डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल का सपना था ‘हिन्दू राष्ट्र’
श्रद्धेय
डॉ
काशी
प्रसाद
जायसवाल
जी
विलक्षण,
प्रतिभायुक्त,
विश्व
प्रसिद्ध
साहित्यकार,
इतिहासकार,
कानूनविद्,
मुद्राशास्त्री,
स्वतंत्रता
संग्राम
सेनानी,
पुरातत्व
के
अर्न्तराष्ट्रीय
ख्याति
प्राप्त
विद्वान,
राष्ट्र
धरोहर,
प्राचीन
लिपि
मर्मज्ञ,
क्रांतिकारी
व
बहुभाषी
विद्वान
थे।
यही
वजह
है
कि
कोहिनूर
के
हीरे
की
तरह
चमकने
वाले
डा.
काशी
प्रसाद
जायसवाल
भारतीय
इतिहास
के
ज्योतिर्धर
थे।
भारत
के
प्रख्यात
इतिहासकारों
मे
उनकी
गणना
होती
है।
उन्होंने
इतिहास
लेखन
के
माध्यम
से
सामाजिक
जीवन
में
राष्ट्रीय
चेतना
का
संचार
किया।
उन्होंने
हिन्दू
पालिटी,
इम्पीरियल
हिस्ट्री
ऑफ
इंडिया,
अंधकार
युगीन
भारतीय
इतिहास,
नेपाल
का
विवरणात्मक
इतिहास
आदि
विश्व
विख्यात
ग्रन्थों
की
रचना
की।
अचार्य
रामचंद्र
शुक्ल
के
समकालीन
रहे
काशीप्रसाद
जायसवाल
को
1909 में
चीनी
भाषा
सीखने
के
लिए
आक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय
से
छात्रवृत्ति
भी
मिली।
उनका
पूरा
जीवन
मानवता
के
लिए
समर्पित
था।
देश
व
साहित्य
के
उत्थान
के
लिए
उन्होंने
जो
किया,
उसे
कभी
भुलाया
नहीं
जा
सकता।
उनकी
निगाह
में
राष्ट्र
से
बढ़कर
कुछ
नहीं
था।
उनकी
दृष्टिकोण
में
असली
भारतीय
सांस्कृतिक
रूप
हिन्दुत्व
ही
था।
भारत
की
सभी
खूबियां
देशी
मूल
की
थी।
इस
तरह
की
ऐतिहासिक
व्याख्या
जिसे
हिन्दू
राष्ट्रवाद
से
प्रेरित
कहना
ही
सबसे
उपयुक्त
होगा।
उनके
ऐतिहासिक
लेखन
में
हिन्दुत्व
का
प्रभावशाली
धारा
देखने
को
मिलता
है।
उन्होंने
कभी
सिद्धांतों
से
समझौता
नहीं
किया।
उन्होंने
देश
का
नाम
विश्व
पटल
पर
रोशन
किया।
डॉ.
