तुष्टिकरण की राजनीति में उलझा विपक्ष, भाजपा की नैया का खेवनहार
बिहार विधानसभा चुनाव का आधिकारिक बिगुल भले ही अभी न बजा हो, मगर सियासी रणभूमि सज चुकी है। विपक्षी खेमे में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जिस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, उससे साफ़ झलकता है कि उनकी रणनीति वही पुरानी है, जातिवाद और तुष्टिकरण। धीरे-धीरे माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि चुनाव आते-आते बिहार की राजनीति भी दिल्ली, यूपी और महाराष्ट्र की तर्ज पर बांटो और काटो की पटरी पर दौड़ने लगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह फार्मूला इस बार काम करेगा या उल्टा विपक्ष के लिए हार का कारण बनेगा? बता दें, हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव 2024 बिहार में कुल 40 सीटों में से 30 से अधिक पर भाजपा-जदयू गठबंधन ने जीत दर्ज की। कांग्रेस और राजद के हिस्से सिर्फ मुट्ठीभर सीटें आईं। यह परिणाम इस बात का सबूत है कि जनता ने जातिवादी नारों से ज्यादा भरोसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास और सुशासन की राजनीति पर जताया। यानी, बिहार की जनता जाति और धर्म के चश्मे से परे, अब विकास और स्थिरता चाहती है। जबकि राहुल-तेजस्वी उसी पुराने ढर्रे पर है। पिछले कुछ हफ्तों में कांग्रेस और राजद की संयुक्त रैलियों में जो भाषा और नारे लगे, वे बेहद निंदनीय और अमर्यादित थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जिस तरह अभद्र और अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया गया, उसने विपक्ष का असली चेहरा उजागर कर दिया
सुरेश गांधी
बिहार की राजनीति फिर
एक बार गरमाई हुई
है। चुनाव आयोग ने भले
ही आधिकारिक तारीख़ का ऐलान नहीं
किया है, लेकिन राजनीति
की गर्माहट मैदान में उतर चुके
नेताओं के तेवरों से
साफ झलकने लगी है। सड़कों
से लेकर संसद तक
हर ओर चुनावी माहौल
साफ दिखाई दे रहा है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष
दोनों ओर से जोड़तोड़,
गठजोड़, आरोप-प्रत्यारोप और
यहां तक कि गाली-गलौज जैसी अमर्यादित
घटनाएं माहौल को और गरमा
रही हैं। नेताओं की
बयानबाज़ी, मंचों से गूंजते नारे,
और सोशल मीडिया पर
तेज़ होती बहस इस
बात का संकेत दे
रहे हैं कि मुकाबला
अब सिर्फ राजनीतिक दलों का नहीं,
बल्कि दो विचारधाराओं का
है। एक ओर भाजपा
और एनडीए है, जो विकास,
सुशासन और स्थिरता की
राजनीति की बात कर
रहा है। वहीं दूसरी
ओर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव
का विपक्ष है, जो अपनी
नैया मुस्लिम वोटों और जातीय समीकरणों
के सहारे पार करने की
कोशिश करता दिखाई दे
रहा है। सवाल यही
है कि क्या बिहार
की जनता एक बार
फिर जातिवादी तुष्टिकरण के जाल में
फँसेगी या विकास की
राह पर चलने वाले
नेतृत्व को प्राथमिकता देगी?
खिचड़ी
है, जिसे चुनावी मौसम
में उबाल तक ले
जाने की योजना है।
यह अलग बात है
कि भाजपा ने पिछले एक
दशक में बिहार में
सड़क, बिजली, इंफ्रास्ट्रक्चर और डिजिटल इंडिया
जैसे एजेंडे पर काम किया
है। नीतीश कुमार के साथ गठबंधन
ने कानून-व्यवस्था और बुनियादी ढांचे
को मजबूत करने की दिशा
में कुछ ठोस कदम
भी उठाए। 2024 लोकसभा नतीजों ने साफ कर
दिया है कि जनता
जातिवादी समीकरणों से ऊपर उठकर
विकास और स्थिरता को
तरजीह दे रही है।
यही कारण है कि
भाजपा आज भी बिहार
की सबसे बड़ी पार्टी
बनकर उभर रही है।
बिहार में गूंजेगा वही सवाल : जाति या काम?
