।
कृष्ण में परोक्षवाद की
झलक अधिक थी। कृष्ण
की तरह राम ने
अपनी दिव्यता का परिचय स्थान-स्थान पर नहीं दिया,
किन्तु जब भी दिया,
मानो भूचाल आ गया हो।
महापुरुष
जितने भी होते हैं,
जितने भी अवतार जन्म
लेते हैं, वे देव-असुर सम्पदा सहित
‘प्रोग्राम’ लेकर आते हैं।
उनके कार्यों में परिवर्तन संभव
नहीं है। न राम
कुछ अलग कर सकते
हैं, न ही सीता
कुछ बदल सकती है।
न कैकेयी, न रावण, न
बाली, न ही सुग्रीव।
हनुमान तो चिरंजीवी हो
गए। राम को साधारण
मानव की भांति देखना
पहली जरूरत है। सीता को
भारतीय धर्मपत्नी के रूप में
(शास्त्र सम्मत) देखना होगा। चौदह वर्ष वन
में राम के साथ
रहना भी सीता का
ही निर्णय था और अग्नि
परीक्षा का निर्णय भी
सीता का ही था।
राम के किसी भी
निर्णय के लिए सीता
ने कभी उलाहना नहीं
दिया। न ही लव-कुश को राम
के विरुद्ध कोई ताड़ना का
भाव जताया।
राम
यदि साधारण मानव की तरह
सीता के साथ व्यवहार
कर रहे थे, तभी
तो सीता के साहस-सतीत्व-मानव रूप मर्यादा
को प्रकट होने का (अभिव्यक्ति
का) अवसर मिला। ‘‘यदि
आप मुझे स्वीकार करने
को तैयार ही नहीं हैं,
तो मेरा जीने का
अर्थ ही क्या रह
जायेगा।’’ और सीता ने
लक्ष्मण को चिता तैयार
करने का आदेश दे
दिया। न राम से
अनुनय-विनय की, न
ही अन्य से सहायता
मांगी।स्त्री के लिए अत्याचार
जीवन का अंग है।
शेक्सपियर हेमलेट में लिखते हैं—‘हे दौर्बल्य! तुम्हारा
ही नाम स्त्री है।’
सीता के अपहरण का
कारण लक्ष्मण रेखा पार करना
ही तो था। वह
साधु को निराश नहीं
लौटाना चाहती थी- भले ही
राम के आदेश की
अवज्ञा करनी पड़े। जबकि
सीता भी अवतार है।
राम में स्वयं आहुत
है, अत: स्वतंत्र अस्तित्व
को नकार चुकी है।
मानव रूप में, लोक
मर्यादा में जीने का
उदाहरण बनकर आई है।
धोबी की टिप्पणी सुनकर
कौन पति आहत नहीं
होगा। वह भी राजा-प्रजा का पिता!!
सीता
ने साहसपूर्वक वंश मर्यादा का
उदाहरण पेश किया। लव-कुश ने भी
मां-बाप की भूमिका
को परिस्थिति-जन्य ही माना।
पुत्रों में राम के
बीज को ही पल्लवित
किया। तभी तो वे
खेल-खेल में राम
के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े
को रोक सके। इस
बात को साधारण धोबी
कैसे समझता कि राक्षसों के
बीच वर्षों रहकर भी सीता
सुरक्षित थी। राम पौरुष
और सीता शील का
प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
हम भी यदि राम
को साधारण मानव रूप में
देखें तो अर्थ बदल
जाएंगे। हम राम को
अवतार से कम देखना
ही नहीं चाहते। सीता
के एक आह्वान पर
पृथ्वी देवी उन्हें लेने
आ गई, और सीता
पाताल में समा गई!
राम धन्य हुए या
सीता?
राम
अवतार के समय सूर्य
अभिजीत नक्षत्र में था। कृष्ण
का जन्म पाताल में
निशीथ–बिन्दु पर मध्यरात्रि में
हुआ। निशीथे तम उद्भूते जायमाने
जनार्दने। यहां कृष्ण को
‘कृष्ण-सूर्य’ कहा जा सकता
है। सोम की 16 कलाएं
रात्रिसूर्य/कृष्णसूर्य की मधुकलाएं हैं।
मधुकलाओं द्वारा सोम मण्डल रचने
वाला चन्द्रमा कहा जाता है।
श्रुति कहती है- ‘‘तुम
इन्द्र के ओज हो,
इन्द्र के सामर्थ्य हो।
हम तुम्हें जिष्णुयोग की उपलब्धि के
लिए ब्रह्मयोग से जोड़ते हैं।’’
अत: इन्द्र रूप राम को
ब्रह्मयोग (ज्ञान), क्षत्रयोग (शस्त्र ज्ञान), ऐन्द्रयोग (पराक्रम), सोमयोग (माधुर्य), वरुणयोग (ऋत) से मंत्रों
द्वारा जोड़ा जाता है। इसी
कारण रामचरित में जिष्णुयोग से
‘पुरुषोत्तम’ शब्द प्रतिपादित किया
गया है।
राम
की वीरता में नौ गुणों
की स्थापना है- विजिगीषा, रक्षा,
दीप्ति, प्रचोदन (प्रेरणा), करुणा, पुरुषार्थ, शबलता, भूमा, और ऐश्वर्य। जहां
जैसी आवश्यकता पड़ी, वैसी ही भूमिका
प्रकट हुई। कैकयी संवाद,
भरत संवाद, केवट संवाद, बाली
या फिर शबरी संवाद,
समुद्र पर क्रोधित-आग्नेय
स्वरूप, सीता-विरह विलाप
भी और सीता के
लौट आने पर ठुकरा
देना भी। न राग,
न द्वेष, धरती फटी, सीता
समा गई, और राम?
