‘कांग्रेसी सह’ और ‘पीएफआई साजिश’ में जली ‘दिल्ली’
राजधानी
में
हिंसा
की
नींव
तो
उसी
दिन
पड़
गयी
थी
जिस
दिन
राहुल
गांधी
ने
कहा
था
‘जो
मौजूदा
हालात
हैं,
उसे
देखकर
कहा
जा
सकता
है
कि
छह
महीने
में
पीएम
मोदी
को
युवा
डंडे
मारेंगे।
लेकिन
अफसोस
है
कि
मोदी
ने
इसे
हंसकर
यह
कहते
टालता
दिया
कि
हम
अपना
सूर्य
नमस्कार
और
बढ़ा
देंगे।
जबकि
उन्हें
इस
बयान
को
गंभीरता
से
लेना
चाहिए,
क्योंकि
शाहीनबाग
का
आंदोलन और
दुश्मन
देश
पाकिस्तान
के
सह
पर
भारत
जलाने
की
मंशा
पाले
पीएफआई
सक्रिय
है
और
उससे
कांग्रेस
के
संबंद्ध
भी
जगजाहिर
है।
खासतौर
से
चौकन्ना
व
सजग
उस
वक्त
हो
जाना
चाहिए
था
जब
टुकड़े-टुकड़े
गैंग
द्वारा
एक
के
बाद
एक
भड़काऊ
बयान
दिए
जा
रहे
थे
सुरेश गांधी
बेशक, दिल्ली
का एक
इलाका आग
में जला,
उजड़ा, बिखरा
और बंटा
भी। यह
सबकुछ 28 सालों
पहले उस
वक्त हुआ
जब 1992 में
अयोध्या विवाद
के बाद
दिल्ली के
एक हिस्से
में हिंसा
हुई थी।
बीस लोगों
की जाने
गई थी।
इस बार
की हिंसा
में अब
तक 18 लोगों
की मौत
हो चुकी
है। खास
यह है
कि हिंसा
ने सांप्रदायिक
दंगे की
शक्ल ले
ली है।
फिलहाल शांति
के बीच
स्थिति को
नियंत्रण में
लाने के
लिए सुरक्षाबलों
ने मोर्चा
संभाल ली
है। सीएए
को लेकर
चल रहे
प्रदर्शनों को खत्म करवा दी
है। लेकिन
बड़ा सवाल
तो यही
कि आखिर
ऐसी सजगता
पहले क्यों
नहीं दिखाई
गयी? जबकि
अगर केंद्र
और दिल्ली
सरकार ने
सजगता दिखाई
होती तो
हिंसा के
उन्माद को
रोका जा
सकता था।
हो जो
भी हकीकत
तो यही
है कि
दिल्ली में
सीएए के
विरोध और
समर्थन में
प्रदर्शनों का सिलसिला खतरनाक मोड़
पर पहुंच
गया है।
भड़की हिंसा
थम नहीं
रही है।
केंद्र सरकार
हालात पर
कड़ी नजर
रखने का
दावा कर
रही है
तो दिल्ली
सरकार प्रदर्शनकारियों
से शांति
की गुहार
लगा रही
है। फिर
भी राजधानी
के हालात
में सुधार
नजर नहीं
आते। उत्तर
पूर्वी दिल्ली
के कई
इलाकों में
धारा 144 लागू
है। मेट्रो
स्टेशनों के
साथ स्कूल
कॉलेज बंद
है। सड़कों
पर भारी
सुरक्षा बल
उतारे जाने
के बावजूद
कांग्रेसी सह पर पीएफआई के
गुंडे हिंसा
पर उतारू
है। माना
लोकतंत्र विरोध
प्रदर्शन का
अधिकार देता
है, लेकिन
अपेक्षा भी
रखता है
कि इसकी
आड़ में
किसी भी
तरह की
हिंसा का
नहीं हो,
पर सबकुछ
खुल्लमखुल्ला हो रहा है। सार्वजनिक
संपत्तियों को जलाया जा रहा
है। बेकसूरों
को मौत
के घाट
उतारा जा
रहा है।
अब तक
18 लोगों की
जाने जा
चुकी है,
200 से अधिक
लोग अस्पतालों
में जीवन-मृत्यु से
संघर्ष कर
रहे है।
हाल यह
है कि
दिल्ली के
लोगों का
जीवन जीना
मुहाल हो
गया है।
प्रदर्शन एक
तरह से
सांप्रदायिक उन्माद में तब्दील हो
रहे हैं।
70 दिन बाद
भी शाहीन
बाग प्रदर्शन
राजनीतिक पूर्वाग्रह
और वोटबैंक
की तरफदारी
में खत्म
नहीं कराए
जा सके।
जबकि केन्द्र
व दिल्ली
सरकारों से
तटस्थता तोड़ने
