हिंदुत्ववादी और प्रखर वक्ता के साथ ’हिंदू हृदय सम्राट’ थे कल्याण सिंह
यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह, 89 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। 89 साल के कल्याण सिंह बीजेपी के उन चुनिंदा नेताओं में से एक रहे, जो न सिर्फ बीजेपी की बुनियाद थे, बल्कि सत्ता की बुलंदी तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा की.सुरेश गांधी
बता दें, बीजेपी की आज जो
भी सियासत है, उसमें राम मंदिर आंदोलन का बहुत महत्व
है। अयोध्या आंदोलन ने बीजेपी के
कई नेताओं को देश की
राजनीति में एक पहचान दी।
इसके लिए लालकृष्ण आडवाणी के साथ-साथ
कल्याण सिंह की अहम भूमिका
रही। क्योंकि राम मंदिर के लिए सबसे
बड़ी कुर्बानी पार्टी नेता कल्याण सिंह ने ही दी।
वे बीजेपी के इकलौते नेता
थे, जिन्होंने 6 दिसंबर
1992 में अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद अपनी
सत्ता की बलि चढ़ा
दी। कल्याण ने राम मंदिर
के लिए सत्ता ही नहीं गंवाई,
बल्कि इस मामले में
सजा पाने वाले वे एकमात्र शख्स
रहे। इसी अयोध्या की देन है
कि आज नरेंद्र मोदी
देश के प्रधानमंत्री हैं।
लालकृष्ण आडवाणी ने जब सोमनाथ
से अयोध्या के लि रथयात्रा
निकाली थी तो नरेंद्र
मोदी उनके सारथी थे। इसके बाद 2002 में गोधरा में ट्रेन की जो बोगी
जलाई गई उसमें मरने
वाले भी कारसेवक थे,
जो अयोध्या से लौट रहे
थे। इस घटना के
बाद जो दंगे हुए
उनसे नरेंद्र मोदी और उनकी गुजरात
सरकार कांग्रेस के निशाने पर
आ गई। दंगों के बाद हुए
चुनाव में मोदी की जबर्दस्त वापसी
हुई और उसके बाद
पिछले दो दशकों से
राजनीति में ब्रांड मोदी की धमक जारी
है।
30 अक्टूबर, 1990 को जब मुलायम
सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री थे,
तब उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलवा
दी। प्रशासन कारसेवकों के साथ सख्त
रवैया अपना रहा था। ऐसे में बीजेपी ने उनका मुकाबला
करने के लिए कल्याण
सिंह को आगे किया।
वे उग्र तेवर में बोलते थे और उनकी
यही अदा लोगों को पसंद आती
रही। कल्याण सिंह ने एक साल
में बीजेपी को उस मुकाम
पर लाकर खड़ा कर दिया कि
पार्टी ने 1991 में अपने दम पर यूपी
में सरकार बना ली। कल्याण सिंह यूपी में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री
बने। सीबीआई में दायर आरोप पत्र के मुताबिक, मुख्यमंत्री
बनने के ठीक बाद
कल्याण सिंह ने अपने सहयोगियों
के साथ अयोध्या का दौरा किया
और राम मंदिर का निर्माण करने
के लिए शपथ ली। कल्याण सिंह सरकार के एक साल
भी नहीं गुजरे थे कि 6 दिसंबर,
1992 को अयोध्या में कारसेवकों ने विवादित ढांचा
गगिरा दिया। जबकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर कहा था कि उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री के
रूप में, वह मस्जिद को
कोई नुकसान नहीं होने देंगे। लेकिन सरेआम बाबरी मस्जिद विध्वंस कर दी गई।
इसके लिए कल्याण सिंह को जिम्मेदार माना
गया। कल्याण सिंह ने इसकी नैतिक
जिम्मेदारी लेते हुए 6 दिसंबर, 1992 को ही मुख्यमंत्री
पद से त्यागपत्र दे
दिया। इसके बावजूद दूसरे दिन केंद्र सरकार ने यूपी की
बीजेपी सरकार को बर्खास्त कर
दिया। जबकि सीबीआई की चार्जशीट के
अनुसार, उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलाने
की अनुमति नहीं दी थी।
कल्याण सिंह ने उस समय
कहा था कि यह
सरकार राम मंदिर के नाम पर
बनी थी और उसका
मकसद पूरा हुआ। ऐसे में सरकार राम मंदिर के नाम पर
कुर्बान की गई है।
अयोध्यामें बाबरी मस्जिद गिराए जाने और उसकी रक्षा
न करने के लिए कल्याण
सिंह को एक दिन
की सजा मिली। बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच के