जैसे-जैसे चुनावी तारीख नज़दीक आएगी, बिहार में भी जातीय नारे और तुष्टिकरण की राजनीति का शोर बढ़ेगा। एक तरफ “न्याय” और “आरक्षण” के नाम पर वोटरों को बांटने की कोशिश होगी। दूसरी ओर भाजपा “विकसित बिहार” और “सबका साथ, सबका विकास” का नारा बुलंद करेगी। लेकिन यह तय है कि जनता अब पुराने जाल में इतनी आसानी से फंसने वाली नहीं। 2024 के लोकसभा चुनाव ने साफ़ कर दिया कि जातिवादी बयार अब भाजपा की जीत का कारण भी बन सकती है, क्योंकि जनता जातीय अपील को ठुकराकर भाजपा को वोट दे रही है। बिहार की राजनीति का रंग बदल रहा है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव भले ही तुष्टिकरण और जातिवाद की सियासत से चुनावी जुगाड़ करना चाहें, लेकिन बिहार की जनता ने अब तय कर लिया है कि जातिवाद से विकास की ओर बढ़ना है। भाजपा-एनडीए इस समय बिहार की जनता के बीच स्थिर नेतृत्व, विकास की योजनाएँ और प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीयता के दम पर कहीं अधिक मजबूत स्थिति में है।
इस बार का चुनाव केवल सत्ता की होड़ नहीं होगा, बल्कि यह तय करेगा कि बिहार फिर जातिवाद में उलझेगा या विकास के पथ पर आगे बढ़ेगा। मतलब साफ है बिहार में बांटो-काटो की राजनीति बनाम विकास का संग्रामः तुष्टिकरण से जीत नहीं, जनता अब काम चाहती है. हालांकि बिहार में कांग्रेस और राजद का गठजोड़ नया नहीं है। दोनों दल वर्षों से एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव) के सहारे चुनाव जीतने की रणनीति अपनाते रहे हैं। यही फॉर्मूला एक बार फिर विपक्षी खेमे का मुख्य आधार है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव का हालिया बयानबाज़ी साफ करती है कि उनका लक्ष्य केवल मुस्लिम वोट बैंक को साधना है। विभिन्न रैलियों और जनसभाओं में विपक्षी नेता लगातार अल्पसंख्यक समाज के मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं। यहां तक कि सामान्य और पिछड़े वर्गों के वास्तविक मुद्दे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य कहीं पीछे छूट जाते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि बिहार में लगभग 16-17 फीसदी मुस्लिम वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं। विपक्ष की पूरी कोशिश है कि ये वोट पूरी तरह से महागठबंधन के खाते में जाएं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ 16 फीसदी वोट के सहारे शासन बदलना संभव है?भाजपा का पलटवार : जातिवाद बनाम विकास का नैरेटिव
भाजपा और एनडीए ने विपक्ष की इस रणनीति को भांप लिया है। भाजपा लगातार यह संदेश देने में जुटी है कि विपक्ष की राजनीति सिर्फ जातिवाद और तुष्टिकरण तक सीमित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय नेतृत्व यह रेखांकित कर रहे हैं कि बिहार की जनता अब जाति की बेड़ियों से बाहर निकल चुकी है और उसका मुख्य मुद्दा है, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधाएं, भ्रष्टाचार और सुशासन. नीतीश कुमार भले ही कई बार आलोचना के घेरे में आए हों, लेकिन भाजपा यह दिखाने में सफल रही है कि 2005 से पहले के ‘जंगलराज’ की तुलना में बिहार में व्यवस्था में स्थिरता और प्रशासनिक पकड़ आई है। यही वह बिंदु है जिसे भाजपा चुनावी हथियार बनाकर विपक्ष पर भारी पड़ सकती है।
सर्वे रिपोर्ट्स : हवा किस ओर?
