‘प्रकृति’
की अनूठी ‘छटा’ विखेरता ‘वसंत’
जिस
देश
में
मौसम
के
बदलाव
का
संदेश
भी
ऋतु
बदल
जाने
के
साथ
आता
हो
वहां
सबसे
सुन्दर,
मनमोहक
और
सुहावने
मौसम
के
मायने
बहुत
खास
हो
जाते
हैं।
खेतों
का
लहलहाना,
रंग-बिरंगे
फूलों
का
खिलना,
उन
पर
सुंदर
तितलियों
का
मंडराना,
वृक्षों
से
पुराने
पत्तों
के
गिरने
और
नए
पत्तों
के
आने,
उस
पर
पक्षियों
के
चहचहाने
तथा
प्रकृति
में
होने
वाले
नवसृजन
के
हर्षोल्लास
का
एक
खुबसूरत
-सा
समय
जहां
प्रकृति
की
हर
छटा
मन
को
आल्हादित
कर
देती
है।
ऐसी
ही
मनमोहक
होती
है
वसंत
ऋुतु।
यही
वजह
है
कि
वसंत
की
बात
हमारी
पौराणिक
कथाओं
से
लेकर
कविताओं
तक
का
हिस्सा
है।
गांवों
के
सहज
जीवन
से
लेकर
शहरी
व्यस्तता
तक,
हर
कहीं
प्रकृति
के
इस
खिलखिलाते
रुप
की
चर्चा
होती
है।
वसंत
जिसके
नाम
से
ही
मानो
रोम-रोम
पुलकित
हो
उठता
है।
प्रकृति
के
साथ
तारतम्य
बनने
लग
जाता
है।
न
ज्यादा
न
शीत
और
न
गर्मी।
हर
किसी
को
यह
ऋतु
लुभाने
लगती
है।
पशु-पक्षी
से
लेकर
पूरी
धरा
पर
इसकी
खुशी
नयी
उर्जा
के
रुप
में
दिखाई
पड़ने
लगती
हैं
तभी
तो
हर
मन
कह
उठता
है
स्वागत
है
वसंत...
सुरेश
गांधी
वाकई वसंत
ऋतु प्रभु और
प्रकृति का एक
वरदान है। तभी
तो इसे मधु
ऋतु भी कहते
हैं। वैसे भी
त्योहार वहीं जो
प्रकृति से प्रेम
करना सिखाएं अपनों
को करीब लाएं।
ऐसा ही कुछ
है, ये वसंत
पंचमी का सादगी,
बदंगी और प्यार
भरा प्राकृतिक त्योहार...। इसके
आगमन होते ही
अलसाई बेरंग सर्दियों
से बाहर निकल
प्रकृति ओढ़ने लगती
है वसंत की
रंगीन ओढ़नी...।
इसके साथ ही
कई उत्सव, मेले
और त्योहार दस्तक
देते हैं। चारों
ओर खिले पुष्पों
की सुहानी सुगंध
से भरे परिवेश
में मांगलिक कार्य
होते हैं। यानी
कि इस ऋतु
में प्रकृति का
निखार चरम पर
होता है। इसीलिए
स्वागत करो इस
वसंत का...।
क्योंकि मन में
उमंगे भरती, प्रकृति
और पुरुष को
जोड़ने वाली ऋतु
है यह। जिस
उत्साह के साथ
जीवन में परिवर्तन
का मनुष्य ने
स्वागत किया है
वही परिवर्तन त्योहारों
के रुप में
हमारी परंपरा में
शामिल होता गया।
वसंत पंचमी भी
ऋतुओं के उसी
सुखद परिवर्तन का
एक रुप है।
इसके कई रंग
है। यह प्रकृति
के नए श्रृगार
का पर्व हैं।
प्रेम और उल्लास
का उत्सव है।
इस समय प्रकृति
अपने निखार पर
होती है। चारों
ओर फूल खिलकर,
खुशबू और रंग
की वर्षा कर
रहे होते हैं।
धरती, जल, वायु,
आकाश और अग्नि
सभी पंचतत्व मोहक
रुप में होते
हैं।
सर्दी की अधिकता
के कारण जो
पक्षी और जंतु
अपने घरों में
छिपे होते है,
भी बाहर
निकलकर चहकने लगते हैं।
नवजीवन का आगमन
इसी ऋतु में
होता है। खेतों
में पीली-पीली
सरसों, अपने पीले-पीले फूलों
से किसान को
हर्षित करती हैं।
या यूं कहे
वसंत ऋतु पूरी
प्रकृति के रुप
को निखारने में
कोई कसर नहीं
छोड़ती। यह प्रकृति
खुलकर अपने दोनों
हाथों से कैसे
प्यार और सौगात
लुटाती है और
इस धरा को
सजाने में कैसे
अपना हुनर दिखाती
है, इसे इन
दिनों देखा जा
सकता है। तभी
तो इस दिन
सरस्वती पूजन के
साथ ही लोग
भी प्रकृति के
रंग में रंगे
दिखाई दे जाते
हैं। यानी ऋतुओं
में खिला हुआ,
फूलों से लदा
हुआ, उत्सव का
क्षण हैं वसंत।
मौसम का राजा
है वसंत। शायद
ही किसी मौसम
की रुमानियत के
इतने गुण गाये
होंगे, जितने बसंत के
गाये गए हैं।
और क्यों ना
हो? सबसे खुशनुमा,
तमाम फूलों-फसलों
से संपंन है
ये महीना। इस
समय पंचतत्व अपना
प्रकोप छोड़कर सुहावने हो
जाते हैं। या
यूं कहें मौसम
और प्रकृति में
मनोहारी बदलाव देखने को
मिलता है। पेड़ों
पर फूल व
बौर झूम रहे
होते है। दक्षिण
से आने वाली
हवाएं बर्फीली शीत
लहरे मीठी ठंड
में बदल गयी
होती है। सरसों
की धानी चादर
पर पीली छिंट
बिखरी पड़ी होती
है। फूल झर-झर झड़
रहे होते है।
या यूं कहें
पूरी प्रकृति पीली
छठा, पीली चादर
ओढ़ मदमस्त होकर
झूम रही होती
है। ‘सरसैया क
फुलवा झर लागा,
फागुन में बाबा
देवर लागा‘, के बोल
आबोहवा में तैरने
लग जाते हैं।
तब सुनाई देने
लगती है बसंत
की आहट। सच!
