विश्व मंच पर आत्मनिर्भर भारत का ब्रांड ‘हैंडमेड कारपेट भदोही’
इंडिया कारपेट एक्सपो 2025 ने इस वर्ष चौथी बार भदोही में अपने आयोजन से एक नया इतिहास रचा। अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देशों से आए सैकड़ों विदेशी खरीदारों ने भारत के हस्तनिर्मित कालीन उद्योग में गहरी रुचि दिखाई। कार्पेट एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (सीईपीसी) द्वारा आयोजित इस मेले में लगभग 150 से अधिक भारतीय निर्यातक कंपनियों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी और जयपुर जैसे केंद्रों के बुनकरों ने अपनी कृतियों से दुनिया को दिखाया कि भारत की पारंपरिक कला आधुनिकता से कदमताल कर सकती है। मतलब साफ है ‘सिटी ऑफ कार्पेट्स’ में बुन रही है परंपरा, कला और आत्मनिर्भर भारत की कहानी. भदोही की बुनकर बस्तियां आज भारत की आत्मनिर्भरता की प्रयोगशाला हैं। यहां महिलाएं भी करघों पर बैठी हैं, युवा डिज़ाइनिंग सॉफ्टवेयर सीख रहे हैं, और बुज़ुर्ग पुराने पैटर्नों को डिजिटल रूप दे रहे हैं। कभी जिन गलियों में श्रम था पर सम्मान नहीं, अब वहाँ श्रम गौरव है। कभी जिन करघों की आवाज़ गरीबी की पुकार लगती थी, आज वही करघे समृद्धि का संगीत बजा रहे हैं। हर पैटर्न में जीवन की जटिलता है, हर रंग में संतुलन की शिक्षा है। यहां का हर धागा भारतीय दर्शन का प्रतीक है, कर्म, श्रम और समर्पण का। जब कोई विदेशी इसे अपने ड्रॉइंग रूम में बिछाता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उसके पैरों के नीचे कोई बुनकर का सपना सांस ले रहा है
सुरेश गांधी
गंगा के किनारे
बसा एक शांत शहर,
जहां हवा में ऊन
की गंध है, करघों
की थाप है और
बुनकरों की आंखों में
सपनों का रंग। यही
है भदोही, वह नगरी, जहां
धागे बोलते हैं, रंग गाते
हैं और हर कालीन
भारत की आत्मा की
कहानी कहता है। सदी
दर सदी इस भूमि
ने कला को केवल
जिया नहीं, उसे जन-जन
की सांसों में पिरो दिया।
यही वह भूमि है
जिसने दुनिया को सिखाया कि
सुंदरता केवल चित्रों में
नहीं, बल्कि श्रम, साधना और संस्कृति के
संगम में होती है।
यही वजह है भारत
की धरती पर जब
सुई और धागे से
संस्कृति का ताना-बाना
बुना जाता है, तो
उसमें भदोही की पहचान स्वर्णाक्षरों
में दर्ज होती है।
गंगा-वरुणा के दोआब में
बसा यह शहर न
केवल कालीनों का उत्पादन करता
है, बल्कि भारत की आत्मा
को बुनता है। “सिटी ऑफ
कार्पेट्स” के नाम से
प्रसिद्ध भदोही में इस वर्ष
आयोजित 49वां इंडिया कारपेट
एक्सपो 2025 उस गौरवशाली परंपरा
का उत्सव बन गया है,
जिसने स्थानीय बुनकरों की कला को
अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है।
एशिया के सबसे बड़े
हस्तनिर्मित कालीन प्रदर्शनी मंच पर जब
भदोही की बुनाई के
रंग बिखरे, तो विदेशी खरीदार
भी भारत की मिट्टी
में रची इस अद्भुत
शिल्पकला के कायल हो
उठे। मेक इन इंडिया,
वोकल फॉर लोकल और
आत्मनिर्भर भारत के सूत्रों
को साकार करती यह कला
अब डिजिटल युग में नए
आयाम गढ़ रही है।
कहा जा सकता है
यह आयोजन केवल व्यापार का
मेला नहीं, बल्कि कला का महाकुंभ
बन गया। एशिया का
यह सबसे बड़ा हस्तनिर्मित
कालीन उत्सव भदोही की मिट्टी में
जन्मे उस गौरव का
प्रतीक बन उठा, जिसने
“मेक इन इंडिया” के
स्वप्न को यथार्थ का
आकार दिया। दूर-दूर से
आए विदेशी प्रतिनिधि जब इन करघों
से निकले कालीनों पर झुके, तो
उन्हें भारत की संस्कृति,
करुणा और करघों की
खामोश भाषा का सौंदर्य
देखने को मिला।
जहां एक ओर
भदोही की बुनाई परंपरा
का प्रतीक है, वहीं आज
