Tuesday, 3 December 2024

‘कुंभ’ में छिटकी ‘अमृत बूंदे’

कुंभमें छिटकीअमृत बूंदे’ 


ज्योति धाम सविता प्रबल, तुमरे तेज़ प्रताप। छार-छार है जल बहै, जनम-जनम गम पाप।।कहते है महाकुंभ के दौरान संगम तट स्नान दान और पूजापाठ से जन्मों के पाप मिट जाते हैं। खासकर संगम तट पर कल्पवास का विशेष महत्त्व है। जी हां प्रयागराज में संगम तट पर ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, रुद्र, आदित्य भ्रमण करते हैं। पुराणों में भी कुंभ स्नान को नारायण की सिद्धि का सुगम मार्ग बताया गया है। प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार तीर्थों का समागम होता है। तिल, गुड़ ऊनी वस्त्र दान देने से कार्यक्षेत्र में सफलता मिलती है। विवादों में जीत हासिल होती है। विष्णु धर्मसूत्र शास्त्र में भी बताया गया है संगम में सुर्योदय से पहले स्नान करना सर्वश्रेष्ठ है। व्युत्पत्ति के लिहाज से कुंभ मूल शब्दकुंभक’ (अमृत से भरा पवित्र कलश) से आया है। प्रयागराज कुंभ तीन नदियों का संगम है। जो बौद्धिक मंथन और बुद्धिमता का प्रतीक है। यह स्थल चिरकाल से ही देश की यात्रा का हिस्सा रहा है। वेदों के में उल्लेख है किस तरह ’’देवताओं और दानवों के बीच उस अमृत के कुंभ (पवित्र कलश) को लेकर लड़ाई हुई थी, जिसे समुद्र मंथन से निकला रत्न कहा जाता है।’’ कुंभ मेले के मूल स्वरूप का लिखित वर्णन 8वीं सदी के दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने किया है, जो मानते थे कि कुंभ चेतना और एकता का सार है। ’’कुंभ भारतीय सभ्यता का लघु रूप है। भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की पूर्णता की नुमाइंदगी करता है कुंभ। आनुष्ठानिक स्नान की भारतीय अवधारणा की तरह कुंभ अब जल के प्रवाह के समान ही जीवन के प्रवाह को दर्शाता है। ’’कुंभ सरीखा शुभ और मांगलिक उत्सव अर्ध या अधूरा नहीं बल्कि परिपूर्ण, संपूर्ण और पूर्ण ही हो सकता है।’’ कुंभ के तीन उद्देश्य हैं- स्नान, ध्यान और दान (पवित्र संगम में नहाना, ध्यान लगाना और परोपकार के काम करना) परोपकार के ऐतिहासिक प्रमाण राजा हर्षवर्धन के साथ ही शुरू हो जाते हैं, जो अपनी पांच साला सभाएं प्रयाग में पवित्र संगम की रेत पर किया करते थे और परोपकार की शानदार मिसाल कायम करते हुए पहने हुए वस्त्रों सहित अपना तमाम माल-असबाव और संपत्ति दान कर दिया करते थे  



