कांवड़ : श्रद्धा, साधना और शिव से साक्षात्कार की यात्रा
सुरेश गांधी
श्रावण मास का आगमन होते ही देश भर की सड़कों पर एक विशेष दृश्य दिखाई देता है. केसरिया वस्त्रों में लिपटे, कंधे पर गंगाजल से भरी कांवड़ उठाए भक्त, “हर-हर महादेव“ की गूंज के साथ शिव के धाम की ओर बढ़ते हुए। यह कोई सामान्य यात्रा नहीं, यह श्रद्धा, तपस्या और शिवत्व की खोज की वह चिरंतन परंपरा है, जो हर वर्ष सावन में पुनः जीवंत होती है। भारत की हजारों वर्षों पुरानी धार्मिक चेतना में शिव एक ऐसे देवता हैं, जो निर्विकारी हैं, निराकार हैं, फिर भी सबसे साकार रूप में पूजित हैं। उन्हीं शिव को जल अर्पित करने की साधना का नाम है कांवड़ यात्रा। यह यात्रा केवल गंगाजल के उठान की नहीं, आत्मा के उत्थान की प्रक्रिया है।
कांवड़ का अर्थ है, शिव के लिए वह परिश्रम, जो अपने भीतर की भक्ति को समर्पण में बदल देता है। श्रद्धालु जब गंगोत्री, हरिद्वार, ऋषिकेश, सुल्तानगंज या काशी से जल भरते हैं और सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर किसी शिवालय में जाकर अभिषेक करते हैं, तो वह केवल धार्मिक कर्म नहीं करते, वे एक वैदिक संकल्प को साकार करते हैंकृ“शिवो भूत्वा शिवं यजेत।”
कांवड़ की परंपरा को
लेकर पुराणों और लोककथाओं में
अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। समुद्र मंथन
के समय निकले विष
को जब शिव ने
पिया, तो उनकी तप्त
जठराग्नि को शांत करने
के लिए जलाभिषेक किया
गया। कहा जाता है
कि रावण और भगवान
परशुराम ने शिव की
आराधना के लिए जल
से कांवड़ यात्रा की शुरुआत की
थी। वहीं, श्रवण कुमार की कथा तो
भारतीय मानस में आदर्श
बन गई, जब उन्होंने
कांवड़ में माता-पिता
को बिठाकर तीर्थयात्रा करवाई। इस प्रकार कांवड़
यात्रा केवल जल का
वहन नहीं, बल्कि धर्म, सेवा और तप
का संगम है। गंगा,
जो विष्णु के चरणों से
निकली और शिव की
जटाओं में समाई, वही
जब कांवड़ में भरकर फिर
से शिव को समर्पित
की जाती है, तो
यह एक चक्र की
पूर्णता है। यह केवल
जलाभिषेक नहीं, बल्कि शिव और गंगा
की संयुक्त आराधना है। शिवमहिम्न स्तोत्र
के अनुसार, जल चढ़ाकर हम
शिव से वही शक्ति
वापस मांगते हैं, जो उन्होंने
सृष्टि की रचना और
कल्याण के लिए समर्पित
की।
कांवड़ यात्रा की सबसे अद्भुत बात यह है कि यह बिना निमंत्रण, बिना संगठन, बिना शासन के आदेश के होती है। लोग स्वतः प्रेरित होते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान से लेकर बंगाल तक लाखों कांवरिया हरिद्वार, देवघर, पुरा महादेव या काशी से जल लेकर निकलते हैं। गांव-गांव में शिवालय सजते हैं, घर-घर में शिव आराधना होती है। यहां तक कि पर्यावरण और समाज भी इसका हिस्सा बन जाते हैं।
रास्ते
में जगह-जगह “कांवड़
शिविर“, जलपान केंद्र, प्राथमिक चिकित्सा स्टॉल, सांस्कृतिक मंच आदि इसकी
जीवंतता को उत्सव में
बदल देते हैं। इसे
किसी एक समुदाय, जाति,
वर्ग या भाषा से
नहीं जोड़ा जा सकताकृयह
भारत की साझा संस्कृति
और समवेत श्रद्धा का प्रतीक है।
