Friday, 22 August 2025

हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की जड़ें कांग्रेस में, तो बीजेपी पर आरोप क्यों?

हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की जड़ें कांग्रेस में, तो बीजेपी पर आरोप क्यों

आजादी से पहले कांग्रेस के फैसलों ने बोया था विभाजन का बीज, वही सिलसिला आज वोट बैंक की राजनीति तक पहुंचा। हद तो जब हो गयी जब आजादी के बाद इसे त्यागने के बजाय कांग्रेस ने तुष्टिकरण को अपना चुनावी हथियार बना लिया। मतलब साफ है आजादी के बाद भी कांग्रेस ने इस गलती से सबक नहीं लिया, बल्कि उसने इसे और बढ़ाया। शाहबानो केस (1985) : जब सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का ऐतिहासिक फैसला दिया, तो कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में इसे उलट दिया। यह भारतीय न्याय व्यवस्था पर सीधा प्रहार था। वक्फ़ एक्ट : कांग्रेस ने वक्फ बोर्ड को इतनी शक्तियां दे दीं जो किसी अन्य धार्मिक संस्था के पास नहीं हैं। अल्पसंख्यक मंत्रालय : कांग्रेस ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के नाम पर योजनाओं का ऐसा जाल बुना, जिसमें बहुसंख्यक हिन्दू समाज हमेशा उपेक्षित रहा। खास यह है कि आज कांग्रेस नेतृत्व राहुल गांधी के हाथों में है। राहुल का अमेठी से चुनाव हारकर वायनाड (केरल) से चुनाव लड़ना भी एक बड़ा संकेत है। वायनाड ऐसा क्षेत्र है जहां मुस्लिम आबादी निर्णायक ही नहीं 80 फीसदी की आबादी है। इससे साफ है कि कांग्रेस अभी भी अपनी राजनीति मुस्लिम वोट बैंक पर ही आधारित रखती है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या कांग्रेस की गलतियों का ठीकरा बीजेपी पर मढ़ना राजनीतिक ढकोसला है? जबकि बीजेपी अपनी विचारधारा को राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पहचान के रूप में सामने रखती है। लेकिन उसके खिलाफ आरोप लगाया जाता है कि वह हिन्दू-मुस्लिम राजनीति करती है। सच्चाई यह है कि यह राजनीति कांग्रेस की ही देन है। बीजेपी केवल स्पष्ट रूप से अपनी विचारधारा रखती है, जबकि कांग्रेस तुष्टिकरण की आड़ में मुस्लिम राजनीति करती रही है

सुरेश गांधी

भारत के लिए जरूरी है कि वह राजनीति को तुष्टिकरण से अलग करे। कांग्रेस ने आजादी से पहले और बाद में जो गलती की, उसका खामियाजा देश ने विभाजन और दंगों के रूप में भुगता। यदि आज भी वही राजनीति जारी रही तो यह राष्ट्र की अखंडता के लिए खतरा होगी। इसलिए यह सवाल बार-बार उठाना चाहिए कि हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की जड़ें किसने बोईं? और जवाब हमेशा यही रहेगा, कांग्रेस ने। भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि आज हिन्दू-मुस्लिम राजनीति का ठीकरा अक्सर भारतीय जनता पार्टी पर फोड़ा जाता है, जबकि इस राजनीति की वास्तविक शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी। आजादी से पहले से लेकर आजादी के बाद तक कांग्रेस ने तुष्टिकरण की नीति अपनाकर बार-बार यह साबित किया कि उसका मुख्य राजनीतिक आधार मुस्लिम वोट बैंक ही रहा है। सवाल यह है कि जब बीज कांग्रेस ने बोया, तो दोष बीजेपी पर क्यों मढ़ा जा रहा है? 1909 का अलग मताधिकार : राजनीति में अलगाव की पहली दरार बनी। मोरली-मिंटो सुधारों में कांग्रेस की सहमति ने मुस्लिम लीग को राजनीतिक ताकत दी। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद 1909 में ब्रिटिश सरकार ने मोरली-मिंटो सुधार लागू किए। इसके तहत मुसलमानों को अलग चुनावी मताधिकार का अधिकार दिया गया। यह वह क्षण था जिसने भारतीय राजनीति में हिन्दू-मुस्लिम खाई की नींव रखी। कांग्रेस ने इस फैसले का विरोध करने के बजाय इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया। इस मौन सहमति ने मुस्लिम लीग को मजबूत किया और साम्प्रदायिक राजनीति को आधिकारिक दर्जा मिल गया। 