कहे तो प्रकृति
उन्मादी हो जाती
है। हो भी
क्यों ना! पुनर्जन्म
जो हो गया
है। उसका सौन्दर्य
लौट आया है।
तभी तो इस
दिन पीले रंग
का खास महत्व
है। मंदिरों में
देवी-देवताओं को
लगाये जाने वाले
भोग भी वसंती
रंग के ही
होते है। वसंत
के राग गाये-बजाये जाते है।
जहां देखों प्रकृति
में बसंती रंग
लहलहा रहा होता
है। इस दिन
उत्तर भारत के
कई भागों में
पीले रंग के
पकवान बनाए जाते
हैं। बसंत का
अर्थ है मादकता।
बसंत का रंग
भी बसंती रंग
अर्थात पीला रंग
माना गया है।
यह रंग पीले
रंग और नारंगी
रंग के बीच
का रंग होता
है। इसलिए इस
दिन पीले रंग
का महत्व मानते
हुए कई लोग
पीले रंग का
भोजन भी करते
हैं। पीले वस्त्र
धारण करते हैं।
इस समय धरती
पर उत्पादन क्षमता
बढ़ जाती है।
नहीं देखना
पड़ता
शुभ
मुहूर्त
माघ शुक्ल
पक्ष की पंचमी
को बसंत पंचमी
का पर्व मनाया
जाता है। इस
बार यह पावन
पर्व 10 फरवरी को मनाया
जाएगा। 9 फरवरी को पंचमी
तिथि दोपहर 12.25 मिनट
से लग रही
है और यह
10 तारीख को दोपहर
में 2.09 मिनट तक
रहेगी। ऐसे में
नौ तारीख की
सुबह चतुर्थी तिथि
रहेगी और पंचमी
तिथि 10 फरवरी को मनाना
ही बेहतर होगा।
वसंत पंचमी का
दिन अबूझ मुहूर्त
के तौर पर
भी जाना जाता
है। इस कारण
नए कार्यों को
शुरुआत के लिए
यह दिन उत्तम
माना जाता है।
इस दिन मंदिर
की प्राण-प्रतिष्ठा,
घर की नींव,
गृह प्रवेश, वाहन
खरीदने, व्यापार शुरू करने
आदि के लिए
शुभ है। इस
दिन बच्चे का
अन्नप्राशन भी किया
जा सकता है।
खास बात यह
है कि 10 फरवरी
को माघ शुक्ल
पंचमी तिथि पर
पड़ रही बसंत
पंचमी पर इस
बार ग्रह गोचरों
का महासंयोग बन
रहा है। इस
दिन रविवार, रवि
सिद्धि योग, अबूझ
नक्षत्र और विद्या
की देवी मां
सरस्वती पूजन का
महासंयोग बन रहा
है। जो बच्चे
पहली बार स्कूल
जाने की तैयारी
में हैं, उन्हें
यदि माता-पिता
इस दिन मां
सरस्वती की पूजा
करके ’ककहरा’ यानी अक्षर
ज्ञान कराएं तो
बच्चे बड़े होकर
उच्च शिक्षा हासिल
कर विद्वान बनेंगे।
12 नामों का जाप करें
मां सरस्वती
की कृपा प्रापत
करने के लिए
विधिवत पूजा-अर्चना
कर उनके 12 नामों
का उच्चारण करना
चाहिए। 12 नाम में
मां भारती, मां
सरस्वती, मां शारदा,
मां हंसवाहिनी, मां
जगती, मां वागीश्वरी,
मां कुमुदी, मां
ब्रहचारिणी, मां बुद्धिदात्री,
मां वरदायिनी, मां
चंद्रकांति एवं मां
भुवनेश्वरी का जाप
करने से सात्विक
बुद्धि का विकास
होता है।
शिशुओं को
पहली
बार
अन्न्
खिलाए
छह माह
तक के शिशु
को जो मां
का दूध पी
रहा है उसे
पहली बार अन्न्
खिलाने की परंपरा
अन्न् प्राशन संस्कार
भी कराया जा
सकता है। माताएं
अपने शिशु को
नए कपड़े पहनाकर,
लाल कपड़े से
ढंकी चौकी पर
बिठाकर मां सरस्वती
को भोग लगाकर
चांदी के चम्मच
से शिशु को
खीर खिलाएं।
स्कंद षष्ठी
का
अद्भुत
संगम
इस दिन
स्कंद षष्ठी भी
है। स्कंद षष्ठी
भगवान कार्तिकेय का
पर्व है। इसलिए
10 फरवरी को एक
खास और विशिष्ठ
योग बन रहा
है। तमिल हिन्दुओं
के प्रसिद्ध देवता
हैं स्कन्द। ये
भगवान शिव और
देवी पार्वती के
पुत्र और गणेश
जी के छोटे
भाई हैं। इनके
अन्य नाम मुरुगन,
कार्तिकेय और सुब्रहमन्य
भी हैं। प्रत्येक
मास में दो
षष्ठी होती हैं
पर परंतु साल
में तीन बार
इनका सर्वाधिक महत्व
होता है। पहला
चैत्र शुक्ल पक्ष
की षष्ठी को
’स्कन्द षष्ठी’ कहा है,