कांवड़ यात्रा न केवल धार्मिक
कर्म है, बल्कि सामाजिक
और सांस्कृतिक संवाद भी है। जल
की यह यात्राकृजहां स्वयं
कांवरिया जल से भीगता
हैकृहमें पर्यावरण, जल-संरक्षण, श्रम
और संयम का संदेश
देती है। यह एक
चलायमान योग साधना है,
जिसमें शरीर तपता है,
मन शिव में रमता
है और आत्मा विमल
होती है। जब लाखों
कांवरिये गंगा से जल
भरकर अपने गांव-नगर
के शिवालयों तक पहुंचते हैं,
तो साथ में वे
गंगा की पुण्यता, सांस्कृतिक
गौरव और धार्मिक चेतना
को भी पहुंचाते हैं।
यह एक विराट आंदोलन
हैकृजो धर्म, परंपरा और राष्ट्रीय चेतना
का अद्भुत संगम है।
श्रावण का जलाभिषेक
श्रावण मास जब आता
है, तो गगन में
घटाएँ उमड़ती हैं, धरती पर
हरीतिमा लहराती है और भक्तों
के मन में भक्ति
की बाढ़ आ जाती
है। यह महीना शिवभक्ति
का, तप और संयम
का, और समर्पण का
प्रतीक है। उत्तर से
दक्षिण और पर्वत से
सागर तक “हर हर
महादेव” और “बोल बम”
के नारों से सारा देश
शिवमय हो उठता है।
यह केवल एक धार्मिक
आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा का
उत्सव है। श्रावण मास
का प्रत्येक सोमवार एक आध्यात्मिक अनुष्ठान
बन जाता है। शिवलिंग
पर जल, पंचामृत और
बेलपत्र चढ़ाने की परंपरा केवल
कर्मकांड नहीं, वह कृतज्ञता का
प्राकट्य हैकृउन महादेव के प्रति जिन्होंने
हलाहल पान कर सृष्टि
की रक्षा की।
श्रद्धा का महासागर
श्रावण में शिवभक्ति की
सबसे अद्वितीय अभिव्यक्ति है कांवड़ यात्रा।
यह यात्रा केवल गंगाजल का
परिवहन नहीं, आत्मा की यात्रा है,
जहां प्रत्येक कांवड़िया “मैं” से “हम”
की ओर बढ़ता है।
पैरों में छाले, आंखों
में दृढ़ संकल्प और
कंधे पर गंगाजल लिए
ये यात्री देश की धार्मिक
चेतना का चलायमान रूप
हैं। प्राचीन समय में जब
राजस्थान के मारवाड़ी समाज
के लोग गोमुख से
जल लेकर रामेश्वरम तक
पदयात्रा करते थे, तो
वह केवल एक तीर्थ
नहीं, बल्कि उत्तर से दक्षिण तक
की सांस्कृतिक कड़ी का प्रवाह
था। आज यह परंपरा
भले ही डाक कांवड़,
खड़ी कांवड़ या दांडी कांवड़
जैसे विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो
गई हो, लेकिन उसकी
आत्मा अब भी वैसी
ही हैकृअडिग, अपराजेय और आस्थामयी।
सामाजिक समरसता और सेवा का पर्व
श्रावण मास केवल भक्ति
का पर्व नहीं, सेवा
का संगम भी है।
देश के हर कोने
में कांवड़ियों के स्वागत में
शिविर, भंडारे, चिकित्सा सेवा, जल वितरण की
व्यवस्था होती है। आमजन,
पुलिस, प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाएं
एक समान भाव से
इस महायात्रा को अपना योगदान
देती हैं। यही भारत
की सनातन शक्ति हैकृजहाँ धर्म केवल पूजा
तक सीमित नहीं, वह लोकसेवा से
जुड़ा है।
नव पीढ़ी के लिए प्रेरणा
जब बच्चे, युवा,
वृद्ध और महिलाएं भी
इस यात्रा में सम्मिलित होते
हैं, तो यह केवल
धार्मिक भावना का उत्सव नहीं,
बल्कि राष्ट्रीय एकता और जीवनमूल्यों
की पाठशाला बन जाती है।
जिस प्रकार “बम बम भोले“
का स्वर संपूर्ण शरीर
में ऊर्जा भर देता है,
उसी प्रकार यह यात्रा हर
मनुष्य में संयम, अनुशासन
और आत्मनियंत्रण की भावना भरती