1937 के चुनाव : कांग्रेस की गलती और जिन्ना की जिद का ही परिणाम रहा कि जब कांग्रेस की बहुमत की सरकार बनी, तब मुस्लिम मतदाताओं को साधने में की गई गलतियों ने जिन्ना को अलगाव की ओर धकेला। 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकार बनी। लेकिन जिन्ना और मुस्लिम लीग को करारा झटका लगा। कांग्रेस चाहती तो मुसलमानों को समान रूप से शामिल करके उन्हें साथ ले सकती थी। लेकिन कांग्रेस नेताओं ने मुस्लिम लीग के महत्व को नकारा। इसी से मोहम्मद अली जिन्ना ने अलगाव का रास्ता चुना औरमुसलमानों के लिए अलग राष्ट्रकी विचारधारा मजबूत हुई। 1942 का क्रिप्स मिशन और कांग्रेस की असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। या यूं कहे कांग्रेस की हठधर्मिता ने जिन्ना को ब्रिटिश हुकूमत का अहम सहयोगी बना दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब 1942 में ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स मिशन भेजा, तो उसने भारत को डोमिनियन स्टेटस का प्रस्ताव दिया। कांग्रेस ने इसे खारिज कर दिया, लेकिन मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया। यह वही दौर था जब जिन्ना की मांगें जोर पकड़ने लगीं और पाकिस्तान की राह प्रशस्त हुई। कांग्रेस यदि दूरदर्शिता दिखाती तो शायद विभाजन से बचा जा सकता था। 1947 : विभाजन की त्रासदी और कांग्रेस का तुष्टिकरण का ही प्रतिफल है। नेहरू और गांधी की समझौता नीति ने भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया। आखिरकार 1947 में भारत का विभाजन हुआ। यह केवल जिन्ना की जिद का नतीजा नहीं था, बल्कि कांग्रेस की नीतियों की विफलता भी थी। गांधी और नेहरू ने मुस्लिम लीग को मनाने में अपनी पूरी ताकत झोंकी, लेकिन उनकी हर कोशिश अंततः भारत की अखंडता पर भारी पड़ी। आज़ादी तो मिली, पर खून की नदियां बहाकर।

भारत का राजनीतिक इतिहास जब-जब चर्चा में आता है, तब-तबहिन्दू-मुस्लिम राजनीतिको लेकर उंगलियां बीजेपी पर उठाई जाती हैं। परंतु यदि गहराई से देखा जाए तो इसकी जड़ें कांग्रेस के दौर में ही मिलती हैं। आजादी से पहले कांग्रेस की रणनीति, मुस्लिम लीग से उसके समझौते, और तुष्टिकरण की राजनीति ने ही जिन्ना को अलग रास्ता चुनने के लिए प्रेरित किया। सवाल यह है कि जब इतिहास खुद गवाही देता है कि इस राजनीति की शुरुआत कांग्रेस ने की, तो आज इसके लिए बीजेपी पर आरोप क्यों लगाए जा रहे हैं? जबकि जिन्ना के दौर से लेकर सोनिया-राहुल की रणनीति तक, कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण को ही बनाया अपनी ढाल। इतिहासकारों की मानें तो 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखाई। लेकिन यही चुनाव मुस्लिम लीग के लिए बड़ा झटका साबित हुए। जिन्ना ने महसूस किया कि कांग्रेस का झुकाव बहुसंख्यक हिन्दू वोटों के साथ मुस्लिम मतदाताओं को भी साधने पर है। इसीलिए वह धीरे-धीरेमुस्लिम अलगावकी राजनीति की ओर मुड़े। आजादी के बाद भी कांग्रेस ने इस वोट-बैंक की राजनीति को छोड़ा नहीं। शाहबानो केस से लेकर वक्फ़ एक्ट, और अब राहुल गांधी का वायनाड से चुनाव लड़ना, ये सब उदाहरण साबित करते हैं कि कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण को अपनी राजनीति का स्थायी आधार बना लिया है।

