सकारात्मक परिवर्तन और समृद्धि का संकेत है मकर संक्रांति
मकर संक्रांति सूर्यदेव की आराधना का पर्व है. या यूं कहे जब ग्रहों के राजा सूर्य देव मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब मकर संक्रांति मनाया जाता है। यह दिन सूर्य के उत्तरायण होने का प्रतीक है, जिसे भारतीय संस्कृति में सकारात्मक परिवर्तन और समृद्धि का संकेत माना जाता है. इसी कारण इसको उत्तरायणी भी कहते हैं. खास यह है कि सूर्य की उत्तरायण गति आरंभ होने से सभी राशि को भी प्रभावित करते हैं. लेकिन, जब सूर्य के कर्क तथा मकर राशि में प्रवेश करते है तब जातकों के लिए बहुत ही फलदायक होता है. इस दिन सूर्य देव की पूजा-उपासना करते हैं. यह दिन अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है, और इसके साथ ही यह समय नई शुरुआत, आध्यात्मिक साधना और अच्छे कार्यों की शुरुआत के लिए शुभ माना जाता है. कहते है मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव की आराधना करने से जातक के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और घर में सुख-समृद्धि के साथ साथ खुशहाली आती है. इसी दिन गंगा भागीरथ के पीछे -पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए गंगासागर में जाकर मिली थी. इसी कारण संक्रांति के दिन गंगा या संगम में स्नान करने को कहा जाता है. कहते है गंगा में डूबकी लगाने के बाद इस दिन दान पुण्य करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. काली उड़द की खिचड़ी, काला तिल, गुड़, नमक, सर्दियों के कपड़े, तेल और चावल आदि का दान करना बेहद शुभ माना जाता है. इसीलिए संक्रांति को तन, मन और धन के मिलन का पर्व भी कहा जाता है. पहले देह का स्नान, फिर धन का दान और उसके बाद मन के संग ऊंची उड़ान. इस पर्व का अन्न यानी अनाज से गहरा नाता है. अन्न से मन का अटूट संबंध होता है और मन को अन्न से जोड़ने में यह उत्सव उत्प्रेरक का काम करता है. जबकि तिल के स्नेह और गुड़ के मिठास के साथ चूड़ा का मिलन समग्र समाज को जोड़ने और रिश्ते में मिठास भरने का कार्य करता है.
सुरेश गांधी
जी हां, मकर
संक्रांति छठ की तरह
ही महा लोकपर्व है.
यह किसान व खेतिहर भारत
के सहज उमंग की
अभिव्यक्ति है. मकर संक्रांति
भारत के विभिन्न हिस्सों
में अलग-अलग नामों
और परंपराओं के साथ मनाई
जाती है। तमिलनाडु में
इसे पोंगल कहते हैं, जिसमें
सूर्य देवता को धन्यवाद देते
हुए विशेष मीठा व्यंजन तैयार
किया जाता है. गुजरात
और राजस्थान में इसे उत्तरायण
कहा जाता है, और
इस दिन लोग गुब्बारे
उड़ाते हैं, जो उत्साह
और खुशी का प्रतीक
होते हैं. पंजाब और
हरियाणा में इसे माघी
के नाम से मनाते
हैं, जहां लोग नदी
में स्नान करते हैं और
खास व्यंजन जैसे खीर और
तिल गुड़ खाते हैं.
महाराष्ट्र में तिल गुड़
बांटना, जो प्रेम और
एकता का प्रतीक होता
है. बंगाल में गंगा सागर
मेला जैसे बड़े आयोजन
होते हैं, जिसमें लाखों
श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं. दक्षिण
भारत में पोंगल के
दौरान रंग-बिरंगे कोलम
(रंगोली) बनाए जाते हैं
और सामूहिक भोज होता है.