है।
उत्सव नहीं, उत्सर्ग है श्रावण
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक जड़ें
उत्तर भारत से आए मारवाड़ी समाज के लोगों ने दरभंगा और मिथिला क्षेत्र में सबसे पहले इस परंपरा को आरंभ किया था। वर्षों बाद यह इतनी लोकप्रिय हुई कि अब बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बंगाल से लेकर नेपाल और असम तक लाखों कांवड़िये इसमें भाग लेते हैं। कुछ क्षेत्रों में यह परंपरा सावन के अतिरिक्त वसंत पंचमी पर भी निभाई जाती है।
कांवड़ के विविध रूप
सावन में भक्तों
की भक्ति शिव तक पहुंचने
के कई मार्गों से
होती है. डाक कांवड़,
खड़ी कांवड़, दांडी कांवड़ जैसे संकल्पों में
बंधे श्रद्धालु बोल-बम के
उद्घोष के साथ निकलते
हैं शिवधाम की ओर। कांवड़
यात्रा में एक जैसी
भक्ति जरूर होती है,
लेकिन उसके रूप और
संकल्प विभिन्न होते हैं। यहां
जानिए कांवड़ यात्रा के प्रमुख प्रकारः
1. डाक कांवड़
शिव तक बिना
रुके दौड़ते हुए पहुँचने का
संकल्प. डाक कांवड़िये उन
श्रद्धालुओं को कहते हैं
जो गंगाजल लेने के बाद
बिना रुके, लगातार दौड़ते हुए शिवधाम तक
जल चढ़ाते हैं। इनकी यात्रा
अक्सर 24 घंटे के भीतर
पूरी होती है। इस
दौरान न तो ये
भोजन करते हैं, न
ही शरीर से उत्सर्जन
की कोई क्रिया करते
हैं। संकल्प इतना कठोर होता
है कि शरीर की
थकावट भी इनकी आस्था
के आगे झुक जाती
है।
कांवड़ को जमीन पर
न रखने की कठिन
तपस्या. इस संकल्प में
कांवड़ को जमीन पर
एक पल के लिए
भी नहीं रखा जाता।
जब यात्री विश्राम करते हैं, तो
उनका साथी कांवड़ को
अपने कंधों पर चलने के
भाव में हिलाता-डुलाता
रहता है। यह गहरी
आस्था, सहयोग और संयम की
प्रतीक यात्रा है। इस दौरान
संकल्पित श्रद्धालु पूर्ण शाकाहारी रहते हैं और
किसी प्रकार के नशे या
अशुद्ध वस्तु का सेवन नहीं
करते।
3. दांडी कांवड़
धरती पर लेट-लेट कर नापते
हैं भोलेनाथ तक की दूरी.
सबसे कठिन मानी जाने
वाली यह यात्रा शरीर
की लंबाई से भूमि पर
लेट-लेट कर पूरी
की जाती है। इसे
‘दंडवत यात्रा’ भी कहा जाता
है। यह यात्रा कई
बार एक महीने तक
चलती है। नियम इतने
कठोर होते हैं कि
कांवड़ उठाने से पहले स्नान
अनिवार्य होता है, तेल,
साबुन, कंघी का उपयोग
वर्जित होता है। इस
यात्रा में भक्त शिव
का नाम लेते हुए
अपनी देह और मन
दोनों को तपाते हैं।
एक भाषा, एक स्वर : बोल बम
इस पवित्र यात्रा
की एक विशेष बात
यह भी है कि
देश के हर कोने
से आने वाले ये
श्रद्धालु केवल एक भाषा
बोलते हैंकृ‘बोल बम’।
यही इनका अभिवादन होता
है, यही पहचान। एक-दूसरे को “भोला“ या
“भोली“ कहकर पुकारना, भक्ति
का सामाजिक और आध्यात्मिक रूप
दोनों दर्शाता है।
श्रद्धा का समर्पण, आस्था का उत्सव
कांवड़ यात्रा केवल एक धार्मिक
अनुष्ठान नहीं, बल्कि आस्था की ऐसी धारा
है जो जाति, भाषा,
वर्ग, उम्र के भेद
मिटाकर सभी को शिवमय
कर देती है। यह
संकल्प, संयम और समर्पण
की पराकाष्ठा हैकृजहां शरीर थक सकता
है, लेकिन आत्मा नहीं।
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