काशी
जायसवाल
जैसी
विभूति
देश
को
समय
समय
पर
प्राप्त
होती
रहे,
इसके
लिए
जरुरी
है
कि
हम
उनके
विचारों
व
सिद्धांतों
से
नयी
पीढ़ी
को
आत्मसात
कराते
रहे
सुरेश गांधी
श्रद्धेय डॉ काशी प्रसाद
जायसवाल कई भाषाओं के
जानकार थे। वह संस्कृत, हिंदी,
इंग्लिश, चीनी, फ्रेंच, जर्मन और बांग्ला भाषा
पर पूरी पकड़ रखते थे। लेकिन वे हिंदी और
अंग्रेजी में ही लिखते थे।
स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के सहयोग से
उन्होंने इतिहास परिषद् की स्थापना की।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना से
पहले ही जायसवाल प्राचीन
भारत की ‘हिंदूवादी’
व्याख्या कर रहे थे।
उनकी बहुचर्चित हिन्दू पॉलिटी राष्ट्रवादी आन्दोलन के लिए गीता
समझी जाती थी। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर
अंग्रेजी हुकूमत के समय ही
पटना विश्वविद्यालय ने 1936 में उन्हें पीएचडी की मानक उपाधि
प्रदान की थी। कहते
है भारतीय इतिहास में 1905 से आगे का
काल उग्रपंथी राजनीति का काल था।
बंगाल और महाराष्ट्र में
क्रांतिकारी संस्थाओं का जाल बिछा
हुआ था। इस आन्दोलन पर
हिन्दू पुनरुत्थानवाद का रंग चढ़ा
हुआ था। उसी दौरान बंगाल की सरकार ने
उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग
में अपने पद से त्यागपत्र
देने को बाध्य कर
दिया था। लेकिन गर्व है प्राचीन भारतीय
राज्यव्यवस्था पर रची गई
महानतम कृति हिंदू पालिटी के लिए भारत-विद्या (इंडोलाजी) स्व काशी प्रसाद जायसवाल की ऋणी है।
भारतीय इतिहास लेखन के प्रवृत्तियों के
दृष्टिकोण से 1920-1930 वाले दशक में लिखने वाले इतिहासकारों पर राष्ट्रीय आन्दोलन
का प्रभाव था, जो उनके ऐतिहासिक
चिंतन में प्रतिबिंबित हुआ।
खास यह है कि
जब ब्रतानियां हुकूमत के आगे किसी
की जुबान खोलने की साहस नहीं
था, तब लंदन के
काफी हाउस में विनायक दामोदर सावरकर के साथ डॉ
काशी प्रसाद जायसवाल भारत को हिंदू राष्ट्र
बनाने का ताना-बाना
बुन रहे थे। उनका मानना था जातियों में
बटे हिन्दुओं को एकजुट करके
ही ब्रतानियां हुकूमत को मात दी
जा सकती है। क्योंकि हिन्दुत्व को एक सजातीय,
सांस्कृतिक तथा राजनैतिक पहचान है।
आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता
यस्य
भारतभूमिकाः।
पितृभूपुण्यभूश्चैव
स
वै
हिन्दुरितिस्मृतः।।
डॉ काशी प्रसाद
का हिन्दुत्व मतलब था देश धर्म
के संविधान से चले, तभी
रामराज्य की कल्पना साकार
हो सकती है। “हिन्दू राष्ट्र“ का मतलब था
भारतीय उपमहाद्वीप में फैले “अखण्ड भारत“ एकसूत्र में बंधा रहे। देवी-देवताओं की इस जन्मभूमि
पर हिमालय पर्वत, गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी, ब्रह्मपुत्रादिक अनेकानेक नदी-नद की पहचान
हो। ये बोध इंडिया
शब्द से नहीं होता।’’ हिमालय
का प्रथम अक्षर ‘हि’ तथा इन्दू सरोवर के नाम से
‘न्दू’ अक्षर
को ग्रहण करके अर्थात् हि-न्दू = हिन्दू
नाम ही उचित है।
ब्रतानियों से पहले मुगल
शासक इस देश को
हिन्दुस्तान ही बोलते थे।
तो ब्रतानियों द्वारा इसका नाम इंडिया क्यों रखा। काशी प्रसाद जायसवाल जैसे विद्वान की सोच थी
कि जनमानस को राष्ट्रवादी बनाकर
ही अंग्रेजों के जुर्म से
भारत को आजादी दिलायी
जा सकती है। 1930 में गायकवाड़ स्वर्ण-जयन्ती व्याख्याता सम्माननीय पद से सम्मानित
