जातियों के वोटों से नेताओं के कुनबे का विकास
यूपी
विधानसभा
चुनाव
2022 में
एकबार
जातियों
के
बूते
सत्ता
हासिल
करने
की
दावे
दर
दावे
किए
जा
रहे
है।
राजनीतिक
दलों
की
तैयारियां
भी
जातियों
के
इर्द-गिर्द
ही
घूम
रही
है।
यह
अलग
बात
है
कि
मोदी-योगी
लहर
में
जातियों
की
राजनीति
करने
वालों
का
भ्रमजाल
सिमटता
नजर
आ
रहा
है।
इसकी
बड़ी
वजह
है
जातियों
की
एकजुटता
के
नाम
पर
अपने-अपने
समाज
के
स्वयंभू
अध्यक्ष
बने
नेता
समाज
का
नहीं
अपने
कुनबे
के
विकास
पर
ज्यादा
जोर
देते
है,
के
इस
बात
को
यादव
सहित
कुछ
जातियों
को
छोड
दें
तो
बाकी
जातियों
के
लोग
समझने
लगे
है।
और
अब
जब
छोटी
छोटी
जातियों
के
नेताओं
के
दम
पर
प्रचंड
बहुमत
से
जीती
भाजपा
सरकारी
योजनाएं
चाहे
वह
राशन,
विधवा-वृद्धा
पेंशन
हो
या
श्रम
से
लेकर
मकान-दुकान
सहित
अन्य,
सब
सीधे
लाभार्थियों
तक
बिना
कटमनी
के
पहुंच
रहा
है,
तो
यह
सब
जाति
के
ठेकेदारों
को
नागवार
गुजर
रही
है
और
अपनी-अपनी
सुविधा
के
अनुसार
दलों
की
सदस्यता
ग्रहण
कर
जीत
पक्की
करने
के
लिए
जाति
की
दुहाई
देने
लगे
है।
इस
रणनीति
में
कितना
सफल
होंगे
यह
तो
10 मार्च
को
पता
चलेगा।
लेकिन
बड़ा
सवाल
तो
यही
है
आखिर
जाति
के
सहारे
कब
तक
अपने
समाज
को
ठगकर
कुनबे
का
विकास
करते
रहेंगे
नेता?
सुरेश गांधी
फिरहाल, उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात बिछ चुकी है। सूबे में अलग-अलग जातियों को साधने के लिए सपा और बीजेपी हर संभव कोशिश में जुटी हैं। ये ’छोटी’ जातियां संख्या कम होने की वजह से अकेले दम पर भले ही सियासी तौर पर खास प्रभाव ना दिखा सकें, लेकिन किसी बड़ी संख्या वाली जाति या फिर तमाम छोटी-छोटी जातियां मिलकर किसी भी दल का राजनीति खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं। यह कड़वा सच है कि यूपी में राजनीतिक दलों के नेताओं ने जातियों में इस कदर तीन-तिकड़म से अपनी पैठ बना ली है कि यहां जीत के लिए जाति से बड़ा कोई मुद्दा नहीं होता है। यह अगल बात है कि भाजपा हिन्दुत्व, सबका साथ, सबका विकास, राष्ट्रवाद व विकास के सहारे जाति की राजनीति को तो़ड़ने का हरसंभव प्रयास में जुटी है।
इस फार्मूले से
बीजेपी को 2017 के विधानसभा ण्वं
2019 के लोगसभा चुनाव में हर जाति का
वोट भी मिला। लेकिन
जिस तरह से उसके साथ
आएं जातियों के नेता साथ
छोड़ रहे है, वह जरुर चिंताजनक
है। हालांकि बीजेपी को अपने काम,
विकास और सरकारी योजनाओं
के लाभार्थियों को सीधे लाभ
देने पर भरोसा है
कि लोग जाति नहीं उसके काम पर ही वोट
देंगे। लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए विकास को भी जाति
के हथियार से नाम नाकाम
करने के लिए विपक्ष
हर हथकंडे अपना रहा है। इसका सबसे प्रभावशाली उदाहरण है सामाजिक न्याय
की राजनीति का दावा करने
वाली पार्टियां। किसी एक प्रधान जाति
को आधार बना कर, उसके इर्द-गिर्द अन्य जातियों को जोड़कर, सत्ता
में आने की रणनीति बनाने
वाले ये दल अपने
इस फॉर्मूले के कारण कमोबेश
तीस साल तक सफलता का
स्वाद चखते रहे। चूंकि इन दलों के
पास सामाजिक न्याय के नाम पर