लिए बने लिब्राहन आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री
पी वी नरसिम्हा राव
को क्लीन चिट दी, लेकिन योजनाबद्ध, सत्ता का दुरुपयोग, समर्थन
के लिए युवाओं को आकर्षित करने
और आरएसएस के राज्य सरकार
में सीधे दखल के लिए मुख्यमंत्री
कल्याण सिंह और उनकी सरकार
की आलोचना की। कल्याण सिंह सहित कई नेताओं के
खिलाफ सीबीआई ने मुकदमा भी
दर्ज किया। घटना के दौरन मंच
पर मौजूद मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डालमिया, विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा और लालकृष्ण आडवाणी
के सामने हुआ। लेकिन मस्जिद को बचाने का
जिम्मा कल्याण सिंह पर था। इसलिए
उन्हें आरोपी माना गया। कल्याण सिंह का नाम हमेशा
पढ़ाई-लिखाई को लेकर सख्त
और अनुशासित मुख्यमंत्री के तौर पर
याद रखा जाएगा। कभी खुद टीचर रहे कल्याण सिंह पारदर्शी परीक्षा प्रणाली पर यकीन रखते
थे, इसी कारण वो यूपी में
मुख्यमंत्री रहते हुए नकल अध्यादेश लेकर आए। उनके इस अध्यादेश के
दौरान परीक्षा में सख्ती का अलग ही
आलम था। नकल करने वालों को सीधे जेल
होती थीजिससे आम छात्र भी
कांप जाते थे।
कल्याण सिंह का जन्म 5 जनवरी
1932 को उत्तरप्रदेश के अतरौली में
हुआ था। उनके पिता का नाम तेजपाल
सिंह लोधी और मां का
नाम सीता देवी था। धर्म समाज महाविविद्यालय अलीगढ़ से उन्होंने बीए
एलएलबी की पढ़ाई की।
उन्हें कबड्डी देखने और संगीत सुनने
का बहुत शौक था। कल्याण सिंह का जाना भारतीय
राजनीति के लिए एक
ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई
कभी नहीं हो सकती। 1980 में
भाजपा के जन्म के
ठीक दस साल बाद
देशभर की राजनीति का
माहौल बदलने लगा। ये वही साल
था जब 1989-90 में मंडल-कमंडल वाली सियासत शुरू हुई और भाजपा को
अपने सियासी बालपन में ही रोड़े अटकने
का अहसास हुआ। इस अहसास और
संकट के मोचक बनकर
निकले कल्याण सिंह। जब आधिकारिक तौर
पर पिछड़े वर्ग की जातियों को
कैटिगरी में बांटा जाने लगा और पिछड़ा वर्ग
की ताकत सियासत में पहचान बनाने लगा तो भाजपा ने
कल्याण दांव चला। उस वक्त तक
भाजपा बनिया और ब्राह्मण पार्टी
वाली पहचान रखती थी। इस छवि को
बदलने के लिए भाजपा
ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण
सिंह को बनाया और
तब गुड गवर्नेंस के जरिए मंडल
वाली सियासत पर कमंडल का
पानी फेर दिया था। सत्ता में ऐसे लोग विरले ही मिलेंगे, जिन्होंने
अपनी जिम्मेदारी मानते हुए इस्तीफा दी। उनके लिए भगवान श्रीराम पहले थे, सत्ता बाद में। यह उनकी महानता
थी और त्याग भी।
गोरक्षपीठ की तीन पीढ़ियां
(ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ, ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ और मुख्यमंत्री के
रूप में मौजूदा पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ) मंदिर आंदोलन से जुड़ी रहीं,
इस नाते पीठ से उनका खास
लगाव था। वह बड़े महाराज
ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ का बहुत सम्मान
करते थे. यही वजह है कि जब
भी गोरखपुर जाते थे। बड़े महाराज से मिलने जरूर
आते थे। कल्याण सिंह के हर मुलाकात
के केंद्र में राम मंदिर ही होता था।
इस मुद्दे पर दोनों में
लंबी चर्चा होती थी। दोनों का एक ही
सपना था, उनके जीते जी अयोध्या में
भव्य राम मंदिर का निर्माण हो।
बड़े महाराज के इस सपने
को उनके शिष्य बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ साकार कर रहे हैं।
कल्याण सिंह इस मामले में
खुश किस्मत रहे कि उनके जीते
जी ही मंदिर का
निर्माण शुरू हो गया। राम
मंदिर निर्माण को लेकर उनका
अटूट विश्वास था। जब भी मंदिर
आंदोलन पर उनकी बड़े
महाराज से चर्चा होती
थी, तब वह कहते
थे कि मंदिर निर्माण
का काम मेरे जीवनकाल में ही शुरू होगा.
