30 साल बाद पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र, धृति व शूल योग में मनेगी होली
हर
साल
होली
फाल्गुन
माह
की
पूर्णिमा
तिथि
को
मनाई
जाती
है.
वैदिक
पंचांग
के
मुताबिक
फाल्गुन
पूर्णिमा
13 मार्च
को
सुबह
10 बजकर
35 मिनट
पर
शुरू
होगी
और
समापन
14 मार्च
को
दोपहर
12 बजकर
23 मिनट
पर
होगा.
उदयातिथि
के
कारण
रंगों
की
होली
14 मार्च
को
मनाया
जायेगा।
जबकि
होलिका
दहन
13 मार्च
बुधवार
को
प्रदोषकाल
में
किया
जाएगा.
इस
दिन
सूर्य,
बुध
और
शनि
की
कुंभ
राशि
में
युति
बन
रही
है।
साथ
ही
पूर्वा
फाल्गुनी
नक्षत्र,
धृति
योग
के
बाद
शूल
योग
वणिज
करण
के
बाद
बव
करण
और
सिंह
राशि
के
चंद्रमा
की
साक्षी
में
होलिका
दहन
होगा।
और
गुरुवार
का
दिन
इस
पर्व
को
और
भी
विशिष्ट
बना
रहा
है।
ऐसा
संयोग
30 साल
पहले
1995 में
बना
था,
जो
अब
2025 में
फिर
से
बनने
जा
रहा
है।
इस
विशेष
योग
में
की
गयी
मंत्र,
तंत्र
और
यंत्र
साधना
अत्यंत
प्रभावशाली
मानी
जाती
है।
यही
कारण
है
कि
इसे
सिद्धिरात्रि
भी
कहा
जाता
है।
इस
दिन
सुबह
10.23 बजे
से
रात
11.30 बजे
तक
भद्रा
का
प्रभाव
रहेगा।
हालांकि
प्रदोषकाल
में
किया
गया
पूजन
शुभ
होता
है,
इसलिए
होलिका
दहन
के
लिए
शुभ
मुहूर्त
रात
10ः45
बजे
से
लेकर
रात
1ः30
बजे
तक
है.
पंचांग
गणानुसार
सिंह
का
चंद्राम
भ्रदा
का
वास
पृथ्वी
पर
है,
लेकिन
भद्रा
के
अंतिम
भाग
में
पूजन
से
यश
और
विजय
की
प्राप्ति
होती
है।
इन
योगों
में
भगवान
की
पूजा-अर्चना
करने
से
जीवन
में
सुख-समृद्धि
की
प्राप्ति
होती
है.
मान्यता
है
कि
होलिका
दहन
पर
पूजा
करने
से
संतान
सुख
प्राप्त
होता
है
सुरेश गांधी
होली सनातन के प्रमुख त्योहारों में से एक है। इसे एकता और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया है। उल्लास का रंग लिये हुए हर बरस होली हमें अपने परिजनों से कुछ अधिक आत्मीय बनाने के लिए आती है। रंग, उमंग और आनंद से भरी हुई होली... बसंत, फाग और होली के बहाने हम एक बार उन परंपराओं को याद करते हैं, जिनकी मौजूदगी हमारे समाज में एक संस्कृति की तरह सालों से है। इन परंपराओं की वजह से ही हम जीवंत, लोक-लुभावन, आत्मीय और महत्वपूर्ण जीवन गुजारते है। इससे बड़ा गौरव और क्या हो सकता है कि हमारी संस्कृति, होलिका के बहाने बीत रहे संवत्सर की जो चिता जलाती है, उसमें इस आशय का बीज छुपा होता है कि इस मौके पर अपना अहंकार हमें इस अग्नि में डालना है और उसमें तपकर कुंदन की भांति इस कदर निकलना है, जिस पर कोई भी बड़ी आसानी से अपने प्रेम का रंग चढ़ा सकें।
जी हां, फाल्गुन
मास की पूर्णिमा को
जब चंद्रमा अपने पूरे सौंदर्य
के साथ आकाश में
शोभायमान होता है तब
धरती भी रंगों से
श्रृंगारित होती है। तभी
तो होली के पर्व
का प्रकृति और मन से
भी सीधा संबंध है।
होली के रंग दिलों
की दूरिया ही नहीं मिटाते
है अपनों को करीब भी
लाते है, सभी को
प्रेम के रंग में
रंग देता है। फाल्गुन
के महीने में मनाए जाने
के कारण इस पर्व
का एक नाम फाल्गुनी