सुरेश गांधी 

गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम इलाहाबाद में आस्था और विश्वास का प्रतीक कुंभ मेला की तैयारी अंतिम दौर मेकं है। ठंड के बावजूद यहां लाखों आस्थावान डूबकी लगाने कल्वास के लिए पहुंचने लगे है। इन दिनों पूरा संगम स्थल तंबू-कनात बिजली के बल्वों से सज गया है। कुंभ मेले का एक आकर्षण है कल्पवास. ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोई’ ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोईअर्थात माघ माह में मकर राशि पर भगवान सूर्य जाते हैं और तीर्थों के राजा प्रयाग के संगमत तट पर कल्पवास शुरू हो जाता है। कल्पवास का अपना अलग ही आध्यात्मिक महत्व होता है। बड़े-बड़े साधु महात्माओं का प्रवचन सुनने को मिलता है। जहां पर धर्म की एक अलग ही दुनिया बसती है। इसी वजह से अनादि काल से प्रयाग ऋषियों महात्माओं की तपोस्थली रही है। गंगा को स्वर्ग की नदी माना जाता है। यह पृथ्वी पर भगीरथ के तप से आयी और सगर के पुत्रों का उद्धार करते हुए सागर में मिल गयी। जिस दिन गंगा सागर में मिली थी वह मकर संक्रान्ति का दिन था। इसलिए मकर संक्रान्ति के दिन गंगा स्नान का पुण्य कई गुणा बताया गया है। पद्म पुराण के अनुसार, कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना चाहिए. कल्पवास में सत्य बोलना, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, समेत कई अन्य नियमों का पालन करना पड़ता है. प्राचीन हिंदू वेदों में चार युगों- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में कुल वर्षों के बराबर कालकल्पका उल्लेख है. कहा जाता है कि कल्पवास करने वाले व्यक्ति को पिछले सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है. साथ ही कल्पवास करने वाले व्यक्ति को कुंभ के दौरान हर सूर्योदके समय गंगा में डुबकी लगाकर सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए

मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश मिला था जिसे पाने के लिये देवताओं और राक्षसों में महायुद्ध हुआ। इस महासंग्राम में ही अमृत कलश की कुछ बूंदे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक में गिरी। उसके बाद से ही इन स्थानों पर हर पांच या छह साल बाद कुंभ मेला होता है। चूंकि प्रयाग, इलाहाबाद में कलश से ज्यादा बूंदें गिरी थीं इसलिये संगम की मान्यता ज्यादा है और हर 12 साल बाद यहां महाकुंभ लगता है।

माघे मासे महादेवः यो दास्यति घृतकम्बलम्।

भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।।

मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। कल्पवास करने वाले एक समयावधि के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित कर देते हैं. इस दौरान उन्हें कठिन साधना से गुजरना होता है. कल्पवास को आध्यात्मिक विकास और आत्मशुद्धि का मार्ग माना जाता है। इस बीच माघ मेले में कल्पवास करने वाले लोग कड़ाके की सर्दी में गंगा तट पर झोपड़ी में रहकर ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने में जुटे हैं। वहीं दूसरे लोग प्रमुख स्नान पर्वों पर जुटेंगे।

अर्थ धर्म काम रुचि, गति चहुं निर्वाण।

जन्म-जन्म सियराम जी पद, यह वरदान दे आज 

अर्थात धर्म पुण्य के लिए हमेशा भगवान के साथ मन लगा रहे इसलिए कल्पवास के समय एक माह तक यह वरदान मांगा जाता है। प्रतिदिन शांति सुकून के साथ भगवान का स्मरण करना अद्भुत लगता है। कुंभ नगरी दिन में जितनी खूबसूरत लगती है रात में उतनी ही रंगीन लगती है। इस कुंभ नगरी के रात के नजारे को देख कर ऐसा लगता है मानो करोड़ों सितारे ब्रह्मांड से उतर कर धरती पर गए हों। इस अद्भुत नजारे को देखने के लिए श्रृद्धालु दिन से ज्यादा रात में संगम आते हैं। संगम नगरी में हर साल की तरह इस बार भी एक नया शहर बसाया गया है। इलाहाबाद में गंगा यमुना और सरस्वती के संगम पर स्थित हैं। चूकि यहाँ तीन नदियाँ आकर मिलती हैं। अतः इस स्थान को त्रिवेणी के नाम से भी संबोधित किया जाता हैं। शायद यही वजह है कि कुंभ देश ही नहीं सात समुंदर पार विदेशियों के भी आस्था का केन्द्र रहा है। साधु-संतों की मौजूदगी उनके प्रवचन उन्हें यहां बरबस ही खींच लाते हैं।

