मैं आजाद कलम का सिपाही हूं...!
आज, जब ’पत्रकार’ और ’प्रोपगैंडा’ के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, तब यह और भी ज़रूरी हो गया है कि हम कलम को वैचारिक ईमानदारी, संवैधानिक निष्ठा और नैतिक साहस से भरें। मेरी यही आकांक्षा है कि मैं आज़ाद कलम का वह सिपाही बन सकूं, जो सत्ता से नहीं, सत्य से संचालित हो
सुरेश गांधी
पत्रकारिता को अक्सर सत्ता
का चौथा स्तंभ कहा
जाता है, लेकिन जब
यह स्तंभ अपने मूल स्वरूप
से डगमगाने लगे, तो समाज
का संतुलन भी टूटने लगता
है। आज जब सूचनाओं
की बाढ़ है, मगर
सच्चाई की प्यास बुझती
नहीं, तब पत्रकार की
भूमिका केवल समाचार संकलक
की नहीं, बल्कि लोकस्वर के संवाहक की
होती है। मतलब साफ
है पत्रकारिता केवल समाचारों का
संकलन या प्रसारण भर
नहीं है। यह समाज
की आत्मा से संवाद है।
यह लोकजीवन की धड़कनों को
सुनने, समझने और उसे शब्द
देने की तपस्वी प्रक्रिया
है। इसी भावना से
मैं अपनी पत्रकारिता को
परिभाषित करता हूं. यह
किसी को डराने, धमकाने
या ब्लैकमेल करने का औजार
नहीं, बल्कि अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति
की आवाज़ को मंच
देने का माध्यम है।
मैं जब पत्रकारिता
के क्षेत्र में आया, तो
मैंने इसे न तो
व्यवसाय की दृष्टि से
देखा, न ही सत्ता
या प्रसिद्धि की सीढ़ी के
रूप में। मैंने इसे
अपने विचारधारा और संवैधानिक चेतना
के विस्तार के रूप में
अपनाया, एक ऐसा माध्यम,
जिससे मैं समाज के
अंतिम व्यक्ति की आवाज़ बन
सकूं। मेरी कलम न
सत्ता से संचालित है,
न किसी संस्था से
निर्देशित। यह कलम उस
विचारधारा की अंतिम स्याही
है, जो सामाजिक न्याय,
संवैधानिक अधिकार और मानवीय गरिमा
के लिए बहती है।
मैं पत्रकारिता को सिर्फ एक
पेशा नहीं मानता, यह
मेरे लिए एक नैतिक
दायित्व है. एक ऐसी
प्रक्रिया, जिसके माध्यम से लोकतंत्र की
आत्मा जीवंत रह सके। आज
जब मीडिया पर बाज़ार, विज्ञापन
और राजनीतिक दबावों का शिकंजा कसता
जा रहा है, तब
पत्रकार का विवेक, उसकी
प्रतिबद्धता और उसका साहस
सबसे बड़ी पूंजी बन
जाती है। और मैं
स्वयं को इसी चुनौती
से जूझता पत्रकार मानता हूं, जो न
बिकने को तैयार है,
न झुकने को।
मेरी कलम न
तो किसी दल की
भोंपू है, न ही
किसी कारपोरेट एजेंडे का औजार। मेरी
पत्रकारिता का उद्देश्य किसी
को डराना, धमकाना या लज्जित करना
नहीं है। यह क़लम
किसी को गिराने के
लिए नहीं, बल्कि गिराए गए को उठाने
के लिए उठती है।
मैं यह मानता हूं
कि पत्रकारिता का धर्म है,
बोलना वहां, जहां चुप्पी सहमति
बन जाए और लिखना
वहां, जहां सच दबा
दिया जाए। जब कोई