इतिहास गवाह है, मुस्लिम लीग की जिद कांग्रेस की गलतियों से मजबूत हुई, आज भी वही राजनीतिसेक्युलरिज़्मके नाम पर जारी है। या यूं कहे आजादी से पहले की वही गलती आज भी दोहराई जा रही है। कांग्रेस स्वयं को सेक्युलर बताती है, लेकिन असल में उसका एजेंडा मुस्लिम कार्ड पर ही आधारित रहा है। यह रणनीति केवल समाज में खाई पैदा करती है, बल्कि भाजपा पर आरोप लगाकर कांग्रेस अपने असली इतिहास से ध्यान भटकाने की कोशिश करती है। भारत को एकजुट रखने के लिए जरूरी है कि राजनीति तुष्टिकरण से ऊपर उठे। कांग्रेस ने अतीत में जो गलती की, उसके दुष्परिणाम देश ने विभाजन के रूप में झेले। आज अगर वही राजनीतिसेक्युलरिज़्मके नाम पर जारी रहती है तो यह केवल समाज में अविश्वास और तनाव को बढ़ाएगी। वे भूल रहे है कि महात्मा गांधी और पंडित नेहरू ने मुस्लिमों को साथ रखने के लिए कई रियायतें दीं। खिलाफत आंदोलन से लेकर अलग-अलग समय पर मुस्लिम समुदाय को तुष्ट करने वाली नीतियां अपनाई गईं। लेकिन विरोधाभास यह रहा कि इन नीतियों ने मुस्लिम नेतृत्व को और अधिक अलगाववादी बना दिया। आजादी की प्रक्रिया में भी कांग्रेस ने जिन्ना की मांगों के सामने परोक्ष रूप से घुटने टेके और अंततः देश का विभाजन स्वीकार किया। यानी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर सबसे बड़ा फैसला, देश को दो टुकड़ों में बांटने का, कांग्रेस के नेतृत्व में ही लिया गया।

तुष्टिकरण की राजनीति औरसेक्युलरिज़्मका चोला

आजादी के बाद कांग्रेस ने तुष्टिकरण को ही अपनी स्थायी रणनीति बना लिया। शाहबानो केस से लेकर राम जन्मभूमि आंदोलन तक, कांग्रेस की नीतियों ने हमेशा यह संदेश दिया कि उसका झुकाव मुस्लिम वोट बैंक की ओर है। सेक्युलरिज़्म के नाम पर बार-बार ऐसी नीतियां अपनाई गईं, जिससे बहुसंख्यक समाज की भावनाएं आहत हुईं और अल्पसंख्यक समाज कोविशेष संरक्षणका संदेश दिया गया। अगर कांग्रेस ने ही हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की नींव रखी, तो आज भाजपा पर आरोप क्यों लगाए जाते हैं? दरअसल, भाजपा बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आवाज़ देती है। भाजपा कहती है कि यदि मुस्लिम समाज को उनकी आस्था और पहचान के आधार पर अधिकार मिल सकते हैं, तो हिन्दू समाज को भी अपने धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा का समान हक होना चाहिए। यही बात कांग्रेस को खटकती है, और इसलिए वह भाजपा परध्रुवीकरण की राजनीतिका आरोप मढ़ती है।

