सोरहिया मेला : जहां मां पार्वती ने पुत्र कल्याण के लिए की उपासना
धन
संपत्ति,
ऐश्वर्य
और
संतान
सुख
की
कामना
से
लक्ष्मीकुंड
पर
सजने
वाला
सोरहिया
मेलें
में
आस्थावानों
की
भीड़
उमड़
रही
है।
काशी
के
लक्खा
मेले
में
शुमार
सोरहिया
मेले
में
16 अंकों
का
खास
महत्व
है।
सोरहिया
का
महाअनुष्ठान
आरंभ
होने
के
साथ
ही
यह
मेला
जीवित्पुत्रिका
व्रत
तक
चलेगा।
16 दिन
के
व्रत
और
पूजन
में
स्नान
और
16 आचमन
के
बाद
देवी
विग्रह
की
16 परिक्रमा
की
जाती
है।
माता
को
16 चावल
के
दाने,
16 दूर्वा
और
16 पल्लव
अर्पित
किए
जाते
हैं।
व्रत
के
लिए
16 गांठ
का
धागा
धारण
किया
जाता
है।
जो
कथा
सुनी
जाती
है,
इसमें
16 शब्द
होते
हैं।
16वें
दिन
जीवित्पुत्रिका
या
ज्यूतिया
के
निर्जला
व्रत
के
साथ
पूजन
का
समापन
होता
है।
मान्यता
है
कि
भाद्रपद
शुक्ल
पक्ष
की
अष्टमी
से
क्वार
कृष्ण
पक्ष
अष्टमी
तक
मां
भक्तों
को
देती
है
साक्षात
दर्शन।
इस
अवधि
में
जो
भी
भक्त
16 दिन
तक
नियमित
महालक्ष्मी
का
व्रत
रख
पूजा
एवं
परिक्रमा
कर
ली
सोने
से
घर
भरते
देर
नहीं
लगती।
मां
लक्ष्मी
उसे
शक्ति
और
ऐश्वर्य
से
परिपूर्ण
कर
देती
हैं।
मंदिर
के
पुजारी
अविनाश
पांडेय
बताते
है
कि
यहां
माता
पार्वती
ने
पुत्र
श्रीगणेश
व
श्री
कार्तिकेय
की
दीर्घायु
के
लिए
सोलह
दिन
का
व्रत
रखकर
पूजन-अर्चन
की
थी।
इस
कठिन
व्रत
के
बाद
भगवान
श्री
गणेश
देवों
में
प्रथम
पूज्य
कहलाएं।
मान्यता
है
कि
यहां
जो
भी
महिलाएं
विधि
विधान
से
16 दिन
का
उपवास
रख
पुत्र
कल्याण
व
धन्यधान
की
मन्नतें
मांगती
है
वह
पूरा
हो
जाता
है।
कहते
है
जब
माता
पार्वती
यहां
सोलहों
दिन
का
उपवास
रखी
थी।
उसी
दौरान
भ्रमण
पर
निकली
माता
लक्ष्मी
यहां
पहुंची
थी।
माता
लक्ष्मी
के
विशेष
आग्रह
के
बाद
भी
जब
माता
पार्वती
उनके
साथ
नहीं
गयी
तो
वह
भी
यहीं
विराजमान
होकर
पूजन-अर्चन
करने
लगी।
उनकी
तपस्या
से
ही
खुश
होकर
मां
काली
और
मां
सरस्वती
भी
आ
गयी
और
माता
पार्वती
के
संग
श्री
गणेश
व
कार्तिकेय की दीर्घायु के
लिए
व्रत
रखा।
उसी
के
बाद
से
यहां
16 दिन
का
सोरहिया
मेले
का
आयोजन
होता
चला
रहा
है
सुरेश गांधी
चमत्कार के ढेरों कहानियां
अपने अंदर समेटे काशी
में विराजमान है माता लक्ष्मी।
वह भी एक-दो
नहीं, बल्कि तीन रुपों में
भक्तों को दर्शन देती
है मां माता लक्ष्मी।
पहला मां लक्ष्मी, दुसरा
मां काली और तीसरा
मां सरस्वती, जिन्हें सोरहिया के रुप में
भी जाना जाता है।
खास बात यह है
कि माता ज्यूतियां भी
इन तीनों माताओं के साथ है।
मान्यता है कि भाद्रपद
शुक्ल पक्ष की अष्टमी
से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तक
संतान सुख से वंचित
कोई भी महिला मां