‘जाति-प्लस’ की राजनीति करने
का कोई संकल्प और योजना का
अभाव था, इसलिए भाजपा ने जाति की
वैसी ही राजनीति करने
का बेहतर कौशल दिखाकर इन्हें इनके खेल में ही मात दे
दी।
दूसरी तरफ भाजपा से उम्मीद की
जाती थी कि वह
भी दूसरों की तरह जातियों
का जोड़-तोड़ करेगी, लेकिन उसके पास ‘जाति-प्लस’ जैसा कोई न कोई आश्वासन
भी होगा। भले ही वह हिंदुत्व
की विचारधारा से निकलता हो
या कमजोर जातियों को राजनीति के
मैदान में बराबर का मौका देने
वाला हो। लेकिन धीरे-धीरे साफ होता जा रहा है
कि भाजपा का जातिगत गठजोड़
दूसरों के मुकाबले आकार
में बड़ा और जातियों के
लिहाज से अधिक विविध
तो है, लेकिन ‘जाति प्लस’ उसमें से भी गायब
है। अगर ऐसा न होता तो
छोटी-छोटी जातियों के स्वयंभू अध्यक्षों
के हाथ से निकलने के
अंदेशे या निकल जाने
से उसकी सांस न फूल रही
होती। खास बात यह है कि
इस उठापटक में भाजपा इस समय यह
गारंटी भी नहीं दे
सकती कि पिछले तीन
चुनावों की तरह सभी
गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव
दलित इस बार भी
उसके साथ बने रहेंगे। यह सही है
कि समाज जातियों में बंटा है, और राजनीतिक गोलबंदी
की सर्वप्रमुख इकाई जाति ही है। लेकिन
जातियां सत्ता में भागीदारी ही नहीं, बल्कि
आर्थिक विकास के साथ-साथ
सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक स्पर्श
भी चाहती हैं। यही वह ‘जाति-प्लस’ है, जिसे मुहैया कराने में पार्टियां विफल रहती हैं।
यह भी सही
है कि धीरे-धीरे
ही सही जाति व्यवस्था क्षीण हो रही है,
परन्तु राजनेता ‘जाति’ ‘जातिवाद’ का दोहन करने
में अग्रसर है। यह एक विडंबना
है कि जाति व्यवस्था
में परिवर्तन के बावजूद जाति
कायम है। धर्म और जाति की
आड़ में वोट बैंक की राजनीति को
पनपाने से हमारे प्रजातंत्र
को गहरा आघात पहुंचाया जा रहा है।
चुनाव जीतने के लिए एक
बार फिर सभी राजनीतिक दल छोटी-छोटी
जातियों के वोटों को
अपने पाले में लाने के लिए उनके
समाज की पार्टियों के
साथ गठबंधन भी करे रहे
हैं। बीजेपी ने अपना दल
(एस) और निषाद पार्टी
से गठबंधन कर लक्ष्य बना
लिया है कि यूपी
में ओबीसी समुदाय के बड़े हिस्से
को अपने पाले में करना है, जिसके लिए जमीन पर उतरकर पसीना
बहाने जा रही है।
वहीं, सपा ने महान दल,
जनवादी पार्टी और आरएलडी सहित
भाजपा छोड़कर आएं स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे मंत्री व विधायकों से
हाथ मिलाया है। जाति के नाम पर
राजनीति भारत का स्याह सच
है। यह दशकों से
की जा रही है।
जातीय समीकरण के आधार पर
टिकट बांटे जाते हैं, चुनाव के दौरान जाति
के आधार पर, वोटरों की गोलबंदी की
जाती है। जातिगत गठजोड़ को केंद्र में
रखकर दल अपना एजेंडा
तय करते हैं। सपा जैसे कई दलों का
राजनीतिक अस्तित्व ही, जातीय सियासत पर टिका है।
कुछेक जातियों का समूह बनाकर
अस्मिता की राजनीति की
जाती है। मतलब साफ है हम इस
प्रकार के चुनावी ताने-बाने से प्रजातंत्र को
जीवित नहीं रख पाएंगे। एक
स्वच्छ राजनीति से प्रजातंत्र को
बल मिलता है। आर्थिक सामाजिक प्रजातंत्र दृढ़ राजनीतिक प्रजातंत्र से प्राप्त किया