आज़ादी से पहले ही बो दिया गया था विभाजन का बीज

कांग्रेस को अक्सरसर्वधर्म समभावकी पार्टी कहा गया, लेकिन सच्चाई यह है कि उसने मुस्लिमों को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति सबसे पहले शुरू की। कांग्रेस की उपेक्षा के चलते ही लीग नेदो-राष्ट्र सिद्धांतकी बात छेड़ी। यह वही समय था जब कांग्रेस को हिन्दू-मुस्लिम एकता की बजाय सत्ता पर पकड़ मजबूत करने की चिंता अधिक थी। गांधी-नेहरू का नैतिक नेतृत्व होने के बावजूद कांग्रेस संगठन ने मुस्लिम समाज को अलग पहचान देने की बजाय उन्हें असुरक्षा में धकेल दिया। नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम लीग का प्रभाव लगातार बढ़ता गया। इतिहासकार मानते हैं कि जिन्ना शुरू में धर्मनिरपेक्ष सोच रखते थे। वे भी कांग्रेस के साथ आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे। लेकिन 1920 के दशक में खिलाफ़त आंदोलन के दौरान और फिर 1937 के चुनावों में कांग्रेस की नीतियों से उन्हें आघात पहुंचा। कांग्रेस ने अलगाव की खाई को पाटने की जगह और चौड़ा कर दिया। मुस्लिम लीग को दरकिनार करना, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस का दखल और मुस्लिम समाज की वास्तविक चिंताओं की अनदेखी, ये सब कदम जिन्ना के लिए संजीवनी साबित हुए। कहा जा सकता है कि अगर कांग्रेस ने समावेशी राजनीति की होती तो शायद पाकिस्तान की मांग इतनी जोर पकड़ती।

तुष्टिकरण बनाम राष्ट्रहित

कांग्रेस ने आज़ादी से पहले भी और बाद में भी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को कभी छोड़ा नहीं। आज़ादी के तुरंत बाद अल्पसंख्यकों को लेकर विशेष नीतियां बनाई गईं, जबकि बहुसंख्यक हिन्दू समाज की अपेक्षाओं की अनदेखी होती रही। धीरे-धीरे यहसेक्युलरिज्मका लेबल पहनकर वोट बैंक राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बन गया। बीजेपी पर अक्सर आरोप लगता है कि वह हिन्दू भावनाओं को भुनाती है, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने ही सबसे पहले धार्मिक आधार पर राजनीति शुरू की थी। कांग्रेस की रणनीति हमेशा से रही, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कर सत्ता पाना।

वायनाड की राजनीति : कांग्रेस का मुस्लिम कार्ड

कांग्रेस की राजनीति का मौजूदा चेहरा भी इसी तुष्टिकरण की गवाही देता है। राहुल गांधी का चुनावी क्षेत्र वायनाड इसका बड़ा उदाहरण है। वायनाड 80 फीसदी से अधिक मुस्लिम बहुल इलाका है। सवाल यह उठता है कि क्या राहुल गांधी को यह सीट केवल इसलिए सुरक्षित लगी क्योंकि वहाँ उन्हें मुस्लिम वोट बैंक का भरोसा था? इतिहास और वर्तमान, दोनों मिलकर यही साबित करते हैं कि कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम कार्ड का इस्तेमाल किया। जिन्ना से लेकर सोनिया-राहुल तक यही परंपरा चली रही है। कहा जा सकता है भारत का विभाजन केवल जिन्ना की जिद का परिणाम नहीं था, बल्कि कांग्रेस की गलतियों और तुष्टिकरण की राजनीति का भी नतीजा था। आज जब बीजेपी पर धार्मिक राजनीति का आरोप लगाया जाता है तो यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि क्या हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की बुनियाद रखने वाली कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से बच सकती है?

जिन्ना की राजनीति और कांग्रेस की भूमिका

जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष नेता थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार माने जाते थे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस ने मुस्लिम नेताओं को बराबरी का स्थान नहीं दिया, तो उन्होंने मुस्लिम लीग को मजबूत करने का रास्ता चुना। 1940 केलाहौर प्रस्तावने पाकिस्तान की नींव रखी। इतिहासकार मानते हैं कि अगर कांग्रेस मुस्लिमों को अपने साथ जोड़ने में ईमानदार होती तो जिन्ना को अलगाव का रास्ता नहीं मिलता।

गांधी-नेहरू की नीतियां और तुष्टिकरण

कांग्रेस नेतृत्व ने मुस्लिमों के प्रति दोहरी नीति अपनाई। एक ओर वे हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे, दूसरी ओर मुस्लिम लीग के दबाव में बार-बार झुकते भी थे। 1946 में अंतरिम सरकार के गठन के समय भी कांग्रेस ने मुस्लिमों को अलग पहचान देने वाली रियायतें दीं, जिसने विभाजन को और पुख्ता किया।

विभाजन : ऐतिहासिक भूल या राजनीतिक रणनीति?