की पहल
की दरकार
थी। ताकि
हल के
रास्ते खोजे
जाते। यह
अलग बात
है कि
सुप्रीम कोर्ट
जरूर सजग
नजर आया।
उसने याचिकाओं
पर सुनवाई
के दौरान
कहा था
चिंता की
बात तो
यह है
कि प्रदर्शन
सड़क पर
किया जा
रहा है।
किसी भी
मामले में
सड़क को
ब्लॉक नहीं
किया जा
सकता। अफसोस
की बात
है कि
सड़क जाम
होने पर
सुप्रीम कोर्ट
की चिंता
केंद्र और
दिल्ली सरकार
की चिंता
नहीं बन
पाई। इसके
बजाय सियासत
के मोर्चे
खुलते गए
और राजनीतिक
पार्टियों में भड़काऊ बयानों का
दौर शुरू
हो गया,
जो आग
में घी
का काम
किया। मतलब
साफ है
राजधानी में
हालात बिगड़ने
के बाद
अब केंद्र
और दिल्ली
सरकार जो
भागदौड़ कर
रही है
उससे आधा
भी कुछ
दिनों पहले
कर ली
जाती तो
यह नौबत
नहीं आती।
कहा जा
सकता है
हिंसा को
सख्ती से
कुचलने के
साथ सरकार
सुप्रीम कोर्ट
के दिशा
निर्देशों के अनुसार समस्याओं के
हल के
ठोस कदम
जितनी जल्दी
उठाएगी दिल्ली
के साथ
देश उतनी
जल्दी चैन
की सांस
लेगा। क्योंकि
इन घटनाओं
से राष्ट्रीय
राजधानी में
सामाजिक ताने-बाने को
गहरा आघात
लगा है।
या यूं
कहे सरकार
से लेकर
समाज को
न केवल
आपसी भरोसे
व भाईचारे
को कायम
करने पर
ध्यान देना
है बल्कि
यह भी
सुनिश्चित करना है कि ऐसी
हिंसा की
पुनरावृत्ति ना हो। क्योंकि दिल्ली
हो या
देश, सांप्रदायिकता
की आग
हमें कई
बार झुलसा
चुकी है।
जिसकी जान
जाती है,
उसके परिवार
की पूरी
दशा और
दिशा बदल
जाती है।
एक घर
बनाने या
एक दुकान
खड़ा करने
में लोगों
की उम्र
गुजर जाती
है। लेकिन
हिंसा का
एक झटका
सब कुछ
राख कर
देता है।
ऐसा बार-बार हो
चुका है।
पर शायद
हमने कोई
सबक नहीं
लिया। इस
वजह से
ऐसी चुनौतियां
का सामना
भी बार-बार करना
पड़ता है।
हमें जानना
होगा कि
इन घटनाओं
के पीछे
भड़काऊ बयानों
और हिंसक
मानसिकता के
साथ अफवाहों
और अपुष्ट
खबरों का
भी हाथ
होता है।
आज सोशल
मीडिया और
मुख्यधारा की मीडिया के दौर
में गलत
सूचनाएं जल्दी
फैलती हैं।
इस संदर्भ
में भी
आत्मसमीक्षा की जरूरत है। यह
भी सोचा
जाना चाहिए
कि अगर
सरकारी तंत्र,
राजनीतिक व
सामाजिक संगठन
तथा आम
नागरिक सजग
नहीं रहे
तो ऐसी
घटनाएं होती
रहेंगी और
हम अफसोस
जाहिर करने
के अलावा
कुछ ना
कर सकेंगे।
ऐसे में
सरकार को
देखना चाहिए
कि जो
लोग हाथों
में तिरंगा
और ज़ुबां
पर राष्ट्रगान
के साथ
जहर उगल
रहे है,
सीएए के
विरोध के
नाम पर
नफ़रत के
बीज बो
रहे है।
पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने
में लगे
हैं उन
पर नकेल
भी कसना
जरुरी है।
उन्हें यूं
ही छुट्टा
साड़ की
तरह नहीं
छोड़ा सकता।
जब पीएम
ने साफ़
कर दिया
है कि
सीएए से
सरकार पीछे
नहीं हटेगी।
तब आंदोलन
का कोई
औचित्य नहिं
रह जाता
और अगर
है तो
सरकार को
इसे सख्ती
से कुचला
जाना चाहिए
था। पक्ष
या विपक्ष
के प्रदर्शनकारियों
को रोका
जाना चाहिए
था। लेकिन