जा सकता है। सत्ता की प्रतिस्पर्धा में
राजनीतिक प्रजातंत्र को क्षीण कर
आर्थिक सामाजिक बराबरी प्राप्त करने का उद्देश्य कभी
साकार नहीं हो पाएगा।
पूर्वांचल में कुछ ज्यादा ही है जाति की राजनीति
बता दें कि यूपी में
सरकारी तौर पर जातीय आधार
पर कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है, लेकिन अनुमान के मुताबिक यूपी
में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का है। लगभग
52 फीसदी पिछड़ा वोट बैंक में 43 फीसदी वोट बैंक गैर-यादव बिरादरी का
है, जो कभी किसी
पार्टी के साथ स्थाई
रूप से नहीं खड़ा
रहता है। यही नहीं पिछड़ा वर्ग के वोटर कभी
सामूहिक तौर पर किसी पार्टी
के पक्ष में भी वोटिंग नहीं
करते। यूपी में ओबीसी समाज अपना वोट जाति के आधार पर
करता रहा है। यही वजह है कि छोटे
हों या फिर बड़े
दल, सभी की निगाहें इस
वोट बैंक पर रहती हैं।
सपा और बीजेपी अति
पिछड़ी जातियों में शामिल अलग-अलग जातियों को साधने के
लिए उसी समाज के नेता को
मोर्चे पर भी लगा
रखा है। यूपी में
ओबीसी की 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर
कुर्मी समुदाय की है। सीएसडीएस
के आंकड़ों के मुताबिक ओबीसी
जातियों में यादवों की आबादी कुल
20 फीसदी है जबकि राज्यकी
आबादी में यादवों की हिस्सेदारी 11 फीसदी
है, जो सपा का
परंपरागत वोटर माना जाता है।
यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियां सबसे ज्यादा अहम हैं, जिनमें कुर्मी-पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गडरिया-पाल 3 फीसदी, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट 4 फीसदी, तेली-शाहू-जायसवाल 8, जाट 3 फीसदी, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3 फीसदी, कहार-नाई- चौरसिया 3 फीसदी, राजभर 2 फीसदी और गुर्जर 2 फीसदी
हैं। यूपी में बीजेपी और सपा ने
ओबीसी समुदाय के कुर्मी समाज
से प्रदेश अध्यक्ष है तो बसपा
ने राजभर और कांग्रेस ने
कानू जाति के व्यक्ति को
कमान दे रखी है।
यूपी में 22 फीसदी दलित वोट काफी अहम माने जाते है, लेकिन यह वोटबैंक जाटव
और गैर-जाटव के बीच बंटा
हुआ है। वजह यही है कि इनमें
तीन चौथाई और कुल आबादी
का 12 फीसदी जाटव हैं जो पूरी तरह
मायावती के साथ लामबंद
हैं जबकि बाकी 8 फीसदी गैर जाटव दलित 50-60 जातियां और उप-जातियां
में बंटा हुआ हैं। गौर-जाटव दलित में बाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी सहित तमाम जातियों के राजनीतिक दल
अपने पाले में लामबंद करने में जुटे हैं। जातिगत आधार पर देखें तो
यादव के बद ओबीसी
में सबसे बड़ी कुर्मी समुदाय की है। सूबे
के सोलह जिलों में कुर्मी और पटेल वोट
बैंक 6 से 12 फीसदी तक है। इनमें
मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले
प्रमुख हैं।
ओबीसी की मौर्या-शाक्य-सैनी और कुशवाहा जाति
की आबादी 13 जिलों का वोट बैंक
7 से 10 फीसदी है। इन जिलों में
फिरोजाबाद, एटा, मिर्जापुर, प्रयागराज, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, बदायूं, कन्नौज, कानपुर देहात, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर हैं।