फिर कार्तिक मास
में कृष्ण पक्ष
की षष्ठी तिथि,
और आषाढ़ माह
की शुक्ल पक्ष
की षष्ठी तिथि
को, परंतु इस
बार इस तिथि
का महत्व माघ
मास में भी
अत्यंत शुभ हो
गया है। इसकी
वजह है इसका
बसंत पंचमी के
साथ इसका संयोग।
इसे ’संतान षष्ठी’ के नाम से
भी जाना जाता
है। स्कंदपुराण के
नारद-नारायण संवाद
में संतान प्राप्ति
और संतान से
जुड़ी पीड़ाओं को
दूर करने वाले
इस व्रत का
विधान बताया गया
है। इस तिथि
पर एक दिन
उपवास करके कुमार
कार्तिकेय की पूजा
की जाती है।
यह तिथि भगवान
स्कन्द को समर्पित
हैं। स्कन्द षष्ठी
को कन्द षष्ठी
के नाम से
भी जाना जाता
है। ’स्कन्द षष्ठी’ के व्रत में
शिव पार्वती के
पुत्र भगवान कार्तिकेय
का पूजन किया
जाता है। कहते
हैं कार्तिकेय के
पूजन से रोग,
राग, दुःख और
दरिद्रता का निवारण
होता है।
कुंभ मेले
का
इसी
दिन
शाही
स्नान
कुंभ मेले
का अगला शाही
स्नान 10 फरवरी को है।
इस दिन से
मथुरा में रंगपंचमी
का त्योहार शुरू
हो जाता है।
मंदिरों में होली
का आगाज़ हो
जाता है। अगले
पचास दिन तक
विभिन्न रूपों में इसकी
धूम रहेगी। ब्रज
में वसंत पंचमी
के दिन मंदिरों
में ठाकुरजी को
गुलाल अर्पण कर,
रसिया, धमार आदि
होली गीतों का
गायन प्रारम्भ हो
जाता है और
मंदिरों में दर्शन
के लिए आने
वाले भक्तों पर
भी गुलाल के
छींटे डाले जाते
हैं। बंगाल में
बूंदी के लड्डू
और मीठा भात
चढ़ाया जाता है।
बिहार में मालपुआ,
खीर और बूंदिया
(बूंदी) और पंजाब
में मक्के की
रोटी के साथ
सरसों साग और
मीठा चावल चढ़ाया
जाता है। फाल्गुन
शुक्ल पूर्णमासी की
रात होली जलाए
जाने वाले चौराहों
पर डांढ़ा गाड़
दिया जाता है
जो इस बात
का प्रतीक होता
है कि ब्रज
में अब होली
के पारम्परिक आयोजन
शुरु हो गए
हैं। डांढ़ा लकड़ी
का एक टुकड़ा
होता है जिसके
आसपास होलिका सजाई
जाती है। इसी
दिन, राधारानी के
गांव बरसाना में
पहली चौपई यानि
चौपहिया बैलगाडिय़ों पर शोभायात्रा
निकाली जाएगी। चौपई के
साथ बरसानावासी होली
के गीत गाते-नाचते पूरे कस्बे
का भ्रमण करेंगे।
महाशिवरात्रि पर्व पर
दूसरी और फाल्गुन
शुक्ल नवमी के
दिन तीसरी चौपई
निकाली जाएगी। फाल्गुन शुक्ल
नवमी के दिन
बरसाना में लठामार
होली खेली जाती
है जो ब्रज
की 50 दिन चलने
वाली होली का
मुख्य आकर्षण होती
है। उत्तर प्रदेश
सरकार इस वर्ष
भी बरसाना में
इस आयोजन को
बहुत ही भव्य
एवं आकर्षक बनाना
चाहती है। इसके
लिए उत्तर प्रदेश
ब्रज तीर्थ विकास
परिषद की अगुआई
में तैयारियां जोरों
पर हैं।
वसन्तोत्सव का
आध्यात्मिक
तात्पर्य
शीत की
विदाई और वसंत
के आगमन पर
बच्चे और युवक
सभी आनन्दोत्सव मनाते
हैं, जिसका नाम
होली है। उत्तर
भारत के लोग
शीत की जड़ता
या जाड्य भाव
को शेष कर
मानो वसन्त की
सक्रियता और सजीवता
में प्राण की
पुनः प्राप्ति करना
चाहते हों। यह
बिहार में ‘फगुआ’ नाम से प्रचलित
है। किन्तु पंजाब
के लोग आज
भी होली के
एक दिन बाद
भी होला गीत
गाते हैं। चैतन्य
महाप्रभु बंगाल में होली
उत्सव का रुपान्तरण
कर श्रीकृष्ण के
दोलयात्रा का प्रचलन
किया। उन्होंने लोगों
को पहले श्रीकृष्ण
के मंदिर में
जाने को कहा
और वहां जाकर
पहले श्रीकृष्ण को
अबीर लगाने को
कहा, उसके बाद
अपने लोगों के
बीच अबीर खेलने
को कहा और
बाद में मिठाई-मालपुआ खाकर लोगों
को आनन्दोत्सव मनाने
को कहा। जबकि