भारतीय परम्परा के अनुसार, चार सर्वमान्य आश्रमों के सिद्धांत ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के अंतर्गत तीसरे आश्रम वालों यानी उन गृहस्थों के लिए जो अपनी आयु के 50 साल पूरे कर चुके हैं। कल्पवास उनके लिए निश्चित किया गया था। गृहस्थ आश्रम व्यतीत कर चुके गृहस्थी लोग उस वक्त अपना अधिकतर समय अरण्य यानी जंगल में गुजारा करते थे। कल्प उसे कहा जाता है जब ईश्वरासक्त होकर पूरे ब्रह्मचर्य के साथ एक प्रकार ही दिनचर्या को एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है। इस प्रकार की दिनचर्या को प्रायः लंबी अवधि वाले धार्मिक अनुष्ठानों के दिनों में किया जाता है। कुंभ भी एक लंबा धार्मिक अनुष्ठान है। इसलिए कुंभ की पूरी अवधि, जो लगभग 50 दिनों की होती है, इसमें भगवान की भक्ति में आसक्त होकर पूरे दिन हवन, मंत्र जाप, स्नान आदि जैसी क्रियाओं को कल्पवास कहा जाता है। पौष मास की ग्यारहवीं तिथि से लेकर माघ मास की बारहवीं तिथि तक की अवधि को प्रायः कल्पवास के लिए उचित समय माना जाता है।

पौष पूर्णिमा के साथ आरंभ होने वाले कल्पवास के दौरान श्रद्धालु संगम के तट पर अपना डेरा जमाते हैं। लगभग एक महीने तक वहीं रहते हैं. कल्पवास एक बहुत ही कठिन साधना है. कल्पवास के दौरान व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना पड़ता है. कल्पवास कर रहे व्यक्ति को जमीन पर सोना पड़ता है. कल्पवास शुरू करने के बाद इसे पूरे 12 वर्षों तक जारी रखना होता है. कल्पवास के दौरान साफ सुथरे पीले और सफेद रंग के कपड़ों का अधिक महत्व होता है. कल्पवास के दौरान व्यक्ति दिन में एक बार ही भोजन कर सकता है. साथ ही व्यक्ति को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना जरूरी होता है. साल 1954 में कुंभ मेले में भारत के सबसे पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अकबर के किले में कल्पवास किया था. उनके कल्पवास के लिए खास तौर पर किले की छत पर कैंप लगाया गया था. यह जगह प्रेसिडेंट व्यू  के नाम से जानी जाती है. प्रयागराज में चल रहे कुंभ में करोड़ों की तादाद में श्रद्धालु पहुंच रहे हैं. प्रयागराजमें गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम पर कल्पवास की परंपरा आदिकाल से अभी तक चली रही है.

कैसे होता है कल्पवास

कल्पवास के लिए प्रयाग में संगम के तट पर डेरा डाल कर भक्त कुछ विशेष नियम धर्म के साथ महीना व्यतीत करते हैं। कुछ लोग मकर संक्रांति से भी कल्पवास आरंभ करते हैं। मान्यता के अनुसार कल्पवास मनुष्य के लिए आध्यात्मिक विकास का जरिया माना जाता है। संगम पर माघ के पूरे महीने निवास कर पुण्य फल प्राप्त करने की इस साधना को कल्पवास कहा जाता है। कहते हैं कि कल्पवास करने वाले को इच्छित फल प्राप्त होने के साथ जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति भी मिलती है। महाभारत के अनुसार सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने के फल बराबर पुण्य माघ मास में कल्पवास करने से ही प्राप्त हो जाता है। इस अवधि में साफ सुथरे श्वेत या पीले रंग के वस्त्र धारण करना उचित रहता है। शास्त्रों के अनुसार कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि हो सकती है वहीं तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर भी कल्पवास किया जा सकता है।

