‘बेटी’ बिगाड़ेगी ‘बुआ-बबुआ’ का ‘खेल’
खिसकते
जनाधार
के
बीच
क्षेत्रीय
दलों
समेत
भाजपा
से
कड़ी
चुनौती
का
सामना
कर
रही
कांग्रेस
अपना
तुरुप
का
इक्का
चुनावी
मैदान
में
फेंक
दिया
है।
पार्टी
ने
प्रियंका
गांधी
को
80 सीटों
वाले
सूबा
यूपी
का
प्रभावी
महासचिव
बनाकर
सपा-बसपा
गठबंधन
के
साथ
ही
भाजपा
को
भी
चुनावी
रणनीति
पर
विचार
करने
के
लिए
मजबूर
किया
है।
अभी
तक
पर्दे
के
पीछे
सक्रिय
प्रियंका
को
मैदान
में
उतारकर
कांग्रेस
ने
साफ
कर
दिया
है
कि
उसे
यूपी
में
कमजोर
नहीं
समझा
जाए।
इस
ट्रंपकार्ड
के
जरिए
राहुल
गांधी
ने
यूं
ही
नहीं
दहाड़ा
है,
‘यूपी
में
बनायेंगे
अपना
सीएम।
बल्कि
इसकी
बड़ी
वजह
यह
है
कि
वे
समझ
रहे
है
कि
ब्राह्मण
वोटबैंक
का
बड़ा
हिस्सा
पार्टी
की
झोली
में
आयेगा।
मुसलमान
और
दलितों
में
भी
इंदिरा
की
47 वर्षीय
पोती
के
आकर्षण
को
कम
नहीं
आंका
जा
सकता।
बुआ-बबुआ
की
मजबूरी
वाली
गठबंधन
को
भाजपा
नहीं
कांग्रेस
ही
हरा
सकती
है।
क्योंकि
जहां
बसपा
के
कोटे
में
सीट
होगी,
वहां
सपा
का
ही
कोई
मजबूत
कार्यकर्ता
चाचा
शिवपाल
के
सिम्बल
पर
चुनाव
लड़ेगा
और
जहां
मुस्लिम
उम्मींदवार
होगा,
वहां
भाजपा
मतों
का
ध्रुवीकरण
कर
सीट
आसानी
से
जीत
लेगी।
युवाओं
के
बीच
प्रियंका
का
क्रेज
चुनाव
में
सिर
चढ़कर
बोलेगा।
ऐसे
में
बड़ा
सवाल
तो
यही
है
क्या
यूपी
में
प्रियंका
बिगाड़ेगी
मायावती
व
अखिलेश
का
खेल
या
फिर
होगा
त्रिकोणीय
मुकाबला?
सुरेश
गांधी
लोकसभा चुनाव करीब
आ रहे हैं
और उससे पहले
उस चुनावी रणक्षेत्र
के लिए राजनीतिक
दल अपनी-अपनी
सेनाओं के विस्तार
में लगे हैं।
यही वजह है
कि नए-नए
सियासी गठबंधन आकार ले
रहे हैं ताकि
लोकसभा चुनाव के मैदान
में विरोधियों की
फौज को ध्वस्त
किया जा सके।
कांग्रेस द्वारा प्रियंका गांधी
को यूपी का
महासचिव बनाकर बड़ा दांव
चलने को इसी
कड़ी से जोड़़कर
देखा जा रहा
है। बाजी किसके
हाथ लगेगी और
कौन किस पर
भारी रहेगा, ये
तो चुनाव मैदान
में उतरे रणबाकुरों
के बाद पता
चलेगा, लेकिन इतना तो
तय है कि
कांग्रेस का यह
मास्टर स्ट्रोक है। मजबुरी
में साथ आई
सपा बसपा के
लिए कांग्रेस की
यह रणनीति उनके
मंसूबों पर पलीता
लगा सकती है।
क्योंकि पूर्वी यूपी के
जिन 30 सीटों पर प्रियंका
गांधी की तुफानी
दौरा होगा, वहां
सपा बसपा पर
गहरा असर तो
पड़ेगा ही भाजपा
को भी जीत
के लिए नाकों
चने चबाने पड़ेंगे।
खास बात यह
है कि प्रियंका
जहां दौरा होगा
उनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी की वाराणसी
और योगी आदित्यनाथ
का गोरखपुर भी
आता है। यह
अलग बात है
कि उनके सामने
सर्वण जातियों के
बीच मोदी-योगी
की लोकप्रियता में
सेंध लगाने के
अलावा बुआ-बबुआ
के समीकरणों को
ध्वस्त करने के
साथ ही पार्टी
से छिटक गए
परंपरागत मतदाताओं को वापस
पार्टी से जोड़ने
की भी कड़ी
चुनौती होगी। अधिकतर जिलों
में संगठन पहले
इतना मजबूत नहीं
हैं। ऐसे में
बड़ा सवाल तो
यही है क्या
2019 के चुनाव में प्रियंका
के सहारे है
कांग्रेस?