किसान आत्महत्या करता है, कोई
मज़दूर विस्थापित होता है, कोई
दलित न्याय से वंचित रह
जाता है, कोई महिला
उत्पीड़न की शिकार होती
है या कोई आदिवासी
जंगल से बेदखल कर
दिया जाता है, या
कोई प्रताड़ना से ग्रसित बुनकर
तब मुख्यधारा की मीडिया अक्सर
खामोश हो जाती है।
मेरी लेखनी उन्हीं आवाज़ों की साझेदार बनना
चाहती है, जो ’टीआरपी’
की दुनिया में गुम हो
जाती हैं। मेरी कलम
विचारधारा की स्याही से
भीगती है, लेकिन किसी
’वाद’ की दास नहीं
है। यह कलम लोकतंत्र
के मूल्यों, संविधान की आत्मा और
जन-जन के हक
की पक्षधर है।
मैं चाहता हूं
कि मेरी पत्रकारिता सामाजिक
न्याय, समानता और मानव गरिमा
की पुनर्स्थापना का औजार बने।
यह राह आसान नहीं
है, यह राह अकेलेपन
की भी है, आलोचना
की भी, और संघर्ष
की भी। लेकिन अगर
यह राह किसी पीड़ित
को न्याय दिला सके, किसी
निर्बल को बल दे
सके, तो यही मेरी
सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
मैं उस राह का
राही हूं, जो लोकप्रियता
की होड़ से परे
है, जो सत्ता की
प्रशंसा से दूर है,
लेकिन जो जन-आवाज़
के सबसे निकट है।
मैं उस स्वराज की
कल्पना में विश्वास करता
हूं, जिसमें हर व्यक्ति को
अपने विचार रखने, विरोध दर्ज करने और
न्याय मांगने का अधिकार हो।
मेरी पत्रकारिता उसी स्वराज की
परिकल्पना का विस्तार है,
जहां लेखनी एक आंदोलन है,
और पत्रकार एक जनपक्षधर सैनिक।
जब कलम बिकने लगती
है, तो सत्य गिरवी
हो जाता है। और
जब कलम चुप हो
जाती है, तब अन्याय
बोलने लगता है। मैं
नहीं चाहता कि मेरी कलम
किसी के लिए हथियार
बने, मैं चाहता हूं
कि यह समाज के
लिए दीपशिखा बने, जो अंधेरे
में दिशा दिखाए।
मैं चाहता हूं
कि मेरी पत्रकारिता से
निकली हर पंक्ति किसी
मूक चीख को स्वर
दे, किसी पीड़ित की
पीड़ा को मंच मिले।
मैं चाहता हूं कि जब
सत्ता मद में चूर
हो जाए, तब मेरी
कलम उसका आईना बने।
जब व्यवस्था विकृत हो जाए, तब
मेरी लेखनी उसका विवेक बने।
और जब समाज थक
जाए, टूट जाए, तब
मेरी आवाज़ उसे फिर
से उठ खड़ा होने
की हिम्मत दे। मुझे गर्व
हो, यदि आने वाली
पीढ़ियां कहें कि “यह
पत्रकार सबका था, लेकिन
किसी का गुलाम नहीं
था।” मैं आज़ाद कलम
का वह सिपाही बनना
चाहता हूं जो सबका
है, लेकिन किसी का नहीं।
जिसका कोई निजी स्वार्थ
नहीं, पर जिसकी निष्ठा
जनहित में अडिग है।
पत्रकारिता का यह आदर्श
भले ही कठिन हो,
लेकिन यही उसका असली
रूप है। इस कलम
को बिकने नहीं दूंगा। इसे
झुकने नहीं दूंगा। इसे
उस हर व्यक्ति के
लिए चलने दूंगा, जिसकी
आवाज़ कोई नहीं सुनता।
खासतौर से तब जब
पत्रकारिता एक व्यवसाय का
रूप ले चुकी है.
