Thursday, 17 January 2019

‘वजूद’ की लड़ाई में ‘बबुआ’ के झांसे में ‘बुआ’?


वजूदकी लड़ाई मेंबबुआके झांसे मेंबुआ? 
                अपनी अस्तित्व को बचाएं रखने के लिए अंतिम चाल चुकी मायावती सपा के अखिलेश यादव से हाथ मिलाकर भले ही इतरा रही हो, लेकिन सच इसके उलट है। सच यह है कि अपनी मनमाफिक सीटों पर जहां-जहां प्रत्याशी उतारने का फैसला मायावती ने लिया है, वहां उनका मुकाबला सपा के दिग्गज नेता या यूं कहे उम्मींदवारों से होने वाला है। यह अलग बात है कि वे दिग्गज सपा नहीं बल्कि अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव की पार्टी प्रगतिशील माजवादी पार्टी से होगा। इसकी बड़ी वजह यह है कि जहां-जहां बसपा ने प्रत्याशी उतारने का निर्णय लिया है, वहां-वहां के दिग्गज सपाई शिवपाल यादव के संपर्क में है। माना जा रहा है कि सबकुछ ठीक रहा तो शिवपाल का अगर किसी दल से गठजोड़ भी हुआ तो वे उन सीटों को नहीं छोड़ना चाहेंगे, जहां बसपा के खाता में गया हो