मतलब है
कि सपा-बसपा
को नुकसान. त्रिशंकु
मुकाबले की स्थिति
में बीजेपी को
फायदा हो सकता
है। प्रियंका वाड्रा
के प्रति रॉबर्ट
वाड्रा कई मुकदमों
में घिरे हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में
बीजेपी ने रॉबर्ट
वाड्रा के बहाने
कांग्रेस पर भ्रष्टाचार
के कई गंभीर
आरोप लगाए थे।
अब खुद प्रियंका
जब प्रचार मैदान
में उतरेंगी तो
बीजेपी उनके पति
पर लगे आरोपों
को जोर-शोर
से उठाएगी। प्रियंका
के सामने पति
पर लगे आरोपों
का जवाब देने
की चुनौती होगी।
केवल जातिगत समीकरण
के आधार पर
राजनीति करने का
दौर अब खत्म
हो चुका है।
यह गलतफहमी है
कि गठबंधन हो
जाने मात्र से
इन दलों के
समर्थक भी उनके
साथ चले जाएंगे।
अब लोग विकास
और राष्ट्रवाद को
ज्यादा तरजीह देते है।
कांग्रेस लंदन में
है जहां ईवीएम
को हैक किए
जाने का फर्जी
दावा अमेरिका से
किया जा रहा
था। ऐसा लगता
है, कांग्रेस खुद
नहीं समझ पा
रही है कि
उसे कहां होना
चाहिए और कहां
नहीं? किसानों की
कर्ज माफी पर
उसने पूरे देश
में हल्ला मचाया।
जब मध्य प्रदेश,
राजस्थान और छत्तीसगढ़
की जनता ने
उसे सत्ता सौंप
दी, तो वह
कर्ज माफी के
जाल में उलझ
गई है। उसने
राफेल के मुद्दे
को दूसरा बोफोर्स
बनाने की कोशिश
की, पर वह
दिल्ली के लेफ्ट-लिबरल्स की बिरादरी
के बाहर चल
नहीं पाया। सुप्रीम
कोर्ट के फैसले
ने पार्टी की
उम्मीदों पर और
पानी फेर दिया।
इसके बाद अब
कांग्रेस ने एक
और पिटा हुआ
मुद्दा उठाया है- ईवीएम
का। इसके लिए
अमेरिका से एक
नकाबपोश की लंदन
में होने वाली
प्रेस कांफ्रेंस में
कांग्रेस के नेता
कपिल सिब्बल पहुंच
गए। वहां से
भारत के निर्वाचन
आयोग पर हमला
किया गया। इस
नकाबपोश के सारे
दावे फर्जी निकले,
फिर भी सिब्बल
साहब कह रहे
हैं कि जांच
होनी चाहिए। ऐसा
लगता है कि
मुद्दों के मोर्चे
पर कोई खास
कामयाबी न मिलने
पर कांग्रेस ने
प्रियंका गांधी को सक्रिय
करने का दांव
खेला है। सवाल
है कि क्या
प्रियंका के आने
भर से यह
सब बदल जाएगा?