आज के दिन
लोग रंग गुलाल
से एक दूसरे
को सराबोर करते
हैं। एक ही
वसन्तोत्सव है, किन्तु
उत्तर भारत में
वही हुआ होली-
बिहार में हुआ
फगुआ- बंगाल में
हुआ श्रीकृष्ण की
दोलयात्रा। उत्तर भारत में
यह हुआ मूलतरू
सामाजिक उत्सव, किन्तु बंगाल
में यह हुआ
धार्मिक अनुष्ठान। वसन्तोत्सव का
मूल आध्यात्मिक तात्पर्य
यहीं पर है।
जहां प्रेम है,
वहां प्रार्थना है।
और जहां प्रार्थना
है, वहां परमात्मा
है। किसी की
आंख में प्रीति
से झांको, उसी
का नाम उभर
आएगा। किसी का
हाथ प्रेम से
हाथ में ले
लो, उसी का
नाम उभर आएगा।
ऐसे तो उसका
कोई भी नाम
नहीं और ऐसे
सभी नाम उसके
हैं, क्योंकि वही
है, अकेला वही
है, उसके अतिरिक्त
और कोई भी
नहीं है। हम
सब हैं उसी
के अंग! न
हम उसके बिना
हैं, न वह
हमारे बिना है।
हम हो भी
नहीं सकते थे
उसके बिना। अंशी
के बिना अंश
कैसे हो सकेगा?
और ध्यान रखना,
दूसरी बात भी
भूल मत जाना-
अंश के बिना
भी अंशी नहीं
हो सकता।
शीत जड़ता
या नैष्कर्म का
प्रतीक है और
वसंत तीव्र कर्मण्यता
का अभिप्रकाश। अर्जुन
ने पूछा है
कि किन भावों
में मैं आपको
देखूं? कहां आपको
खोजूं? कहां आपके
दर्शन होंगे? तब
कृष्ण कहते हैं
कि अगर तुझे
मुझे स्त्रियों में
खोजना हो तो
तू कीर्ति में,
श्री में, वाक्
में, स्मृति में,
मेधा में, धृति
में और क्षमा
में मुझे देख
लेना। मैं गायन
करने योग्य श्रुतियों
में बृहत्साम, छंदों
में गायत्री छंद,
महीनों में मार्गशीर्ष
का महीना, ऋतुओं
में वसंत ऋतु
हूं। अर्थात परमात्मा
को रूखे-सूखे,
मृत, मुर्दा घरों
में मत खोजना।
जहां जीवन उत्सव
मनाता हो, जहां
जीवन खिलता हो
वसंत जैसा, जहां
सब बीज अंकुरित
होकर फूल बन
जाते हों, उत्सव
में, वसंत में
मैं हूं। ईश्वर
सिर्फ उन्हीं को
उपलब्ध होता है,
जो जीवन के
उत्सव में, जीवन
के रस में,
जीवन के छंद
में, उसके संगीत
में, उसे देखने
की क्षमता जुटा
पाते हैं। उदास,
रोते हुए, भागे
हुए लोग, मुर्दा
हो गए लोग,
उसे नहीं देख
पाते। पतझड़ में
उसे देखना बहुत
मुश्किल है। मौजूद
तो वह वहां
भी है.. लेकिन
जो वसंत में
उसे नहीं देख
पाते, वे पतझड़
में उसे कैसे
देख पाएंगे? वसंत
में जो देख
पाते हैं, वे
तो उसे पतझड़
में भी देख
लेंगे। फिर पतझड़,
पतझड़ नहीं मालूम
पड़ेगा। वसंत का
ही विश्रम होगा।
फिर तो पतझड़
वसंत के विपरीत
भी नहीं मालूम
पड़ेगा। वसंत का
आगमन या वसंत
का जाना होगा।
लेकिन देखना हो
पहले, तो वसंत
में ही देखना
उचित है। शायद
पृथ्वी पर हिन्दुओं
के धर्म ने,
यह अकेला ही
ऐसा एक धर्म
है, जिसने उत्सव
में प्रभु को
देखने की चेष्टा
की है। एक
उत्सवपूर्ण, एक फेस्टिव,
नाचता हुआय छंद
में, और गीत
में, और संगीत
में, और फूल
में।
कर्म की
भावना
से
जोड़ता
है
वसंत
वसंत का
आगमन का अर्थ
ही है शीत
की जड़ता की
विदाई। किन्तु अधिक शीत
रहने पर जिस
तरह बूढ़े घर
में सुस्त पड़े
रहते हैं, उसी
तरह बच्चों भी
उस समय कम
खेल-कूद करते
हैं। इसलिए शीत
की विदाई और
वसंत के आगमन
पर बच्चों और
युवक सभी आनन्दोत्सव
मनाते हैं। एक
लोकप्रिय उक्ति है, जिसका
अर्थ है- शीत
कहता है, बच्चों
को हम क्षति
नहीं पहुंचाते और
युवक का मैं
भाई हूं, किन्तु
बूढ़े को मैं
नहीं छोड़ता। इसीलिए
वे अपने शरीर
को रजाई से
ढकते हैं। शीत
जड़ता या नैष्कर्म
का प्रतीक है
और वसंत तीव्र