भी है। होली हमारे
समाज का एक प्राचीन
त्योहार है। भारतीय समाज
की विविधता के कारण इसके
मनाने के ढंग भी
अलग-अलग हैं, परंतु
प्रेम, समभाव और सद्भाव के
रंग हर जगह मिलते
हैं। उमंग में पगी
टोलियों के गीत गाने
और गुलाल-अबीर से एक-दूसरे को सराबोर करने
के दृश्य देखे जा सकते
हैं। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े और अमीर-गरीब के भेदभाव
सतरंगी छटाओं में विलीन हो
जाते हैं। रंगों और
दुलार के इस पर्व
में बहुधा रंगों में आपसी द्वेष
और मतभेद भी घुलते जाते
हैं। मतलब साफ है
यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की
विजय का उत्सव है।
हमें प्रेरणा मिलती है कि किस
तरह होलिका नामक बुराई जल
कर भस्म हो गयी
और प्रह्लाद की भक्ति व
विश्वास रूपी अच्छाई को
रंच मात्र भी आंच न
आयी। इस जीत को
ही अबीर-गुलाल उड़ा
कर, ढोल-नगारे की
थापों के बीच नाच-गाकर मनाया जाता
है। हर तरह से
होली हमारे जीवन में आनंद
का संचार करने वाला पर्व
है। यह बैर को
भुलाकर दिलों को मिलाने का
संदेश देने वाला प्रसंग
है। कहते हैं होली
का पर्व लोगों के
मन में प्रेम और
विश्वास को बढ़ाने का
अवसर है। इस दिन
सभी पुराने गिले शिकवे को
दूर करते हुए, एक
दूसरे को गले लगाकर
इस स्नेह भरे पर्व को
मनाते हैं। वहीं होली
से एक दिन पहले
होलिका दहन करने की
भी परंपरा है, जिसे आत्मा
की शुद्धि और मन की
पवित्रता से जोड़ा जाता
है। होलिका दहन के अगले
दिन धुलंडी यानी रंगवाली होली
खेली जाती है। इस
दिन लोग रंग और
गुलाल से एक-दूसरे
के साथ होली खेलते
हैं।
सिंह, तुला व कन्या राशि के
लोगों पर पड़ेगा ग्रहण का साया
हालांकि कुछ राशियों के लिए होली के रंग में चंद्र ग्रहण भंग डालेगा। क्योंकि इसी दिन आत्मा के कारक सूर्य देव 14 मार्च को राशि परिवर्तन करेंगे। इस दिन सूर्य देव कुंभ राशि से निकलकर मीन राशि में गोचर करेंगे। सूर्य देव के राशि परिवर्तन करने की तिथि पर मीन संक्रांति मनाई जाएगी। होली के दिन चंद्र देव भी राशि परिवर्तन करेंगे। चंद्र देव 14 मार्च को कन्या राशि में गोचर करेंगे। 14 मार्च को ही साल का पहला ग्रहण लगेगा। ज्योतिषियों की मानें तो चंद्र ग्रहण से राशि चक्र की सभी राशियों पर शुभ और अशुभ प्रभाव पड़ेगा। यह ग्रहण भारत में नहीं दिखाई देगा। इसके लिए सूतक भी मान्य नहीं होगा। चंद्र ग्रहण का समय सुबह 09 बजकर 29 मिनट से लेकर दोपहर 03 बजकर 29 मिनट तक है। सिंह राशि के स्वामी आत्मा के कारक सूर्य देव हैं।
मन के कारक चंद्र देव कर्क राशि के स्वामी हैं। भगवान शिव की पूजा करने से चंद्रमा मजबूत होता है। चंद्र ग्रहण के दिन धरती पर मायावी ग्रह राहु का प्रभाव बढ़ जाता है। इसके लिए ग्रहण के दौरान शुभ काम करने की मनाही होती है। अतः होली के दिन कई राशियों को बेहद सावधान रहने की जरूरत है। राहु की कुदृष्टि के चलते शारीरिक एवं मानसिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है। साथ ही कारोबार में