सरकारों की
सुस्ती ने
भजनपुरा में
हुए दो
गुटों के
बीच पथराव
व आगजनी
की झाटनाओं
ने करीब
30 घंटे में
18 लोगों की
जान ले
ली। बाबरपुर
से शुरू
हुई हिंसा
करावल नगर,
शेरपुर चौक,
कर्दमपुरी और गोकलपुरी तक फैलती
चली गई।
बस समेत
कई वाहनों
को आग
के हवाले
कर दिया
गया। पेट्रोल
पंप में
भी आग
लगा दी
गई। हिंसा
में एक
पुलिसकर्मी की मौत हो गई,
जबकि डीसीपी
घायल हो
गए। गोकुलपुरी
इलाके में
टायर मार्केट
को उपद्रवियों
ने आग
के हवाले
कर दिया।
ऐसे में
सवाल उठने
लगे कि
दिल्ली को
बचाने की
जिम्मेदारी किसकी है? इस सवाल
पर चर्चा
करते वक्त
हमें दो
पहलू देखने
होंगे। एक
कानूनी जिम्मेदारी
और दूसरा
नैतिक जिम्मेदारी।
कानूनी तौर
पर यह
पूरी जिम्मेदारी
केंद्रीय गृह
मंत्रालय की
है। दरअसल,
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के
चलते दिल्ली
के लिए
संविधान में
अलग से
प्रावधान दिए
गए हैं।
दिल्ली को
लेकर
संविधान में विशेष रुप से
अनुच्छेद 239 शामिल किया गया है।
इस अनुच्छेद
में दिल्ली
विधानसभा और
दिल्ली सरकार
की शक्तियों
का जिक्र
है। इसमें
यह साफ
लिखा गया
है कि
दिल्ली विधानसभा
राज्य और
समवर्ती सूची
के विषयों
पर कानून
बना सकती
है। लेकिन
उसे भूमि,
पुलिस और
पब्लिक ऑर्डर
पर कानून
बनाने का
अधिकार नहीं
है। इसे
और सरल
भाषा में
समझें तो
दिल्ली के
लिए पुलिस
और कानून
व्यवस्था की
जिम्मेदारी केंद्र सरकार के ऊपर
है।
मतलब केंद्रीय
गृह मंत्रालय
का सीधे-सीधे यह
जिम्मा बनता
है कि
वह दिल्ली
में कानून
व्यवस्था की
स्थिति को
बनाए रखे।
अब भी
जब जाफराबाद
समेत उत्तर
पूर्वी दिल्ली
के इलाकों
में सीएए
विरोधी आंदोलन
के चलते
तनाव की
स्थिति बनी
है, तो
उस पर
नियंत्रण केंद्रीय
गृह मंत्रालय
की जिम्मेदारी
है। जाफराबाद
में जब
महिलाओं ने
जबरन मेट्रो
स्टेशन के
नीचे बैठना
शुरू किया
था, तो
उन्हें ऐसा
करने से
उसी वक्त
रोक देने
की जिम्मेदारी
पुलिस की
थी। अगर
पुलिस ऐसा
नहीं कर
पा रही
थी और
कपिल मिश्रा
जैसे नेता
खुद कार्रवाई
करने की
चेतावनी दे
रहे थे,
तब भी
पुलिस को
उन्हें ऐसा
करने से
रोकने के
लिए जरूरी
कदम उठाने
थे।
पुलिस दोनों
ही चीजें
करने में
असफल रही।
जहां तक
नैतिक जिम्मेदारी
की बात
है तो
दिल्ली में
70 में से
62 सीटें जीतकर
सत्ता में
आई सरकार
सिर्फ यह
कहकर पल्ला
नहीं झाड़
सकती कि
कानून व्यवस्था
उसके हाथ
में नहीं
है। 90 फ़ीसदी
दिल्ली में
जिस पार्टी
के विधायक
हैं। जिसको
लोगों का
भरपूर समर्थन
हासिल है।
जो मुख्यमंत्री
केजरीवाल लोकप्रियता
के नए
कीर्तिमान स्थापित कर रहा है।
क्या वह
और उसके
विधायक उपद्रव
की स्थिति
को रोकने
के लिए
कुछ प्रभावी
भूमिका निभा
पा रहे
हैं? क्या
लोकप्रिय मुख्यमंत्री
और उसके
दोबारा चुनाव
जीते विधायक
लोगों को
हिंसा रोकने
के लिए
समझाने को
आगे आ
रहे हैं?