किये गये थे। उनसे पहले केवल रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ही यह
गौरव प्राप्त हुआ था, और विज्ञानाचार्य रमन
तीसरे व्यक्ति थे, जिन्होंने इस सम्मान को
पाया। इसी साल वे ओरियन्टल कान्फरेन्स,
पटना के स्वागताध्यक्ष हुए
थे। 1931 में वे पटना-म्यूजियम
के प्रेसिडेन्ट बने और अन्त तक
रहे। 1933 में वे बिहार-प्रान्तीय
साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवेशन
के सभापति हुए थे। उस वक्त उन्होंने
चौरासी सिद्धों की हिन्दी कविता
पर एक सुन्दर भाषण
दिया और डा. ग्रियर्सन
ने सिद्धों की कविता (800 ई0)
का होना स्वीकार कर लिया। सन्
1934 एवं 1936 में वे दो बार
भारतीय मुद्रा-समिति के सभापति हुए।
वे पहले भारतीय थे, जिनका व्याख्यान लन्दन की रायल एशियाटिक
सोसाइटी ने अक्टूबर, 1935 में
‘मौर्य सिक्का’ विषय पर कराया था।
अफसोस है कि ऐसे
महान विभूति, अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान व जायसवाल समाज
के गौरव डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल को मरणोपरान्त भारत
का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न देने की मांग तो
एक अरसे से हो रही
है। लेकिन अभी तक किसी राजनेता
या उसके दल ने पहल
नहीं की है। यह
अलग बात है जायसवाल क्लब
एवं उससे जुड़े अनुसांगिक संगठनें लगातार उन्हें भारत रत्न देने की मांग समय-समय पर करते रहे
है। यह देश के
लिए गौरव की बात है
कि देर से ही सही
लोग उनकी वैभव, महत्ता व कार्यक्षमता को
समझने लगे है। हकीकत तो यही है
कि इतिहास से लेकर साहित्य
व स्वतंत्रता आंदोलन के माध्यम से
भारत की आजादी में
अतुलनीय योगदान दिया है, उन्हें बहुत पहले ही भारतरत्न मिल
जाना चाहिए था। लेकिन सरकारों ने अन्य महान
विभूतियों की तरह काशी
प्रसाद जायसवाल के इतिहास को
लोगों के बीच आने
ही नहीं दिया। जायसवाल क्लब के राष्ट्रीय अध्यक्ष
मनोज जायसवाल व पं दीन
दयाल नगर के विधायक रमेश
जायसवाल 27 जुलाई को मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ से उनके कालीदास
मार्ग के आवास पर
मिलकर डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल के बारे में
चर्चा कर उन्हें मरणोपरान्त
भारत का सर्वोच्च सम्मान
भारत रत्न, उनके नाम पर टिकट जारी
करने व उनके नाम
पर बोर्ड के गठन के
साथ ही उनकी जयंति
27 नवंबर को इतिहास दिवस
के रुप में मनाने की मांग किया
तो मुख्यमंत्री ने कहा, मैं
डॉ काशी प्रसाद जायसवाल के इतिहास, उनकी
विद्वता व लेखनी से
भलीभांति परिचित व पढ़ा हूं,
जरुर कुछ न कुछ पहल
करने का न्रयास करेंगे।
ऐसे में यूपी सहित भारत के विभिन्न हिस्सों
में रह रहे 20 करोड़
से अधिक काशी प्रसाद के अनुयायियों, शुभचिंतकों
एवं चाहने वालों में उम्मींद की किरण जगी
है। दावा है कि अगर
मुख्यमंत्री ने मांगे पूरी
की तो देश का
इतिहास भी स्वर्णिम अक्षरों
से लिखा जायेगा। खासकर उस विद्वान के
लिए जिन्होंने ब्रिटिशकाल के डार्कनेस हिस्ट्री
आफ इंडिया या अंधकार युग
के इतिहास को तमाम पाबंदियों
के बावजूद अपनी पुस्तकों में उजागर किया है। भारतीय दर्शन, इतिहास, भाषा-साहित्य, सभ्यता-संस्कृति व धर्म के
गौरवशाली अतीत को काशीप्रसाद ने