यह शहर तकनीकी नवाचार
का केंद्र भी बन रहा
है। डिज़ाइनिंग सॉफ़्टवेयर, कंप्यूटर-एडेड पैटर्न, और
ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स ने बुनकरों को
सीधे वैश्विक बाज़ार से जोड़ा है।
सरकार की ‘वन डिस्ट्रिक्ट
वन प्रोडक्ट’ (ओडीओपी) योजना और मेक इन
इंडिया मिशन के तहत
भदोही को विशेष प्रोत्साहन
मिला है। इससे न
केवल निर्यात बढ़ा है, बल्कि
हज़ारों परिवारों को स्थायी आजीविका
भी मिली है। मतलब
साफ है भदोही के
कालीन केवल एक उत्पाद
नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक
कूटनीति का हिस्सा हैं।
ये कालीन जब यूरोप या
अमेरिका के ड्रॉइंगरूम में
बिछते हैं, तो उनके
ताने-बाने में भारतीय
संस्कृति की आत्मा बसी
होती है। यही कारण
है कि विदेशी बाजार
में “इंटरनेशनल मार्केट या यूं कहे
डोमोटेक्स” आज गुणवत्ता और
विश्वसनीयता का प्रतीक बन
गया है।
देखा जाएं तो
भदोही की बुनकर बस्तियों
में हर घर एक
कला-विद्यालय है, जहां धैर्य,
श्रम और सृजन का
पाठ पढ़ाया जाता है। यह
शहर दिखाता है कि स्थानीय
कारीगरी में ही वैश्विक
अर्थव्यवस्था का भविष्य छिपा
है। इंडिया कारपेट एक्सपो जैसे आयोजन न
केवल व्यापार के अवसर हैं,
बल्कि भारत की रचनात्मक
आत्मा का उत्सव भी
हैं। भदोही के कालीनों की
यह बुनावट आने वाले वर्षों
में भी आत्मनिर्भर भारत
के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास
का अभिन्न सूत्र बनी रहेगी। जहाँ
हर करघा भारत की
आत्मा बुनता है, और हर
धागा कहता है, यह
मिट्टी अभी भी जिंदा
है...सीईपीसी के प्रशासनिक सदस्य
रहे उमेश कुमार गुप्ता
का कहना है कि
भदोही में बुनाई कोई
व्यवसाय नहीं, यह एक पूजा
है, एक ऐसी साधना,
जिसमें हर बुनकर ईश्वर
के स्पर्श को अपने धागों
में खोजता है। यहां का
हर घर एक छोटा
सा शिल्पालय है। बच्चे धागों
से खेलते हैं, महिलाएं रंगों
को पहचानती हैं, और वृद्ध
बुनकर पुराने पैटर्नों में नई कल्पना
का रंग भरते हैं।
यहाँ बुनाई के
साथ धैर्य, श्रद्धा और परिश्रम का
रिश्ता है। हर करघे
पर गूँजती थाप दरअसल एक
प्रार्थना है, “हे विधाता,
इस धागे को इतना
मजबूत बना दे कि
इसमें जीवन की बुनावट
टिक सके।” मतलब साफ है
भदोही का कालीन केवल
एक सजावटी वस्तु नहीं, यह भारत के
इतिहास, संस्कृति और लोककला का
सजीव दस्तावेज़ है। इसमें मुग़ल
काल की नक्काशी की
झलक है, फारसी प्रभाव
की बारीकी है और भारतीय
लोकजीवन की आत्मीयता है।
ऊन, रेशम और सूती
धागों से बने ये
कालीन सर्दी की ऊष्मा से
कहीं अधिक दिल की
गर्मी देते हैं। एक
बुनकर जब करघे पर
बैठता है, तो वह
केवल रंग नहीं भरता,
वह अपने जीवन की
कहानी लिखता है। हर गाँठ
में उसका अनुभव, हर
पैटर्न में उसका विश्वास
और हर डिजाइन में
उसकी आशा समाहित होती
है।
वासिफ अंसारी कहते है एक्सपो
2025 ने भदोही को फिर से
विश्व मानचित्र पर केंद्र में
ला खड़ा किया। कार्पेट
एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (सीईपीसी) द्वारा आयोजित इस चार दिवसीय
आयोजन में विश्व के
65 से अधिक देशों से
आए खरीदारों ने भारतीय हस्तनिर्मित
कालीनों की कला को
नमन किया। भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी और जयपुर के
बुनकरों ने अपने-अपने
बूथों पर वह जादू
रचा, जहाँ परंपरा और
आधुनिकता हाथ मिला रहे
थे। अमेरिका से लेकर जर्मनी
तक के प्रतिनिधि जब
भारतीय कालीनों के बूथों पर
पहुँचे, तो उनकी आँखों
में केवल व्यापार नहीं,
बल्कि विस्मय था, कैसे एक
साधारण गाँव का बुनकर
इतनी अद्भुत कलाकृति रच सकता है!