क्या दूसरे विपक्षी
दलों का कांग्रेस
के प्रति नजरिया
बदल जाएगा? चूंकि
प्रियंका के साथ
राबर्ट वाड्रा परिदृश्य में
अपने आप जा
जाते हैं, इसलिए
कांग्रेस के लिए
भ्रष्टाचार को मुद्दा
बनाना संभव नहीं
होगा। कुछ भी
हो, इतना तय
है कि 2019 का
चुनाव किसी भी
पक्ष के लिए
आसान नहीं होने
वाला।
यह अलग
बात है कि
यूपी समेत देशभर
में जगह-जगह
कांग्रेस कार्यकर्ता जश्न मना
रहे हैं। प्रियंका
गांधी के पार्टी
में आने से
कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज
हो गए हैं।
क्योंकि उन्हें प्रियंका गांधी
में इंदिरा गांधी
की झलक दिखती
है। यही वजह
है कि जनता
का भी उनके
प्रति रुझान है।
यहां गौर करने
वाली बात यह
है कि इंदिरा
गांधी आखिरी बार
साल 1980 में लोकसभा
चुनाव लड़ी थीं।
तब से 39 साल
बीत चुके हैं।
इस हिसाब से
अगर 1980 में किसी
21 साल के शख्स
ने वोट (उस
वक्त वोटिंग की
न्यूनतम उम्र 21 साल थी)
डाला होगा तो
2019 में उसकी उम्र
60 साल होगी। 21वीं सदी
के युवा तो
इंदिरा गांधी को किताबों
और अखबारों के
जरिए ही थोड़ा
बहुत जानते हैं।
दूसरी तरफ पीएम
नरेंद्र मोदी सोशल
मीडिया के दौर
में लोकप्रिय नेता
बने हैं। विरोधी
भी मानते हैं
कि पीएम मोदी
अपनी बात जनता
तक पहुंचाने और
जनता से सीधे
खुद को कनेक्ट
करने के मामले
में अपने दौर
के सबसे माहिर
नेता हैं। आंकड़ों
की मानें तो
इस वक्त देश
का करीब 70 फीसदी
युवा 45 साल से
कम उम्र का
है। ऐसे में
देखना दिलचस्प होगा
कि कांग्रेस आज
के युवाओं के
जेहन में प्रियंका
के बहाने कैसे
इंदिरा गांधी की छवि
को ला पाती
है। क्योंकि गरीबी
हटाओ नारे के
जरिए समाज के
दबे-कुचले, दलित-शोषित वर्ग के
बीच कांग्रेस की
लोकप्रियता बढ़ी थी।
इस वर्ग के
लोगों ने कांग्रेस
को बढ़-चढ़कर
समर्थन किया था।
इस वक्त यूपी
में इस वर्ग
के लोगों की
राजनीति मायावती करती हैं।
ऐसे में इंदिरा
की छवि वालीं
प्रियंका समाज के
किस वर्ग के
बीच कांग्रेस को
लोकप्रिय बना पाती
हैं ये चुनाव
परिणाम ही बता
पाएगा। पिछले तीन दशक
के वोटिंग पैटर्न
बताते हैं कि
सपा-बसपा और
कांग्रेस के वोटरों
में काफी समानता
है। यूपी में
कांग्रेस की पकड़
कमजोर होने के
चलते मुस्लिमों ने
सपा-बसपा की
ओर अपना रुख
कर लिया है।
इस बार सपा-बसपा गठबंधन
के सामने कांग्रेस
प्रत्याशी भी प्रियंका
के सहारे दमखम
दिखाएंगे। पिछले चुनाव परिणाम
के आधार पर
कहा जा सकता
है कि कांग्रेस
के मजबूत होने
क कड़ी में
प्रियंका ब्रह्मास्त्र साबित हो सकती
है।
कांग्रेस के रणनीतिकार
यह बात जानते
थे कि दिल्ली
की सत्ता में
वापसी के रास्ते,
यूपी से ही
होकर गुजरेंगे। और
2019 में नरेंद्र मोदी और
बीजेपी के खिलाफ
विपक्ष के सबसे
बड़े नेता के
तौर पर राहुल
गांधी को खड़ा
करने के लिए
यूपी में हर
हाल में पार्टी
मजबूत करना जरूरी
है। प्रियंका गांधी
वाड्रा की राजनीति
में आने की
घोषणा के साथ
यह बिलकुल साफ