कर्मण्यता का अभिप्रकाश।
उत्तर भारत में
वसंत पंचमी से
ही वसंत की
धूम शुरू हो
जाती है। लोगों
के मन का
उल्लास का असर
उनके तन पर
दिखाई देता है।
शीत की विदाई
के बाद लोग
काम में तत्पर
हो जाते हैं।
उनका मन भगवान
श्रीकृष्ण के बारे
में सोचता है,
तब वे आनंद
अनुभव करते हैं।
सभी जागतिक चिंतन-भावना का परित्याग
कर मानसिक चिंतन
से केवल परमपुरुष
की ओर ही
आगे बढ़ते जाते
हैं, वे गोपी
हैं। जो अपने
सभी कर्मो का
फल सफलता के
ताज के रूप
में देखना चाहते
हैं, तो वे
परमपुरुष को आंतरिक
हृदय से प्यार
करें और उसे
यह भी देखना
चाहिए वे क्या
पसंद करते हैं
और क्या पसंद
नहीं करते, क्या
चाहते और क्या
नहीं चाहते। जिसे
परमपुरुष नहीं चाहते
उसे वैसी चीजों
के नजदीक भी
नहीं जाना चाहिए।
जब उनकी इच्छा
और आकांक्षा परमपुरुष
के इच्छा के
अनुसार संचालित होते हैं,
वहां सफलता अवश्यम्भावी
है। वसंत पंचमी
ऋतुराज वसंत के
स्वागत में मनाई
जाती है। महाकवि
कालिदास ने इस
समय के वसंतोत्सव
और मनोत्सव का
बड़ा मनोहारी वर्णन
किया है। यह
उत्सव वसंत पंचमी
से प्रारंभ होकर
महीनों तक मनाया
जाता था। उदयन
और वत्सराज राजाओं
के समय में
इस उत्सव को
मनाने की प्रथा
थी। इस समय
जीवों में तो
नवीन संचार होता
ही है, पेड़-पौधों में भी
उल्लास छा जाता
है। शिशिर के
कष्टदायी शीत से
लोग ऊब जाते
हैं। उससे छुटकारा
पाते ही सभी
चौन की सांस
लेते हैं। सुखद-शीतल, मंद-सुगंध
समीर लोगों को
आह्लादित कर देती
है। इस समय
चराचर की उन्मुक्त
प्रसन्नता स्वाभाविक ही है।
वसंत को ऋतुराज
भी कहते हैं।
देवराज इन्द्र को जब
कभी किसी ऋषि-मुनि को
विचलित करना होता
था तो वे
अपने मित्र और
सहायक काम द्वारा
वसंत का सृजन
करा लेते थे
ताकि सूखी नसों
में भी रक्त
संचार हो जाए।
आदि कवि वाल्मीकि
ने श्री रामचन्द्र
के ऊपर वसंत
के प्रभाव का
वर्णन किया है-
सुखानिलोयं सौमित्रे, कालरू प्रचुर
मन्मथः। गन्धवान् सुरभिमासो जात
पुष्प फलद्रुमः।। अर्थात
हे लक्ष्मण! इस
समय धीरे-धीरे
सुखदायिनी हवा चल
रही है, यह
सुगंधिमय मास है।
वृक्षों में चारों
ओर फूल-फल
आ गए हैं।
यह बड़ा ही
सुन्दर समय है।
सरस्वती वंदना
या कुन्देन्दु-तुषारहार-धवला या
शुभ्र-वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत
शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा
वन्दिता
सा मां
पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्यापहा॥
शुद्धां ब्रह्मविचार सारपरम-
माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं
भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।
सरस्वती स्तोत्रम्
श्वेतपद्मासना देवि श्वेतपुष्पोपशोभिता।
श्वेताम्बरधरा नित्या श्वेतगन्धानुलेपना॥
श्वेताक्षी शुक्लवस्रा च
श्वेतचन्दन चर्चिता।
वरदा सिद्धगन्धर्वैऋषिभिः
स्तुत्यते सदा॥
स्तोत्रेणानेन तां देवीं
जगद्धात्रीं सरस्वतीम्।
ये स्तुवन्ति
त्रिकालेषु सर्वविद्दां लभन्ति ते॥
या देवी
स्तूत्यते नित्यं ब्रह्मेन्द्रसुरकिन्नरैः।
सा ममेवास्तु
जिव्हाग्रे पद्महस्ता सरस्वती॥
॥इति श्रीसरस्वतीस्तोत्रं
संपूर्णम्॥
शक्ति
की
आराधना
भी
है
सरस्वती
प्रधान
मत्स्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, मार्कण्डेयपुराण, स्कंदपुराण,
विष्णुर्मोत्तरपुराण तथा अन्य
ग्रंथों में भी
