सत्य और अज्ञान रूपी उजास का पर्व है दीपावली
अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है दीपावली। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। देखा जाएं तो प्रकाश के फैलते ही अंधकार छट जाता है। इसलिए प्रकाश की पूजा- अर्चना की जाती है। सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्तिः क्षमा शिखा... मतलब साफ है हम जो दिया जलाएं, उसकी दीवट सत्य की हा। उसमें तेल तप का हो। उसकी बाती दया की हो और लौ क्षमा की हो। या यूं कहे जब घना अंधकार फैल रहा हो, आंधी सिर पर बह रही हो तो हम जो दिया जलाएं, उसकी दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। अन्धकार में प्रवेश करने के लिए ऐसा दीपक जलाना चाहिए जिसका आधार सत्य की हो। आज समाज में फैले अंधकार को दूर करने के लिए ऐसा ही दीपक प्रज्वलित करने की ज़रूरत है
सुरेश गांधी
जी हां, दीप
जला देने भर से
समाज और प्रकृति में
फैला अंधेरा दूर नहीं हो
सकता, इसके लिए तो
मन में सद्गुणों को
दीया जलाना होगा। यह तभी संभव
हो पायेगा जब हम दीपों
के उजास को अपने
भीतर भी उतार पायेंगे।
तभी हम अंधेरे से
प्रकाश की ओर उन्मुख
अपनी यात्रा के लक्ष्य का
संधान कर सकेंगे। किसी
भी समस्या के समाधान और
किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति
से निपटने का सूत्र भी
यही है। कहने का
अभिप्राय यह है कि
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र
के रूप में हमें
उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति के
प्रति संकल्पबद्ध होना चाहिए। वर्ग,
वर्ण और संप्रदाय की
संकीर्णता दीपावली के उजास को
मलिन न करें, इसका
ध्यान रखना चाहिए। आर्थिक
विषमता और सामाजिक विभेद
को पाटने की ओर उन्मुख
होना चाहिए। जब सभी सुखी
होंगे, जब समुचित संसाधन
होंगे, तभी त्योहार का
आनंद भी आएगा।
भारतीय दर्शन में अंधेरा अनादि
है। यह सृष्टि की
शुरूआत के पहले से
है, पर इसे जीतने
के लिए दीप जलाया
जा सकता है और
चहुंओर उजाला फैलाया जा सकता है।
अंधकार भले ही बलवान
है, पर डरे बिना
उससे जूझने का संकल्प मानव
की विजय है। किसी
दिन एक शुभ मुहूर्त
में दीये तेल और
रुई की बत्ती का
अग्नि से संयोग आदिमानव
ने पहले-पहल किया
होगा। यह संकल्प शक्ति
के पांचजन्य का माधवी नाद
था। मनुष्य को अंधेरे से
जीतने की प्रेरणा थी।
इसी प्रेरणा के परिणाम में
किसी ने पहला दीप
बनाया होगा। दीप भी ऐसे
जो अपना बलिदान कर
प्रकाश को स्थापित करने
वाले हैं। ये दीप
धन्य हैं। इनका प्रकाश
सूरज और चांद की
रोशनी से बड़ा है,
क्योंकि इन्हें विधाता ने नहीं, बल्कि
मानव ने अपने हाथों
से बनाया। दीपावली की रात मनुष्य
के हाथ में हथियार
के रूप में दीप
अंधकार से लड़ते हैं।
अंधेरे को जीतने के
प्रयत्न की यही प्रक्रिया
भारतीय परंपरा में तमसो मा
ज्योतिर्गमय है।
श्रीराम की अयोध्या वापसी
पर जो दीपमालाएं अयोध्या
में जगमगाईं होंगी, उनकी किरणों हमारे
घर में उजास फैला
रहे दीपों में मंडरा रही
हैं। निश्चित ही इन दीपों
ने सहस्नों साल पहले के
त्रेतायुग में अयोध्या वालों
के उल्लास को देखा था।
सरयू की बहती जलधारा
में अपने प्रतिबिंब निहारे
थे। राम और भरत
के भातृभाव के बेजोड़ दृश्य
को देखा था। साथ
ही देखा था माता
कैकेयी के मन में
मिटते अंधेरे को और मंथरा
की दम तोड़ती जालसाजी
को। राम आए तो
सबसे पहले माता कैकेयी
से भेंट हुई और
सारा अंधेरा मिटता रहा। अयोध्या की
उस रात्रि में जले दीयों
के प्रकाश की किरणों प्रत्येक
वर्ष हमें चेताने आती
हैं कि मन में
रावण की लंका को
मारकर वहां राम की
अयोध्या बनाओ। हमें हर क्षण
चेतना होगा और अंधेरे
को दूर करने के
लिए नित नए प्रयत्न
करने होंगे। जब तक कहीं
भी असत्य, अन्याय या असमानता रूपी
अंधेरा है तब तक
प्रकाश के सहारे हमें
आगे बढ़ना होगा।
एक ऐसा समाज
रचना ही दीपावली का
संदेश है जिसमें दुःख
और अभाव के लिए
कोई स्थान न हो। इसके