अगर नही
ंतो समझा
जाना चाहिए
दिल्ली सरकार
भी कहीं
न कहीं
इस दंगे
में अप्रत्यक्ष
रुप से
शामिल है।
इससे कानून-व्यवस्था को
लेकर उसकी
चिंता पर
भी कहीं
ना कहीं
सवालिया निशान
लगते हैं।
वैसे इस
मामले में
थोड़ी जिम्मेदारी
कोर्ट की
भी नजर
आती है।
शाहीन बाग
में सड़क
रोके जाने
को लेकर
दिल्ली हाई
कोर्ट में
जब याचिका
दाखिल हुई,
तो हाई
कोर्ट ने
जाम हटाने
को लेकर
कोई स्पष्ट
आदेश नहीं
दिया। मामला
सुप्रीम कोर्ट
में पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट
ने भी
पहले चुनाव
की वजह
से सुनवाई
टाली, फिर
सरकार का
जवाब देखने
के नाम
पर सुनवाई
स्थगित की।
और बाद
में शाहीन
बाग में
वार्ताकार भेज दिए। इस तरह
सड़क बंद
किए जाने
से लाखों
लोगों को
हो रही
जो समस्या
कोर्ट के
सामने रखी
गई थी।
उसे लेकर
अब तक
कोर्ट ने
कोई स्पष्ट
आदेश नहीं
दिया है।
ऐसे में
यह कहना
गलत नहीं
होगा कि
भले ही
सीएए समर्थक
लोगों का
कानून अपने
हाथ में
लेना बिल्कुल
गलत हो।
लेकिन जब
लोग जाफराबाद
में जमा
होने शुरू
हुए तो
कहीं ना
कहीं दूसरे
खेमे के
लोगों के
मन में
यह बात
जरूर रही
होगी कि
सरकार और
कोर्ट इन
लोगों को
भी नहीं
हटाएगी और
यह लंबे
समय तक
सड़क पर
बने रहेंगे।
हालात ये
है कि
दिल्ली में
टूटी हुई
दुकानें और
दुकानों से
निकलता काला
धुआं उपद्रवियों
के तांडव
की कहानी
बयां कर
रहा है।
23 फरवरी से
उत्तर पूर्वी
दिल्ली में
भड़की हिंसा
की आग
अब भी
सुलग रही
है। दिल्ली
में उपद्रवी
कानून को
ठेंगा दिखाकर
सड़कों पर
कब्जा जमाए
हुए हैं।
जिसकी मर्जी
घर को
आग लगा
दे रहे
हैं, दुकाने
फूंक रहे
हैं और
आम लोग
दहशत में
हैं। आलम
ये था
कि जहां
पर जो
भी लोग
ज्यादा संख्या
में मौजूद
रहे, उन्होंने
कम संख्या
वाले लोगों
की दुकानों
पर हमला
किया, दुकान
के शटर
तोड़कर उनके
सामान को
बाहर निकाला
और फिर
आग लगा
दी।
इन सबके
अलावा पुलिस
पर भी
कई जगहों
पर पथराव
किया गया।
उपद्रवियों ने पुलिसकर्मियों से उनके
सरकारी पिस्टल
भी लूट
ली। सूत्रों
का कहना
है कि
दिल्ली हिंसा
के पीछे
पीएफआई के
हाथ होने
का शक
है। उसके
द्वारा ही
’सोशल मीडिया
पर फर्जी
वीडियो अपलोड
किए गए
हैं। पाकिस्तान
से कई
फेसबुक और
ट्विटर अकाउंट
चल रहे
हैं। पाकिस्तान
सरकार के
आधिकारिक ट्विटर
अकाउंट से
भारत में
मुसलमानों को भड़काने की कोशिश
जा रही
है।
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