Thursday, 29 August 2019

तीनों लोकोे में अनूठी है काशी की महिमा


तीनों लोकोे में अनूठी है काशी की महिमा
धर्मग्रन्थों और पुराणों में भी काशी को मोक्ष की नगरी कहा गया है जो अनंतकाल से बाबा विश्वनाथ के भक्तों के जयकारों से गूंजती आयी है। काशी शिव भक्तों की वो मंजिल है जो सदियों से यहां मोक्ष की तलाश में आते रहे हैं। कहते हैं अगर भक्तों के जीवन में ग्रह दशा के कारण परेशानी रही है, ग्रहों की चाल ने जीना दूभर कर दिया है तो यहां आकर दर्शन करने के बाद यदि रुद्राभिषेक करा दिया जाए तो भक्तों को ग्रह बाधा से मुक्ति मिल जाती है 
सुरेश गांधी
दुनिया की प्राचीनतम धर्म एवं अध्यात्म की नगरी काशी की विशेषता को परिलक्षित करते हैं गंगा घाट। यहां के गंगा घाट ही काशी को मोक्षदाययिनी दर्जा दिलाते है। तभी तो गंगा तट पर बसी काशी को तीनों लोकों से न्यारी कहा जाता है। इस महात्य के पीछे बड़ा रहस्य यह है कि पूरी काशी देवादिदेव महादेव के त्रिशूल पर टिकी है। यहां के पग-पग में बसते है बाबा विश्वनाथ। कोई ऐसी जगह नहीं, जहां महादेव का लिंग हो। कोई ऐसा मुहल्ल नहीं जहां चार-छह मंदिर हो। तभी तो यहां की रग-रग में रची-बसी है आस्था।
काशी को मोक्ष की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। गंगा किनारे एक-दो नहीं बल्कि चमकते-दमकते सौ से अधिक घाटों की कतारबद्ध श्रृंखलाओं के बीच बजते घंट-घडियालों शंखों की गूंज। कभी ना बुझने वाली मणकर्णिका घाट की आगी। स्वर्णिम किरणों में नहाएं घाटों पर अविरल मंत्रोंचार। कल-कल बहती पतित पावनि मां गंगा। ये विहगंम सुंदर दृश्य खुद--खुद कहती है यहां एक संस्कृति है-तैतीस करोड़ देवी-देवताओं की स्थली है। जहां महादेव संग आदि शक्ति जगत जननी मां भगवती जगदम्बिका स्वयं घाटों पर हर क्षण विराजमान रहती है। 
घाटों गलियों से है काशी की पहचान
जिस तरह गंगा के बिना काशी की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह घाटों के बगैर गंगा अधूरी हैं। यहां के घाट धर्म ज्ञान के केंद्र रहे हैं। अपनी गौरवशाली अतीत संस्कृति को दर्शाते हैं काशी के घाट। घाटों पर कहीं बिन्दु माधव मंदिर है तो कहीं बूंदी परकोटा महल। छः मील की परिधि में फैले प्रेक्षागृह की तरह शोभायमान 100 से अधिक गंगा घाटों की अलग-अलग महत्व है। चमत्कार की ढेरों की खूबिया समेटे इन घाटों की कहानियां भी कुछ कुछ कहती है। मुंडन से लगायत मुखाग्नि तक के संस्कारों के बीच छोटा से छोटा बड़े से बडा उत्सव-महोत्सव भी इन घाटों पर ही मूर्तरूप लेते हैं।
प्रातःकाल सुनहरी धूप में चमकते गंगा तट के मंदिर, मंत्रोच्चार और गायत्री जाप करते ब्राह्मणों और पूजा-पाठ में लीन महिलाओं के स्नान- ध्यान के क्रम के साथ ही दिन चढ़ता जाता है। कहते है जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तो प्रकाश की प्रथम किरण काशी की धरती पर पड़ी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है। गंगा हमारी सांस्कृतिक माता है तथा हमारी पवित्रता, मुक्ति एवं सांस्कृतिक प्रवाह की निरंतरता की प्रतीक है। पुष्प और पूजन सामग्रियों से सजे गंगा तट तथा पानी में तैरते फूलों की शोभा मनमोहक होती है। घाटों पर चारों पहर दिव्य छटा देखने को मिलती है।
आध्यात्मिक, धार्मिक सांस्कृतिक आयोजन घाटों की शोभा में चार चांद लगाते हैं। कहा जा सकता है काशी का असली जीवन घाटों पर ही बसता है। गंगा गोमुख से निकलीं। इस नदी का प्रवाह उत्तर से पश्चिम की ओर रहा किंतु काशी आकर मां गंगा ने विश्वेश्वर को प्रणाम किया और फिर प्रवाह सिर्फ स्थिर हो गया बल्कि उत्तरवाहिनी हो गईं। इसमें कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं। बूढ़े, औरतें और बच्चे सूर्य निकलने से पहले ही गंगा के किनारे पहुंच जाते हैं। सूर्य की पहली किरण निकलते ही ये लोग गंगा में डुबकी लगाते हैं।
प्रातः निकलते सूर्य को देखना एक उत्तम दृश्य होता है। हजारों तीर्थ यात्रियों, श्रद्धालुओं, सैलानियांे, विदेशियों को एक साथ नहाते हुए देखना एक भव्य दृश्य उपस्थित करता है। बच्चे, बूढ़े, अमीर, गरीब, जवान लोग, मर्द, औरतें, अपने सामाजिक स्तर को भुला कर, अपने कपड़े अलग रख कर, नहाते हुए एक दूसरे पर पानी उछालते हुए, हाथ जोड़ कर सूर्य को नमस्कार करते हुए, देखते बनता है, मानो सारा विश्व उमड़ पड़ा है। नौकायन द्वारा काशी के घाटों का नजारा बरबस ही आकर्षित करता है।
बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है। इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद के साथ प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में भी किया गया है। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए।
कहते है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का 5वां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।