लिए हमें बाहर के
अंधेरे के साथ ही
अंतस के अंधेरे से
भी लड़ना होगा। यह
एक निरतंर प्रक्रिया है। दीपावली यह
स्मरण कराती है कि इस
प्रक्रिया को बल देते
रहना है। दिवाली एक
तरह से राम के
रूपांतरण का दिन भी
है। वनवासी और योद्धा राम,
दुष्टों का दलन करने
वाला राम, शापितों का
उद्धार करने वाला राम,
गिरिजनों-पर्वतवासियों का मित्र राम
इसी दिन से राजा
राम बनता है, जिसे
सार्वजनिक अपवाद की इतनी चिंता
है कि वह अपनी
मर्यादा की वेदी पर
उस पत्नी को भी चढ़ाने
से नहीं हिचकता, जिसके
लिए उसने कई योजन
का समुद्र पार कर एक
पूरा युद्ध लड़ा। दिवाली पर
राम के इस रूपांतरण
को अक्सर अलक्षित किया जाता है,
क्योंकि दिवाली हम राम के
लिए नहीं, दरअसल रोशनी के लिए मनाते
हैं। मगर दिवाली पर
रोशनी का यह छल
समझना होगा। इन दिनों फिर
से राम की चर्चा
है। हमें राजा राम
नहीं, वनवासी राम चाहिए, मंदिरों
में पूजा जाने वाला
राम नहीं, तपस्वियों का रक्षक व
स्त्रियों का उद्धारकर्ता वाला
राम चाहिए। जिस अंधेरे से
लड़ने के लिए मनुष्य
ने अपने लिए रोशनी
का पर्व गढ़ा, वह
अब नई शक्ल में
सामने है। दिवाली भरोसा
दिलाती है कि हम
इस नए अंधेरे से
भी लड़ लेंगे। लेकिन
ध्यान रहे, यह लड़ाई
उधार ली हुई, रेडिमेड
रोशनियों से नहीं, अपने
अनुभव और अपनी जरूरत
के हिसाब से रची गई
रोशनी के हथियारों से
लड़ी जाएगी।
अंधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है दीवाली
लौकिक जीवन पर अलौकिक
आभा के पांच दिन
है दीपावली का उत्सव। यह
पर्व मानवीय सभ्यता द्वारा लोक के साथ
लोकोत्तर को जोड़ने की
अविराम चेष्टा को सामने लाता
हैं। अंदर बाहर के
आभा के सामने खड़े
मनुष्य की लगातार कोशिशों
को साकार करता हैं। पहला
दिन धनतेरस सोना चांदी खरीदने
व भगवान धन्वंतरि की पूजा करने
का है, दूसरा दिन
नरक चतुर्दशी है, इस दिन
श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों की
रक्षा के लिए नरकासुर
को मारा था। तीसरा
दिन दिवाली शुभ शांति व
समृद्धि के लिए मां
लक्ष्मी की पूजा होती
है। चौथे दिन गोवर्धन
पूजा है, इस दिन
श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत
को उठाया था। जबकि पांचवा
दिन भाई दूज भाई
है, इस दिन बहन
के प्यार का दिन है।
मतलब साफ है दीपावली
पांच पर्वों का त्योहार है।
इसमें धनतेरस, नरकचतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीया
आदि त्योहार मनाए जाते हैं।
इसे दीपों का त्योहार भी
कहा जाता है। मतलब
दीवाली अँधेरे से रोशनी में
जाने का प्रतीक है।
भारतीयों का विश्वास है
कि सत्य की सदा
जीत होती है झूठ
का नाश होता है।
यही वजह है कि
इस पर्व के सप्ताहभर
पहले से जहां घर
के बड़े-बुजुर्ग घरों
की साफ-सफाई करते
हैं, घरों में सफेदी
कराते हैं, घरों को
सजाते हैं, नए-नए
वस्त्र सिलवाते हैं, घर-घर
में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, नये
साल का कैलेंडर लगाते
हैं वहीं बच्चे घरों
को सजाने में रुचि लेने
लगते हैं साथ ही
दीपावली के दिन से
पहले ही पटाखे फोड़ना
शुरू कर देते हैं।
लोग आपस में मिठाइयां
बांटते हैं। बाजार नये-नये सामानों से
सज जाते हैं। बाजारों
में रौनक तो देखते
ही बनती है। महालक्ष्मी
सांसारिक, दैहिक, दैविक और भौतिक दृश्य-अदृश्य सभी प्रकार की
संपत्तियों एवं निधियों की
अधिष्ठात्री है। दीपावली का
दिन महालक्ष्मी की पूजा का
श्रेष्ठ दिन है। इस
दिन शास्त्रोक्त विधान से किया गया
लक्ष्मी पूजन व्यक्ति को
समस्त भौतिक सुख-समृध्दि प्रदान
कर वर्ष भर आने
वाली आर्थिक समस्याओं को दूर करता
है। भगवान गणेश सिध्दि-बुध्दि
एवं शुभ-लाभ के
दाता तथा सभी अमंगलों
एवं अशुभों के नाशक हैं।
सामाजिक और धार्मिक दोनों
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है दीपावली
शास्त्रों में कहा गया
है कि बिना बुध्दि
और ज्ञान के लक्ष्मी प्राप्ति
असंभव है। अतः लक्ष्मी
के साथ बुध्दिमता गणेश
