Monday, 1 September 2025

कपास पर शून्य शुल्क और वस्त्रों पर 50 फीसदी टैरिफ, घाटे में किसान

कपास पर शून्य शुल्क और वस्त्रों पर 50 फीसदी टैरिफ, घाटे में किसान  

भारत की टेक्सटाइल और कालीन इंडस्ट्री इस समय अभूतपूर्व दबाव में है। एक तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी कपास आयात पर शुल्क 0 फीसदी कर दिया है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने भारतीय वस्त्रों कालीनों पर 50 फीसदी तक का टैरिफ़ ठोंक दिया है। यह स्थिति केवल कपास के भारतीय किसानों बल्कि टेक्सटाइल-कार्पेट निर्यातकों के लिए भी भारी संकट खड़ा कर रही है। मतलब साफ है अमेरिकी टैरिफ़ और भारतीय नीतिगत ढील का यह टकराव देश की टेक्सटाइल और कालीन इंडस्ट्री को संकट के मुहाने पर खड़ा कर रहा है। किसान, बीज कंपनियां, बुनकर, कारीगर और निर्यातक, सभी नुकसान में हैं। खासकर तब जब अमेरिका अपने किसानों और उद्योग की रक्षा कर रहा है, जबकि भारत की नीतियों का बोझ सबसे ज़्यादा स्वदेशी किसान और कारीगर झेल रहे हैं। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या भारत अपनी टेक्सटाइल और कालीन इंडस्ट्री को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बचा पाएगा, या फिर यह गौरवशाली उद्योग भी वैश्विक व्यापारिक राजनीति की भेंट चढ़ जाएगा

सुरेश गांधी

भारत में कपास और टेक्सटाइल उद्योग केवल व्यापार नहीं, बल्कि रोजगार, संस्कृति और आत्मनिर्भरता का बड़ा स्तंभ है। देश में 6 करोड़ से अधिक लोग सीधे और परोक्ष रूप से टेक्सटाइल कारपेट सेक्टर से जुड़े हैं। लेकिन हाल के दिनों में अमेरिका और भारत के बीच टैरिफ विवाद ने इस पूरे सेक्टर को असमंजस में डाल दिया है। अमेरिका ने भारतीय वस्त्रों पर 50 फीसदी टैरिफ लगाया, जबकि भारत ने अमेरिकी कपास पर 0 फीसदी आयात शुल्क कर दिया। सवाल यह है कि इस असमान व्यापार नीति का सीधा नुकसान किसे हो रहा है? जवाब है भारतीय किसान, बुनकर और इक्सपोर्टर। बता दें, भारत कपास उत्पादन में विश्व का सबसे बड़ा देश है। कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 7 फीसदी हिस्सा कपास की खेती में है। करीब 60 लाख किसान प्रत्यक्ष रूप से कपास उगाते हैं। कपास आधारित वस्त्र उद्योग देश के कुल निर्यात का 12-14 फीसदी योगदान देता है। कारपेट, डेनिम, घरेलू परिधान और हैंडलूम सेक्टर में कपास का उपयोग अत्यधिक है। 

मतलब साफ है कपास केवल एक फसल नहीं, बल्कि गांव से शहर तक रोजगार की रीढ़ है। अमेरिका नेट्रंप टैरिफके दौर से ही भारतीय कपड़ा उद्योग को निशाना बनाया। भारतीय कारपेट, टेक्सटाइल और गारमेंट्स पर भारी शुल्क लगाया गया। वहीं भारत ने डब्ल्यूटीओं में टकराव से बचने के लिए अमेरिकी कपास पर 0 फीसदी आयात शुल्क लागू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि भारतीय बाजार में सस्ता अमेरिकी कपास आकर घरेलू किसानों को नुकसान पहुंचाने लगा। यह अलग बात है कि मोदी सरकारस्वदेशीऔरवोकल फॉर लोकलका नारा देती रही है। लेकिन हकीकत में किसान के कपास की कीमत एमएसपी के करीब भी नहीं पहुंच पा रही। भारतीय बीज कंपनियां इस बार बीज लेकर खड़ी रह गईं, क्योंकि विदेशी कंपनियां और अवैध बाजार ने सस्ते बीज बेच दिए। किसान यह तय नहीं कर पा रहा कि उसकी उपज खरीदी जाएगी या विदेशी माल से प्रतिस्पर्धा करनी होगी। यह विरोधाभास आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को कमजोर करता है।

