अड़भंगी भक्तों ने खेली बाबा विश्वनाथ संग चिता भस्म की होली
महाश्मशान ही
वो
स्थान
है,
जहां
कई
वर्षों
की
तपस्या
के
बाद
महादेव
ने
भगवान
विष्णु
को
संसार
के
संचालन
का
वरदान
दिया
था।
काशी
के
मणिकर्णिका
घाट
पर
शिव
ने
मोक्ष
प्रदान
करने
की
प्रतिज्ञा
ली
थी।
काशी
दुनिया
की
एक
मात्र
ऐसी
नगरी
है
जहां
मनुष्य
की
मृत्यु
को
भी
मंगल
माना
जाता
है।
मृत्यु
को
लोग
उत्सव
की
तरह
मनाते
है।
मय्यत
को
ढोल
नगाडो
के
साथ
श्मशान
तक
पहुंचाते
है
सुरेश गांधी
मान्यता
है कि रंगभरी
एकादशी एकादशी के दिन
माता पार्वती का
गौना कराने बाद
देवगण एवं भक्तों
के साथ बाबा
होली खेलते हैं।
लेकिन भूत-प्रेत,
पिशाच आदि जीव-जंतु उनके
साथ नहीं खेल
पाते हैं। इसीलिए
अगले दिन बाबा
मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान
करने आते हैं
और अपने गणों
के साथ चीता
भस्म से होली
खेलते हैं। नेग
में काशीवासियों को
होली और हुड़दंग
की अनुमति दे
जाते हैं। कहते
है साल में
एक बार होलिका
दहन होता है,
लेकिन महाकाल स्वरूप
भगवान भोलेनाथ की
रोज होली होती
है। काशी के
मणिकर्णिका घाट सहित
प्रत्येक श्मशान घाट पर
होने वाला नरमेध
यज्ञ रूप होलिका
दहन ही उनका
अप्रतिम विलास है। सालों
से चली आ
रही परंपरा के
तहत एकबार फिर
मणिकर्णिका महाश्मशान पर होली
का अद्भुत नजारा
लोगों के लिए
यादगार बन गया।
एक तरफ चिताएं
धधकती रहीं तो
दूसरी ओर बुझी
चिताओं की भस्म
से अड़भंगी शिव
की काशी के
अड़भंगी भक्तों ने चिता
भस्म की होली
खेली। साधु-संत
हो या कोई
और सबके सब
चीताओं की राख
से होली खेलने
में रमे रहे।
ढोल, मजीरे और
डमरुओं की थाप
के बीच भक्तगण
जमकर झूमे और
हर हर महादेव
के उद्घोष से
महाश्मशान गूंजता रहा। खास
यह रहा जब
सितार की झंकार
के बीच ‘होरी
खेलें मसाने में...‘
के बोल पर
होरी गूंजी तो
चाहे वह शव
संग आएं परिजन
हो या खाटी
बनरसिएं थिरकने से खुद
को नहीं रोक
सके। दुनिया के
कई देशों के
पर्यटक भी चिता
की भस्म से
होली खेलने के
उन क्षणों के
साक्षी बने। गौरा
का गौना कराने
के दूसरे दिन
मंगलवार को मणिकर्णिका
श्मशान पर होली
देखने के लिए
भीड़ उमड़ पड़ी।
दोपहर 12 बजे मशानेश्वर
महादेव की भोग
आरती हुई। इसके
बाद सैकड़ों भक्त
डमरू, त्रिशूल के
साथ चिताओं की
भस्म उड़ाकर होली
खेलने लगे। ऐसा
सिर्फ काशी में
ही होता है।
यहां के लोग
महादेव से होली
खेलते हैं।
उसी
परंपरा का निर्वाह
करते हैं काशी
के लोठंडी चिताओं
की भस्म के
साथ भभूत उड़ाई
जाने लगी। साथ
में कुछ युवक
अबीर और गुलाल
की भी बौछार
घाटों से करने
लगे। श्मशान पर
अंतिम संस्कार के
लिए शवों को
लेकर गमगीन लोग
भी घाट पर
पहुंचते रहे। कहीं
चिताएं लगती रहीं
तो कहीं मुखाग्नि
दी जाती रही।
इसके बीच बाबा
के गणों के
रूप में गंजी,
गमछा लपेटे युवाओं
की होली तमाम
विदेशी पर्यटकों के लिए
भी यादगार बनी।
लोग उन क्षणों
को कैमरे में
कैद करने के
लिए आसपास की
छतों, मुंडेरों पर
जमे रहे। इसमें
घुलते अबीर-गुलाल
ने राग विराग
को एकाकार करते
हुए जीवन दर्शन
के रंग को
चटख किया। परंपरा
के अनुसार पहले
शिव के ही
अंश माने जाने
वाले बाबा मसाननाथ
को भस्म और
अबीर चढ़ाकर भक्तों
ने एक दूसरे
को भस्म लगाया।
वैसे भी काशी
मोक्ष की नगरी
मानी जाती है।
मान्यता है कि
यहां शरीर छोड़ते
वक्त इंसान के
कानों में खुद
भगवान शंकर उसे
तारक मंत्र सुनाते
हैं। जिससे वो
जन्म मरण के
चक्र से छुटकारा
पा जाता है।
और इसकी खुशी
भी शव ले
जाते वक्त रास्ते
में नाचते गाते
परिजनों और नगाड़ों
के ढोल में
देखी और सुनी
जा सकती है।
मौत पर इस
नाच को देख
आप चैंक भी
सकते हैं। पर
काशी के फक्कड़पन
में इस तरह
