Thursday, 6 June 2024

’हम जो प्रत्याशी देंगे जीतेगा...’ का ’नेरेटिव’ यूपी में नहीं चलेगा?

हम जो प्रत्याशी देंगे जीतेगा...’ कानेरेटिवयूपी में नहीं चलेगा?

                कार्यकर्ता भूख-प्यास त्यागकर, धूप-ठंड-बारिश झेलकर, पार्टी हाईकमान के हर निर्देश-आदेश को आम लोगों के बीच पहुंचाता है। विपक्षी नेताओं खासकर सपाई गुंडो की प्रताड़ना, गालियां खाने ताने सुनने के बावजूद शीर्ष नेताओं की रैलियों में भीड़ इकठ्ठा करता है। लेकिन जब उसके मेहनत का फल देने की बात आती है तो हाईकमान ऐसे पैराशूट नेता को टिकट देकर चुनावी मैदान में उतार देती है, जिसे आम जनमानस तो दूर, खुद वह भी नहीं जानता ये महाशय है कौन? चूकि पार्टी का आदेश है तो कभी-कभी आज्ञा का पालन उसकी मजबूरी बन जाता है तो कभी सब कुछ विष प्याले की तरह हजम कर खुंदश निकालने के लिए घर बैठ जाता है, जैसा लोकसभा चुनाव में दिखा भी। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है 2014, 2017, 2019 2022 में प्रंचड बहुमत दिलाने वाले कार्यकर्ताओं में वह जोश 2024 में क्यों नहीं दिखा? दुसरा बड़ा सवाल क्या वह अब समझ गया है कि उसके मेहनत व्यर्थ है उम्मींदवार तो वही होगा जो पार्टी के शीर्ष नेताओं को कुछ बड़े लाइजनरों के जरिए शीर्ष नेता की जेब गरम करेगा? तीसरा बड़ा सवाल क्या पार्टी हार के कारणों की समीक्षा के दौरान इन बिन्दुओं पर भी गहन आत्ममंथन करेगी? खासतौर से तब जब यूपी में सारे समीकरण, मुद्दे पक्ष में होने काशी-अयोध्या सहित पूरे यूपी में विकास की गंगा बहने के बाद भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा

सुरेश गांधी                

                जी हां, यह सोलहों आना सच है कि यूपी में इस वक्त भाजपा कार्यकर्ताओं का हाल यह है कि यदि वह अपने किसी समर्थक या पीड़ित की आवाज प्रशासन तक पहुंचाना चाहता है, तो उसकी सुनी ही नहीं जा रही है। विधायक मंत्री सांसद तक के मुंह से सुना जा सकता है कि अधिकारी उनकी सुन ही नहीं रहे है। हाल यह है कि कई विधायक अपने ही सरकार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन तक कर चुके है। मतलब साफ है यहीं छोटी-छोटी खामियां या यूं कहे बड़े नेताओं की अनदेखी यूपी में भाजपा के हार के कारणों में से एक है। इसके अलावा शीर्ष नेतृत्व द्वारा जमीनी कार्यकर्ताओं एवं संगठन पदाधिकारियों की उपेक्षा कर ऐसे-ऐसे प्रत्याशी मैदान में उतार दिए जिसका वह विरोध करता रहा कि ये ना ही जातिय समीकरण में फिट बैठते है और ही जनमानस के बीच इनकी पकड़ है, बावजूद इसके उन्हें मैदान में उतार दिया गया। हालांकि हर बार शीर्श नेतृत्व गलत नहीं होता, कभी-कभी उसका उसका निर्णय सही भी हो जाता है। लेकिन 2024 के चुनाव में जौनपुर, गाजीपुर, बलिया, मछलीशहर, घोसी, अयोध्या, प्रयागराज सहित कई जिलों में शीर्ष नेतृत्व का फैसला वह परिणाम नहीं दे पाया, जिसकी उम्मींद पूरा देश करता रहा। 