देवी सरस्वती की
महिमा का वर्णन
किया गया है।
इन धर्मग्रंथों में
देवी सरस्वती को
सतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी,
भारती, प्रज्ञापारमिता, वागीश्वरी तथा हंस
वाहिनी आदि नामों
से भी संबोधित
किया गया है।
मां सरस्वती को
सरस्वती स्तोत्र में ‘श्वेताब्ज
पूर्ण विमलासन संस्थिते’ अर्थात श्वेत कमल पर
विराजमान या श्वेत
हंस पर बैठे
हुए बताया गया
है। दुर्गा सप्तशती
में मां आदिशक्ति
के महाकाली महालक्ष्मी
और महा सरस्वती
रूपों का वर्णन
और महात्म्य 13 अध्यायों
में बताया गया
है। शक्ति को
समर्पित इस पवित्र
ग्रंथ में 13 में
से 8 अध्याय मां
सरस्वती को ही
समर्पित हैं, जो
इस तथ्य को
प्रतिपादित करता है
कि नाद और
ज्ञान का हमारे
अध्यात्म में बहुत
ज्यादा महत्व है।
कुंभकर्ण
की
निद्रा
का
कारण
भी
सरस्वती
बनी
कहते हैं
देवी वर प्राप्त
करने के लिए
कुंभकर्ण ने दस
हजार वर्षों तक
गोवर्ण में घोर
तपस्या की। जब
ब्रह्मा वर देने
को तैयार हुए
तो देवों ने
निवेदन किया कि
आप इसको वर
तो दे रहे
हैं लेकिन यह
आसुरी प्रवृत्ति का
है और अपने
ज्ञान और शक्ति
का कभी भी
दुरुपयोग कर सकता
है, तब ब्रह्मा
ने सरस्वती का
स्मरण किया। सरस्वती
राक्षस की जीभ
पर सवार हुईं।
सरस्वती के प्रभाव
से कुंभकर्ण ने
ब्रह्मा से कहा-
‘स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव
ममाप्सिनम।’ यानी मैं
कई वर्षों तक
सोता रहूं, यही
मेरी इच्छा है।
इस तरह त्रेता
युग में कुंभकर्ण
सोता ही रहा
और जब जागा
तो भगवान श्रीराम
उसकी मुक्ति का
कारण बने।
मां
सरस्वती
के
विभिन्न
स्वरूप
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी
को चार भुजायुक्त
व आभूषणों से
सुसज्जित दर्शाया गया है।
स्कंद पुराण में
सरस्वती जटा-जूटयुक्त,
अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण
किए, कमलासन पर
सुशोभित, नील ग्रीवा
वाली एवं तीन
नेत्रों वाली कही
गई हैं। रूप
मंडन में वाग्देवी
का शांत, सौम्य
व शास्त्रोक्त वर्णन
मिलता है। दुर्गा
सप्तशती में भी
सरस्वती के विभिन्न
स्वरूपों का वर्णन
मिलता है।
अक्षराभ्यास
का
दिन
है
वसंत
पंचमी
वसंत पंचमी
के दिन बच्चों
को अक्षराभ्यास कराया
जाता है। अक्षराभ्यास
से तात्पर्य यह
है कि विद्या
अध्ययन प्रारम्भ करने से
पहले बच्चों के
हाथ से अक्षर
लिखना प्रारम्भ कराना।
इसके लिए माता-पिता अपने
बच्चे को गोद
में लेकर बैठें।
बच्चे के हाथ
से गणेश जी
को पुष्प समर्पित
कराएं और स्वस्तिवचन
इत्यादि का पाठ
करके बच्चे की
जुबान पर शहद
से ‘ऐं’ लिखें तत्पश्चात
स्लेट पर खड़िया
से या कागज
पर रक्त चन्दन
का, स्याही के
रूप में उपयोग
करते हुए अनार
की कलम से
‘अ’ और ‘ऐं’ लिखवा कर अक्षराभ्यास
करवाएं। इस प्रक्रिया
के पश्चात बच्चे
से इस मंत्र
का प्रतिदिन उच्चारण
कराएं-
सरस्वती महामाये दिव्य
तेज स्वरूपिणी।
हंस वाहिनी
समायुक्ता विद्या दानं करोतु
मे।
इस प्रक्रिया
को करने से
बच्चे की बुद्धि
तीव्र होगी। इस
मंत्र का जाप
बड़े बच्चे भी
वसंत पंचमी से
प्रारम्भ कर सकते
हैं, ऐसा करने
से उनकी स्मरण
शक्ति और प्रखर
होगी।
बंगाल
में
हैं
अनूठी
परंपरा
यू
ंतो पूजा की
विधि लगभग हर
प्रांत में अपनी-अपनी तरह
की होती है,
लेकिन इनमें जब
कुछ अनूठी परंपराएं
जुड़ जाती है
तो यह और
भी अलग हो
जाती है। बंगल
