Saturday, 12 June 2021

सृजन के 28 साल बाद भी डालरनगरी भदोही में नहीं है जिला अस्पताल

सृजन के 28 साल बाद भी डालरनगरी भदोही में नहीं है जिला अस्पताल 

जी हां, अपनी हूनर कलाकृतियों के जरिए भारत ही नहीं पूरी दुनिया में डंका बजाने वाला भदोही जिला सृजन के 28 साल बाद भी एक अदद जिला अस्पताल के लिए छटपटा रहा है। जबकि इसे बहुत पहले बन जाना चाहिए था। लेकिन जनप्रतिनिधियों की अनदेखी कमीशनखोरी के चलते शासन से मिले करोड़ों रुपये का बंदरबांट इस कदर हुआ कि चुटकी में माफियाओं ठेकेदारों को जेल की हवा खिलाने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी जांच के नाम पर सिहर जाते है। परिणाम यह है कि करोड़ों रुपये की लागत से कलेक्ट्रेट के बगल में आधा-अधूरा अस्पताल लोगों को मुंह चिढ़ा रहा है और गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीजों घायलों को आईसीयू, एमआरआई, सीटी स्कैन के लिए मरीजों को 50 किमी दूर वाराणसी या 80 किमी दूर प्रयागराज का सफर तय करना पड़ता है। खास यह है कि जिले में जो अस्पताल है भी वह सिर्फ और सिर्फ रेफरल की भूमिका में है 

सुरेश गांधी

फिरहाल, स्वास्थ्य सेवाओं में भदोही कितना अग्रणी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जनपद में एक भी आईसीयू नहीं है और ना ही एमआरआई (मैगनेटिक इमेजिंंग रिरिसोनेंस) सेंटर है। विशेषज्ञ चिकित्सक भी नहीं है। गंभीर चोटों या बीमारी के मामले में डाक्टरों द्वारा यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि यहां ना आईसीयू है ओर ना ही एमआरआई, सीटी स्कैन या अन्य जांचों की सुविधा है लिहाजा मरीज की जान बचानी है तो तत्काल वाराणसी, प्रयागराज या मिर्जापुर ले जाने की सलाह दी जाती है। बिना इसके आगे का इलाज संभव नहीं हो पाता है। ऐसे में 12 हजार से भी अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित कराने वाले भदोही स्वास्थ्य सेवाओं में अग्रणी होने की बात नेताओं और जनप्रतिनिधियों द्वारा कही जाती है, लेकिन हकीकत इससे अलग है। खास यह है कि इस जनपद में जो अस्पतालें है भी उनमें ना तो दवा है और ना चिकित्सा इलाज की व्यवस्था। या यूं कहे सुविधाओं एवं योग्य चिकित्सकों के अभाव में अस्पतालें सिर्फ डाक्टरी मुआयना तक ही सीमित है। व्यवसायिक तकनीकी मेडिकल सहित महिलाओं के लिए मेडिकल कालेज की बात करना तो सुरज को दिए दिखाने जैसा है। 

बता दें, किसी हादसे में जब व्यक्ति घायल हो जाता है तो अंदरूनी जांचों के लिए या तो सीटी स्कैन करवाना पड़ता है या फिर नसों के ब्लाक होने, दबने आदि की जांच के लिए एमआरआई का सहारा लेना पड़ता है। मस्तिष्क की चोटों और बीमारियों के लिए भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। अक्सर दुर्घटनाओं के बाद डाक्टरों को इसकी आवश्यकता पड़ती है। बिना इसके आगे का उपचार तक संभव नहीं होता। जब डाक्टरों द्वारा इसके लिए मरीज को कहा जाता है तो उसे और उसके परिजनों को पहले वाराणसी या प्रयागराज की दौड़ लगाना पड़ता है। इससे मरीज को त्वरित उपचार नहीं मिल पाता। इतना बड़ा जिला होने के बाद भी पूरे जिले में एक भी एमआरआई का प्राईवेट या सरकारी सेंटर नहीं है। इससे मरीजों और डाक्टरों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। और तो और जो सरकारी अस्पताल है भी उनमें डिजिटल एक्स-रे मशीन तक की व्यवस्था नहीं है। मरीजों को प्राईवेट में एमआरआई, सीटी स्कैन, एक्सरे आदि जांच के लिए मोटी रकम देनी पड़ती है। सर्जरी, माइनर न्यूरो ब्रेन, स्पाइन की सर्जरी, औरतों से जुड़े सर्जरी की व्यवस्था नहीं है। हर्निया, ट्यूमर जैसे ऑपरेशन भी नहीं किए जा रहे हैं। हार्ट के सर्जन तो है हीं नहीं। यूरोलॉजी सर्जरी के लिए ना तो सर्जन है और ना ही उपकरण मौजूद है। इसमें किडनी गोल्ड ब्लैडर से जुड़ी सर्जरी नहीं होती। रेडियोथैरेपी के लिए भी उपकरण मौजूद नहीं है। जबकि जनपद में काफी सर्जरी के केस निकलते है।यहां जिक्र करना जरुरी है कि एक दशक पूर्व जिला मुख्यालय, कचहरी के साथ-साथ जिला अस्पताल की भी नींव पड़ गयी थी, इसमें कचहरी कलेक्ट्रेट में कामकाज तो शुरु हो गया, लेकिन करोड़ों रुपये की लागत से बना जिला अस्पताल भवन कमीशनखोरी की भेंट चढ़ गया।