बांगलादेश में पौष संक्रांति,
नेपाल में माघी संक्रांति,
थाइलैंड में सोंगकरन, तो
लाओस में पी मा
लाउ, म्यांमार में इसे थिरआन
के रूप में मनाया
जाता है. श्रीलंका में
पोंगल और उझवल तिरूनल
के रूप में प्रसिद्ध
है. मतलब साफ है
मकर संक्रांति न केवल धार्मिक
महत्व रखता है, बल्कि
यह सामूहिकता, प्रेम और आस्था का
पर्व भी है. यह
पर्व हमें एकजुट होने,
अच्छे कार्यों को करने और
जीवन में सकारात्मक बदलाव
लाने की प्रेरणा देता
है. इस दिन गंगा,
यमुना, तीर्थराज प्रयाग के संगम या
गोदावरी जैसी पवित्र नदियों
में स्नान करते है।
कहते है इससे
आत्मा शुद्ध होता है। सूर्य
देवता को खाने की
सामग्री अर्पित कर उनका आभार
व्यक्त करने का भी
दिन है। इस दिन
दान-पूण्य के साथ अपने
पूर्वजों के लिए पिंडदान
और अन्य श्राद्ध कर्म
करना बेहद फलदायी होता
है। संक्रांति दिन-रात दोनों
का उत्सव है. सुबह में
व्रत है, दिन का
उत्सव है, शाम का
पर्व और रात को
कल्पवास का कठिन तप.
अहले सुबह से ही
स्नान, ध्यान और दान का
कार्यक्रम शुरू हो जाता
है, दिन की शुरुआत
के साथ नवान्न से
बने विविध व्यंजनों के भोग से
समाज में मिठास का
संबंध बनाया जाता है. इन
सब के साथ प्रकृति
की नूतन फसल है,
नवीन व्यंजन है, अस्तित्व के
रस और रंग हैं.
यह त्योहार यौवन को जगाता
है, बचपन को मनाता
है और बुढ़ापे में
नव उमंग जगाता है.
इतना मंगलकारी है कि और
कोई कामना की इच्छा नहीं
रहती है. यह शिशिर
के शीत और वसंत
के मिठास की संधि है.
यह उत्सव आकाश और धरती
का मिलन है और
समग्र रूप से लोक
और शास्त्र का सुंदर समन्वय
है. उत्सवधर्मी इस देश में
राष्ट्रीय पर्व का कोई
आधार हो, तो मकर
संक्रांति ही वह राष्ट्रीय
त्योहार है.
इस दिवस से
दिन बड़ा होने लगता
है और रात छोटी
होती है. इस कारण
से मकर संक्रांति को
अंधकार से प्रकाश की
ओर अग्रसर होने का पर्व
भी कहते हैं. भीष्म
पितामह ने इस संक्रांति
को देह त्याग के
लिए उपयुक्त माना, तो यह साधना
और सिद्धि का भी एक
अवसर हो जाता है.
यह देवताओं का नूतन दिवस
है. जहां संक्रांति है,
वहां तिल है, गुड़
है, चूड़ा और दही
है. दान है, स्नान
है और संग में
उत्सव का आनंद है.
खिचड़ी है, जिसमें सभी
अन्नों का सम्मिश्रण है,
जो पक कर शरीर
के लिए सुपाच्य भोजन
हो जाता है. संक्रांति
भारतीय लोक में शास्त्रीयता
का अनुष्ठान है, तो राष्ट्रीय
जीवन में लोक का
उत्साह भी है. हवा-धूप के साथ-साथ प्रकृति के
अन्य उपकरणों से फागुनी मिजाज
टपकने लगता है. मकर
संक्रांति के साथ सारा
कुछ बदला-बदला सा
लगने लगता है. सब
कुछ करवट लेने लगता
है- गांव से लेकर
महानगरों तक. यह नयी
फसलों के घरों तक
आ जाने से उल्लसित
किसानों का उत्सव है.
इस दिन या इसके
आसपास से मौसम के
मिजाज बदल जाते हैं.
पछुआ हवा तेज हो
जाती है और इसमें
कनकनी की मार अधिक
से अधिक बेदम हो
जाती है.
सूर्य की किरण में
ताप बढ़ जाता है,
इसकी कोमलता व मिठास घटने
लगती है. मकर संक्रांति
के साथ कुछ खाद्य
सामग्री के उपयोग की
प्राचीन परंपरा है. जिन वस्तुओं
के उपयोग (खान-पान) की
परिपाटी है, उनमें प्रायः
सभी नयी फसल हैं.
धान की नयी फसल
आ चुकी होती है.