टेक्सटाइल और कारपेट इंडस्ट्री की हालत

भारतीय टेक्सटाइल सेक्टर पहले ही चीन, वियतनाम और बांग्लादेश से मुकाबला कर रहा है। अब अमेरिकी टैरिफ ने हालत और बिगाड़ दी है। भारत की कारपेट इंडस्ट्री मुख्यतः भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी और आगरा से जुड़ी है। यह सेक्टर 90 फीसदी निर्यात आधारित है। अमेरिकी बाजार भारत के कारपेट निर्यात का 60 फीसदी हिस्सा है। अमेरिकी टैरिफ के कारण भारतीय कारपेट अब महंगे पड़ रहे हैं, जिससे ऑर्डर घट रहे हैं। कुछ ऐसा ही टेक्सटाइल इंडस्ट्री का हैया यूं कहे कपास आधारित गारमेंट्स, डेनिम और होम टेक्सटाइल्स की सबसे बड़ी मार्केट अमेरिका है। अमेरिकी टैरिफ ने भारतीय एक्सपोर्टर को पीछे धकेल दिया। निर्यातक संघों का कहना है कि इस साल तकरीबन 20 फीसदी ऑर्डर चीन वियतनाम को शिफ्ट हो गए। 

घरेलू बाजार की चुनौती

अमेरिकी कपास जब 0 फीसदी शुल्क पर भारत में आता है, तो भारतीय स्पिनिंग मिल्स और टेक्सटाइल कंपनियां उसी को खरीदने लगती हैं। किसानों का कपास अनसोल्ड रह जाता है। मंडियों में दाम गिर जाते हैं। भारतीय उत्पादक बीज कंपनियां घाटे में जाती हैं। यानी किसान से लेकर कंपनियों तक, हर स्तर पर विदेशी कपास को बढ़ावा और स्वदेशी को नुकसान।

भारत के लिए रणनीतिक विकल्प

भारत को कपास और टेक्सटाइल सेक्टर बचाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, इसके लिए शुल्क नीति में संतुलन करते हुए अमेरिकी कपास पर 0 फीसदी शुल्क की जगह 10-15 फीसदी शुल्क लगाएं, ताकि किसानों को सुरक्षा मिले। ब्रांडिंग और लेबलिंग के मामले मेंमेड इन इंडिया कॉटनकी अलग ब्रांडिंग और प्रमाणन हो, जिससे खरीदार पहचान सके कि कपड़ा भारतीय किसान का है। किसानों को एमएसपी सुरक्षा के तहत मंडियों में कपास का दाम कभी भी एमएसपी से नीचे जाने दिया जाए। टेक्सटाइल एक्सपोर्ट इंसेंटिव के लिए कारपेट और गारमेंट निर्यातकों को अतिरिक्त सब्सिडी और टैक्स रिबेट दिया जाए। फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स के तहत भारत को यूरोप, जापान और दक्षिण एशिया के साथ नए समझौते करने होंगे ताकि अमेरिकी दबाव का असर कम हो।

कारपेट उद्योग का सांस्कृतिक पक्ष

भारतीय कारपेट केवल व्यापार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर है। भदोही और वाराणसी के कालीनों को जीआई टैग प्राप्त है। 

यह उद्योग लाखों कारीगरों, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं और कुटीर उद्योग पर आधारित है। 