अर्धनिर्मित भवन बनने के बाद ठेकेदार ने गेट पर ताला लगा दिया है। यह ताला आज तक नहीं खुला है। ग्रामीण कहते हैं कि अस्पताल शुरू हो जाये तो हमें बीमारी से मरना नहीं पड़ेगा। यह स्थिति तब है जब स्वास्थ्य मद में सरकार ने करोड़ो-अरबों पानी की तरह बहा दी। लेकिन राजकीय अस्पतालों में संसाधनों स्वास्थ्यकर्मियों की कमी पूरी नहीं हो सकी। इसका खामियाजा गरीब मध्यमवर्गीय तबका भुगत रही है। सच तो यह है कि करोड़ों-अरबों की धन का 80 फीसदी हिस्सा जनप्रतिनिधियों ने ही बांट खाएं। परिणाम यह है कि स्टोर में आवश्यक दवाईयां नदारद है। कई अस्पतालों की एक्स-रे व्यवस्था गड़बड़ है। मरीजों को बाहर के पैथालॉजिस्टों की शरण लेनी पड़ती है। जांच की आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक बाहर भेजकर अल्ट्रासाउंड कराते हैं। चौरी, सुरियावां, मोढ़, दुर्गागंज, सरोई, गोपीगंज, औराई, खमरियां, नईबाजार में स्थापित स्वास्थ्य केंद्रों की हालत जर्जर हो चुकी है। रैबीज इंजेक्शन का अभाव हमेशा बना रहता है। ब्लड बैंक की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसके लिए लोगों को गैर जनपदों के अस्पतालों का चक्कर काटना पड़ता है।

गौरतलब है कि 30 जून 1994 को भदोही यूपी का 65वां जिला बना। उस वक्त जिले की आबादी 15 लाख से ज्यादा थी, जो अब 25 लाख के आसपास है। आबादी के मद्देनजर 2008 को ज्ञानपुर ब्लॉक के सरपतहा में 14 करोड़ की लागत से 100 बेडों का अत्याआधुनिक जिला अस्पताल बनाने की आधारशिला तत्कालीन विकास पुरुष रंगनाथ मिश्र ने रखी। इसके निर्माण की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम लिमिटेड को सौंपी गई। लेकिन तब से अब तक निर्माण प्रक्रिया जारी है। कभी कमीशनखोरी तो कभी धांधली के नाम जांच होती रही और संबंधित जांच अधिकारी जनप्रतिनिधि मालामाल होते रहे पर अस्पताल की दशा जस की तस है। जबकि निर्माण के कुल बजट का लगभग 90 फीसदी पैसा खर्च कर हो चुका है। सूत्रों की मानें तो अब तक 20 करोड़ से भी अधिक राशि खर्च हो चुकी है, पर बिल्डिंग आधा-अधूरा ही है। आरोप है कि निर्माणाधीन जिला अस्पताल में 833 लाख (8.33 करोड़) रुपए का गबन हुआ है। तब से निर्माण कार्य बंद है। 2019 में घोटाले की जांच कराकर दोषियों को सजा और निर्माण पूर्ण करोन के लंबे-चौड़े दावे किए गए। पर दावे हकीकत में नहीं बदल सके, यहअलग बात है कि जांच में तत्कालीन जनप्रतिनिधि मालामाल हो गए और जो दीवारें तनकर खड़ी थी वो खंडहर हो गए।