लिहाजा, दही-चूड़ा के
लिए नया चूड़ा और
और खिचड़ी के लिए नया
चावल उपलब्ध रहता है. फरही
और चूड़े की लाई
होती है. कार्तिक से
नया गुड़ बाजार में
होता है. आलू- गोभी-
टमाटर और मटर की
छीमी की नयी फसल
होती है. तिल और
गुड़ का उपयोग आने
वाले मौसम के लिए
शरीर को तैयार रखने
की समझ की अभिव्यक्ति
रही है. तिल को
सर्वोत्तम तैलीय पदार्थों में एक माना
जाता है. गुड़ शरीर
में जमें धूल-कण
की गड़बड़ियों को निकाल बाहर
करता है. दोनों- गुड़
और तिल मिल कर
शरीर की सफाई करते
हैं और कफ व
पित्त को संतुलित रखते
हैं. इसे स्वस्थ जीवन
के लिए जरूरी माना
जाता है. गुड़ और
तिल के तत्व वसंत
और उसके बाद ग्रीष्म
की प्रकृति के लिए मानव
शरीर का अनुकूलन करते
हैं.
एक अन्य पौराणिक
मान्यता के मुताबिक दक्षिणायन
का यह काल देवताओं
का काल कहा जाता
है, इसलिए इस दौरान सभी
तरह के गृहस्थ कार्य
विशेष दान-दक्षिणा और
गंगा स्नान के साथ किए
जाने चाहिए। शास्त्रों में सूर्य के
तेज, ओज और प्रकाश
को लेकर अनेक प्रतिबिम्ब
खींचे गए हैं। अथर्ववेद
में कहा गया है,
जैसे सूर्य प्रकाशमान हैं, तेज से
भरे हुए हैं, उसी
तरह से भगवान भास्कर
मुझे भी तेज से
भर दें। एक दूसरे
बिम्ब के मुताबिक, महाराज
सूर्य दक्षिण दिशा को जीत
कर, वहां मौजूद अंधकार
और शीत जैसे बैरियों
का दलन करके अब
अपने महान देश भारत
को प्रस्थान कर रहे हैं।
भारत में उनके इस
तेजस्वी रूप की हर
जगह जय-जयकार हो
रही है। जैसे सूर्य
नारायण अंधकार, शीत जैसे शत्रुओं
का दलन करके प्रजा
को ठिठुरन और संसार को
तमस से छुड़ाते हैं,
हमें भी अपने अंतरात्मा-रूपी सूर्य से
तमस, विकार और विषयों को
दूर करके जीवन को
प्रकाश से भर देना
चाहिए।
मकर संक्राति का
यही संदेश है। यदि कुंडली
को ग्लोब का प्रतीक माना
जाए तो यह राशि
दक्षिण दिशा का द्योतक
है। जब सूर्य अपनी
दिशा बदलते हैं तो 12 संक्रातियां
भी अपना पूर्व स्थान
बदल देती हैं। इस
दिन से सूर्य प्रतिदिन
एक अंश आगे बढ़ते
हैं। यही सूर्य के
ओज का कारण है।
भगवान भास्कर की रश्मियां इस
दिन से प्रखर होने
लगती हैं और धरती
पर सूर्य का प्रकाश और
भी तेजी के साथ
पहुंचने लगता है। इस
तरह वर्ष भर सूर्य
सभी राशियों को पार करते
हुए अपने अक्षांश पर
पूरे 360 डिग्री घूम जाते हैं।
इसी तरह पृथ्वी सूर्य
के चारों तरफ घूमते हुए
अपने अक्ष के दोनों
तरफ 23.27 डिग्री झुक जाती है।
वैसे तो यह झुकाव
उत्तरी ध्रुव की ओर होता
है, लेकिन सूर्य दक्षिण की तरफ बढ़ते
दिखाई पड़ते हैं। इसी
को सूर्य का दक्षिणायन कहा
जाता है। वहीं पर
एक दूसरी क्रिया उत्तरायण की भी होती
है। जब पृथ्वी दक्षिण
धु्रव की ओर झुकती
है, तब सूर्य उत्तर
की ओर बढ़ते दिखाई
देते हैं। सूर्य से
जुड़ा होने के कारण
यह पर्व प्रत्येक वर्ष
14 जनवरी को ही पड़ता
है। सूर्य कर्क रेखा से
जब आगे बढ़ते हैं,
तब देवता पृथ्वी पर होते हैं।
पूजन विधि
मकर संक्रांति के