हाल के सर्वेक्षणों
से दिलचस्प तस्वीर उभर रही है।
सी-वोटर सर्वे (जुलाई
2025) : भाजपा और एनडीए को
43 फीसदी वोट शेयर, जबकि
महागठबंधन को 38 फीसदी वोट शेयर मिलने
का अनुमान।
लोकनीति-सीएसडीएस
(अगस्त
2025) : लगभग 58 फीसदी युवा मतदाता विकास
और रोज़गार को प्राथमिकता देते
हैं, जबकि सिर्फ 19 फीसदी
जातीय समीकरण को चुनाव का
मुद्दा मानते हैं।
टीवी9
- भारतवर्ष
पोल
: विपक्षी खेमे में राहुल
गांधी की लोकप्रियता बेहद
कम, जबकि तेजस्वी यादव
सीमित इलाकों में ही प्रभावी।
इन सर्वे रिपोर्ट्स से साफ संकेत
मिलता है कि विपक्ष
की जातीय राजनीति बिहार की बदलती सामाजिक
सोच के सामने कमजोर
पड़ सकती है।
तुष्टिकरण की राजनीति : पुराना फार्मूला, नई बोतल
बिहार की राजनीति में
तुष्टिकरण नया नहीं है।
1989 के भागलपुर दंगे से लेकर
लालू-राबड़ी शासनकाल तक, मुस्लिम वोटों
को साधने के लिए कई
तरह के राजनीतिक प्रयोग
किए गए। 1990 के दशक में
लालू यादव ने खुलकर
एमवाई समीकरण को हथियार बनाया
और कई बार सफलता
भी पाई। लेकिन 2005 के
बाद से धीरे-धीरे
जनता का रुझान विकास
और सुशासन की ओर बढ़ा।
आज की पीढ़ी इस
इतिहास को भलीभाँति जानती
है। यही वजह है
कि महागठबंधन के लिए केवल
तुष्टिकरण के सहारे आगे
बढ़ना जोखिम भरा दांव साबित
हो सकता है।
जनता की नब्ज़ : जातिवाद नहीं, काम चाहिए
बिहार की सामाजिक संरचना
में जाति का महत्व
जरूर है, लेकिन पिछले
दो दशकों में यह प्रभाव
धीरे-धीरे कमजोर पड़ा
है। महिलाएं अब सुरक्षा और
कल्याण योजनाओं को प्राथमिकता देती
हैं। युवा रोजगार और
शिक्षा को लेकर सजग
हैं। किसान और मज़दूर वर्ग
सरकारी योजनाओं की जमीनी हकीकत
पर ध्यान देता है। यह
वर्ग विपक्ष की जातिवादी राजनीति
से दूर होता जा
रहा है। यही कारण
है कि भाजपा लगातार
जन कल्याणकारी योजनाओं को केंद्र में
रखकर प्रचार कर रही है।
क्या विपक्षी दांव उल्टा पड़ेगा?
तेजस्वी यादव और राहुल
गांधी का यह सोचना
कि मुस्लिम यादव समीकरण के
सहारे वे सत्ता हासिल
कर लेंगे, शायद एक भ्रम
साबित हो। यादव वोटबैंक
का एक बड़ा हिस्सा
अब विभाजित हो चुका है।
अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और दलित समुदाय
भाजपा और जदयू की
ओर आकर्षित हैं। मुस्लिम वोट
भले ही विपक्ष के
साथ जाएं, लेकिन अन्य वर्गों का
झुकाव भाजपा के पक्ष में
चुनावी नतीजों को निर्णायक बना
सकता है। यानी विपक्ष
का तुष्टिकरण दांव उल्टा पड़
सकता है। कहा जा
सकता है जातिवादी बयार
भाजपा को फायदा पहुंचा
सकती है. बिहार चुनाव
का असली मुद्दा यह
होगा कि जनता किसे
चुनती है, विपक्ष का
तुष्टिकरण और जातिवाद या
भाजपा का विकास और
सुशासन. अब तक के
हालात और सर्वे यही
बताते हैं कि राहुल
गांधी और तेजस्वी यादव
की रणनीति भाजपा को और मज़बूत
कर रही है। जनता
को यह साफ दिख
रहा है कि विपक्ष
सिर्फ मुस्लिम वोटों और जातीय समीकरणों
पर टिका है, जबकि
भाजपा एक समावेशी विकास
मॉडल का वादा कर
रही है। मतलब साफ
है विपक्ष की यही मुस्लिम
जातीय निर्भरता भाजपा के लिए जीत
का कारण बन सकती
है।
खोखले वादे, खोखली ज़मीन
राहुल गांधी का बिहार दौरा
और उनके भाषण बताते
हैं कि कांग्रेस के
पास कोई ठोस मुद्दा
नहीं है। बेरोज़गारी, शिक्षा
और विकास जैसे सवाल उठाने
के बजाय वे बार-बार सिर्फ जातीय
न्याय और अल्पसंख्यक अधिकारों
की बात करते हैं।
यह साफ़ झलकाता है
कि उनकी राजनीति ‘वोट