की मस्ती आम
बात है।
काशी
एक ऐसा शहर
है जहां मृत्यु
का आलिंगन और
मौत पर नृत्य
होता है। ये
एक ऐसा शहर
है जहां श्मशान
में भी फागुन
मनाया जाता है।
जी हां, जीवन
के शाश्वत सत्य
से परिचित कराती
स्थली पर होली
खेलने का दृश्य
सिर्फ यहीं नजर
आता है। तभी
तो यहां की
चिताएं कभी नहीं
बुझतीं। मृत्यु के बाद
जो भी मणिकर्णिका
घाट पर दाह
संस्कार के लिए
आते हैं, बाबा
उन्हें मुक्ति देते हैं।
यही नहीं, इस
दिन बाबा उनके
साथ होली भी
खेलते हैं। मान्यता
है कि नाथों
के नाथ बाबा
विश्वनाथ के गौना
की झांकी देखने
अपने -अपने धाम
से भगवान श्रीराम
व प्रभु श्रीकृष्ण
भी आते हैं
और पुष्प वर्षा
कर शिव परिवार
को शुभकामना देते
हैं। कहते है
इस दिन बाबा
के दरबार से
कोई खाली हाथ
नहीं जाता। सभी
की मनोकामनाएं पूरी
होती हैं। कहा
यहां तक जाता
है कि काशी
का कंकड़-कंकड़
शिव है।
काशी
के हर व्यक्ति
से शिव का
सीधा संबंध है।
कुछ लोग शिव
को मित्र मानते
है, कुछ जगदंबा
भाव से पूजते
है। नारिया वत्सलता
उड़ेलती है। कुछ
शिव को मालिक
तो अपने को
दास मानते हैं।
इसके पीछे यह
भाव निहित है
कि यहां प्राण
छोड़ने वाला हर
व्यक्ति शिवत्व को प्राप्त
होता है। हर
व्यक्ति सुंदर की खोज
और आनंनद में
लीन रहता है।
तभी तो बड़े-बुढ़े आर्शीवाद
देते है तो
कहते है, मस्त
रह और मस्त
कर। लोग यहां
जितना लूटकर प्रसंन
होते है, उतना
काशी का व्यक्ति
लुटाकर प्रसंन होता है।
श्रृष्टि के तीनों
गुण सत, रज
और तम इसी
नगरी में समाहित
हैं। बाबा विश्वनाथ
की नगरी में
यह फाल्गुनी बयार
भारतीय संस्कृति का दीदार
कराती है। काशी
में बुढ़वा मंगल
मनाया ही इसीलिए
जाता है क्योंकि
जवानी की परिपक्वता
ही बुढ़वा मंगल
है। संकरी गलियों
से होली की
सुरीली धुन या
चैक-चैराहों के
होली मिलन समारोह
बेजोड़ हैं। इस
अनोखी होली का
नजारा देखने और
कैमरे में कैद
करने के लिए
हर साल कई
विदेशी सैलानी भी यहां
आते हैं।
मान्यता
के अनुसार, यहां
रंगभरी एकादशी के अगले
दिन भस्म की
होली खेली जाती
है। यह परंपरा
कब शुरू हुई?
इसका सही उत्तर
किसी के पास
नहीं है, क्योंकि
यह परंपरा कई
सदियों से चली
आ रही है।
स्नान के बाद
वे पिशाच, भूत,
सर्प सहित सभी
जीवों के साथ
होली का उत्सव
मनाते हैं। मणिकर्णिका
घाट पर होली
खेलने की तैयारियां
महाशिवरात्रि के समय
से ही प्रारंभ
हो जाती हैं।
इसके लिए चिताओं
से भस्म अच्छी
तरह से छानकर
इकट्ठी की जाती
है। वैसे भी
देवभूमि काशी को
देवो के देव
महादेव यानी बाबा
विश्वनाथ ने स्वयं
सांस्कारिक मानव कल्याण
के लिए ब्रह्मा
की सृष्टि से
बिल्कुल अलग बसाया।
कहते है श्रृष्टि
के तीनों गुण
सत, रज और
तम इसी नगरी
में समाहित है।
तभी तो यहां
यमराज का दंडविधान
नहीं, बल्कि बाबा
विश्वनाथ के ही
अंश बाबा कालभैरव
का दंडविधान चलता
है। और यहां
धार्मिक संस्कारों का पालन
करने वाला हर
प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को
प्राप्त करता है।
इससे बड़ी बात
और क्या हो
सकती है कि
महादेव न सिर्फ
अपने पूरे कुनबे
के साथ काशी
में वास किया
बल्कि हर उत्सवों
में यहां के
लोगों के साथ
महादेव ने बराबर
की हिस्सेदारी की।
खासकर उनके द्वारा
फाल्गुन में भक्तों
संग खेली गयी
होली की परंपरा
आज भी जीवंत
करने की न
सिर्फ कोशिश बल्कि
काशी के लोगों
द्वारा डमरुओं की गूंज
और हर हर
महादेव के नारों
के बीच एक-दूसरे को भस्म
लगाने परंपरा हैं।
यही वजह है
कि यहां होली
की छटा देखते
ही बनती है।
काशी का यह
भाव भौगोलिक नहीं
ऐतिहासिक है। बाबा
काशीवासियों के लिए
अनंत है, इसीलिए
अनादि भी है।
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