सुरेश गांधी
फिरहाल, लोकसभा चुनाव के मद्देनजर चाचा शिवपाल का यूपी के जिलों में तुफानी दौरा तेज हो गया है। वे जहां पहुंच रहे है उनका सपाई कार्यकर्ता जोरदार तरीके से स्वागत कर रहे है। खासकर उन इलाकों के सपा के दिग्गज नेता स्वागत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे है, जहां की सीट बसपा कोटे में गयी है। हालांकि कुछ ऐसे भी सपा के प्रभावशाली नेता है जो अभी खुलकर शिवपाल की सभा में मंच साझा भले नहीं कर रहे है, लेकिन पिछले दरवाजे से लगातार उनके संपर्क में इस दावे के साथ है कि अगर मौका मिला तो वे ही जीतेंगे। शिवपाल भी सपा के जीताऊं नेताओं पर डोरे डालना शुरु कर दिया है। यह अलग बात है कि इस स्थिति को मुलायम सिंह यादव पहले ही भाप चुके थे। शायद इसीलिए वे बसपा से गठबंधन पर सिर्फ खफा थे, बल्कि एक न्यूज पेपर के साक्षात्कार में साफ साफ कहा था किजो सीट सपा के कोटे में नहीं आयेंगी वहां के नेता खाक छानेंगे। नेता सालभर इसीलिए अपने इलाके में जनता के बीच रहकर सेवा करता है उसे चुनाव में मौका मिलेगा।मुलायम सिंह की चेतावनी का असर सपाईयों पर कितना पड़ेगा यह तो चुनाव मैदान में पता चलेगा, लेकिन जिन नेताओं ने पिछले कई सालों से जनता के बीच रहकर तैयारी की है, वे अब शिवपाल यादव के संपर्क में है। उनका दावा है कि उनके इलाके में पार्टी के वोटबैंक पर उनका ही कब्जा होगा।
इसकी बानगी उस वक्त देखने को मिली जब वाराणसी पहुंचे प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव का सपा कार्यकर्ताओं ने जोरदार स्वागत किया। या यूं कहे सपा के गढ़ में रैली कर शिवपाल ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। चंदौली के सकलडीहा इंटर कॉलेज के मैदान में समर्थकों की भारी भीड़ देख शिवपाल गदगद हो गए। कहा, हमारी लड़ाई भाजपा से है। 45 दलों का साथ हमारे पास हैं। हमारा चुनाव सिंबल ही चाभी है। हमारा चुनावी सिंबल मास्टर की है। लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी से मुलायम सिंह यादव को ऑफर दिया है। अगर वह हमारे पार्टी से चुनाव लड़ेंगे तो हम सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारेंगे। शिवपाल ने भाजपा पर झूठे वादों से जनता को छलने वाली पार्टी बताते हुए सपा-बसपा पर भी भड़ास निकाली। कहा, जिन लोगों ने नेता जी मुलायम सिंह यादव को गाली दी, सपा को गुंडों वाली पार्टी बताया, आज उन्हीं के साथ सपा अध्यक्ष ने हाथ मिला लिया है। टिकट बेचने वाले लोग हैं, उनका कोई भरोसा नहीं है। सपा और बसपा गठबंधन का मकसद सिर्फ सीबीआई के डर से भाजपा को लाभ पहुंचाना हैं। हालांकि बसपा प्रमुख इससे इतर कहती है उनका गठबंधन कुछ पार्टियों और दलित विरोधी, जातिवादी लोगों को रास नहीं रहा। हमारे खिलाफ सिद्धांतों की लड़ाई लड़कर ऐसी पार्टियां और लोग अनाप-शनाप बयानबाजी कर रहे हैं। कुछ दलित विरोधी, जातिवादी चैनल भी हमारे खिलाफ साजिश रच रहे हैं। बसपा और सपा कार्यकर्ताओं से यही अपील है कि वह अपने गिले-शिकवे भुला कर चुनाव की तैयारी में जुट जाएं और मुझे जीत का तोहफा दें।
यह सच है कि बाबरी विध्वंस के बाद 1993 में बसपा ने दुर्जेय भाजपा को हराने के लिए सपा से हाथ मिलाया था। कुछ साल बाद 1996 में यूपी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता किया था। लेकिन इन सभी चुनाव पूर्व गठबंधन को पार्टी संस्थापक कांशीराम ने अंजाम दिया था। अब वह दौर नहीं है। मायावती ने जबसे बसपा की कमान संभाली है, तबसे वह ऐसे गठबंधन को बसपा और उसके मिशन के लिए नुकसानदेह मानती रही हैं। समय-समय पर कहती रही हैकि बसपा ने ऐसे चुनावी गठबंधन में बड़ा समय गंवा दिया है, क्योंकि उन्होंने तो अपने मतदाताओं के वोट साझेदार दलों को सफलतापूर्वक हस्तांतिरत किया, मगर सहयोगी पार्टियां ऐसा करने में विफल रहीं। वे समझती हैं कि अपने अनुसुचित जाति समुदाय के अलावा अन्य सामाजिक समूहों तक पहुंचने के लिए उन्होंने बेहतर काम किया, जैसा कि उन्होंने अतीत में दूसरे राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ करने के बजाय ब्राह्मणों, कुछ पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के साथ किया। इन सबके बावजूद अगर सपा-बसपा गठबंधन कर सुर्खियां बटोरने में कामयाब रही है तो वो सिर्फ क्षणिक से अधिक कुछ नहीं।
माना कि पिछले एक दशक से एक के बाद एक चुनावों में लगातार हार ने उन्हें चुनावी रणनीति में बदलाव के लिए प्रेरित किया। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनाव में सपा ने अपने मुस्लिम वोटों के क्षरण को रोकने के लिए जल्दबाजी में कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया, जिसके कारण अल्पसंख्यक मतों को लेकर सपा और बसपा की प्रतिस्पर्धा ने भाजपा को ही हिंदू मतों को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने में मदद की और भाजपा ने भारी जीत हासिल की। संभव है कुछ वैसी ही स्थिति अब बने, जैसा शिवपाल की सक्रियता के बाद देखने को मिल रहा है। उन्हें समझना होगा कि शिवपाल के मुकाबले अखिलेश संगठन के मामले में बहुत पीछे हैं। सपा का वर्तमान सांगठनिक ठांचा उन्हीं की देन है। दिखावे के तौर पर बसपा और सपा के कार्यकर्ताओं में जो उत्साह दिखाई दे रहा है, वो सिर्फ योगी आदित्यनाथ की सरकार से है। वे इसलिए सक्रिय है, क्योंकि मोदी योगी के शासन से छुटकारा पाना चाहते हैं। मतलब साफ है बसपा और सपा के पार्टी कार्यकर्ता और समर्थक तब तक साथ बने रहेंगे, जब तक राज्य स्तर पर योगी आदित्यनाथ का खतर बना रहेगा।