है कि आम
चुनाव में अब
कांग्रेस फ्रंटफुट पर खेलने
को पूरी तरह
से तैयार है।
कांग्रेस इसके लिए
काफी दिन से
होमवर्क भी कर
रही थी। अब
आने वाले दिनों
में एक-एक
कर पार्टी अपने
पत्ते खोलेगी। कांग्रेस
ने ये ट्रंप
कार्ड बचाकर रखा
था। अगर यूपी
में कांग्रेस से
सपा और बसपा
का गठबंधन होता
और पार्टी को
सम्मानजनक सीटें मिल जातीं
तो शायद प्रियंका
को पार्टी में
नहीं लाया जाता।
यह अलग बात
है कि वो
पार्टी के लिए
वैसे ही प्रचार
करती नजर आतीं
जैसे पिछले चुनावों
में उन्होंने किया।
सपा और बसपा
के साथ से
कांग्रेस संतोषजनक सीटें जीतने
में कामयाब भी
हो जाती। लेकिन...आम चुनाव
में सपा बसपा
के अलग राह
पकड़ने की स्थिति
में पार्टी के
लिए और कोई
चारा नहीं बचा।
यूपी में सपा-बसपा ने
जब कांग्रेस को
अलग-थलग किया,
तभी राहुल गांधी
ने यह कहा
था कि वे
यूपी को 440 वोल्ट
का करेंट देंगे
यानी कुछ बड़ा
करेंगे। यह निर्णय
शायद वही बड़ा
कदम है। खुद
प्रियंका गांधी रायबरेली से
चुनाव लड़ेंगी या
नहीं, अभी इस
पर कोई निर्णय
नहीं हो पाया
है। लेकिन कांग्रेस
का यह ब्रह्मास्त्र
चुनाव परिणाम पर
काफी असर डालेगा।
बता दें,
यूपी में कांग्रेस
लगभग खत्म हो
चुकी थी और
2014 के चुनाव में उसे
5-6 फीसदी वोट ही
मिले थे। पिछले
कई चुनावों से
कांग्रेस कुछ खास
प्रदर्शन नहीं कर
पाई है। इसलिए
यूपी कांग्रेस की
दुखती रग बन
गया है। यूपी
और खासकर पूर्वी
यूपी कभी कांग्रेस
का गढ़ था,
तो इसको कांग्रेस
ने फिर से
हासिल करने के
लिए अपना बड़ा
दांव खेल दिया
है। प्रियंका गांधी
वाड्रा अपनी मां
यानी सोनिया गांधी
की संसदीय सीट
रायबरेली से लोकसभा
का चुनाव भी
लड़ सकती हैं।
रायबरेली और उसके
पड़ोस में मौजूद
अमेठी सीट नेहरू-
गांधी परिवार का
गढ़ मानी जाती
रही है। प्रियंका
गांधी के लिए
यह दोनों इलाके
नए नहीं हैं।
वे 1999 से कई
लोकसभा और विधानसभा
चुनावों में इन
दोनों सीटों पर
कांग्रेस की ओर
से प्रचार करती
रही हैं। सोनिया
गांधी का स्वास्थ्य
पिछले कुछ वर्षों
से खराब रहा
है। 2014 के लोकसभा
चुनाव के बाद
तो रायबरेली में
सोनिया गांधी की सक्रियता
बहुत कम हो
गई। ऐसे में
प्रियंका वाड्रा रायबरेली में
पार्टी के प्रचार
की जिम्मेदारी संभाल
रही हैं। प्रियंका
रायबरेली में कांग्रेस
के कार्यकर्ताओं से
लगातार संपर्क में रहती
हैं। वे दिल्ली
में भी रायबरेली
के कार्यकर्ताओं से
मिलती हैं। उनकी
सक्रियता का अंदाजा
इसी बात से
लगाया जा सकता
है कि कांग्रेस
के तबके यूपी
प्रभारी गुलाम नबी आजाद
ने प्रियंका वाड्रा
को सार्वजनिक मंच
से कमांडर-इन-चीफ तक
करार दे दिया
था। 2017 में कांग्रेस
और सपा के
गठबंधन में भी
प्रियंका का अहम
रोल माना जाता
है। बताया जाता
है कि प्रियंका
ने अखिलेश यादव
की पत्नी डिंपल
यादव से बात
कर दोनों पार्टियों
के बीच गठबंधन
की जमीन तैयार
की थी।
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