में बसंत पंचमी
को ‘श्री पंचमी‘ के नाम से
भी जाना जाता
है। बंगाल के
लोग शिक्षा को
बहुत अधिक महत्व
देते हैं अतः
सरस्वती पूजा इनके
लिए खास मायने
भी रखता है।
बंगाल में रिवाज
है कि जिस
बच्चे की उम्र
विद्यालय जाने की
हो जाती है,
उसके द्वारा सरस्वती
पूजा के दौरान
उसे स्लेट, बत्ती
यानी पेम, किताब,
कापी का स्पर्श
कराया जाता है।
इस रस्म को
‘हाथेर खोड़ी‘ कहा जाता
है। कई जगह
इसे विद्या प्रासन
भी कहते सुना
गया है, अन्नप्रासन
की तर्ज पर।
मजे की बात
यह भी है
कि इस दिन
एक ओर तो
छोटे बच्चे का
विद्या संस्कार पुस्तक का
स्पर्श करा के
किया जाता है,
वहीं बच्चों को
पुस्तक छूने की
सख्त मनाही होती
है। यानी ि
कइस दिन सारी
किताबें-कॉपियां, स्लेट-पेंसिंल-पेन सब
मां सरस्वती के
समक्ष रख दी
जाती है और
इसे फिर उठाया
नहीं जाता। जिसने
विद्या दी, ये
उसी को समर्पित
कर, देवी सरस्वती
से दोगुने रुप
में वापस लेने
की इच्छा का
द्योतक हैं। पुस्तक
न छूने के
पीछे एक और
बताया गया है
कि इस दिन
सरस्वती का पूरे
मन से ध्यान
लगाने की प्रथा
हैं। सो समस्त
पुस्तकें मां सरस्वती
को समर्पित कर,
उसी के सामने
बैठ, माता सरस्वती
को अपने दिल-दिमाग में बसा
लेने के लिए
ध्यान लगाया जाता
है, इसलिए उस
दिन किताबों को
वहीं पूजन कक्ष
में रखते है,
उन्हें उठाया नहीं जाता।
बंगाली मीठे के
शौकीन होते हैं।
बसंत पंचमी के
दिन यहां के
लोग मीठा खाना
पसंद करते हैं।
चावल में केसर,
मेवा एवं चीनी
मिलाकर उसे पकाते
हैं। पुलाव की
तरह का मीठा
चावल इस दिन
आमतौर पर लोगों
के घरों में
बनता है। बूंदिया
एवं लड्डू माता
को प्रसाद रूप
में चढ़ाया जाता
है। यह प्रसाद
लोग एक दूसरे
के भेंट भी
करते हैं तथा
स्वयं भी खाते
हैं।
त्याग-बलिदान
का
प्रतीक
बंसत पंचमी
के दिन केसरिया
एवं पीले रंग
का खाना खाने
की परम्परा है।
यह रंग ओज,
उर्जा, सात्विक्ता एवं बलिदान
का प्रतीक है।
पीले रंग का
भोजन बसंत पंचमी
के दिन करने
का तात्पर्य है
कि हमारे शरीर
में उर्जा की
वृद्धि हो, हम
सात्विक बनें और
स्वार्थ की भावना
से उठकर राष्ट्रहीत
में बलिदान हेतु
सदैव तैयार रहें
बिहार
बिहार में बंगाल
की तरह ही
बसंत पंचमी के
दिन सरस्वती पूजा
की धूम रहती
है। इस अवसर
पर बिहार के
लोग माता सरस्वती
को खीर, मालपुए
का भोग लगाते
हैं। माता को
पीले एवं केसरिया
रंग का बूंदिया
अर्पित करते हैं।
बसंत पंचमी के
दिन मीठा खाने
की परम्परा है।
लोग मालपुए, खीर
एवं बूंदिया खाते
हैं।
झारखंड
झारखंड में भोले
बाबा का मनोकामना
शिवलिंग स्थापित है जिसे
बाबा वैद्यनाथ के
नाम से जाना
जाता है। बसंत
पंचमी के दिन
देवघर में भोले
नाथ का तिलकोत्सव
मनाया जाता है।
इस उत्सव की
धूम से पूरा
झारखंड उत्साहित रहता है।
इस दिन लोग
सरस्वती माता के
साथ ही साथ
भगवान शिव की
भी पूजा करते
हैं। भगवान शंकर
को दूध से
श्रद्धालु स्नान कराते हैं।
उन्हें तरह-तरह
के मिष्ठानों का
भोग भी लगाया
जाता है। इसमें
पीले रंग की
मिठाईयां भी शामिल
होती हैं। लोग
इस दिन मीठा
भोजन करते हैं।
भगवान श्री कृष्ण
और राधा जी
प्रेम की प्रतिमूर्ति
हैं। शिव के
द्वारा भष्म होने
के बाद श्री
कृष्ण के पुत्र
प्रद्युम्न के रूप
में कामदेव का
पुनर्जन्म हुआ था।
कृष्ण की कृपा
से ही कामदेव
को पुनः शरीर
मिला। इसका आभार