इस समय भारत में
देशभक्ति से पूर्ण पत्रकारिता
की जरूरत है जो आजादी
से पहले हुआ करती
थी। आज सस्ती टीआरपी
की होड़ लगी है।
समाज में व्याप्त बुराइयां
इस पवित्र पेशे को भी
दागदार बना चुकी हैं।
जब दर्पण ही दागदार हो
गया तो वह भला
कैसे बता सकेगा समाज
की सच्ची तस्वीर। पत्रकारिता को लोकतंत्र का
चौथा स्तंभ माना जाता है।
जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र
के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार
और भाई-भतीजावाद की
समस्याओं से जूझ रहे
हैं, तो ऐसे समय
पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी
कहीं अधिक बढ़ जाती
है। लेकिन दुखद बात तो
यह है कि अब
तो समाचारों की विश्वसनीयता पर
भी संदेह होने लगा है।
पत्रकारों का यह दायित्व
है कि वे लोगों
को सही खबरों से
अवगत कराएं और उनमें लोकतंत्र
की आस्था को मजबूत करें।
इससे बड़ी बिडम्बना
और क्या हो सकती
है जब अखबारों के
मालिक ही राजनीतिक दलों
से डील कर पैसे
लेकर उनके पक्ष में
समाचार छापते हैं, तब फिर
मातहत अधिकारी और कर्मी भी
तो यही करेंगे। गंगा
गंगोत्री से ही मैली
हो रही है। सफाई
की शुरुआत भी वहीं से
करनी होगी लेकिन बिल्ली
के गले में घंटी
कौन बांधेगा? लोग पत्रकार क्यों
बनते हैं-जन सेवा
के लिए या फिर
जैसे-तैसे पैसा कमाने
के लिए। माना अब
पत्रकारिता अब मिशन नहीं
रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया
जा सकता है। तेज
सफर में पत्रकारों को
पत्रकारिता जगत के लिए
शहीद भी होना पड़ा
परन्तु इन कलम के
रखवालों ने अपनी कलम
की रोशनी को कम नहीं
होने दिया और भ्रष्टाचार
जैसे कुकुरमुत्ते का विनाश किया
लेकिन समय बदलते ही
कलम की रोशनी पर
भी तेज आंच आयी
जो आज भी बदस्तूर
जारी है। पत्रकारिता जगत
में पत्रकारों को हर पल
अपने जान-माल का
खतरा भी रहा है
लेकिन कलम के रखवालों
ने अपनी कलम की
रोशनी को यूं ही
जाय नहीं होने दिया
और अपनी कलम की
रोशनी को पूरे पत्रकारिता
जगत पर बिखेर कर
रोशन कर दिया।
पत्रकार एक ऐसा शब्द है जिसकी रक्षा करना हर कलम के जादूगर का फर्ज है और यही सोच ले बहुत से कलम के हुनरदारों ने पत्रकारिता जगत में धूम-धड़ाके से प्रवेश किया परन्तु समाज ने उन्हें उनका फर्ज भुलाकर अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश शुरू कर दी। पत्रकार को मुट्ठी में कैद करने की चालें देश के गद्दारों, भ्रष्टाचारियों, अवैध धंधे करने वालों ने करके पत्रकारिता की गरिमा को ठेस पहुंचाकर कलम के हुनर को दबाने की कोशिश की और हरदम उनका प्रयास और तेज है। जबकि सभी स्वार्थों का त्यागकर पत्रकारिता जगत में बेखौफ कलम चलाकर भ्रष्टाचारियों के चेहरे बेनकाब करने चाहिए। वह दौर-ए-गुलामी था, यह दौर-ए-गुलामां है-पत्रकारिता के संघर्ष की इससे दो दिशाएं साफ होती हैं। तब ‘मिशन’ था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का और अब दौर है आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दासता से मुक्ति का। इसी ‘मुक्ति’ की चाहत के साथ समर्पित भाव से काम करने वाले दुनिया के 29 देशों में 141 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दीं। भारतीय पत्रकारिता के बारे में भी कहा गया-‘तलवार की धार पे धावनो है’- पत्रकारिता तलवार की धार पर दौड़ने के समान है। हमें पत्रकारिता में सच्चाई के लिए लड़ना सिखाया गया था और मेरा भी वही उद्देश्य था और इसीलिए मैं मीडिया से जुड़ा भी लेकिन सच्चाई वो नहीं थी वो तो सिर्फ एक परछाई थी जिसे मैं पकड़ने की कोशिश कर रहा था।
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