इसके अलावा सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मुरादाबाद में
सैनी समाज निर्णायक है। ओबीसी में एक और बड़ा
वोट बैंक लोध जाति का है, जो
बीजेपी का परंपरागत वोट
बैंक माना जात है। यूपी के कई जिलों
में लोध वोटरों का दबदबा है,
जिनमें रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामायानगर, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखखीमपुर, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा ऐसे जिले हैं, जहां लोध वोट बैंक पांच से 10 फीसदी तक है। मल्लाह
समुदाय भी करीब 6 फीसदी
है, जो सूबे में
निषाद, बिंद, कश्यप और केवल जैसी
उपजातियों से नाम से
जानी जाती है। गंगा नदी के किनारे जिलों
में स्थिति है। फतेहपुर, चंदौली, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, गोरखपुर, भदोही, प्रयागराज, अयोध्या, जौनपुर, औरैया सहित जिले में है। मछली मारने और नाव चलाने
में इनका जीवन बीत जाता है। इसलिए सियासी दलों की नजर इस
समुदाय के वोट बैंक
पर है। पूर्वांचल के कई जिलों
में इन्हें स्थानीय भाषा में नोनिया के नाम से
जाना जाता है। विशेषकर मऊ, गाजीपुर बलिया, देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, महराजगंज, चंदौली, बहराइच और जौनपुर के
अधिकतर विधानसभा क्षेत्रों में इनकी संख्या अच्छी खासी है।
सपा, बसपा, भाजपा में पाले में लाने की होड़
पूर्वांचल की सियासत में
सपा और बीजेपी दोनों
ही इन समुदाय को
साधकर अपने राजनीतिक हित साधना चाहते हैं। पूर्वांचल में राजभर समुदाय ओबीसी में एक अहम वोटबैंक
है, जिसकी आबादी भले ही दो फीसदी
है, लेकिन कई सीटों पर
सियासी खेल बनाने और बिगाड़ने की
ताकत रखते हैं। पूर्वांचल के गाजीपुर, बलिया,
मऊ, आजमगढ़, चंदौली, भदोही, वाराणसी व मिर्जापुर में
इस बिरादरी की संख्या अच्छी
खासी है। इस बिरादरी के
नेता के तौर पर
ओम प्रकाश राजभर ने पहचान बनाई
है। लेकिन बीजेपी सुहैलदेव राजभर विश्व विद्यालय सहित कई ऐसे काम
किए जिससे उससे भरोसा है कि साथ
उसे ही मिलेगा। लोहार
और कुम्हार दोनों ही समुदाय ओबीसी
की अति पिछड़ी जातियों में आती है, लोहार जाति के लोग खुद
को विश्वकर्मा और शर्मा जाति
लिखते हैं जबकि कुम्हार समुदाय को लोग खुद
को प्रजापति लिखते है.। अवध
और पूर्वांचल के इलाकों में
इन दोनों समुदाय अकेले दम जीतने की
ताकत रखते हैं। ओबीसी समुदाय में पाल समाज अति पिछड़ी जातियों में आता है, जिसे गड़रिया और बघेल जातियों
के नाम से जाना जाता
है। बृज और रुहेलखंड के
जिलों में पाल समुदाय काफी अहम माने जाते हैं। यह वोट बैंक
बदायूं से लेकर बरेली,
आगरा, फिरोजाबाद, इटावा, हाथरस जैसे जिलों में काफी महत्व रखते हैं। इसके अलावा अवध के फतेहपुर, रायबरेली,
प्रतापगढ़ और बुंदेलखड के
तमाम जिलों में 5 से 10 हजार की संख्या में
रहते हैं। ओबीसी वोट बैंक में करीब दर्जनों और जातियां हैं,
जिन्हें अति पिछड़ों की श्रेणी में
शामिल हैं।
नेताओं की तरक्की से कैसे होगी समाज की तरक्की?