व्यक्त करने के
लिए भक्तगण बसंत
पंचमी के दिन
कामदेव के साथ-साथ भगवान
श्री कृष्ण की
पूजा करते हैं।
मथुरा
भगवान श्री कृष्ण
का वस्त्र पीताम्बर
है। उन्हें पीला
रंग प्रिय है।
भगवान श्री कृष्ण
की जन्मभूमि मथुरा
सहित वृंदावन में
बसंत पंचमी के
दिन कृष्ण भगवान
की विशेष पूजा
अर्चना की जाती
है। इस मौके
पर भगवान को
विभिन्न प्रकार के मिष्ठानों
का भोग लगाया
जाता है। जो
भी मिठाईयां इस
अवसर पर भगवान
को अर्पित किया
जाता है उसका
रंग पीला होता
है। उत्तर प्रदेश
में इस अवसर
पर लोग पीले
रंग की मिठाईयां
एवं पीले रंग
का मीठा चावल
खाते हैं। इस
दिन मथुरा में
दुर्वासा ऋषि के
मन्दिर पर मेला
लगता है। सभी
मन्दिरों में उत्सव
एवं भगवान के
विशेष शृंगार होते
हैं। वृन्दावन के
श्रीबांके बिहारीजी मन्दिर में
बसंती कक्ष खुलता
है। शाह जी
के मंदिर का
बसंती कमरा प्रसिद्ध
है। यहाँ दर्शन
को भरी-भीड़
उमड़ती है। मन्दिरों
में बसंती भोग
रखे जाते हैं
और बसंत के
राग गाये जाते
हैं बसंम पंचमी
से ही होली
गाना शुरू हो
जाता है। ब्रज
का यह परम्परागत
उत्सव है। इस
दिन सरस्वती पूजा
भी होती है।
ब्रजवासी बंसती वस्त्र पहनते
हैं।
अनोखी
है
कूका
सम्प्रदाय
का
बसंत
पंचमी
पंजाब में बसंत
पंचमी के दिन
पतंगोत्सव के द्वारा
लोग शहीद संत
राम प्रसाद कूका
को भी याद
करते हैं। इनका
जन्म बसंत पंचमी
के दिन हुआ
था। राम प्रसाद
कूका महाराजा रणजीत
सिंह की सेना
में सैनिक थे।
बाद में यह
संत बन गये।
इनके विचारों को
सुनकर बहुत से
लोग इनके अनुयायी
बन गये। राम
प्रसाद कूका ने
समाज सुधार के
कार्य किये। अंग्रेजों
ने इनके अनुयायियों
को मौत के
घाट उतार दिया
तथा इन्हें बर्मा
के मांडले जेल
में भेज दिया
जहां कठोर यातनाएं
सहते हुए इनकी
मृत्यु हो गयी।
पाकिस्तान
में
पतंगोत्सव
जश्न-ए-बहारा यानी बसंत
पंचमी के मौके
पर पाकिस्तान में
भी भव्य आयोजन
होता है। भारत
के पंजाब प्रांत
से सटे हुए
पाकिस्तान के लाहौर
प्रांत में बसंत
पंचमी के दिन
सुबह से लेकर
अंधेरा होने तक
लोगों के बीच
पतंगबाजी की प्रतियोगिता
चलती रहती है।
लाहौर में पतंगोत्सव
के पीछे लाहौर
निवासी वीर हकीकत
की कहानी बहुत
ही मशहूर है।
कहते हैं कि
लाहौर में एक
हकीकत नाम का
व्यक्ति था जो
स्कूल में पढ़ाता
था। एक दिन
स्कूल के प्रधानाचार्य
मुल्ला जी कहीं
बाहर गये हुए
थे। हकीकत छात्रों
को पढ़ा रहे
थे। छात्र उनकी
बात पर ध्यान
देने की बजाय
अन्य चीजों में
मशगूल थे। इस
पर हकीकत ने
छात्रों को दुर्गा
माता की कसम
दी। छात्रों ने
दुर्गा माता का
मजाक उड़ाना शुरू
कर दिया। हकीकत
को यह बात
अच्छी नहीं लगी
और उसने छात्रों
से कहा कि
यदि मैं बीबी
फातिमा को बुरा
कहूं तो तुम्हें
कैसा लगेगा। छात्रों
ने मुल्ला जी
के वापस आने
पर उनसे शिकायत
की कि हकीकत
ने बीबी फातिमा
को गाली दी
है। यह बात
काजी तक पहुंच
गयी और हकीकत
पर इस्लाम को
स्वीकार करने के
लिए दबाव डाला
जाने लगा। हकीकत
ने जब इस्लाम
स्वीकार करना कुबूल
नहीं किया तो
उसे मृत्यु दंड
की सजा दी
गई। कहते हैं
कि जैसे ही
जल्लाद ने हकीकत
के सिर पर
तलवार चलाया हकीकत
का सिर कटकर
आसमान में चला
गया। पाकिस्तान में
लाहौर निवासी इस
दिन पतंग उड़ाकर
आसमान में हकीकत
के सिर को
सलामी देते हैं।
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