का व्रत रख सोरहिया
मेले के दिन विधि-विधान से सोलहों श्रृंगार
में सज-धज पूजन-अर्चन व व्रत का
पारण किया उसे मिल
जाता है पुत्र रत्न
प्राप्ति का वरदान। इतना
हीं नहीं इस दौरान
सोलहों दिन कोई भी
भक्त माता के दरबार
में पांच फेरे लगाकर
मत्था टेकता है तो मां
उसकी सभी बाधाएं दूर
हो जाती है। मां
भर देती है धन
संपदा से उसकी झोली।
यह दिव्य एवं मनोरम स्थल
है तीनों लोकों में न्यारी धर्म
एवं आस्था की नगरी काशी
के लक्शा स्थित लक्ष्मी कुंड के पास।
यहां माता लक्ष्मी का
भव्य मंदिर है। मंदिर से
सटा विशाल तालाब है, जिसे लक्ष्मी
कुंड के नाम से
जाना जाता है। यह
मंदिर अत्यंत सुंदर, आकर्षक और लाखों लोगों
की आस्था का प्रमुख केंद्र
है। सोलहों दिन लगने वाले
सोरहिया मेले के अंतिम
दिन लाखों भक्त अपनी-अपनी
मन्नतों की पोटली लेकर
पहुंचते है और महालक्ष्मी
की आराधना कर ले जाते
है सुख-समृद्धि एवं
धन्यधान से परिपूर्ण होने
का आर्शीवाद। देवी भागवत् में
कहा गया है कि
संसार को उत्पन्न करने
वाली शक्ति महालक्ष्मी माता हैं। सरस्वती,
लक्ष्मी और काली यह
सभी इन्हीं के स्वरूप से
उत्पन्न हुई हैं। जिन
पर महालक्ष्मी माता की कृपा
हो जाती है उसकी
सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती
हैं।
शक्तिपीठ का है दर्जा
इस मंदिर को
शक्तिपीठ के रूप में
भी मान्यता प्राप्त है। यहां माता
महालक्ष्मी की पूजा यूं
तो सालों भर होती है
लेकिन श्राद्ध के दिनों में
इसका महत्व बढ़ जाता है।
इन दिनों में मां प्रसन्न
होकर सुहागिनों को पति के
साथ-साथ पुत्रों की
लंबी उम्र का वरदान
देती हैं। इस मंदिर
की एक बड़ी ही
रोचक मान्यता है कि माता
को सिंदूर, बिंदी, महावर सहित सोलहों श्रृंगार
की अन्य वस्तुएं अर्पित
की जाती हैं। इनमें
एक सोलह गांठों वाला
धागा भी शामिल होता
है। मंदिर के पूजारी इस
धागे को माता का
स्पर्श करवाकर श्रद्धालु को देते हैं।
माना जाता है कि
इस धागे में माता
की कृपा होती है
जो भक्त को आशीर्वाद
स्वरूप प्राप्त होता है। आश्विन
कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में
पुत्रवती महिलाएं पुत्र की दीर्घायु की
कामना के साथ महिलाएं
जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत
भी रखती है। लक्ष्मी
कुंड या नदियों, सरोवरों
में स्नान कर पूजन-अर्चन
करती हैं।
मां का विग्रह रुप
लक्ष्मीकुंड मंदिर में मां लक्ष्मी
का विग्रह रुप है। इस
मंदिर परिसर में भाद्रपद शुक्ल
पक्ष की अष्टमी से
क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि
तक 16 दिन तक मेला
लगता है। इन 16 दिनों
तक महिला-पुरुष रखते हैं व्रत।