जहां तक अयोध्या का मामला है तो लल्लू सिंह का शुरुवाती दौर से ही विरोध हो रहा था। खासतौर से उन्होंने जब अबकी 400 पार के नारे को विस्तार देते हुए अपनी तरफ से नेरेटिव सेट किया कि यह नारा इसलिए दिया गया है कि यदि 400 सीटे आयी तो देश का संविधान बदल दिया जायेगा, के तत्काल बाद शीर्ष नेतृत्व को उनके खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय खुद सफाई देने में जुटे रहे, जिसका फायदा विपक्ष को मिला। विपक्ष दलित ओबीसी मतदाताओं को समझाने में सफल रहा कि बीजेपी आयी तो बाबा साहब का संविधान ही बदल देगी, एससी, एससीएसटी आरक्षण खत्म कर देगी। खास बात यह है कि इस बयान का शीर्ष नेताओं द्वारा खंडन किए जाने के बावजूद सपा गठबंधन के पक्ष में दलित ओबीसी सहित अल्पसंख्यकों ने इक्साई मतदान किया। परिणाम यह हुआ कि यूपी के नतीजे अप्रत्याशित हो गए। बीजेपी 62 से 33 सीटों पर सिमट गई। जबकि समाजवादी पार्टी पांच से 37 पर पहुंच गई। कांग्रेस को भी छह सीटें मिलीं। यह अलग बात है कि बसपा हासिएं पर पहुंच गयी।

यूपी के ज्यादातर इलाकों में जो बीजेपी के गढ़ माने जाते थे, वहां बीजेपी की हार हुई, पूर्वांचल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य यूपी में बीजेपी को झटका लगा। अखिलेश यादव की रणनीति इस बार काम कर गई। बीजेपी के नेताओं को अब तक समझ नहीं रहा है कि गलती कहां हुई। इतना बड़ा सदमा कैसे लगा। घोर परिवारवादी का तमगा देने के बावजूद अखिलेश यादव परिवार के पांच सदस्य जीत गए। बदायूं से शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव, फिरोजाबाद से रामगोपाल के बेटे अक्षय यादव, आजमगढ़ से धर्मेन्द्र यादव, मैनपुरी से डिंपल यादव और कन्नौज से खुद अखिलेश यादव चुनाव जीते हैं। नतीजों को गौर से देखें तो पश्चिमी यूपी, पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध समेत सभी इलाकों में बीजेपी को नुकसान हुआ है। बीजेपी के इस नुकसान के पीछे बसपा की खराब परफॉर्मेंस भी एक फैक्टर दिखता है। पिछली बार 10 सीटें जीतने वाली मायावती की पार्टी इस बार यूपी में खाता भी नहीं खोल पाई। शुरुआती तौर पर ऐसा लग रहा है कि मायावती का दलित वोट इंडिया अलायंस की तरफ स्विच कर गया जिसका नुकसान बीजेपी को हुआ। वेस्टर्न यूपी में राष्ट्रीय लोकदल और पूर्वांचल में राजभर, निषाद पार्टी, अपना दल की परफॉर्मेंस भी बेहद खराब रहा। दूसरी तरफ इंडिया अलायंस की दोनों पार्टियों समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ।