ताज्जुब है। 10 करोड़ से अधिक की
आबादी के भाग्य विधाता
जाति के कुछ ठेकेदार
बन जाते हैं। पांच साल तक जाति और
धर्म के आधार पर
राजनीति का विरोध करने
वाले राज्य के बड़े राजनेता
चुनावी मौसम में जाति के पुरोधा बन
जाते हैं। जाति की यह ठेकेदारी
ऊपर से नीचे तक
चलती है। बहुत हद तक यह
मामला बड़े ठेकेदार और उनसे जुड़े
छोटे ठेकेदारों की तरह नजर
आता है। बड़ा ठेकेदार हैसियत के हिसाब से
बड़ा काम लेता है। छोटा ठेकेदार उसके हिस्सेदारी के काम को
लोकसभा या विधानसभा के
स्तर पर संभालता है।
उनका नेटवर्क गांवों तक फैला हुआ
है। जाति के इन ठेकेदारों
के लिए अच्छी बात है कि बिरादरी
के लोग उनसे सवाल नहीं करते हैं। कोई इनसे यह नहीं पूछता
है कि आपके परिवार
की तरक्की हो जाने से
पूरी बिरादरी की तरक्की कैसे
हो जाएगी। सिर्फ आपके भाई-बहन, पत्नी, बेटे-बेटियां और दीगर रिश्तेदारों
के सांसद या विधायक बन
जाने से हम सबका
कल्याण कैसे हो जाएगा? यह
सवाल भी पूछा जा
सकता है कि पूरी
बिरादरी में राजनीति करने लायक काबिल लोग आपके परिवार में ही क्यों पैदा
होते हैं? हम गरीबों के
घर में वे क्यों नहीं
पैदा होते हैं। राज्य की राजनीति गवाह
है। बारी-बारी से प्रायः सभी
बिरादरी के लोग शीर्ष
पदों पर बैठे। उन
सबने छिपकर या खुलकर जाति
की राजनीति की। अगर जाति के किसी व्यक्ति
के शीर्ष पर बैठ जाने
से पूरी बिरादरी का विकास हो
जाता जो राज्य के
लोग गरीब कहे जाने में गौरव का अहसास नहीं
करते। उनके नेता यह कहकर खुश
नहीं होते कि हमारी बिरादरी
के लोग गरीब हैं। इसलिए हमारे साथ हैं। यानी अमीर होते तो दूसरी बिरादरी
के साथ चले जाते। यह सच भी
है कि जाति का
यह कारोबार गरीबी और अशिक्षा की
मूल पूंजी पर ही चल
पाता है। संपन्न लोग किसी जाति के हों, उनका
आपसी रिश्ता अच्छा ही रहता है।
उनके बीच जाति बंधन के बिना खान-पान होता है। यहां तक कि शादी
जैसे रिश्ते भी बन जाते
हैं। लेकिन, इसी जाति या धर्म के
नाम पर गरीब आपस
में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। यह हाल सभी
जातियों का है। यह
आम लोगों के लिए विचार
का विषय है कि आम
तौर पर जातियां सिर्फ
शादी-ब्याह के रिश्ते बनाने
के दिनों में ही काम आती
हैं। बाकी दिनों में जाति के नाम पर
आम गरीबों का भावनात्मक शोषण
ही होता है। कोई माई का लाल एक
उदाहरण दे जिससे यह
साबित हो कि किसी
संपन्न राजनीतिज्ञ ने सिर्फ जाति
के नाम पर अपनी बिरादरी
के किसी गरीब के साथ शादी-ब्याह का संबंध बनाया।
इस तरह के रिश्ते अपवाद
में भी नहीं मिल
पाते हैं। तब इस सच
पर कौन विचार करेगा कि जाति के
बदले गुण के आधार पर
जन प्रतिनिधियों का चयन किया
जाना चाहिए। भावना के बदले ठोस
मुद्दे के आधार पर
उनसे सवाल-जवाब किया जाना चाहिए। अगर इस स्तर पर
लोग जागरूक नहीं होंगे तो हर बार
पांच साल के लिए उन्हें
ठगे जाने से कौन रोक
पाएगा। कम से कम
युवा वोटरों को तो इस
पर गंभीरता से विचार करना
होगा।
यथार्थ
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