इसके अलावा पहले ही दिन
16 गांठों वाले धागे की
माला धारण करते हैं।
मंदिर के गुंबद में
आज भी माता पार्वती
के हाथों निर्मित 16 जड़ित कलश आज
भी मौजूद है। महिलाएं दिन
भर कठिन व्रत रख
सूर्यास्त के बाद एक
अन्न ग्रहण कर पारण करती
है। यह सिलसिला सोलहो
दिन पूजन-अर्चन के
साथ चलता है। महालक्ष्मी
का पूजन अर्चन करने
वालों के लिए मान्यता
यह है कि पखवारे
भर वे ब्रह्मचर्य का
पालन करते हुए जमीन
पर कंबल पर रात्रि
में शयन करते हैं।
एक वक्त भोजन किया
जाता है। क्वार कृष्ण
पक्ष अष्टमी तिथि के जीवित
पुत्रिका व्रत वाले दिन
ही इस सोरहिया मेले
का समापन होता है। इस
दिन महालक्ष्मी मंदिर से लगायत लक्सा
तिराहे तक मेला लगता
है।
पौराणिक मान्यताएं
मान्यता है कि मां
लक्ष्मी को धन की
देवी है। महालक्ष्मी की
पूजा घर और कारोबार
में सुख और समृद्धि
लाने के लिए की
जाती है। महालक्ष्मी मंदिर
के मुख्य द्वार पर सुंदर नक्काशी
की गई है। मंदिर
परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं की आकर्षक प्रतिमाएं
स्थापित हैं। मंदिर के
गर्भगृह में महालक्ष्मी, महाकाली
एवं महासरस्वती तीनों देवियों की प्रतिमाएं एक
साथ विद्यमान हैं। तीनों प्रतिमाओं
को सोने एवं मोतियों
के आभूषणों से सुसज्जित किया
गया है। यहां आने
वाले हर भक्त का
यह दृढ़ विश्वास होता
है कि माता उनकी
हर इच्छा जरूर पूरी करेंगी।
महालक्ष्मी व्रत से आप
साल भर की आमदनी
का इंतजाम कर सकते हैं।
महालक्ष्मी व्रत पूरे 15 दिन
चलता है। ऐसी मान्यता
है कि इस व्रत
से गरीबी हमेशा-हमेशा के लिए चली
जाती है। महालक्ष्मी के
महाव्रत से आप अपने
घर के आंगन में
धन की बरसात भी
कर सकते हैं। इस
अवधि में शक्ति पीठों
में शक्ति मां मौजूद रहकर
जन कल्याण के लिये भक्त
जनों का परिपालन करती
है। काशी की शक्ति
पीठं बहुत ही सुप्रसिद्ध
है क्योंकि यहां जो भी
अपने विचारों को प्रकट करता
है वो तुरंत मां
जी के आशीर्वाद से
पूरा हो जाता है
या उस व्यक्ति मुक्ति
पाकर उसका जनम सफल
हो जाता है। भगवान
विष्णु के पत्नी होने
के नाते इस मंदिर
का नाम माता महालक्ष्मी
से जोड़ा हुआ है
और यहां के लोग
इस जगह में महाविष्णु
महालक्ष्मी के साथ निवास
करते हुए लोक परिपालन
करने का विशवास करते
है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों,
भगवान सूर्य, महिषासुर मर्धिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदी देवी देवताओं
को पूजा करने का
स्थल भी दिखाई देते
हैं। इन प्रतिमाओं में
से कुछ 11 वीं सदी के
हो सकते हैं, जबकि
कुछ हाल ही मूल
के हैं। इसके अलावा
आंगन में स्थित मणिकर्णिका
कुंड के तट पर
विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित हैं।
चढ़ावा 16 अंक वाला
सोरहिया मां का पूजा
करने के बाद लक्ष्मी
जी का दर्शन का
विधान है। 16 पेड़ा, 16 दुब की माला,
16 खड़ा चावल, 16 गांठ का धागा,
16 लौंग, 16 इलायची, 16 पान, 16 खड़ी सुपारी, श्रृंगार
का सामान मां को अर्पित
किया जाता है। यहां
आने वाली महिलाएं बताती
है की जिन्हें संतान
सुख प्राप्त नहीं होता है
वो यहां आती है
उन्हें संतान सुख प्राप्त होता
है और हमारे घर
में लक्ष्मी का वास होता
है। अगर आप भी
समृद्धि और सौभाग्य की
देवी मां लक्ष्मी को
प्रसन्न करना चाहती हैं
तो सोरहिया पूजन जरूर करें।
सोरहिया व्रत एवं पूजन
16 दिनों तक चलता है,
जिसकी शुरुआत भाद्रपद के शुक्लपक्ष की
अष्टमी से होता है।
विवाहित महिलाएं व्रत का संकल्प
लेकर 16 दिनों तक इसे धारण
करती हैं। स्नान के
बाद महालक्ष्मी मंदिर में पूजन कर
सोलह गांठ का धागा
पूजती हैं। धागे को
बांह में बांधने के
साथ ही 16 दिन का अपना
व्रत शुरू कर देती
हैं। मिट्टी की बनी मां
लक्ष्मी की मूर्ति की
पूजा कर उसे अपने
साथ घर ले जाती
हैं। अंतिम 16 वे दिन जिउत
पुत्रिका लोकाचार में जिवतिया पर्व
के साथ इस कठिन
व्रत तप की समाप्ति
होती है।
लक्ष्मी कुंड
पुराणों के अनुसार, प्राचीन
लक्ष्मीकुण्ड की स्थापना अगस्त
ऋषि ने की थी।
व्रत से जुड़ी मान्यता
है कि महाराजा जिउत
की कोई संतान नहीं
थी। महाराज ने मां लक्ष्मी
का ध्यान किया और मां
लक्ष्मी ने सपने मे
दर्शन देकर सोलह दिनों
के इस कठिन व्रत
का अनुष्ठान करने को कहा।
महाराजा जिउत ने ठीक
वैसे ही 16 दिनों तक व्रत रखा
और मां लक्ष्मी की
पूजा की। कुछ दिनों
बाद ही उन्हें संतान
के साथ समृद्धि और
ऐश्वर्य की भी प्राप्ति
हुई, तभी से इस
परम्परा का नाम सोरहिया
पड़ा।
जहां सिक्का चिपकाने से पूरी होती है मुरादें
मां लक्ष्मी को
धन की देवी कहा
जाता है. हर जगह
लक्ष्मी जी की पूजा
होती है. फिर चाहे
घर या कारोबार. माना
जाता है कि मां
की पूजा करने से
घर में सुख और
समृद्धि आती है. पूरे
भारत में लक्ष्मी माता
के अनगिनत मंदिर हैं, परंतु मुंबई
में उनका अनोखा मंदिर
है. मुंबई का महालक्ष्मी मंदिर
देश के सबसे बड़े
मंदिरों में से एक
है. यहां का इतिहास
और काफी दिलचस्प है.
मंदिर के गर्भगृह में
महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती तीनों
देवियों की प्रतिमाएं एक
साथ विद्यमान हैं. तीनों प्रतिमाओं
को सोने एवं मोतियों
के आभूषणों से सजाया गया
है. पौराण्कि मान्यताओं के मुताबकि जब
मुंबई शहर में वर्ली
और मालाबार हिल को पुल
के माध्यम से जोड़ने का
कार्य चल रहा था.