भी नुकसान हो सकता है। इसके अलावा, खानपान से भी परहेज करें। वहीं, भगवान विष्णु का ध्यान करें। ज्योतिषियों की मानें तो होली के दिन दोपहर 12 बजे तक चंद्र देव सिंह राशि में विराजमान रहेंगे। सूर्य और चंद्र देव के मध्य मित्रवत संबंध है। वहीं, राहु और चंद्र के मध्य शत्रुवत संबंध है। इसके लिए सिंह राशि के जातकों को ग्रहण के दौरान सावधान रहने की जरूरत है। शुभ काम न करें। नकारात्मक जगहों पर जाने से बचें। अपने गुस्से पर कंट्रोल रखें। बड़ों की सेवा और सम्मान करें।
फाल्गुन पूर्णिमा के दिन चंद्र देव दोपहर 12 बजकर 56 मिनट पर चंद्र देव सिंह राशि से निकलकर कन्या राशि में गोचर करेंगे। इसके लिए होली के दिन कन्या राशि के जातकों को सावधान रहने की आवश्यकता है। कारोबार से जुड़े अहम काम न करें और न ही निवेश करें। वाद-विवाद से बचें। वाणी पर कंट्रोल रखें। भगवान विष्णु के नाम का मंत्र जप करें। तुला राशि के जातक होली के दिन आवश्यकता होने पर घर से बाहर निकलें। शुभ काम करने और लंबी यात्रा करने से बचें। घर पर बड़ों की सेवा और सम्मान करें। किसी के प्रति बुरा न सोचें। तामसिक चीजों का सेवन बिल्कुल न करें। शेयर मार्केट में निवेश न करें। ग्रहण के बाद स्नान-ध्यान के बाद भक्ति भाव से भगवान शिव की पूजा करें। इसके बाद आर्थिक स्थिति के अनुसार अनाज का दान करें। वृश्चिक राशि के जातकों को होली के दिन सतर्क रहने की जरूरत है। विवाद से दूर रहें और न ही किसी से वाद करें। वाणी पर कंट्रोल रखें। किसी के प्रति गलत विचार न रखें। तामसिक भोजन का सेवन न करें। यात्रा करने से बचें। तेज गति से ड्राइव न करें। किसी को उधार न दें और न ही कारोबार में निवेश करें। मानसिक तनाव की परेशानी हो सकती है। विचार में मतभेद देखने को मिलेगा।
पौराणिक मान्यताएं
होलिका ने प्रहलाद को जलाने का प्रयास किया, लेकिन अग्निदेव की कृपा से प्रहलाद बच गया और होलिका भस्म हो गई. इस घटना की स्मृति में होलिका-पूजन और होली का त्योहार मनाया जाता है. कहते है जिस होलिका ने प्रहलाद जैसे प्रभु भक्त को जलाने का प्रयत्न किया, उसका हजारों वर्षों से हम पूजन इसलिए करते हैं, क्योंकि जिस दिन होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठने वाली थी, उस दिन नगर के सभी लोगों ने घर-घर में अग्नि प्रज्वलित कर प्रहलाद की रक्षा करने के लिए अग्निदेव से प्रार्थना की थी. लोकहृदय को प्रहलाद ने कैसे जीत लिया था यह बात इस घटना में प्रतिबिम्बित होती है. अग्निदेव ने लोगों के अंतःकरण की प्रार्थना को स्वीकार किया और लोगों की इच्छा के अनुसार ही हुआ. होलिका नष्ट हो गई और अग्नि की कसौटी में से पार उतरा हुआ प्रहलाद नरश्रेष्ठ बन गया. प्रहलाद को बचाने की प्रार्थना के रूप में प्रारंभ हुई घर-घर की अग्नि पूजा ने कालक्रमानुसार सामुदायिक पूजा का रूप लिया और उससे ही गली-गली में होलिका की पूजा प्रारंभ हुई. इस त्योहार का मुख्य संबंध बालक प्रहलाद से है.