दिन ब्रतामुहूर्त में नित्य कर्म
से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान
पर कुशासन पर बैठें और
पीले वस्त्र का आसन बिछा
कर सवा किलो चावल
और उड़द की दाल
का मिश्रण कर पीले वस्त्र
के आसन पर सम
भाव से पांच ढेरी
रखें। फिर दाहिने क्रम
से पंचशक्तियों की मूर्ति, चित्र
या यंत्र को ढेरी के
ऊपर स्थापित कर सुगंधित धूप
और दीपक प्रज्ज्वलित करें।
इसके बाद एकाग्रचित हो
एक-एक शक्ति का
स्मरण कर चंदन, अक्षत,
पुष्प, नैवेद्य, फल अर्पित कर
पंचोकार विधि से पूजन
सम्पन्न करें। आम की लकड़ी
हवन कुंड में प्रज्ज्वलित
कर शक्ति मंत्र की 108 आहुति अग्नि को समर्पित कर
पुनः एक माला मंत्र
जाप करें। वेद, पुराण के
अनुसार यदि किसी भी
देवी-देवता की साधना में
उस शक्ति के गायत्री मंत्र
का प्रयोग किया जाए तो
सर्वाधिक फलित माना जाता
है। इसलिए पंचशक्ति साधना में इसका प्रयोग
करना चाहिए। श्री गणेश गायत्री
मंत्र- ऊं तत्पुरुषाय विद्महे
वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ति प्रचोदयात्! श्री शिव गायत्री
मंत्र- ऊं महादेवाय विद्महे
रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो शिव प्रचोदयात! श्री
विष्णु गायत्री मंत्र- ऊं श्री विष्णवे
च विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुरू प्रचोदयात! महालक्ष्मी गायत्री मंत्र- ऊं महालक्ष्मयै च
विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो
लक्ष्मी प्रचोदयात! सूर्य गायत्री मंत्र- ऊं भास्कराय विद्महे
महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात! मंत्र जाप समाप्त कर
पंचशक्तियों की क्रमशः पंचज्योति
के साथ आरती करें
और पुष्पांजलि अर्पित कर तिल के
लड्डू, फल, मिष्ठान्न, खिचड़ी,
वस्त्र आदि का सामर्थ्य
के अनुसार सुपात्र को दान दें।
यदि दान की वस्तुओं
की संख्या 14 हो तो विशेष
शुभ माना जाता है।
पितरों का श्राद्ध और तिल का है महत्व
मकर संक्रान्ति के
दिन पितरों की मुक्ति के
लिए तिल से श्राद्ध
करना चाहिए। वैसे भी मकर
संक्रांति के अवसर पर
तिल से सूर्य की
पूजा के संदर्भ में
श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण
में उल्लेख है। पुत्र शनि
एवं अपनी दुसरी पत्नी
छाया के श्राप के
कारण सूर्य भगवान को कुष्ठ रोग
हो गया, किन्तु यमराज
के प्रयत्न से कुष्ठ रोग
समाप्त हो गया, लेकिन
सूर्यदेव ने क्रोधित होकर
शनि के घर कुंभ
राशि को जलाकर राख
कर दिया। इससे शनि और
उनकी माता को कष्ट
का सामना करना पड़ रहा
था। यमदेव ने अपनी सौतेली
माता और भाई शनि
के कल्याण के लिए पिता
सूर्य को काफी समझाया,
तब जाकर सूर्यदेव शनि
के घर कुभ में
पहुंचे। वहां सबकुछ जला
हुआ था। शनिदेव के
पास तिल के अलावा
कुछ नहीं था इसलिए
उन्होंने सूर्यदेव की काले तिल
से पूजा की। इससे
प्रसंन होकर सूर्यदेव ने
आर्शीवाद दिया कि शनि
का दुसरा घर मकर राशि
मेरे आने पर धन्य-धान्य से भर जायेगा।