हरिवंशपुराण के अनुसार काशी को बसाने वाले भरतवंशी राजाकाशथे। काशी उस समय विद्या तथा व्यापार दोनों का ही केंद्र थी। काशी के सुंदर और मूल्यवान रेशमी कपड़ों का वर्णन है। बुद्ध पूर्वकाल में काशी देश पर ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का बहुत दिनों तक राज्य रहा।काशीनगरनाम के अतिरिक्त एक देश या जनपद का नाम भी था। उसका दूसरा नगरनामवाराणसीथा। इस प्रकार काशी जनपद की राजधानी के रूप में वाराणसी का नाम धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो गया और कालांतर में काशी और वाराणसी ये दोनों अभिधान समानार्थक हो गए। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं।
गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। कोसल की राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार के साथ विवाह होने के समय काशी को दहेज में दे दिया गया था। बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ में दिया था जिससे उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है। बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने काशी को मगध राज्य का अभिन्न भाग बना लिया और तत्पश्चात् मगध के उत्कर्षकाल में इसकी यही स्थिति बनी रही। बौद्ध धर्म की अवनति तथा हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में काशी का महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू संस्कृति के केंद्र के रूप में निरंतर बढ़ता ही गया, जिसका प्रमाण पुराणों में है। चीनी यात्री फाह्यान (चैथी शती .) और युवानच्वांग अपनी यात्रा के दौरान काशी का विस्तार से वर्णन किया है।
मुगल शासक भी नहीं मिटा पाएं काशी परंपरा
भारतीय इतिहास के मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भांति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़ा। 1193 में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, जिससे काशी का प्रदेश भी, जो इस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था, मुसलमानों के अधिकार में गया। दिल्ली के सुल्तानों के आधिपत्यकाल में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को काशी के ही अंक में शरण मिली। कबीर और रामानंद के धार्मिक और लोकमानस के प्रेरक विचारों ने उसे जीता-जागता रखने में पर्याप्त सहायता दी। मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुनः वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया। काशी पुनः अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई। लेकिन औरंगजेब ने फिर से काशी पर अपना आधिपत्य जमाना चाहा। उसने काशी के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करा दिया। मूल विश्वनाथ के मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक बड़ी मस्जिद बनवाई जो आज भी है। मुगल साम्राज्य की अवनति होने पर अवध के नवाब सफदरजंग ने काशी पर अपना शासन चलाया, लेकिन उसके पौत्र ने काशी को ईस्ट इंडिया कंपनी के हवाले कर दिया। काशी नरेश के पूर्वज बलवंत सिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंध विच्छेद कर लिया था। इस प्रकार काशी की रियासत का जन्म हुआ। चेतसिंह, जिन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज से लोहा लिया था, इन्हीं के पुत्र थे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् काशी की रियासत भारत राज्य का अविच्छिन्न अंग बन गई।
काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बड़े पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तपरूस्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरी हैं।
भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरधरूस्थापिया
या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तवरू।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरैरूसेव्यते
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत।।
जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे। सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अतः प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-
यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वरः।
जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्।।
काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्र सुन कर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-
अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।
काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभिः।।
ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिर्लिंग का स्वरूप मानता है। काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।
साहित्य का भंडार
ग्रंथालय किसी भी नगर के साहित्य का आइना होता है। काशी में इसका आकार बेहद विशाल रहा है। यहां पुस्तकालयों की विस्तारित श्रृंखला के साथ ही कई ऐसी दुकानें भी रही हैं जहां कभी विद्वानों साहित्यकारों का जमावड़ा लगा रहता है। इसमें सर्वोपरि स्थान मैदागिन स्थित नागरी प्रचारिणी सभा का है। यह हमारी पुरानी पीढ़ी के त्याग, समर्पण और साहित्य सेवा की याद दिलाता है। पुस्तकालय के मुख्य सभागार की दीवारों पर साहित्य मनीषियों के चित्र स्मृतियों को ताजा करते हैं। इस कारण ही कहा जाता है कि साहित्यकारों की आत्मा आज भी नागरी प्रचारिणी सभा में बसती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पीतांबर दत्त बड़श्वाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन शास्त्री, नंद दुलारे बाजपेयी, सुधाकर पांडेय, मनु शर्मा जैसे साहित्यकारों की यह कर्मभूमि रही है। आज भी यहां पचासों बड़ी-बड़ी आलमारियों में दो लाख से अधिक ग्रंथ संरक्षित है। यहां 12 खंडों में प्रकाशितशब्द सागर, हिन्दू विश्वकोष और 16 खंडों में प्रकाशित वृहद इतिहास का ऐतिहासिक महत्व है।