हजारों की संख्या में
कारीगर काम कर रहे
थे. मगर दीवार बनाने
में बार-बार परेशानी
आ रही थी. कई
दिनों तक लगातार काम
करने के बाद भी
दीवार खड़ी नहीं हो
पाई. इसके बाद काम
को रोकना पड़ा. इसी बीच
एक व्यक्ति को रात को
सपना आया. सपने में
मां लक्ष्मी उससे कह रही
थीं कि ‘वर्ली में
समुद्र किनारे एक मूर्ति है.
उस मूर्ति को लाकर समुद्र
किनारे स्थापित करो, इससे तुम्हारी
समस्या दूर हो जाएंगी.’
सपना देखने के बाद उस
व्यक्ति ने कुछ ऐसा
ही किया और बाद
में दीवार खड़ी हो गई.
लोग इस मंदिर की
दीवार पर सिक्के चिपकाकर
हर एक मन्नत मांगते
हैं. ऐसा कहा जाता
है कि जो भी
मन्नत यहां मांगी जाती
है, वो जरूर पूरी
होती है. यही नहीं
यहां देवी के दर्शनों
के लिए लोग प्रातः
बेला के बजाए रात्रि
के प्रहर में अधिकाधिक संख्या
में पहुंचते हैं। खास बात
यह है कि मां
महालक्ष्मी को शेर पर
सवार करके महिषासुर का
वध करते हुए दिखाया
गया है। वास्तविक मूर्ति
के दर्शनों के लिए भक्तों
को रात्रि साढ़े नौ बजे
का इंतजार करना होता है।
यही वह समय होता
है जब प्रतिमाओं के
ऊपर से आवरण हटा
दिया जाता है। तकरीबन
10 से 15 मिनट तक के
लिए प्रतिमाओं पर कोई आवरण
नहीं डाला जाता। इस
दौरान भक्तों का तांता लगा
रहता है। हालांकि मंदिर
में सुबह 6 बजे मंदिर के
खुलने के साथ ही
माता का अभिषेक होता
है। इसके बाद ही
मूर्तियों के ऊपर आवरण
चढ़ा देते हैं। दिवाली
के समय श्रद्धालुओं का
तांता लगा रहता है।
कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर : जहां सूर्य
की किरणें करती हैं देवी की आराधना
मुंबई से करीब 400 किमी
की दूरी पर मौजूद
कोल्हापुर शहर में महालक्ष्मी
मंदिर लगभग 27 हजार वर्गफुट के
क्षेत्र में फैला हुआ
है। कहा जाता है
कि इस मंदिर में
महालक्ष्मी की मूर्ति में
प्राण-प्रतिष्ठा आदि शंकराचार्य ने
की थी। मंदिर के
बाहर लगे शिलालेख के
मुताबिक यह मंदिर करीब
1800 साल पुराना है लेकिन मूर्ति
का इतिहास 7000 सालों से भी अधिक
पुराना बताया जाता है। इस
मंदिर में देवी महालक्ष्मी
की मूर्ति पर पड़ने वाली
सूर्य की किरणों को
यहां सबसे बड़ी खासियतों
और रहस्यों में से एक
माना जाता है। इस
मंदिर में पूरे साल
सूर्य की सीधी किरणें
देवी प्रतिमा के शरीर पर
जरूर पड़ती हैं। खासतौर
पर 31 जनवरी से 9 नवंबर तक
सूर्य की किरणें देवी
प्रतिमा के चरणों पर
पड़ती हैं। इसलिए कहा
जाता है कि यहां
मां महालक्ष्मी की आराधना करने
स्वयं सूर्यदेव आते हैं। देवी
की प्रतिमा पर किरणों के
इस अद्भुत प्रसार को किरण उत्सव
कहा जाता है, जो
मंदिर के लिए बहुत
खास होता है। मंदिर
से मिले पुराने ताम्रपत्र
और कई ग्रंथों से
मिली जानकारी के अनुसार इस
मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण
चालुक्य वंश के शासनकाल
के दौरान राजा कर्णदेव ने
634 ई. में करवाया था।
बाद में शिलहार यादव
ने इस मंदिर का
जीर्णोद्धार 9वीं शताब्दी में
करवाया था। कहा जाता
है कि जब मुगलों
ने इस मंदिर को
नष्ट करने का प्रयास
किया था तब पुजारी
ने कई सालों तक
मूर्ति को छिपा कर
रखा था। बाद में
संभाजी महाराज के शासनकाल में
इस मंदिर को पुनर्जीवित किया
गया। मंदिर में देवी महालक्ष्मी
की प्रतिमा लगभग 4 फीट ऊंची है
जिसका वजन 40 किलो है। कहा
जाता है कि देवी
महालक्ष्मी पूरे महाराष्ट्र की
कुलस्वामिनी कहलाती हैं, जो कोल्हापुर
में अंबाबाई के नाम से
भी प्रचलित हैं। कोल्हापुर का
महालक्ष्मी मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक
है। पौराणिक मान्यता के अनुसार जहां-जहां माता सती
के अंग या वस्त्र
गिरे थे, उन सभी
स्थानों पर शक्तिपीठ की
स्थापना की गयी थी।
मान्यता के अनुसार कोल्हापुर
में माता सती के
त्रिनेत्र गिरे थे, जहां
देवी लक्ष्मी का वास होता
है। इसलिए कोल्हापुर के शक्तिपीठ में
देवी महालक्ष्मी के रूप में
शक्ति की आराधना की
जाती है। कहा जाता
है कि इस मंदिर
में मां दुर्गा महिषासुरमर्दनी
के रूप में निवास
करती हैं। मंदिर परिसर
में कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी
स्थापित हैं। पौराणिक कथा
के अनुसार केशी राक्षश के
पुत्र कोल्हासुर के अत्याचारों से
परेशान होकर देवताओं ने
देवी मां से उसका
विनाश करने का अनुरोध
किया था। तब महालक्ष्मी
ने देवी दुर्गा के
स्वरूप में ब्रह्मास्त्र के
एक ही वार से
असुर का सिर धड़
से अलग कर दिया
था। लेकिन मरने से पहले
कोल्हासुर ने देवी महालक्ष्मी
से वरदान मांगा था कि इस
स्थान को उसके नाम
से ही जाना जाए।
उसके बाद से ही
इस स्थान का नाम कोल्हापुर
पड़ गया। इस मंदिर
से जुड़ी एक अन्य
कथा के अनुसार एक
बार भगवान तिरुपति यानी विष्णु से
रुठकर उनकी पत्नी माता
महालक्ष्मी कोल्हापुर आ गयी। भगवान
तिरुपति ने उन्हे मनाने
का काफी प्रयास किया
लेकिन देवी महालक्ष्मी ने
कोल्हापुर को ही अपना
वास बना लिया। इसी
वजह आज भी खासतौर
पर दिवाली पर पहनाने के
लिए तिरुपति देवस्थान से देवी महालक्ष्मी
के लिए शालू आता
है। तिरुपति की यात्रा तब
तक अधुरी मानी जाती है,
जब तक कोल्हापुर महालक्ष्मी
के दर्शन ना कर लिया
जाए। मंदिर परिसर के 4 दिशाओं में
4 दरवाजे हैं लेकिन मंदिर
परिसर में कितने खंभे
हैं, उनकी कोई गिनती
नहीं कर पाता है।
मंदिर प्रशासन का दावा है
कि जितनी बार खंभों की
गिनती करने की कोशिश
की गयी, उतनी बार
कोई ना कोई अनहोनी
जरूर हुई। कहा जाता
है कि सीसीटीवी कैमरे
की मदद से भी
जब गिनती करने का प्रयास
किया गया तब भी
नाकामी ही हाथ लगी।
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