एवं ज्ञान की देवी मां
सरस्वती का पूजन अनिवार्य
है। दीपावली की रात्रि को
महानिशीथ के नाम से
जाना जाता है। और
इस रात्रि में कई प्रकार
के तंत्र-मंत्र से महालक्ष्मी की
पूजा-अर्चना कर पूरे साल
के लिए सुख-समृद्धि
और धन लाभ की
कामना की जाती है।
दीपावली का सामाजिक और
धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व
है। इसे दीपोत्सव भी
कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’
अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात
प्रकाश की ओर जाइए’
यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख,
बौद्ध तथा जैन धर्म
के लोग भी मनाते
हैं। दीपावली से दो दिन
पूर्व धनतेरस का त्योहार आता
है। इस दिन बाजारों
में चारों तरफ जनसमूह उमड़
पड़ता है। बरतनों की
दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई
देती है। धनतेरस के
दिन बरतन खरीदना शुभ
माना जाता है अतैव
प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता
अनुसार कुछ न कुछ
खरीदारी करता है। इस
दिन तुलसी या घर के
द्वार पर एक दीपक
जलाया जाता है। इससे
अगले दिन नरक चतुर्दशी
या छोटी दीपावली होती
है। इस दिन यम
पूजा हेतु दीपक जलाए
जाते हैं। अगले दिन
दीपावली आती है। इस
दिन घरों में सुबह
से ही तरह-तरह
के पकवान बनाए जाते हैं।
बाजारों में खील-बताशे,
मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने,
लक्ष्मी-गणेश आदि की
मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और
पटाखों की दूकानें सजी
होती हैं। सुबह से
ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों,
सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ
व उपहार बाँटने लगते हैं। पूजा
के बाद लोग अपने-अपने घरों के
बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ
जलाकर रखते हैं। चारों
ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर
दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से
बाजार व गलियाँ जगमगा
उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों
व आतिशबाजियों का आनंद लेते
हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ,
आतिशबाजियाँ व अनारों के
जलने का आनंद प्रत्येक
आयु के लोग लेते
हैं। देर रात तक
कार्तिक की अँधेरी रात
पूर्णिमा से भी से
भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई
पड़ती है। दीपावली से
अगले दिन गोवर्धन पर्वत
अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र
के कोप से डूबते
ब्रजवासियों को बनाया था।
इसी दिन लोग अपने
गाय-बैलों को सजाते हैं
तथा गोबर का पर्वत
बनाकर पूजा करते हैं।
अगले दिन भाई दूज
का पर्व होता है।
दीपावली के दूसरे दिन
व्यापारी अपने पुराने बहीखाते
बदल देते हैं। वे
दूकानों पर लक्ष्मी पूजन
करते हैं। उनका मानना
है कि ऐसा करने
से धन की देवी
लक्ष्मी की उन पर
विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के
लिये इस पर्व का
विशेष महत्त्व है। खरीफ की
फसल पक कर तैयार
हो जाने से कृषकों
के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं।
कृषक समाज अपनी समृद्धि
का यह पर्व उल्लासपूर्वक
मनाता हैं। अंधकार पर
प्रकाश की विजय का
यह पर्व समाज में
उल्लास, भाई-चारे व
प्रेम का संदेश फैलाता
है। यह पर्व सामूहिक
व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए
जाने वाला ऐसा विशिष्ट
पर्व है जो धार्मिक,
सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता
रखता है। कार्तिक मास
की अमावस्या के दिन भगवान
विष्णु क्षीरसागर की तरंग पर
सुख से सोते हैं
और लक्ष्मी जी भी दैत्य
भय से विमुख होकर
कमल के उदर में
सुख से सोती हैं।
इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति
का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं।
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