1947 में देश का विभाजन हुआ। यह केवल जिन्ना की जिद का परिणाम नहीं था, बल्कि कांग्रेस की उस नीति का भी परिणाम था जिसने मुस्लिम तुष्टिकरण और अलगाव को बढ़ावा दिया। गांधी और नेहरू, दोनों नेताओं ने ब्रिटिश दबाव और तत्कालीन परिस्थितियों में समझौता किया, लेकिन उसकी कीमत देश को लाखों बेकसूरों की जान और स्थायी बंटवारे के रूप में चुकानी पड़ी। खास यह है कि राजनीति में वोट बैंक का अर्थ केवल धर्म और जाति से जोड़ दिया गया। यह वही सिलसिला है, जो जिन्ना से शुरू हुआ और आज तक जारी है। मतलब साफ है कांग्रेस ने जिस राजनीति की नींव रखी, उसी पर आज तक देश की चुनावी रणनीतियां खड़ी हैं। फर्क केवल इतना है कि बीजेपी इसे खुले तौर पर कहती है और कांग्रेस इसे छिपाकर वोट बैंक की राजनीति करती है।  शाहबानो केस में कांग्रेस सरकार ने कोर्ट के फैसले को पलटकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में झुक गई। उर्दू और मदरसों को बढ़ावा देने की नीतियां, हज सब्सिडी जैसे कदम भी कांग्रेस कीसेक्युलरराजनीति की असलियत को उजागर करते हैं। कश्मीर में धारा 370 को बचाए रखने में भी कांग्रेस की यही सोच काम कर रही थी। भारतीय राजनीति में हिन्दू मुस्लिम विभाजन की चर्चा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में थी। जब भी भाजपा पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह हिन्दू मुस्लिम के नाम पर राजनीति करती है, तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है, क्या यह सिलसिला भाजपा से शुरू हुआ, या इसकी जड़ें कांग्रेस की नीतियों में ही गहरी दबी हुई हैं? इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन बताता है कि इस देश में धर्म आधारित राजनीति की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी और आज भी उसका सिलसिला वायनाड जैसे उदाहरणों से जारी है। कांग्रेस का राजनीतिक चरित्र शुरू से ही दोहरेपन से भरा रहा। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन (1919-24) का समर्थन करके मुस्लिम तुष्टिकरण की आधारशिला रखी। यह आंदोलन पूरी तरह धार्मिक था, जिसका भारत की आज़ादी से सीधा संबंध नहीं था। मगर गांधीजी ने सोचा कि मुसलमानों को खुश करके आज़ादी की लड़ाई में साथ लिया जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि जिन्ना जैसे नेता किनारे हो गए और मुस्लिम लीग को अपने लिए जमीन मिल गई। यही रणनीति आगे चलकर जिन्ना की मांग को मजबूत कर गई कि मुसलमानों का अलग राष्ट्र होना चाहिए।

अंग्रेज़ों की चाल

ब्रिटिश साम्राज्य ने हमेशाफूट डालो और राज करोकी नीति अपनाई। 1932 का कम्युनल अवॉर्ड मुसलमानों और दलितों को अलग निर्वाचन देकर हिन्दू मुस्लिम खाई को और चौड़ा कर गया। यही खाई 1940 के दशक में दंगों और विभाजन में बदल गई।

एक नजर

विभाजन की टाइमलाइन (1906 से 1947)

1906 : मुस्लिम लीग का गठन (ढाका)

1916 : कांग्रेस लीग लखनऊ समझौता

1920 : गांधी का खिलाफत आंदोलन समर्थन

1932 : कम्युनल अवॉर्ड अलग निर्वाचन

1937 : प्रांतीय चुनाव में कांग्रेस ने लीग को सत्ता में शामिल नहीं किया

1940 : लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव आया

1942 : भारत छोड़ो आंदोलन में लीग अंग्रेज़ों के साथ रही

1946 : दंगे और कैबिनेट मिशन की असफलता

1947 : भारत का विभाजन और आज़ादी

No comments:

Post a Comment

हरतालिका तीज : शिव-पार्वती के मिलन की अमरगाथा

हरतालिका तीज : शिव - पार्वती के मिलन की अमर गाथा ,  सुहाग का संकल्प, अखंड सौभाग्य का व्रत  हरतालिका तीज , शिव - पार्वती की अनंत ...