जिस प्रखरता से उभारा है,
उस तरह की प्रखरता अभी
तक कोई दूसरा साहित्यकार या इतिहासकार नहीं
उजागर कर पाया है।
टाइम्स आफ इंडिया के
31 अगस्त, 1960 के अंक में
प्रकाशित एक समाचार से
यह भी पता चलता
है कि भारत सरकार
ने सन् 1961 में कुछ विशिष्ट महापुरूषों के सम्मान में
विशेष डाक टिकटों को जारी करने
का निर्णय लिया है। उन महापुरूषों में
एक नाम प्रसिद्ध इतिहासकार डा. काशी प्रसाद जायसवाल का भी था।
सफरनामा
आपका जन्म 27 नवंबर, 1881 को उप्र की
पावन माटी मिर्जापुर में बाबू महादेव प्रसाद जायसवाल के परिवार में
हुआ। उनका देहावसान 4 अगस्त, 1937 को हुआ। आपके
पिता लाह और चिवड़े के
विख्यात व्यापारी थे। आपके पिता का व्यापार बिहार
राज्य में भी फैला हुआ
था। डॉ. काशी प्रसाद की प्रारम्भिक शिक्षा
एक निजी शिक्षक की देख-रेख
में घर पर ही
हुई। उन्होने मिर्जापुर के लंदन मिशन
स्कूल से एंट्रेंस की
परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। प्राथमिक
शिक्षा के बाद वे
वाराणसी के क्वींस कालेज
में पढ़ने के बाद उच्च
शिक्षा के लिए लंदन
गए। 1906 में डॉ. जायसवाल जी मात्र 25 वर्ष
की अवस्था में वह इंग्लैण्ड रवाना
हुए और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय
में दाखिला पाया। वहां से उन्होंने इतिहास
से एमए करते हुए डेबिस स्कॉलर के रूप में
चीनी भाषा का अध्ययन किया।
उन्होने ’बार’ के लिये परीक्षा
में भी सफलता प्राप्त
की। वहां अध्ययन के साथ भारत
की आजादी के लिए लाल
हरदयाल व वीर सावरकर
के संपर्क में आएं। भारत लौटने पर उन्होने कोलकाता
विश्वविद्यालय में प्रवक्ता (लेक्चरर) बनने की कोशिश की
किन्तु राजनैतिक आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें
नियुक्ति नहीं मिली। अन्ततः उन्होने वकालत करने का निश्चय किया।
1911 में कोलकाता में वकालत आरम्भ की। कुछ समय बाद 1914 में वे पटना उच्च
न्यायालय में आ गये। ’पटना
म्यूजियम’ की
स्थापना भी आपकी ही
प्रेरणा से हुई। 1935 में
’रायल एशियाटिक सोसाइटी’ ने लंदन में
भारतीय मुद्रा पर व्याख्यान देने
के लिये आपको आमंत्रित किया। आप इंडियन ओरिएंटल
कांफ्रेंस (छठा अधिवेशन, बड़ौदा), हिंदी साहित्य सम्मेलन, इतिहास परिषद् (इंदौर अधिवेशन), बिहार प्रांतीय हिंदी साहित्य संमेलन (भागलपुर अधिवेशन) के सभापति रहे।
कलवार की जगह जायसवाल
टाइटिल काशी प्रसाद ने दी।
हिन्दू पालिटी सहित दर्जनों पुस्तकें उनकी उपज रही
1899 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपमंत्री बने।
उनके शोधपरक लेख ’कौशाम्बी’,
’लॉर्ड कर्जन की वक्तृता’ और ’बक्सर’ आदि लेख नागरी प्रचारिणी पत्रिका में छपे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ’सरस्वती’ का सम्पादक बनते
ही 1903 में काशीप्रसाद जायसवाल के चार लेख,
एक कविता और ’उपन्यास’ नाम से एक सचित्र
व्यंग्य सरस्वती में छपे। काशी प्रसाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समकालीन थे।
आपकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम ’हिंदू
पालिसी’, ’ऐन
इंपीरियल हिस्ट्री ऑव इंडिया’, ’ए क्रॉनॉलजी ऐंड
हिस्ट्री ऑव नेपाल’ हैं। हिंदू पॉलिटी का हिंदी अनुवाद
(श्री रामचंद्र वर्मा)’ हिंदू राज्यतंत्र’ के
नाम से नागरीप्रचारिणी सभा,