कल्पवास के नियम

कल्पवास के लिए माना जाता है कि संसारी मोह-माया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए क्योंकि जिम्मेदारियों से जकड़े व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण थोड़ा कठिन माना जाता है। कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर शयन करना होता है। इस दौरान फलाहार, एक समय का आहार या निराहार रहने का भी प्रावधान है। कल्पवासी को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना चाहिए। कल्पवास की शुरूआत करने के बाद इसे 12 वर्षों तक जारी रखने की परंपरा है। वैसे, इससे अधिक समय तक भी इसे जारी रखा जा सकता है। कुम्भ मेले के दौरान कल्पवास का महत्व और अधिक हो जाता है। इसका जिक्र वेदों और पुराणों में भी मिलता है। हालांकि कल्पवास कोई आसान प्रक्रिया नहीं है। जाहिर है मोक्षदायनी ये विधि एक कठिन साधना है। इसमें पूरे नियंत्रण और संयम का अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है। पद्म पुराण में इसका जिक्र करते हुए महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास के नियमों के बारे में विस्तार से चर्चा की है। जिसके अनुसार 45 दिन तक कल्पवास करने वाले को 21 नियमों का पालन करना होता है। पहला नियम हैं सत्यवचन, दूसरा अहिंसा, तीसरा इन्द्रियों पर नियंत्रण, चौथा सभी प्राणियों पर दयाभाव, पांचवां ब्रह्मचर्य का पालन, छठा व्यसनों का त्याग, सातवां ब्रह्म मुहूर्त में जागना, आठवां नित्य तीन बार पवित्र नदी में स्नान, नवां त्रिकाल संध्या, दसवां पितरों का पिण्डदान, ग्यारहवां दान, बारहवां अन्तर्मुखी जप, तेरहवां सत्संग, चौदहवां संकल्पित क्षेत्र के बाहर जाना, पंद्रहवां किसी की भी निंदा ना करना, सोलहवां साधु सन्यासियों की सेवा, सत्तहरवां जप एवं संकीर्तन, अठाहरवां एक समय भोजन, उन्नीसवां भूमि शयन, बीसवां अग्नि सेवन कराना और इक्कीसवां देव पूजन। इनमें से सबसे ज्यादा महत्व ब्रह्मचर्य, व्रत,उपवास, देव पूजन, सत्संग और दान का माना गया है।

कैसे करे कल्पवास

कल्पवास मतलब संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। संगम में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है। कल्पवास के दौरान एक समय भोजन और तीन बार स्नान, गंगा में नहाना, गंगा जल पीना, उसी में बना भोजन करना और गंगा की ही पूजा करने का प्राविधान है। एक माह तक चलने वाली यह कठिन तपस्या है। कल्पवास का पालन करके अंतःकरण और शरीर दोनों का कायाकल्प हो सकता है। कल्पवास के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजन किया जाता है। साथ ही कल्पवास करने वाला अपने रहने के स्थान के पास जौ के बीज रोपता है। जब ये अवधि पूर्ण हो जाती है तो वे इस पौधे को अपने साथ ले जाते हैं जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। पुराणों में बताया गया है कि देवता भी मनुष्य का दुर्लभ जन्म लेकर प्रयाग में कल्पवास करें। महाभारत के एक प्रसंग में बताया गया है कि मार्कंडेय ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है, और जो कोई एक महीना, इंद्रियों को वश में करके यहां पर स्नान, ध्यान और कल्पवास करता है, उसके लिए स्वर्ग में स्थान सुरक्षित हो जाता है।

कल्पवास यानी ब्रह्मा का एक दिन

प्रयाग में कल्पवास की परंपरा आदिकाल से चली रही है। ऐसा माना जाता है कि प्रयाग में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प (ब्रह्मा का एक दिन) का पुण्य मिलता है। इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है। आज भी कल्पवास नई और पुरानी पीढ़ी के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण और आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं, लेकिन तो कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी आई है, ही आधुनिकता इस पर हावी हुई है।

 

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