प्रहलाद था तो विष्णुभक्त मगर उसने ऐसे परिवार में जन्म लिया, जिसका मुखिया क्रूर और निर्दयी था. प्रहलाद का पिता अर्थात निर्दयी हिरण्यकश्यप अपने आपको भगवान समझता था और प्रजा से भी यही उम्मीद करता था कि वह भी उसे ही पूजे और भगवान माने. ऐसा नहीं करने वाले को या तो मार दिया जाता था या कैद-खाने में डाल दिया जाता था. जब हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद विष्णु भक्त निकला तो पहले तो उस निर्दयी ने उसे डराया-धमकाया और अनेक प्रकार से उस पर दबाव बनाया कि वह विष्णु को छोड़ उसका पूजन करे. मगर प्रहलाद की भगवान विष्णु में अटूट श्रद्धा थी और वह विचलित हुए बिना उन्हीं को पूजता रहा.सारे यत्न करने के बाद भी जब प्रहलाद नहीं माना तो हिरण्यकश्यप ने उसे मार डालने की सोची. इसके लिए उसने अनेक उपाय भी किए मगर वह मरा नहीं. अंत में हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका, जिसे अग्नि में न जलने का वरदान था, को बुलाया और प्रहलाद को मारने की योजना बनाई.
एक दिन निर्दयी हिरण्यकश्यप ने बहुत सी लकड़ियों का ढेर लगवाया और उसमें आग लगवा दी. जब सारी लकड़िया तीव्र वेग से जलने लगीं, तब राजा ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर जलती लकड़ियों के बीच जा बैठे. होलिका ने वैसा ही किया. दैवयोग से प्रहलाद तो बच गया, परन्तु होलिका वरदान प्राप्त होने के बावजूद जलकर भस्म हो गई. तभी से प्रहलाद की भक्ति और आसुरी राक्षसी होलिका की स्मृति में इस त्योहार को मनाते आ रहे हैं. कहते है होलिका-प्रहलाद के साथ ही बसंत ऋतु और नई फसल से भी जुड़ी हैं। इस समय पेड़ों से पत्ते गिरने लगते हैं और नए पत्ते आने लगते हैं। प्रकृति हमें बताती है कि जब पुरानी चीजें खत्म होती हैं, तब ही नई शुरुआत होती है। ज्योतिषाचार्यो के मुताबिक होली की रात का महत्व काफी अधिक रहता है। होलिका दहन की रात तंत्र-मंत्र से जुड़ी साधनाएं की जाती हैं।
जो
लोग मंत्र साधना करना चाहते हैं,
वे किसी विशेषज्ञ गुरु
के मार्गदर्शन में मंत्र जप
और साधना करते हैं। बसंत
ऋतु के स्वागत में
रंगों का त्योहार मनाया
जाता है। कामदेव ने
भगवान शिव की तपस्या
भंग करने के लिए
बसंत ऋतु को प्रकट
किया था। बसंत को
ऋतुरात कहा जाता है।
इसके बाद जब शिव
जी का तप भंग
हुआ तो उन्होंने कामदेव
भस्म कर दिया था।
बाद में कामदेव की
पत्नी रति की प्रार्थना
पर शिव जी उसे
ये वरदान दिया था कि
द्वापर युग में कामदेव
श्रीकृष्ण के पुत्र के
रूप में जन्म लेंगे।
ये घटना फाल्गुन मास
की पूर्णिमा तिथि की ही
घटना मानी गई है।
ये फसल पकने का
समय है। इन दिनों
में अधिकतर किसानों की फसलें तैयार
हो जाती हैं, किसान
फसल पकने की खुशी
मनाने के लिए रंगों
से त्योहार मनाते हैं, इस मान्यता
की वजह से भी
होली मनाने का चलन है।
किसान जलती हुई होली
में नई फसल का
कुछ भाग अपने इष्टदेव
को अर्पित करते हैं और
खुशियां मनाते हैं।
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