यदि अमेरिकी टैरिफ और विदेशी कपास का दबाव बढ़ता है, तो यह धरोहर भी संकट में पड़ सकती है।

वैश्विक प्रतिस्पर्धा और भारत का भविष्य

चीन, वियतनाम और बांग्लादेश पहले ही सस्ते लेबर और एफटीए लाभ के कारण आगे हैं। यदि भारत ने किसानों और बुनकरों की सुरक्षा नहीं की, तो यह सेक्टर रोजगार संकट और वैश्विक प्रतिस्पर्धा दोनों में पिछड़ सकता है। ताजा स्थिति यह है कि किसान अपनी उपज के दाम को लेकर असुरक्षित है। बीज कंपनियां अवैध बाजार से परेशान हैं। कारपेट और टेक्सटाइल निर्यातक अमेरिकी टैरिफ से दबाव में हैं। और सरकार अमेरिकी दबाव के चलते अपनी नीति में विरोधाभास पैदा कर रही है। ऐसे में भारत यदि सचमुच आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी के मंत्र को अपनाना चाहता है, तो कपास, कारपेट और टेक्सटाइल सेक्टर को अमेरिकी दबाव से बचाना ही होगा। क्योंकि सवाल सिर्फ व्यापार का नहीं, बल्कि गांव के किसान और शहर के बुनकर की रोज़ी-रोटी का है।  यही भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति की आत्मा है। 

अमेरिकी टैरिफ़ बनाम भारतीय

टेक्सटाइल और कालीन उद्योग

मोदी सरकार का तर्क है कि अमेरिकी कपास आयात से घरेलू कपड़ा मिलों को सस्ता कच्चा माल मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि जब तैयार भारतीय कपड़े और कालीनों पर अमेरिका 50 फीसदी ड्यूटी लगा रहा है, तो घरेलू उद्योग को सस्ते कच्चे माल का लाभ कैसे मिलेगा? उलटे बाजार में विदेशी कपास घुसने से भारतीय किसान को अपनी फसल बेचने में मुश्किल हो रही है।

टेक्सटाइल उद्योग पर दोहरी मार

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा टेक्सटाइल निर्यातक है। वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर जैसे केंद्र कालीन और हैंडलूम निर्यात का गढ़ हैं। अमेरिकी टैरिफ़ से भारतीय कालीन और कपड़ों की कीमतें अमेरिका में महंगी हो जाएंगी। इसका सीधा असर ऑर्डरों में कमी और निर्यात में गिरावट के रूप में दिखेगा। छोटे-छोटे बुनकर, कारीगर और निर्यातक इसका सबसे ज़्यादा नुकसान झेलेंगे।

कालीन उद्योग की त्रासदी

भारतीय हैंडमेड कालीन अपनी कला और गुणवत्ता के लिए विश्वप्रसिद्ध हैं। अमेरिका इस समय भारतीय कालीनों का सबसे बड़ा बाज़ार है। लेकिन 50 फीसदी टैरिफ का मतलब है कि वही कालीन अमेरिकी ग्राहकों को दुगने दाम में मिलेगा। नतीजतन अमेरिकी ख़रीदार तुर्की, ईरान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कालीनों की ओर झुक सकते हैं। वाराणसी और भदोही के कारीगरों का काम सीधे प्रभावित होगा। पहले से ही घटते निर्यात को यह नीति काला झटका साबित कर सकती है।

किसान और बीज कंपनियों की समस्या

इस समय एक और गंभीर संकट है, अवैध और सस्ते विदेशी कपास बीजों की बाढ़। भारतीय कंपनियों के पास पड़ा बीज इस बार नहीं बिका। सस्ते विदेशी बीज से किसान भी ठगे गए और घरेलू बीज उद्योग भी चौपट हुआ। नतीजाः किसान और उद्योग दोनों हाशिए पर।