समाजवादी पार्टी की तरफ दलित ओबीसी वोटर गोलबंद होता दिखा। महंगाई, बेरोजगारी, अग्निवीर, संविधान और आरक्षण वाला मुद्दा अखिलेश पिछड़ों दलितों के मन तक पहुंचाने में कामयाब रहे। भाजपा का वोट शेयर 50 फीसदी से घटकर 42 फीसदी हो गया। जबकि सपा का 18 से बढ़कर 34 फीसदी पहुंच गया। कांग्रेस को भी इस बार यूपी में फायदा हुआ। कांग्रेस की सीटें भी बढ़ीं और वोट परसेंट भी 6 से 10 फीसदी के आसपास पहुंच गए। मायावती का बसपा वोट शेयर 19 से गिरकर 10 पर गया। लोगों के मन में ये सवाल है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने मेहनत की, कानून व्यवस्था दुरूस्त की, आर्थिक हालत सुधारी, केन्द्र की योजनाओं का बेहतर तरीके से लागू कराया। इसके बाद भी यूपी में बीजेपी को झटका क्यों लगा? इसका जवाब आसान है। बीजेपी ने उम्मीदवारों के चयन में गड़बड़ी की, जातिगत समीकरणों का ध्यान नहीं रखा। दूसरी वजह अखिलेश यादव ये संदेश देने में कामयाब रहे कि मायावती बीजेपी की मदद कर रही है, मोदी जीते तो आरक्षण को खत्म कर देंगे। इससे मुसलमानों के साथ साथ दलितों का बड़ा वोट शेयर भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के उम्मीदवारों को मिला। अखिलेश यादव के गठबंधन ने बेहतर तालमेल के साथ काम किया। सभी जातियों का वोट उन्हें मिला, इसलिए वो जीते।

बता दें, पहली वजह तो यह है कि स्थानीय स्तर पर सांसदों के प्रति एंटी-इनकम्बेंसी थी. दूसरा कारण है कार्यकर्ताओं में उदासीनता और नाराजगी। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर बहुत बोझ आया क्योंकि चुनाव उसके आधार पर लड़ा जा रहा था. पहले जब भी उनकी छवि के प्रभाव में कमी होती थी, उसकी भरपाई उनके दौरों से हो जाती थी. इस बार ऐसा नहीं हो पाया. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लामबंद करने का जो तौर-तरीका पहले भाजपा ने अपनाया था, इस चुनाव में वह समाजवादी पार्टी ने अपनाया. गैर-जाटव और गैर-यादव समुदायों को जोड़ने के इस प्रयास का लाभ विपक्ष को मिला. अब सवाल उठता है कि जब दोनों पक्ष एक ही तरीके पर चल रहे थे, तो एक पक्ष को ही उसका फायदा क्यों मिला. ऐसा इसलिए हुआ कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के खेमे में पहले के उम्मीदवार ही फिर मैदान में थे. तो उस पक्ष को एंटी-इनकम्बेंसी और कार्यकर्ताओं की नाराजगी के कारण नुकसान उठाना पड़ा. चुनाव परिणाम की व्याख्या करते हुए हमें मतदान में महिला और दलित मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी पर भी गौर करना चाहिए. चुनाव-दर-दर चुनाव इनकी हिस्सेदारी में बढ़ोतरी होती जा रही है. इसकी वजह है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) ने इन्हें बड़ा सहारा और हौसला प्रदान किया है. पहले यह डर बना रहता था कि बूथ कैप्चरिंग हो जायेगी, कोई बक्सा लेकर भाग जायेगा, हिंसा हो जायेगी. इवीएम के आने के बाद यह डर निकल गया और परिस्थितियां भी बदल गयीं. तो, यह स्पष्ट है कि हमारे देश में इवीएम ने चुनाव प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है.