एक विदेशी खरीदार ने कहा “हम
कालीन खरीदने आए थे, पर
लौटते वक्त अपने साथ
कहानियां ले जा रहे
हैं।” यही तो भदोही
की असली पहचान है।
आज भदोही केवल
परंपरा का प्रहरी नहीं,
नवाचार का केंद्र भी
है। कंप्यूटर एडेड डिज़ाइन, ऑनलाइन
ऑर्डर सिस्टम, और डिजिटल मार्केटिंग
प्लेटफॉर्म्स ने यहाँ के
बुनकरों को सीधे वैश्विक
उपभोक्ता से जोड़ा है।
‘वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट’ योजना
ने इस जिले की
तकदीर बदली है, सरकारी
मदद, डिज़ाइन इनोवेशन सेंटर, और प्रशिक्षण कार्यक्रमों
ने बुनकरों को नया आत्मविश्वास
दिया है। अब वही
हाथ जो कभी केवल
करघा चलाते थे, मोबाइल से
डिज़ाइन भेजते हैं, और वही
घर जो कभी गाँव
के चौपाल थे, आज मिनी-वर्कशॉप्स बन चुके हैं।
भदोही की बुनकर बस्तियाँ
आज भारत की आत्मनिर्भरता
की प्रयोगशाला हैं। यहाँ महिलाएं
भी करघों पर बैठी हैं,
युवा डिज़ाइनिंग सॉफ्टवेयर सीख रहे हैं,
और बुज़ुर्ग पुराने पैटर्नों को डिजिटल रूप
दे रहे हैं। कभी
जिन गलियों में श्रम था
पर सम्मान नहीं, अब वहाँ श्रम
गौरव है। कभी जिन
करघों की आवाज़ गरीबी
की पुकार लगती थी, आज
वही करघे समृद्धि का
संगीत बजा रहे हैं।
भदोही का कालीन केवल
सजावट नहीं, यह संवाद है।
यह बताता है कि कला
कभी मरती नहीं, वह
केवल रूप बदलती है।
हर पैटर्न में जीवन की
जटिलता है, हर रंग
में संतुलन की शिक्षा है।
यहाँ का हर धागा
भारतीय दर्शन का प्रतीक है,
कर्म, श्रम और समर्पण
का। जब कोई विदेशी
इसे अपने ड्रॉइंग रूम
में बिछाता है, तो उसे
पता भी नहीं चलता
कि उसके पैरों के
नीचे कोई बुनकर का
सपना सांस ले रहा
है। भदोही ने दुनिया को
यह सिखाया कि आत्मनिर्भरता केवल
उद्योग नहीं, एक दृष्टि है,
वह दृष्टि जो मिट्टी से
सोना बनाना जानती है। यहाँ का
हर बुनकर इस बात का
प्रमाण है कि भारत
की असली ताकत मशीनों
में नहीं, बल्कि मनुष्यों के हाथों में
है। इंडिया कारपेट एक्सपो 2025 भले कुछ दिनों
में समाप्त हो जाएगा, लेकिन
भदोही की बुनाई से
जो संदेश निकला है, वह आने
वाले दशकों तक गूंजेगा, भारत
की आत्मा अभी भी करघों
पर सांस लेती है।






No comments:
Post a Comment