जहां तक मायावती के मौजूदा ताकत या यूं कहें वोटबैंक का सवाल है, उसमें यही कहा जा सकता है कि अब पार्टी में कांशीराम के दोस्त बचे हैं और ही बामसेफ के साथी। ये सभी नेता एक-एक कर बसपा छोड़ गए या फिर मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बसपा ऐसी जगह खड़ी हो गई, जहां अपना वजूद बचाने के लिए उन्हें अपने दुश्मन से हाथ मिलाना पड़ा है। जबकि कांशीराम ने दलित समाज के हक और हुकूक के लिए पहले डीएस-4, फिर बामसेफ और 1984 में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के वैचारिक नेताओं को जोड़कर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। बसपा के गठन करने वाले नेताओं में राज बहादुर का नाम कांशीराम के बाद लिया जाता था। वे कोरी समाज के दिग्गज नेता थे। शुरुआती दौर में यूपी में पार्टी की कमान राज बहादुर के हाथों में थी, लेकिन पार्टी में मायावती के बढ़ते कद के चलते उन्हें पार्टी से बाहर होना पड़ा। कुर्मी समाज के कद्दावर नेता बरखूलाल वर्मा का नाम बसपा के बड़े नेताओं में आता था। वर्मा कांशीराम के साथ मिलकर बसपा की नींव रखने वाले नेताओं में शामिल थे। पार्टी के ओबीसी चेहरा थे और लंबे समय तक यूपी विधानसभा में अध्यक्ष भी रहे, लेकिन मायावती के खिलाफ आवाज उठाना मंहगा पड़ा और उन्हें भी पार्टी से अलग होने के लिए मजबूर होना पड़ा। कांशीराम के दौर में बसपा के मुस्लिम चेहरे के तौर पर डॉक्टर मसूद अहमद का नाम आता था।
1993 में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार यूपी में बनी तो मसूद को मंत्री बनाया गया, लेकिन 1994 में मायावती के साथ बिगड़े रिश्ते के चलते मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा और पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया गया। इसके बाद पार्टी में मुस्लिम चेहरे के तौर पर नसीमुद्दीन सिद्दकी को आगे बढ़ाया गया। उन्हें मायावती का दाहिना हाथ कहा जाता था। लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद मायावती ने उन्हें भी पार्टी से बाहर कर दिया है। इन दिनों सिद्दीकी कांग्रेस में है। आर. के. चौधरी बसपा में दिग्गज नेता माने जाते और पार्टी में दलित चेहरे के तौर पर अपनी पहचान बनाई थी। चौधरी बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। लेकिन उन्हें भी पार्टी से बाहर होना पड़ा। इसके बाद उनकी पार्टी में वापसी हुई लेकिन 2017 के चुनाव से पहले फिर उन्होंने पार्टी से बाहर हो गए। बसपा में कांशीराम के दौर से जुड़े रहे इंद्रजीत सरोज भी विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी छोड़ दिया है और इन दिनों सपा में हैं। बसपा में कांशीराम के करीबी रहे सुधीर गोयल को पार्टी से क्यों बाहर होना पड़ा ये खुद उन्हें भी पता नहीं चल सका। स्वामी प्रसाद मौर्य ने जनता दल से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था, लेकिन 1995 में जब मायावती सूबे की मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने बसपा ज्वाइन कर लिया। इसके बाद वो बसपा प्रमुख के काफी करीबी रहे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर लिया।
स्वामी से पहले मौर्य समाज के बाबू सिंह कुशवाहा को मायावती ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था। सूबे में 3 पाल समाज के नेता को भी मायावती ने नहीं बख्शा, उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इनमें रमाशंकर पाल, एसपी सिंह बघेल दयाराम पाल समेत कई नेता शामिल रहे। कांशीराम के साथी रहे राज बहादुर, राम समुझ, हीरा ठाकुर और जुगल किशोर जैसे नेता भी मायावती के प्रकोप से नहीं बच पाए और उन्हें पार्टी से बाहर होना पड़ा। बसपा का राजपूत चेहरा माने जाने वाले राजवीर सिंह ने खुद ही पार्टी को अलविदा कह दिया है। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले सीतापुर जिले के पूर्व मंत्री अब्दुल मन्नान, उनके भाई अब्दुल हन्नान, राज्यसभा सदस्य रहे नरेंद्र कश्यप हों या फिर एमएलए रामपाल यादव, मायावती के पसंदीदा लोगों की सूची से बाहर होते ही सबके सब पार्टी से बाहर कर दिए गए। 


बात गठबंधन में सीटों की बटवारे की करें तो सूबे के सभी मंडलों की किसी किसी सीट से दोनों पार्टियां अपने उम्मीदवार उतारेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि दोनों में से कोई भी पार्टी किसी भी मंडल से खुद को पूरी तरह दूर नहीं रखना चाहती है। हालांकि, यह तय है कि पश्चिम यूपी की ज्यादातर सीटों पर बसपा चुनाव लड़ेगी। दोआबा क्षेत्र में अधिकतर सीटों पर सपा ताल ठोंकेगी। इसके अलावा सूबे में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 17 लोकसभा सीटों में से ज्यादातर सीटें बसपा के खाते में जाएंगी। सूत्रों के मुताबिक इटावा, मैनपुरी, कन्नौज और फिरोजबाद इलाका की ज्यादातर सीटों पर सपा उम्मीदवार होंगे। ये इलाका सपा का मजबूत गढ़ माना जाता है। वहीं, मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर, अलीगढ़, नोएडा जैसी सीटें बसपा को मिलना तय मानी जा रही है। इसके अलावा बलिया, देवरिया गोरखपुर, कुशीनगर सीटें सपा को मिलने की संभावना है।

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