यह हुआ भी। इन्हीं रिश्तों के नाते मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ ने उनके इलाज
में निजी दिलचस्पी ली। उनको बेहतर इलाज के लिए आरएमएल
(राम मनोहर लोहिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज)
से एसजीपीजीआई शिफ्ट करवाया। कई बार उनका
हालचाल लेने गए। इलाज कर रहे विशेषज्ञ
चिकित्सकों की टीम से
लगातर संपर्क में रहे।
उन्होंने भारतीय जनसंघ जॉइन किया। 1951 में ही जनसंघ की
शुरुआत हो गई और
1952 के चुनाव में पार्टी को 3 सीटें मिलीं। इसके बाद 1962 के लोकसभा चुनाव
में जनसंघ को 14 सीटें मिलीं। यानी 5 साल के अंदर ही
जनसंघ ने अच्छी ग्रोथ
कर ली थी। लेकिन
अगर उत्तर प्रदेश में मजबूती चाहिए तो जाहिर था
कि जनसंघ के पास पिछड़े
वर्ग के कुछ अच्छे
लोग हों। अब ऐसे चेहरे
ढूंढने की जिम्मेदारी मिली
हरीशचंद्र श्रीवास्तव को। वे उस समय
के कद्दावर नेताओं में गिने जाते थे। जब उन्होंने पिछड़े
वर्ग के नेता की
खोज शुरू की तो मालूम
हुआ कि अलीगढ़ में
एक लोध लड़का है. बड़ा तेज-तर्रार है और नाम
है कल्याण सिंह। अलीगढ़ से गोरखपुर तक
लोधी जाति की अच्छी-खासी
आबादी थी। माना जाता था कि यादव
और कुर्मी के बाद लोधी
ही आते हैं। ऐसे में कल्याण सिंह को अपनी पर्सानिलिटी
के साथ लोधी होने का भी फायदा
मिल गया। इसके बाद कल्याण सिंह को कहा गया
कि सक्रियता बढ़ाएं और पार्टी को
जिताएं, जिसके बाद वह काम पर
लग गए. 1962 में पहली बार उन्होंने अतरौली सीट से चुनाव लड़ा।
उस समय वह महज 30 साल
के थे। हालांकि, उन्हें जीत हासिल नहीं हुई। सोशलिस्ट पार्टी के बाबू सिंह
ने उन्हें हरा दिया. लेकिन कल्याण सिंह हार मानने वालों में से नहीं थे।
5 साल उन्होंने खूब काम किया, पसीना बहाया और फिर चुनाव
में उतरे। इस बार कल्याण
सिंह जीत गए और बाबू
सिंह को जितने वोट
मिले थे, उससे भी करीब 5 हज़ार
वोट ज़्यादा कल्याण सिंह को मिले। करीब
26 हज़ार वोट. कांग्रेस प्रत्याशी को हराना उस
समय बड़ी जीत थी। इसके बाद 1969, 1974 और
1977 के चुनाव में भी उन्होंने अतरौली
में अपना परचम लहराया। 4 बार लगातार विधायक बने। पहली 3 बार जनसंघ के टिकट पर,
चौथी बार जनता पार्टी के टिकट पर।
हालांकि, 1980 के विधानसभा चुनाव
में कल्याण सिंह की जीत का
सिलसिला थम गया। कांग्रेस
के अनवर खान के सामने उन्हें
हार का सामना करना
पड़ा. इसके बाद नई-नवेली भाजपा
के टिकट पर 1985 के विधानसभा चुनाव
में कल्याण सिंह ने जोरदार वापसी
की. तब से लेकर
2004 के विधानसभा चुनाव तक कल्याण सिंह
अतरौली से लगातार विधायक
बनते रहे। साल 1991 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कल्याण सिंह
को पिछड़ों का चेहरा बनाकर
राजनीति की प्रयोगशाला में
उतार दिया. कल्याण सिंह की छवि पिछड़ों
के नेता के साथ-साथ
एक फायर ब्रांड हिंदू नेता के तौर पर
मजबूत हुई. कल्याण सिंह 2 बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे.
वह भाजपा के यूपी में
पहले सीएम भी थे. पहले
कार्यकाल में 24 जून 1991 से 6 दिसम्बर 1992 तक और दूसरी
बार 21 सितंबर 1997 से 12 नवंबर 1999 तक मुख्यमंत्री रहे।
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