वर्ष 2017 में प्रकाशित अर्थशास्त्री शमिका रवि के एक महत्वपूर्ण अध्ययन को देखा जाना चाहिए. उन्होंने रेखांकित किया है कि इवीएम की वजह से महिलाओं और सभी वंचित वर्गों की भागीदारी बढ़ी है. रही बात उनकी पसंद की, तो अलग-अलग जगहों पर महिलाओं ने भी अलग-अलग कारणों से अलग-अलग पार्टियों और उम्मीदवारों को वोट दिया है. यह जरूर कहा जा सकता है कि कल्याण योजनाओं ने महिलाओं और हाशिये के समुदायों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने में बड़ा योगदान दिया है. योजनाओं के लाभार्थियों के साथ पार्टी के कार्यकर्ताओं के लगातार जुड़े रहने से भाजपा को निश्चित ही लाभ हुआ है. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि ने कई भाजपा उम्मीदवारों की संभावित हार को जीत में बदल दिया. दूसरा, पार्टी कार्यकर्ताओं से नकारात्मक प्रतिक्रिया के बावजूद भाजपा अपने सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना का अनुमान नहीं लगा सकी। इसने शुरू में अपने मौजूदा सांसदों में से 30þ को टिकट देने से इनकार कर दिया था, लेकिन अंत में केवल 14 मौजूदा सांसदों को ही टिकट दिया। किसानों और समाज के अन्य वर्गों के विरोध ने राज्य के कई इलाकों में पार्टी के खिलाफ गुस्से को और बढ़ा दिया। भाजपा की हार में तीसरा कारण अल्पसंख्यक आक्रामकता को कम करने का उसका असफल प्रयास और विपक्ष, मुख्य रूप से सपा-कांग्रेस गठबंधन के पीछे उसका एकजुट होना, जिसने सफलतापूर्वक भाजपा की सीटों को कम कर दिया।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राम मंदिर का उद्घाटन, काशी विश्वनाथ धाम के जीर्णोद्धार और कृष्ण जन्मभूमि शाही ईदगाह का मुद्धा खूब उठाया। भाजपा ने नारा भी दिया कि काशी, अयोध्या का प्रण पूरा और अब मथुरा की बारी है। इसके बावजूद भाजपा हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में असफल रही। हिंदू मतदाता जातियों में बंट गए। वहीं, एनडीए के जो सहयोगी दल रहे, वो उत्तर प्रदेश में कुछ खास नहीं कर सके, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में। अपना दल एस और सुभासपा अपनी सीटें नहीं बचा पाए। पूर्वांचल की जनता ओबीसी बनाम ऊंची जाति वाले बयानों से तंग चुकी थी। पांच लोगों का एक परिवार माना जाए, तो 20 करोड़ लोगों को घर का सुख मिला है, 10 करोड़ लोगों को उज्ज्वला कनेक्शन मिला है- ऐसी तमाम योजनाएं, जिनसे लोग लाभान्वित हुए हैं, उसने लाभार्थियों की मानसिकता पर असर डाला है. इसी कारण भाजपा के नेतृत्व में जो एनडीए है, उसकी सरकार में फिर से वापसी हुई है. इसके बावजूद कि कांग्रेस ने एक लाख रुपये सभी परिवारों को देने का वादा किया था, फिर भी बड़ी संख्या में जनता ने अपने लोभ का संवरण करते हुए, दोबारा से एनडीए को सत्ता सौंपी है.

यह भी सच है कि सरकार के दस वर्ष तक सत्ता में रहने और इंडी अलायंस द्वारा तमाम तरह के फ्रीबिज के वादों के बावजूद लोगों ने इंडी अलायंस को नकारते हुए एनडीए को सरकार बनाने का अवसर दिया है. यह इस बात की ओर संकेत करता है कि सरकार की जो कल्याणकारी नीतियां रहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भारत की छवि बनी, साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था में जो उछाल आया, हम दसवीं से पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गये और जनता में इस भरोसे का संचार हुआ कि 2047 तक हम विकसित राष्ट्र बनेंगे, उन सबका लाभ एनडीए को मिला है. हर क्षेत्र में, चाहे वह नवाचार का हो- जिसमें एक लाख, तीन हजार पेटेंट ग्रांट किये गये, चाहे वह ऑनलाइन ट्रांजैक्शन का विषय हो, मैन्युफैक्चरिंग में आगे बढ़ने की बात हो, उन सबका लाभ भी वर्तमान सरकार को मिला है और पुनः जनादेश भी मिला है कि वह सरकार चलाये। इसका अर्थ यह भी है कि अब उन नीतियों को और बेहतर तरीके से और ज्यादा पूर्णता से अपनाने की आवश्यकता होगी, ताकि देश मुफ्तखोरी के लालच से बाहर निकलकर आगे बढ़े. यहां भारतीय जनता ने परिपक्वता दिखाई है, वह इस बात को समझती है कि मुफ्तखोरी की नीतियां क्षणिक लाभ जरूर देती हैं, पर ये खतरे की घंटी हैं.

 

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