कोरोनाकाल में जब धड़ाधड़ लोगों के मरने का सिलशिला शुरु हुआ तो एक बार जनप्रतिनिधियों को जिला अस्पताल की सुधी आई जरुर लेकिन अब फिर ठंडा पड़ गया है। मुख्य चिकित्साधिकारी कहना है कि भदोही में कोविड के वक्त वेंटिलेटर की कमी तो है ही ऑक्सीजन की भी भारी किल्लत रही। इससे मरीजों को मिर्जापुर भेजना पड़ रहा है। भदोही में फिलहाल दो बड़े अस्पताल हैं, एक ज्ञानपुर ब्लॉक में महाराजा चेत सिंह और दूसरा भदोही में महाराजा बलवंत सिंह चिकित्सालय। दोनों अस्पतालों में गंभीर या सड़क हादसों में घायल लोगों का इलाज नहीं हो पाता। ऐसे मरीजों को रेफर कर दिया जाता है। जबकि बुनकर बाहुल्य जनपद होने के चलते यहां अत्याधुनिक अस्पताल की सख्त जरुरत है। कालीन निर्यात संवर्धन परिषद सीईपीसी के चेयरमैन सिद्धनाथ सीनियर प्रशासनिक सदस्य उमेश कुमार गुप्ता ने कहा कि भाजपा सरकार में जनपद में बेहतर चिकित्सा सुविधा मिलने की आस जगी थी, लेकिन सब हवा-हवाई साबित हो गया। कोरोना काल में ग्रामीण छोटी मोटी बीमारी से परेशान हैं। अस्पताल शुरू होता तो अभी लोगों को परेशानी नहीं होती। बीमार पड़े तो भगवान ही बचाये। यहां किसी प्रकार की सुविधा नहीं है। अब हालत बदल गये हैं। सबकुछ कागजों पर बेहतर है। लोग स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली से जूझ रहे हैं।

गांवों के कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र कई वर्षों से पशुओं की शरणस्थली बनकर रह गये है। चहारदीवारी बरसों से टूटी हुई है। अस्पताल में आवारा कुत्तों और पशुओं की भीड़ रहती है। स्वास्थ्य केंद्र परिसर के सामने और चारों तरफ जंगल उग आये हैं। इस कारण यहां सांप और बिच्छुओं की भरमार है। या यूं कहे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र केवल टीकाकरण केंद्र बनकर रह गया है। यह पहले केवल टीकाकरण के दिन ही खुलता था। अभी कोविड का टीका हो रहा तो खुल रहा है, पर इलाज की व्यवस्था नहीं है। हालत यह लोग यहां केवल टीकाकरण कराने के लिए आते हैं। अस्पताल की व्यवस्था एएनएम के भरोसे है। क्षेत्रीय विधायकों का कहना है कि भवन निर्माण को लेकर सरकार को पत्र भेजा गया है। अपने स्तर से स्वास्थ्य मंत्री से भी भवन निर्माण के बाद बेहतर व्यवस्था किये जाने की मांग की जायेगी। ग्रामीणों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा दिलाये जाने को लेकर पूरा प्रयास किया जा रहा है।

बीमारियां बढ़ने की वजह से अस्पतालों में इन दिनों मरीजों को एडमिट कराना चुनौती बन गया है। वहीं परिजनों के लिए भी कई व्यवस्था नहीं हैं। लगभग सभी वार्ड लगभग फुल हो चुके हैं। स्ट्रेचर पर ही मरीजों का इलाज कर दिया जा रहा है। जबकि तीमारदार भी फर्श पर लेटकर समय काट रहे हैं। या यूं कहे मरीजों को इलाज देने के नाम पर अस्पताल में एनएबीएच के नियमों की धज्जियां तक उड़ रही हैं। मनाही के बावजूद अस्पताल में डायरिया-उल्टी दस्त के मरीजों को सीधे ही आईसोलेशन वार्ड में शिफ्ट कर दिया जा रहा है। जबकि यह वार्ड सिर्फ आईसोलेटड मरीजों के लिए ही हैं। उनमें खतरनाक संक्रमण होने की वजह से दूसरे मरीजों को यहां से अलग रखना होता है। इलाज में मारामारी के अलावा मरीजों को अस्पतालों में महंगी दवाइयों की मार भी झेलनी पड़ रही हैं। दवाइयों से लेकर जांचों तक के लिए मरीजों को बाहर भागना पड़ रहा है। यहां भी दवाई होने की बात कहकर मरीजों को दूसरे मेडिकल स्टोर्स पर भेज दिया जा रहा है। 

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