राम
शब्द में ‘रा’ अग्नि
सूचक है जो कि
रावण में भी था।
किन्तु ‘म’ की भूमिका
रावण के ‘वन’ को
जलाने के ही काम
आई। यूं तो रामायण
को पारिवारिक जीवन का महाकाव्य
कहा जाता है, भोग-त्याग के मूल्यों की
प्रति भी है, पत्नी
के महत्त्व को बढ़ाया भी
है और शंकित रूप
में निम्न कोटि में भी
डाला है। राम को
सूर्य/इन्द्र के स्वरूप में
देखने की आवश्यकता है।
सूर्य जगत का आत्मा
है, पिता है, अग्नि-वायु-आदित्य (वैश्वानर)
भी अग्नि के ही घन-तरल-विरल रूप
हैं। घनात्मक रूप ही सत्य
(सगुण) सृष्टि का विकास है।
सूर्य न केवल विष्णु
का अवतार है, बल्कि साक्षात
विष्णु की (श्रद्धा सोम
रूप) सविताग्नि में आहुति से
उत्पन्न हुआ (पुत्र) है।
निवेशयन्नमृतं
मर्त्यं च (ऋ.1.35.2)—सबको
अपने-अपने कर्म में
लगाने वाला गृहस्थ धर्म
का आदर्श उदाहरण भी है। अनासक्त
पुरुषार्थ योग रामावतार का
आदर्श कहा जाता है।
आधिदेविक धरातल पर देवासुर संग्राम
को भी प्रतिबिम्बित करता
है। सूर्य ही सत्य नारायण
विष्णु है। अग्नि-सोमात्मक
जगत के प्रथम प्रतीक
है। इक्ष्वाकु वंश सूर्यवंशी था।
सूर्य ऋत का नियामक
है सविता रूप में और
पारमेष्ठ्य ऋत का अनुगामी
है। रावण ऋत को
स्वीकार नहीं करता था,
अत: अनृत का प्रतीक
था। सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्या।
(शत.ब्रा. 3.9.4.1)
सविता
वै देवानां प्रसविता। (शत.ब्रा. 1.1.2.17) सविता
की इस प्रसविनी शक्ति
(श्री) का वरुण की
सृष्टि विरोधी तमस शक्ति द्वारा
अपहरण करने की कुचेष्टा
और परिणाम स्वरूप देवासुर-संग्राम।इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्
मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। (गीता 4.1)
-मैंने
इस अविनाशी योग को सूर्य
से कहा था। सूर्य
ने मनु से और
मनु ने राजा इक्ष्वाकु
से कहा।
राम
इक्ष्वाकु वंश के थे।
गीता ज्ञान त्रेतायुग में भी उपलब्ध
था। क्यों नहीं—राम और
कृष्ण बाहर दो थे,
भीतर तो एक ही
थे। दोनों विष्णु के ही अवतार
थे। राम आग्नेय स्वरूप-सूर्यवंशी थे, तो कृष्ण
सौम्यता के प्रतिमान-चन्द्रवंशी
थे। अग्नि-सोम ही तो
सृष्टि के मूल तत्त्व
हैं। दोनों के अवतार का
भी एक ही कारण
रहा—यदा यदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत….।
अद्भुत
रूप, सौंदर्य, पराक्रमी, ज्ञान, आदर्श और संस्कार के
प्रतिमान हैं मर्यादा पुरुषोत्तम
श्रीराम। जहां राम हैं,
वहां पर सत्य है,
धर्म है, मंगल है
और विजय है। ‘राम
राम रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।’ शास्त्रों के अनुसार राम
का नाम भगवान विष्णु
के हजार नामों के
बराबर महान है, यह
महिमा है प्रभु श्री
राम के नाम की।
‘राम भरोसो राम बल, राम
नाम बिस्वास। सुमिरत सुभ मंगल कुसल,
मांगत तुलसीदास ॥’ तुलसीदास जी
यही कामना करते हैं कि
उनका राम के नाम
पर ही भरोसा रहे,
राम के बल की
ही प्राप्ति हो क्योंकि राम
नाम के स्मरण मात्र
से ही समस्त मंगल,
शुभ और कुशल की
प्राप्ति होती है।
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कल
रामनवमी है, प्रभु श्रीराम
का आविर्भाव दिवस। रामनवमी का त्योहार चैत्र
मास के शुक्ल पक्ष
की नवमी को मनाया
जाता है। गोस्वामी तुलसीदास
ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में
श्रीराम जन्म का बहुत
ही सुन्दर वर्णन किया है- भये
प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी
अद्भुत रूप बिचारी॥ राम
के नाम की महिमा
अनंत है, उनका नाम
स्वयं में एक महामंत्र
है और उनके नाम
जाप से ब्रह्मज्ञान की
प्राप्ति स्वत: ही हो जाती
है। राम के नाम
में अलौकिक शक्ति है, जो जीवन
की सारी नकारात्मकता और
दुखों का अंत कर
देती है। राम का
जीवन एक आदर्श है,
उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है,
उन्होंने कभी अपने जीवन
में मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं
किया। राम तो स्वयं
भगवान थे। फिर भी
सदैव उन्होंने अपने माता-पिता
और गुरु की आज्ञा
का पालन किया। जो
भी आज्ञा उन्हें मिली, उसे उन्होंने सहर्ष
स्वीकार किया और कभी
भी कोई सवाल नहीं
किया। जब बात आई
चौदह वर्ष के वनवास
की, तो वे भी
सियावर राम ने मुस्कुराकर
अपनी माता की आज्ञा
मानकर स्वीकार किया, यह उनकी महानता
का ही सूचक है।
प्रभु
श्रीराम ने मर्यादा का
पालन करते हुए एक
आदर्श जीवन जीया, उनके
जीवन से प्रेरणा लेकर
हम भी अपने जीवन
को सार्थक बना सकते हैं।
सर्वज्ञाता और सर्वव्यापी ईश्वर
होते हुए भी उन्होंने
अपने जीवन में अनेक
कठिनाइयों का सामना किया,
वे तो ईश्वर हैं
पर जब मानव रूप
लेकर वे इस धरा
पर आए तो उन्होंने
जीवन की उन सारी
जटिलताओं का सामना किया
जो एक आम मनुष्य
अपने जीवन में करता
है। श्रीराम परम योद्धा थे,
रावण का वध करके
उन्होंने त्रेता युग में धर्म
की स्थापना की और यह
दिखाया कि सदैव अधर्म
पर धर्म की ही
विजय होती है। प्रभु
श्रीराम के जीवन से
प्रेरणा लेकर हम भी
अपने जीवन के जो
रावण हैं जैसे काम,
क्रोध, लोभ, मोह का
वध कर सकते हैं।
ये ऐसे दानव हैं,
जो हमारे जीवन की प्रगति
का रास्ता रोकते हैं, अगर हम
अपने जीवन में आध्यात्मिक
उन्नति करना चाहते हैं
तो हमें सबसे पहले
इन्हीं दानवों से युद्ध करना
होगा और विजय प्राप्त
करनी होगी।
राम
के जीवन से हम
एक और प्रेरणा ले
सकते हैं, जो हमें
निश्चित तौर पर सफलता
देगी और आध्यात्मिक उन्नति
की ओर ले जाएगी
और वह है वचनबद्धता,
‘रघुकुल रीत सदा चली
आई, प्राण जाए पर वचन
न जाई’, उन्होंने अपने पिता के
दिए हुए वचन के
लिए राजपाट त्याग दिया और वनवास
पर चले गए। राम
एक आदर्श भाई और पति
थे। जब भरत ने
उनका राजपाट संभाला तो उन्होंने कभी
उनसे कोई द्वेष नहीं
रखा बल्कि हमेशा उन्हें आगे बढऩे की
प्रेरणा देते रहे। कितनी
भी कठिन परिस्थिति क्यों
न रही हो, राम
ने सदैव अपने जीवन
में सत्य का साथ
दिया। उन्होंने दूसरों के प्रति सम्मानजनक
व्यवहार किया। श्रीराम ने अपने कत्र्तव्यों
का पालन करते हुए
अपनी प्रजा के साथ न्याय
किया, तभी तो आज
भी राम राज्य की
ही कामना की जाती है।
उन्होंने हर परिस्थिति में
आत्म-संयम और धैर्य
बनाए रखा। उनके जीवन
मूल्यों को अगर हम
अपने जीवन में आत्मसात
करें तो निस्संदेह हम
आध्यात्मिकता और सफलता की
नई ऊंचाइयां प्राप्त कर सकते हैं।श्रीराम
ने जीवन की हर
परिस्थिति में आत्म-संयम
और धैर्य बनाए रखा। उनके
जीवन मूल्यों को अगर हम
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