अमेरिका कीडबल पॉलिसी

अमेरिका चाहता है कि भारत उनके कपास को आयात करे, ताकि अमेरिकी किसानों को फायदा मिले। लेकिन जब भारतीय तैयार कपड़ा और कालीन अमेरिका पहुँचते हैं तो उस पर टैरिफ़ लगाकर उसे गैर-प्रतिस्पर्धी बना देता है। यानी अमेरिकाविन-विनऔर भारतलॉस-लॉसकी स्थिति में फंसा हुआ है।

स्वदेशी बनाम वैश्विक दबाव

मोदी जीस्वदेशी कपड़ा और आत्मनिर्भर भारतकी बात करते हैं। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर जब विदेशी कपास बाजार में सस्ता उपलब्ध होगा तो मिल मालिक और कंपनियां वही खरीदेंगी। उपभोक्ता के लिए यह पहचानना असंभव है कि उनके कपड़े में भारतीय कपास है या अमेरिकी। इसका सीधा असर किसान पर पड़ेगा, क्योंकि उसके कपास का दाम और मांग दोनों गिरेंगे।

समाधान क्या हो सकता है?

1. सरकार को अमेरिकी टैरिफ़ के खिलाफ डब्ल्यूटीओ या द्विपक्षीय वार्ता में ठोस कदम उठाना होगा।

2. भारतीय टेक्सटाइल और कालीन निर्यातकों को विशेष प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए।

3. अवैध और सस्ते विदेशी बीजों पर कड़ी निगरानी हो।

4. “स्वदेशी कपासका प्रमाणन और लेबलिंग सिस्टम बने, ताकि उपभोक्ता पहचान सके कि उसका कपड़ा भारतीय किसान की मेहनत से बना है।

5. निर्यातकों के लिए टैक्स और सब्सिडी नीति में राहत दी जाए।

कालीन उद्योग की आवाज

भदोही और वाराणसी के कालीन कारीगर कहते हैं, हमारी कला की दुनिया में कोई बराबरी नहीं कर सकता, लेकिन अगर 50 फीसदी टैरिफ़ लग जाएगा तो अमेरिकी ग्राहक हमसे मुंह मोड़ लेंगे। सरकार को हमारी लड़ाई वैश्विक मंच पर लड़नी होगी। मतलब साफ है कपास पर अमेरिकी टैरिफ बनाम भारतीय नीति के घनचक्क्र में कालीन और वस्त्र उद्योग पीट रहे है। जबकि भारत की कालीन और टेक्सटाइल इंडस्ट्री विश्व की सबसे पुरानी और विशाल परंपराओं में से एक है। वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर, आगरा, राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु और पंजाब जैसे क्षेत्र आज भी हस्तनिर्मित कालीन, हैंडलूम, और कॉटन टेक्सटाइल्स के लिए जाने जाते हैं। यह उद्योग केवल लाखों लोगों को रोज़गार देता है बल्कि भारत की सांस्कृतिक पहचान और विदेशी मुद्रा अर्जन का भी सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन पिछले कुछ समय से भारत की कपड़ा और कालीन इंडस्ट्री पर दोहरी मार पड़ी है, एक तरफ अमेरिका जैसे देशों का टैरिफ वार, और दूसरी तरफ भारत सरकार की आयात नीति, जिसने कपास शुल्क को 0 फीसदी कर विदेशी कपास को खुला दरवाज़ा दे दिया। भारत में कपड़ा उद्योग कॉटन पर आधारित है, लेकिन जब कपास बाहर से आएगा तोस्वदेशीकपड़ा और विदेशी कपड़े में फर्क करना असंभव हो जाएगा। टेक्सटाइल मिलों को भले ही सस्ता कच्चा माल मिल रहा है, लेकिन लॉन्ग टर्म में किसान और स्थानीय उद्योग कमजोर होंगे। यही कारण है कि कई विशेषज्ञ कहते हैं कि नीति संतुलित होनी चाहिए, ताकि किसान, उद्योग और निर्यात, तीनों को लाभ मिले।