वाराणसी से प्रकाशित हुआ।
20वीं सदी में जिन भारतीय विद्वानों ने विमर्श की
दिशा को प्रभावित करने
में अग्रणी भूमिका निभाई, उनमें काशी प्रसाद जायसवाल (1881-1937) अग्रणी हैं। उनके जीवन के कई आयाम
हैं और कई क्षेत्रों
में उनका असर रहा है। उनकी लेखनी की व्यापकता को
देख कर कोई यह
नहीं कह सकता कि
उनका कौन सा रूप प्रमुख
है। ‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार,
साहित्यकार, पुरातत्वविद, भाषाविद, वकील या पत्रकार। कभी-कभी विवादास्पद और व्यंग्यात्मक सामग्री
लिखते समय जायसवाल ‘महाब्राह्मण’ और
‘बाबा अग्निगिरी’
का छद्म नाम भी प्रयोग करते
थे।
उनके व्यक्तित्व की व्याख्या महाबीर प्रसाद द्विवेदी जैसे कवियों ने की
उनके व्यक्तित्व की व्याख्या उनके
संबंधियों, मित्रों, विरोधियों और विद्वानों ने
तरह-तरह से की है।
‘घमंडाचार्य’ और
‘बैरिस्टर साहब’
(महावीरप्रसाद द्विवेदी), ‘कोटाधीश’
(रामचंद्र शुक्ल), ‘सोशल रिफ़ॉर्मर’
(डॉ. राजेन्द्र प्रसाद), ‘डेंजरस रेवोलूशनरी’ और
तत्कालीन भारत का सबसे ‘क्लेवरेस्ट
इंडियन’ (अंग्रेज
शासक), ‘जायसवाल द इंटरनेशनल’ (पी.सी. मानुक)
‘विद्यामाहोदधि’ (मोहनलाल
महतो ‘वियोगी’)
और ‘पुण्यश्लोक’ (रामधारी
सिंह ‘दिनकर’)
आदि में भी डॉ काशी
प्रसाद जायसवाल के भारतीय योगदान
को सराहा गया है। राइन पुस्तकों में बताया गया है कि गिरफ़्तारी
की आशंका को देखते हुए,
डॉ जायसवाल जल-थल-रेल
मार्ग से यात्रा करते
हुए 1910 में भारत लौटे और यात्रा-वृतांत
तथा संस्मरण सरस्वती और मॉडर्न रिव्यू
में अपने विचारों को प्रकाशित किया।
इन पुस्तकों में उल्लेख है कि किस
तरह डॉ काशी प्रसाद
लंदन के काफी हाउस
में बीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के बीच आजादी
की मंत्रणा करते थे। उनके इसी मंत्रणा से खिायाएं अ्रग्रेज
शासक उन्हें पकड़ने के लिए जाल
बिछा रखा था। उन्होंने पटना उच्च न्यायालय में आजीवन वकालत की. वे इनकम-टैक्स
के प्रसिद्ध वकील माने जाते थे। दरभंगा और हथुआ महाराज
जैसे लोग उनके मुवक्किल थे। बड़े-बड़े मुकदमों में जायसवाल प्रिवी-कौंसिल में बहस करने इंग्लैंड भी जाया करते
थे। उन्होंने मिर्ज़ापुर से प्रकाशित कलवार
गज़ट (मासिक, 1906) और पटना से
प्रकाशित पाटलिपुत्र (1914-15) पत्रिका का संपादन भी
किया और जर्नल ऑफ़
बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी के आजीवन संपादक
भी रहे। इसके अलावा अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण व्याख्यान
दिए जिनमें टैगोर लेक्चर सीरीज (कलकत्ता, 1919), ओरिएण्टल कॉन्फ्रेंस (पटना/बड़ोदा,1930/1933), रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन
(1936, पहले भारतीय, जिन्हें यह अवसर मिला),
अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन, इंदौर (1935) इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। काशी प्रसाद जायसवाल ने प्राचीन भारत
का चित्रण अपेक्षाकृत अपरिवर्तनशील समाज के रूप में
किया। यद्यपि उन्होंने जमीन में निजी स्वामित्व की बात कर
एशियाई उत्पादन प्रणाली को खंडित भी
किया। उनकी दृष्टि में स्थिरता का आधार प्राचीन
आर्य संस्कृति थी। इसलिए साहित्यिक स्रोतों के काल को
यथासंभव अधिक से अधिक पीछे