तिल के कारण ही
शनिदेव को उनका वैभव
फिर से प्राप्त हुआ
था इसलिए शनिदेव को तिल प्रिय
है। इसी समय से
मकर संक्रांति पर तिल से
सूर्य एवं शनि की
पूजा का विधान है।
शिव रहस्य, ब्रह्मपुराण, पद्म पुराण आदि
में भी मकर संक्रांति
पर तिल दान करने
पर जोर दिया गया
है। शनि को खुश
करने के लिए काली
उड़द की दाल भी
दान व खायी भी
जाती है। एक मान्यता
यह भी है कि
इस तिथि को ही
स्वर्ग से गंगा की
अमृत धारा धरती पर
उतरी थी।
शनि देव मकर
राशि के स्वामी हैं
और इस तिथि को
सूर्य मकर राशि में
प्रवेश करते हैं। वैसे
भी इसका वैज्ञानिक पक्ष
यह है कि संक्रांति
के दिन उड़द की
खिचड़ी व तिल खाने
का खास महत्व है।
इस दिन से सूर्य
की रश्मियां तीब्र होने लगती है
जो शरीर में पाचक
अग्नि उद्दीप्त करती है। उड़द
की दाल व दही
के रुप में प्रोटीन
और चूड़ा व चावल
के रुप में कार्बोहाइडेट
जैसे पोषक तत्वों को
अवशोषित करने के लिए
यह समय अनुकूल होता
है। गुड़ रक्तशोधन का
कार्य करता है तथा
तिल, मूगफली शरीर में वसा
की आपूर्ति करता है। मकर संक्रांति धर्म
के चारों आयाम से जुड़ा
है. इसमें धर्म है, जहां
स्नान, ध्यान और पूजा-पाठ
का विधान है. इसके बाद
इसमें संस्कृति है, जिसमें प्रकृति,
नृत्य और संगीत का
सतरंगी जीवन, खानपान की विविध आकृति
के साथ समृद्ध परंपरा
की कृति है. इसमें
ज्योतिष और खगोलशास्त्र का
पाठ है. माघ, संक्रांति,
ऋतु, नक्षत्र, उत्तरायण आदि विभिन्न नामों
की गांठ है. इसके
बाद लोक और व्यवहार
के साथ विज्ञान और
अध्यात्म का संयोग है.
इसमें नयी फसल, नये
दिन, नवीन अवसर, नूतन
उत्साह और नव गति
का प्रयोग शामिल होता है. ऋतु
के साथ परिवर्तन होता
है, लेकिन परिवर्तन को उत्सव और
रचनाधर्मिता का रूप केवल
मकर संक्रांति में ही मिलता
है. इस परिवर्तन के
साथ जगत की सारे
क्रियाएं बाहर में की
जाती हैं, लेकिन इस
क्रिया की प्रतिक्रिया हमारे
अंतर्मन और अंतर्जगत में
होती है. इस प्रतिक्रिया
के प्रभाव से बदलाव के
साथ साम्य बैठाने की कला और
उसके साथ आगे बढ़ने
का प्रयास इस संक्रांति में
किया जाता है. सूर्य
जब एक राशि को
छोड़कर दूसरी राशि में प्रवेश
करता है, तब उसे
संक्रांति कहते हैं. मकर
संक्रांति ऋतु और नक्षत्र
के बदलाव का पर्व है.
जैसा बदलाव सूर्य में होता है,
वैसा हमारे जीवन में बदलाव
हो, इसलिए संक्रांति की साधना जरूरी
है. संक्रांति में संकल्प को
जीवन में दृढ़ता से
उतारने का सूर्य एक
आधार बनता है. ऐसे
में हमें भी सूर्य
की तरह कर्तव्यनिष्ठ होकर,
अपने जीवन का सफर
करना चाहिए. दरअसल, इस दिन से
भगवान भास्कर की गति दक्षिण
से उत्तर की ओर हो
जाती है. सूर्य के
उत्तरायण होने से यह
देवताओं का दिन माना
जाता है. इस अवसर
पर शुभ कार्यो का
फल शीघ्र मिलता है. उसमें स्नान,
दान, जप, हवन और
श्रद्धा करने से पुण्य
के भागी बनते हैं.
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