बैंक मैनेजमेंट’ से आगे नहीं
बढ़ पाई। तेजस्वी यादव
खुद को बदलाव का
चेहरा बताते हैं, लेकिन उनके
पीछे लालू-राबड़ी शासन
की विरासत ही सबसे बड़ी
बाधा है। जनता भली-भांति जानती है कि 15 वर्षों
के शासन ने बिहार
को पिछड़ेपन की अंधेरी खाई
में धकेला था। आज जब
तेजस्वी राहुल गांधी के साथ मंच
साझा कर बार-बार
मुस्लिम तुष्टिकरण और जातीय समीकरणों
की चर्चा करते हैं, तो
मतदाताओं को 90 का वह दौर
याद आता है जिसे
वे भूलना ही चाहते हैं।
बिहार की जनता अब
जातिवाद और तुष्टिकरण के
चक्रव्यूह से निकलना चाहती
है। युवा रोजगार चाहता
है, किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, महिलाएँ
सुरक्षा और सम्मान, और
सामान्य जनता स्थिर शासन।
यही कारण है कि
विपक्ष का पुराना ‘एम-वाई फार्मूला’ आज
उतना असरदार नहीं रह गया।
राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा” और विवाद
राहुल गांधी ने बिहार में
अपनी “वोटर अधिकार यात्रा”
की शुरुआत की। उन्होंने दावा
किया कि 65 लाख गरीब मतदाताओं
के नाम वोटर लिस्ट
से गायब कर दिए
गए हैं, और यही
चुनावी धांधली का बड़ा प्रमाण
है। इस यात्रा में
उनके साथ तमिलनाडु के
मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन
और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत
रेड्डी भी शामिल हुए।
विपक्ष इसे लोकतंत्र बचाने
का प्रयास बता रहा है,
जबकि भाजपा इसे बाहरी नेताओं
की घुसपैठ और बिहारी अस्मिता
पर चोट करार दे
रही है। यात्रा के
दौरान राहुल गांधी ने जातिगत समीकरणों
पर भी अप्रत्यक्ष रूप
से जोर दिया। लेकिन
बिहार की राजनीति में
यह समीकरण अब उतने निर्णायक
नहीं दिख रहे, जितने
दो दशक पहले हुआ
करते थे।
भाजपा की चुनावी रणनीति : संगठन और सुशासन का भरोसा
भाजपा और उसके सहयोगी
(एनडीए) पहले ही चुनावी
मोड में आ चुके
हैं। विधानसभा-वार कार्यकर्ता सम्मेलन
28 से 30 अगस्त और 3 से 8 सितंबर
तक चलेंगे। 38 जिलों में प्रेस कॉन्फ्रेंस
और 14 टीमें लगातार विपक्ष के आरोपों का
जवाब देंगी। मुख्य फोकस होगा, विकास,
रोज़गार, सड़क-योजना और
महिला कल्याण। भाजपा का आत्मविश्वास इस
बात पर टिका है
कि बिहार की जनता अब
केवल जातिवाद के चश्मे से
राजनीति नहीं देख रही।
महिला वोटर, 60$ आयु वर्ग और
अग्रगामी जातियों में भाजपा की
स्थिति मजबूत मानी जा रही
है।
मतदाता सूची सुधार (एसआईआर)
ईलेक्शन कमीशन की विशेष गहन
संशोधन प्रक्रिया (स्पेशल इंसेंटिव रिवीजन) बिहार में वोटर लिस्ट
को अपडेट करने का काम
कर रही है। विपक्ष
इसे चुनावी हथियार बताता है, कहता है
कि गरीब और वंचितों
को वोटर सूची से
हटाया जा रहा है।
राहुल गांधी ने चुनाव आयोग
और भाजपा पर “गुजरात मॉडल“
की तर्ज पर चुनाव
चुराने का आरोप लगाया
है. दूसरी ओर, चुनाव आयोग
ने दावा किया है
कि बिहार में 99.11 प्रतिशत वोटरों ने दस्तावेज जमा
कर दिए हैं, जिससे
प्रक्रिया का पारदर्शी और
लोकतांत्रिक होना स्पष्ट होता
है।
वोटर अधिकार यात्रा
राहुल गांधी ने अगस्त 2025 में
बिहार में 1,300 से अधिक किमी
की पदयात्रा शुरू की, यह
यात्रा 20 से अधिक जिलों
से होकर गुजर रही
है, संविधान और लोकतंत्र की
रक्षा का आह्वान करते
हुए। राहुल ने आरोप लगाया
कि यह यात्रा “जनता
की आवाज़“ है और इसे
भाजपा और चुनाव आयोग
द्वारा निर्धारित मताधिकार के खिलाफ षड्यंत्र
कहा है।
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