ले जाने की कोशिश की
और यह दिखलाया कि
भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल और
सार्थक पक्ष पूर्णतः देशी मूल के थे। भारतीय
संस्कृति को आध्यात्मिक रूप
में विश्लेषण किया गया और कहा गया
कि यह भौतिकवादी पाश्चात्य
सभ्यता के विपरीत थी,
इस आधार पर निष्कर्ष निकाला
कि भारतीय संस्कृति पश्चिम संस्कृति से श्रेष्ठ थी।
राष्ट्रवाद से प्रभावित डॉ
जायसवाल ने इसकी ऐतिहासिक
व्याख्या की। उनके लेखन में अतिप्राचीन काल से ही देश
की राजनीतिक एकता पर जोर देने
की प्रवृत्ति थी। उन्होंने ही प्राचीन भारत
में गणतंत्र एवं मंत्रीपरिषद आदि की अस्तित्व की
बात की प्रासंगिकता पर
बल दिया, जिससे राष्ट्रीयता की विचारधारा को
बल मिला। इनके इतिहास लेखन में प्राचीन काल को भरपूर समृद्धि
एवं सामान्य संतुष्टि का काल मानने
की प्रवृत्ति हावी थी जिस पर
हर भारतीय का गर्व करना
उचित था। लेकिन औपनिवेशिक काल-विभाजन पर कोई विशेष
आपत्ति उठाए बिना स्वीकार कर लिया गया
और हिन्दू, प्राचीन तथा मुस्लिम, मध्यकाल के बीच तीव्र
भेद की दीवार खड़ी
कर दी गई। उनके
दृष्टिकोण में असली भारतीय सांस्कृतिक रूप ही हिन्दुत्व था।
भारत की सभी खूबियां
देशी मूल की थी। इस
तरह की ऐतिहासिक व्याख्या
जिसे हिन्दू राष्ट्रवाद से प्रेरित कहना
ही सबसे उपयुक्त होगा, आज के ऐतिहासिक
लेखन में भी प्रभावशाली धारा
के रूप में विद्यमान है। पद्मभूषण से सम्मानित राष्ट्रकवि
रामधारी सिंह दिनकर ने अपने संस्मरण
और ‘श्रद्धां- जलियां’ नामक पुस्तक में लिखा है कि सूर्य,
चंद्र, वरुण, कुबेर, वृहस्पति भी डॉक्टर काशी
प्रसाद जायसवाल जी की बराबरी
नहीं कर सकते। कुछ
ऐसा ही पद्मभूषण से
विभूषित प्रख्यात साहित्यकार डॉ अमृतलाल नागर
ने भी कहा है,
अगर उन्हें चंद घड़ी के लिए हिंदुस्तान
का बादशाहत मिल जाए तो वे हिंन्दुस्तान
की तकदीर और तकदीर बदल
सकते हैं।
हिन्दी साहित्य इतिहास को 250 वर्ष पीछे बढ़ाया
श्रद्धेय काशी प्रसाद ने विलायत-यात्रा
का विवरण ‘सरस्वती’ में लिखा था। सरस्वती में उनकी हिन्दी कविता भी निकली थी।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इन निबन्धों
की मुक्त कंठ से प्रशंसा की
थी। हिन्दी साहित्य की उनकी सबसे
बड़ी देन यह है कि
उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को
लगभग 250 वर्ष पीछे बढ़ाया है। इतिहास के पंडित मानते
थे कि हिन्दी साहित्य
का आरंभ लगभग 1000 के आसपास है।
प्रथम बार उन्होंने अपनी खोज और अनुसंधान द्वारा
यह प्रमाणित किया कि हिन्दी का
आरंभ 750 से माना जा
सकता है। एक बार जार्ज
ग्रियर्सन ने उन्हें लिखा
था कि पूर्वी भारत
पर, जिसका संबंध बिहार से है, कोई
ग्रंथ नहीं मिलता। इसके जवाब में उन्होंने खोज कर पुरानी पूर्वी
हिन्दी का अविच्छिन्न इतिहास
और उदाहरण 750 से प्रस्तुत कर
दिया। उनकी ही प्रेरणा से
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अतिप्राचीन हिन्दी
साहित्य का शोध किया।
राहुल जी ने यह
स्वीकार किया है कि उनका
शोध जायसवाल जी के सहयोग
के बिना कभी भी पूरा नहीं
होता। भारतीय विद्वतमंडली उनका सम्मान करती थी, और पश्चिमी विद्वान
भी उनकी खोजों का लोहा मानते
थे।
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