समस्या

ट्रंप टैरिफ से भारतीय कारपेट के ऑर्डर घट गए। वहीं चीन, तुर्की और नेपाल जैसे प्रतिस्पर्धी बाजारों ने फायदा उठाया। अगर यह स्थिति जारी रही, तो भारत का कारपेट उद्योग, जो पहले से ही मशीनमेड विदेशी कालीनों के दबाव में है, और गहरे संकट में फंस जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी नेस्वदेशी अपनाओका नारा दिया। लेकिन जब अमेरिकी कपास को “0 फीसदी शुल्कपर प्रवेश दिया गया तो सवाल उठने लगे कि किसान और स्वदेशी उद्योग की रक्षा कैसे होगी? उपभोक्ता कैसे पहचानेंगे कि जो कपड़ा वे खरीद रहे हैं वह भारतीय किसान का है या अमेरिकी कपास से बना हुआ? क्या यह नीति कॉर्पोरेट लॉबी के दबाव में बनाई गई है? जबकि केषि के  बाद टेक्सटाइल कारपेट उद्योग भारत में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है. यदि निर्यात घटता है, तो रोजगार संकट और बढ़ेगा। बुनकरों के पलायन और कुटीर उद्योगों के बंद होने का खतरा है।

नीति में सुधार की जरूरत

भारतीय किसान और उद्योग को बचाने के लिए कुछ कदम ज़रूरी हैं

1. आयात नीति पर पुनर्विचार : अमेरिकी कपास पर फिर से शुल्क लगाया जाए।

2. सब्सिडी प्रोत्साहन : निर्यातकों को अमेरिका जैसे बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए विशेष पैकेज दिया जाए।

3. बीज बाजार पर नियंत्रण : अवैध बीजों की बिक्री पर सख्ती और भारतीय बीज कंपनियों को प्रोत्साहन।

4. ब्रांडिंग और प्रमाणन : “मेड विद इंडियन कॉटनजैसा टैग शुरू किया जाए।

5. एफटीए (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) : अमेरिका, यूरोप और ब्रिटेन के साथ संतुलित व्यापार समझौता किया जाए। यहां जिक्र करना जरुरी है कि भारत की कपास से बनी बनारसी साड़ी हो या भदोही का कालीन, ये सिर्फ वस्त्र या सजावट की चीज़ें नहीं हैं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर, अर्थव्यवस्था और करोड़ों परिवारों का जीवन-यापन हैं। आज अमेरिकी टैरिफ और 0 फीसदी आयात शुल्क की मार से यह उद्योग असमान व्यापार युद्ध का शिकार है। यदि सरकार ने तुरंत संतुलित नीति नहीं बनाई तो भारत सिर्फ अपने किसानों और बुनकरों को खो देगा, बल्किविश्वगुरुबनने का सपना भी डगमगा जाएगा। सवाल यही है : क्या भारत अमेरिकी दबाव में चलेगा या अपने किसान और उद्योग की रक्षा करेगा?

बीज बाजार की अव्यवस्था

कपास संकट का दूसरा पहलू बीज बाजार से जुड़ा है। इस बार अनुमान है कि करीब एक करोड़ पैकेट अवैध एचटी बीज देशभर में बेचे गए, जबकि वैध कंपनियों के करोड़ों पैकेट गोदामों में पड़े रह गए। इसका असर सीधा किसानों की उपज और गुणवत्ता पर पड़ेगा। सरकारी तंत्र केवल इस अवैध बिक्री को रोकने में विफल रहा है, बल्कि लाइसेंसधारी कंपनियों को भी असुरक्षा की स्थिति में छोड़ दिया है। परिणामस्वरूप किसान यह नहीं समझ पा रहे कि सही बीज कौन सा है और उनका भविष्य किस दिशा में जाएगा।

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