मन बनारसी, वसन बनारसी
पर्व उत्सवों का रसिया शहर बनारस अपने मन मिजाज और अंदाज के लिए जाना जाता है। इसे केयरलेस समझने की भूल करिएगा, वास्तव में यह केयरफ्री है। मन में जो आया, पीया -खाया और परिधान के स्तर पर भी वही जो खुद को भाया।
ये है काशी के घाट
              अस्सी घाट
              गंगामहल घाट
              रीवां घाट
              तुलसी घाट
              भदैनी घाट
              जानकी घाट
              माता आनंदमयी घाट
              जैन घाट
              पंचकोट घाट
              प्रभु घाट
              चेतसिंह घाट
              अखाड़ा घाट
              निरंजनी घाट
              निर्वाणी घाट
              शिवाला घाट
              गुलरिया घाट
              दण्डी घाट
              हनुमान घाट
              प्राचीन हनुमान घाट
              मैसूर घाट
              हरिश्चंद्र घाट
              लाली घाट
              विजयानरम् घाट
              केदार घाट
              चैकी घाट
              क्षेमेश्वर घाट
              मानसरोवर घाट
              नारद घाट
              राजा घाट
              गंगा महल घाट
              पाण्डेय घाट
              दिगपतिया घाट
              चैसट्टी घाट
              राणा महल घाट
              दरभंगा घाट
              मुंशी घाट
              अहिल्याबाई घाट
              शीतला घाट
              प्रयाग घाट
              दशाश्वमेघ घाट
              राजेन्द्र प्रसाद घाट
              मानमंदिर घाट
              त्रिपुरा भैरवी घाट
              मीरघाट घाट
              ललिता घाट
              मणिकर्णिका घाट
              सिंधिया घाट
              संकठा घाट
              गंगामहल घाट
              भोंसलो घाट
              गणेश घाट
              रामघाट घाट
              जटार घाट
              ग्वालियर घाट
              बालाजी घाट
              पंचगंगा घाट
              दुर्गा घाट
              ब्रह्मा घाट
              बूँदी परकोटा घाट
              शीतला घाट
              लाल घाट
              गाय घाट
              बद्री नारायण घाट
              त्रिलोचन घाट
              नंदेश्वर घाट
              तेलिया- नाला घाट
              नया घाट
              प्रह्मलाद घाट
              रानी घाट
              भैंसासुर घाट
              राजघाट
              आदिकेशव या वरुणा संगम घाट
काशी विश्वनाथ मंदिर
काशी के कण-कण में चमत्कार की कहानियां भरी पड़ी हैं, लेकिन बाबा विश्वनाथ के इस धाम में आकर भक्तों की सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं और जीवन धन्य हो जाता है। एक तरफ शिव के विराट और बेहद दुर्लभ रूप के दर्शनों का सौभाग्य मिलता है, वहीं गंगा में स्नान कर सभी पाप धुल जाते हैं। कहते हे सावन में यहां आकर भोले भंडारी के दर्शन कर जिसने भी रूद्राभिषेक कर लिया, उसकी सभी मुरादें हो जाती हैं। उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं। यहां आने भर से ही भक्तों की पीड़ा दूर हो जाती है। तन-मन को असीम शांति मिलती है। क्योंकि यहां स्वयं भगवान शिव विराजते हैं। सावन के महीनों में तो एक लोटा जल चढ़ा देने मात्र से मिल जाता है मां पार्वती संग बाबा विश्वनाथ का भी आर्शीवाद। शास्त्रों की मानें तो पूरे दुनिया में काशी मात्र एक स्थल है जहां सावन में शिव के साथ मां पार्वती उदयमान रहते हैं और सबको दर्शन देते हैं। यही कारण है की द्वादश ज्योतिर्लिंगों में काशी के बाबा विश्वनाथ प्रधान माने गए हैं। कहते है सावन में भोलेनाथ के यहां जो अपनी इच्छा लेकर आता है, वो खाली हाथ नहीं लौटता। वैसे भी काशी देवादिदेव महादेव के त्रिशूल पर बसी है, यहां के कण-कण भगवान भोलेनाथ वास करते हैं। पतित पावनी मां गंगा साक्षात बाबा विश्वनाथ से चंद कदम की दूरी पर बहती हैं। सोमवार का दिन बाबा को बहुत प्रिय है। काशी में मां गंगा के जल से भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करने से जन्म-जन्मांतर के पापों से मुक्ति मिल जाती है। स्कंध पुराण में 15000 श्लोको में काशी विश्वनाथ का गुणगान मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि यह मंदिर हजारो वर्ष पुराना है। जो प्रलयकाल में भी लोप नहीं हो सका। कहते है काशी पर जब कोई आपदा आनी होती है तो उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं। सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं।

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